अंजली
मीडिया से अलक्षित आदिवासी स्त्री-छवि और मीडिया द्वारा स्टीरिओटाइप का विश्लेषण कर रही हैं अंजली
स्त्री को वैश्विक स्तर पर एक इकाई माना गया है जिसका समाज व्यवस्थाएं सर्वाधिक शोषण करती है। स्त्री को तथाकथित सभ्य और कम विकसित समाज दोनों जगह पर एक अलग तरह का व्यवहार भुगतना पड़ता है। समाज के स्तर पर, खानपान में और आत्मसम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए प्रदत्त मूल अधिकारों में भी स्त्री से भेदभाव बरता जाता है। यद्यपि भारतीय संविधान देश के नागरिक को लिंग, जाति, धर्म आदि के भेदों से परे मूलभूत सुविधाएँ प्रदत्त कराने को सुनिश्चित करता है और मूल अधिकार प्रदान करता है। किन्तु इन प्रावधानों के होने के बावजूद भी स्त्री समुदाय पीड़ित अवस्था में है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उत्थान के लिए संविधान में किए गए प्रावधानों के बावजूद भी इन वर्गों से सम्बन्ध रखने वाली स्त्रियों को अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में तरह-तरह की यातनाओं का सामना करना पड़ता हैं। ऐसा माना जाता है कि मीडिया के उदय से लोकतंत्र को लागू करने में सहायता मिलती है और जनतंत्र मजबूत होता है। आदिवासी समुदाय भारतीय सन्दर्भ में जातीय आधार पर बटे समुदाय से अलग है। आदिवासी समुदाय का अपना जीवन दर्शन है, जिसमें प्रकृति को सबका मूल माना गया है। इसलिए आदिवासी समुदाय में लिंग आधारित भेद उतने जड़ रूप में विद्यमान नहीं है जितने अन्य समुदायों में व्याप्त है। किन्तु जब से आदिवासी क्षेत्रों में बाहरी समुदाय का हस्तक्षेप बढ़ा है, तब से आदिवासी जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। इसके परिणाम के रूप में हम देखते है कि आदिवासी स्त्री और पुरुष किस प्रकार उत्पीडित हो रहे है और इस उत्पीड़न के विरोध में लड़ रहे हैं। बात यदि आदिवासी स्त्री की करें तो हम पाते हैं कि आदिवासी स्त्री की छवि हमें आज विभिन्न रूपों में दिखाई दे रही है।
आदिवासी समुदाय में बाहरी संपर्कों के दबाव के कारण अलग-अलग तरह की समस्याएँ झेलती स्त्री, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल-कूद में भागीदारी करती आदिवासी युवती को मीडिया अपनी रिपोर्ट में कितना स्थान देती है। आदिवासी स्त्री को किस रूप में प्रस्तुत करती है, विभिन्न क्षेत्रों में उसके योगदान को किस प्रकार रेखांकित करती है। आदिवासी स्त्री की देह को किस प्रकार प्रस्तुत करती है और उसके प्रति क्या नजरिया रखती है। मीडिया के बारे में आदिवासी स्त्री की छवि या तो एक रोमांटिसिज्म की है या वस्तुतः निकृष्ट जबकि जरुरत यह है कि आदिवासी की वास्तविक मानवीय छवि को मीडिया में दिखाया जाए, उसकी समस्याओं और संघर्षों पर बात की जाए और उसका हल निकालने का रास्ता सुझाया जाए। मीडिया में आदिवासी स्त्री की प्रस्तुति- मांसल देह के रूप में, राज्यद्वारा या अन्य वर्चस्वशाली समुदायों द्वारा आदिवासी स्त्री का शोषण होने पर उसकी खबर को किस रूप में प्रस्तुत करती है। उससे भी आदिवासी स्त्री की मीडियाकरण की छवि निर्मित होती है। मानव तस्करी की शिकार स्त्री के रूप में, आदिवासी स्त्री की खेल में परफोर्मेंस के आधार पर उसकी छवि, अपने और राष्ट्र के हित में जो छवि आदिवासी स्त्री की है उसको मीडिया दिखाता है जैसे खेल प्रतिस्पर्धाओं में जीतने पर कितना ध्यान उन पर देता है।
इन सब मुद्दों पर मीडिया का क्या स्टैंड है इसके माध्यम से हम देखने की कोशिश करेंगे कि आदिवासी स्त्री का मीडियाकरण कैसे किया गया है। आदिवासी समुदाय वस्तुतः जल, जंगल और जमीन पर पोषण करने वाले समुदाय है। जिनका अपना प्रकृति धर्म और अखड़ा समुदाय है। किन्तु वर्णव्यवस्था आधारित ग्रंथों में आदिवासी स्त्री और पुरुष दोनों को गैर-मानवीय और आर्य सौन्दर्य प्रतिमानों से इतर दिखाया जाता है। आज मीडिया जो मनोरंजन का दायित्व भी फिल्मों और नाटकों के माध्यम से वहन किए हुए है, वह इन धर्मशास्त्रों आधारित जड़ताओं को तोड़ने की बजाय मजबूत कर रहा है। मात्र भव्यता दिखाने के लोभ में आदिवासी स्त्री को अधिक मिथकीय और अपनी कल्पनाके रूप में प्रचारित कर रहा है। जिसके नख-केश-त्वचा इत्यादि मानवीय न होकर बेड़ोल रूप में दिखाए जाते है। ये सब बाहरी रूप-रंग के पैमाने आदिवासी स्त्री को गैर-आदिवासी समाज की नजरों में आभासी और गैर-यथार्थमयी बनाता है। मीडिया और आदिवासी विषय पर चर्चा करते समय हरिराम मीणा अपनी किताब आदिवासी दुनिया में कुछ सवाल मीडिया की भूमिका पर उठाते है जैसे उनके सवाल हैं “मुख्यधारा के जन संचार माध्यम अर्थात मास मीडिया में आदिवासियों को कितना स्पेस दिया जाता रहा है? इस सवाल का जवाब तलाश करते वक्त यह मुद्दा भी सामने आता है कि उस दिए गए स्पेस में आदिवासियों के प्रति कहाँ तक यथार्थ के निकट है? दूसरा सवाल यह उठा है कि आदिवासियों का अपना मीडिया कहाँ तक विकसित हुआ है चाहे उस मीडिया में योगदान देने वाले व्यक्ति आदिवासी समुदाय के सदस्य हों या आदिवासी जीवन में रूचि रखने वाले गैर-आदिवासी लोग?” मीडिया के सन्दर्भ में बात करते समय हमें यह भी ख्याल रखना होगा कि यहाँ जन संचार के सभी माध्यमों को सम्मिलित किया जा रहा है जैसे प्रिंट मीडिया, अखबार और पत्रिकाएं, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिसमें दूरदर्शन और सिनेमा और साथ ही साथ खबरी चैनल भी सम्मिलित है। इन्टरनेट जैसी सुविधा होने के कारण बहुत सारे अन्य सोशल नेटवर्किंग संचार माध्यमों को भी शामिल किया जाता है जैसे ऑनलाइन पत्रिका, न्यूज़ पोर्टल, ब्लॉग, फेसबुक-ट्विटर और अन्य डिजिटल सामग्री भी शामिल है।
इन सब संचार माध्यमों में आदिवासी स्त्री की छवि देखने के लिए यह आधारभूत जानकारी होना भी जरुरी है कि इन संचार माध्यमों में कितने बुद्धिजीवी शामिल है, उनकी मान्यताएं और विश्वास क्या है यानी वे किस समुदाय से आ रहे है। जिन समुदायों से वे आ रहे है क्या मीडिया में आकर वे अपनी पूर्व प्रदत्त विचार शैली से इतर मीडिया सिद्धांत और नैतिकता के अनुसार पत्रकारिता करते है या नहीं। भारत में खासकर हिन्दी मीडिया में एथिक्स और मोरलिटी का बहुत अभाव है। जिसके कारण आदिवासी स्त्री की मीडिया में गलत छवि पेश की जाती है। अख़बार और पत्रिकाओं में निरंतर ऐसी खबरे छपती रहती है जिसमें मानव तस्करी के मामलें होते हैं किन्तु इन मामलों की पृष्ठभूमि क्या है इसको मीडिया नहीं खंगालता। लड़की और स्त्री इन मानव तस्करी की शिकार होती है जिन्हें आदिवासी क्षेत्रों जीविकोपार्जन का लोभ देकर ऐसे क्षेत्रों में लाया जाता है जहाँ स्त्री का लिंगानुपात कम होता है। ऐसी जगहों पर लड़कियों को गलत तरीके से पुरुषों को बेच दिया जाता है। ऐसे मामलों में मीडिया अपनी सिर्फ इतनी ही भूमिका का निर्वहन करके छोड़ देता है कि अमुक जगह इतनी आदिवासी जगहों की स्त्रियों को तस्करों से छुड़ाया गया आदि। इस तस्करी के पीछे की जमीन क्या है इस पर बात नहीं की जाती कि किस प्रकार आदिवासी क्षेत्रों की जमीन को विभिन्न भारी उद्योग-धंधों के लिए आदिवासियों से बलपूर्वक राज्य या माफिया सरगना ले लेते हैं। जिसका परिणाम होता है विस्थापन और जीविकोपार्जन के लिए एवं बसने के लिए नई जमीन की तलाश करना। इससे आदिवासी परिवार के विभिन्न लोग एक-दूसरी जगह पर जाने के लिए बाधित होते है। जिसमें से कई बार आदिवासी स्त्रियों को काम दिलाने के बहाने से गैर-आदिवासी क्षेत्रों से गए पुरुष ही आदिवासी स्त्रियों का घरेलू शोषण और तस्करी करते है। इन मुद्दों पर तथाकथित मीडिया में चुप्पी साध ली जाती है। गैर-सरकारी संगठनों के प्रयासों को भी अधिकतर दरकिनार कर दिया जाता है। जिससे यह होता है कि गैर-आदिवासी समाज में आदिवासी स्त्री की छवि इस प्रकार पीड़ित और शोषित के रूप में बनती तो है लेकिन स्त्री के प्रति मानवीय छवि मीडिया बनाने में असफल रहता है। यदि हालिया समय में आदिवासी स्त्री से जुड़े कुछ मुद्दों की मीडिया में प्रस्तुति पर बात की जाए तो देखा जा सकता है कि मीडिया जनतंत्र की ओर है या राज्य की ओर। आदिवासी क्षेत्रों में जब भी सैन्य बल या अर्ध सैन्य बल जाते है, तब वे वहाँ के गाँव तहस-नहस करते है, किसी आदिवासी स्त्री-पुरुष को नक्सली के नाम पर नृशंस हत्या करके उसे नक्सली कहकर प्रचारित करते है और आदिवासी लड़कियों और स्त्रियों के साथ जबरदस्ती यौन अपराध करते है। आदिवासी समुदाय द्वारा प्रतिकार करने पर उन्हें फंसाकर क़ानूनी शिकंजों में बाँध देते है। आदिवासी क्षेत्रों में हिंसा के बहुत सारे मुद्दे इसी तरह घटते है। यहाँ मीडिया इस तरह की रिपोर्टिंग करता है जिसमें राज्य और उसकी छवि को साफ तौर पर बचाने की कोशिश की जाती है और उल्ट आदिवासी स्त्री को ही नक्सली स्त्री बनाकर उसके साथ हुए हर वीभत्स तरीके से किए गए यौनाचार को देश हित एवं सुरक्षा के नाम पर ढँकने की कोशिश की जाती है। आदिवासी क्षेत्र में अध्यापन का कार्य करने वाली सोनी सोरी और सन् 2016 में सुकमा जिले के गोमपाड़ गाँव की आदिवासी युवती मडकम हिडमे के साथ सैन्यबलों द्वारा किया गया व्यवहार और उसकी मीडिया द्वारा की गई पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग आदिवासी स्त्री के मीडियाकरण का स्पष्ट उदाहरण है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर सोना झरिया मिंज |
समयांतर के फरवरी, 2017 के अंक में रामू द्वारा लिखे गए लेख ‘मानवाधिकारों का हनन और आदिवासी’ में हम स्पष्टतया देख सकते हैं कि किस प्रकार राज्य और मीडिया आदिवासी स्त्री के लिए निष्पक्ष न्याय के पथ में बाधा पहुँचाते है। जो पत्रकार एवं कानूनी सहायता प्रदत्त कराने वाले समूह है और इन अपराधों पर से पर्दा उठाने का प्रयास करते हैं तो उन्हें देश के हित के खिलाफ काम करने वाले लोगों के रूप में राज्य संरक्षण प्राप्त मीडिया चित्रित करती है। उन्हें देशद्रोही, माओवादी-नक्सली ठहराने की कोशिश की जाती है और जेलों में अपराधियों की तरह रखा जाता है। रामू अपने इस लेख में लिखते हैं “भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा अंजाम दिएगये ऐसे ही जघन्य अपराधों के एक छोटे से अंश की पुष्टि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने की है, शायद यह स्वीकृति गिनी-चुनी महिलाओं को ही सही न्याय दिलाने की दिशा में एक छोटा कदम साबित हो।” एन. एच. आर. सी. ने 7 जनवरी 2017 की अपनी रिपोर्ट में माना कि “प्रथम दृष्टया यह पाया गया कि 16 महिलाओं के साथ बलात्कार, यौन हिंसा और शारीरिक प्रताड़ना हुई है और इसे छतीसगढ़ राज्य पुलिस बल के जवानों ने अंजाम दिया है।” छत्तीसगढ़ में 11 जनवरी से 14 जनवरी 2016 के बीच बीजापुर जिले के बेल्लाम लेंद्रा (नेंद्रा) गाँव की 13, सुकुमा जिले के कुन्ना गाँव की छह और दांतेवाडा जिले के छोटेगडम गाँव की महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों ने सामूहिक बलात्कार किया था।” “11 और16 मार्च 2011 की घटना, जिसमें दंतेवाड़ा जिले के 250 आदिवासी घरों को केंद्रीय और राज्य सुरक्षा बलों द्वारा फूँक दिया गया था, इस घटना की जांच सीबी आई द्वारा कराने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया था। इस जांच में यह पाया गया कि घरों को जलाने का काम सुरक्षा बलों ने ही किया था, वहीं जांच के दौरान इस बात की भी पुष्टि हुई थी कि तीन महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया था।” “8 जनवरी 2016 को दांतेवाडा थाने के पदम गाँव की 14 वर्ष की लड़की, जब अपनी किराने की दुकान बंद कर रही थी, उसी समय एक के रिपुब का एक जवान आया और उसके साथ पूरी रात बलात्कार किया।” “बलात्कार की शिकार एक पीड़िता ने इंडियन एक्सप्रेस संवाददाता को बताया कि ‘वह अदालत गई। अदालत के दरवाजे पर खड़े पुलिस वालों ने उसे अंदर ही नहीं जाने दिया, लोग आते-जाते रहे हम वापस आ गए।’” पत्रिका में जाहिर इन सब घटनाओं को पढ़कर हम यह सवाल उठा सकते हैं कि मुख्यधारा का मीडिया क्यों इन आदिवासी स्त्रियों के शोषण पर मौन है और यही मुख्यधारा का मीडिया बेंगलुरु और दिल्ली में घटित स्त्री शोषण की घटनाओं पर सचेत रहता है लेकिन आदिवासी स्त्री पर लम्बे समय से हो रहे निरंतर शोषण पर कोई आवाज़ नहीं उठाता। यह मीडिया की यह चयनित रिपोर्टिंग बताती है कि शोषित के लिए न्याय उठाने के रास्ते कितने कठिन और संकीर्ण है। रामू अपनी रिपोर्ट में जिस एक ओर बात की तरह ध्यान दिलाते हैं वह है कि आदिवासी स्त्री के सवालों को नक्सलवादी, माओवादी बताकर किनारे कर दिया जाता है लेकिन कोई मीडिया आदिवासी स्त्री के हक में बात उठाते वक्त यह नहीं बताता कि आदिवासी इलाकों में जहाँ नक्सलवाद या माओवाद नहीं है वहाँ के आदिवासी भी अपने जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं। और ऐसा वे अपनी संविधान प्रदत्त पांचवीं अनुसूची और वन अधिकार अधिनियम के तहत कर रहे हैं। आदिवासी स्त्री की लड़ाई मुख्यत: अपने जीविको पार्जन के साधनों के संरक्षण की है, जल-जंगल-जमीन को बचाने की है लेकिन बाहरी लोगों के प्रवेश ने और सैन्यबलों ने उनके आत्मसम्मानपूर्वक जीने के अधिकार को बाधित किया है। जिसकी छवि मीडिया में कुछ इस तरह से प्रस्तुत की जाती है जिससे आदिवासी स्त्री को अपनी न्याय की लड़ाई में कोई मदद नहीं मिलती। रामू की मानवाधिकारों के हनन पर लिखी गई इस रिपोर्ट में यह सवाल भी उठाया गया है कि आदिवासी महिलाओं के साथ हुए यौनशोषण पर देश की मुख्यधारा की मीडिया चुप्पी की रणनीति (थ्योरी ऑसायलेंस) अपनाते हुए चुप्पी साधे रहती है क्योंकि कोर्पोरेट द्वारा संचालित और पोषित मुख्यधारा का मीडिया राज्य के साथ खड़ा हुआ है न कि अपने नागरिकों के साथ। इसलिए इन सब मीडिया के नजरियों से देश का आदिवासी और देश की आदिवासी महिलाओं की ऐसी छवि तैयार की जा रही है जिसमें उन्हें देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया जा रहा है और उन्हें इस आधार पर नेस्तानाबूद किया जा रहा है। इस छवि के रूप में आदिवासी स्त्री का मीडियाकरण देश की नागरिकता के लिए खतरा है जिसमें नागरिकता का अधिकार भी चयनित और सुविधाभोगी तबकों को ही उपलब्ध है।
हॉकी के लिए ध्यानचंद खेल सम्मान से सम्मानित सुमारी टेटे |
छोटे स्तर पर बहुत कम पत्रिकाएँ ऐसी है जो दलित-आदिवासी जीवन की वास्तविक सच्चाइयों से पाठक को रूबरू कराती है। ‘गोंडवाना सन्देश’ और ‘दलित आदिवासी दुनिया’ ऐसे ही प्रिंट मीडिया के लघु प्रयास हैं जिनके माध्यम से आदिवासी समाज की स्त्रियों के जन-जीवन से संघर्ष और लड़ाई की वास्तविक छवि जनसमुदाय तक पहुँच पा रही हैं। लेकिन मुख्यधारा के मीडिया में कोई भी प्रयास आदिवासी स्त्री की छवि को सकारात्मक रूप में नहीं जाहिर करता। कभी कभार कुछ घटनाओं में ही आदिवासी जीवन को सीमित कर दिया जाता है जिसका कोई नतीजा आदिवासियों के हक में नहीं निकलता। जैसे ओडिशा के कालाहांडी जिले के भवानीपटना में एक व्यक्ति अपनी पत्नी के शव को 12 किलोमीटर बांधकर और कंधे पर रखकर लाने की घटना को मुख्यधारा के मीडिया ने खूब भुनाया लेकिन उसके बावजूद कभी आदिवासी स्त्री के स्वास्थ्य की स्थिति का जायजा लेने का प्रयास नहीं किया। इसी तरह गेट्स फाउंडेशन ने सर्वाइकल कैंसर की दवाओं का आदिवासी स्त्रियों पर प्रयोग किया, जिस पर मीडिया महकमें में कोई खास हलचल नहीं हुई। इनसब घटनाओं के माध्यम से आदिवासी स्त्री की मीडिया में बन रही छवि का मोटा-मोटा अंदाजा हो जाता है कि उसकी राष्ट्र निर्माण में क्या स्थिति है।
इसी तरह की विस्तृत रिपोर्ट समयांतर के अगस्त 2016 के अंक में संजय पराते, विनीत तिवारी, अर्चना प्रसाद और नंदिनी सुंदर की भी प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है ‘गैर जिम्मेदार युद्ध में पिसते छत्तीसगढ़ के आदिवासी’ इस रिपोर्ट में आदिवासी स्त्री के साथ सुरक्षा बलों द्वारा की गई यौन शोषण और हत्या का जिक्र है जिसके अनुसार चुचकुंटा गाँव की एक नवजवान औरत फुल्लो के साथ 17-18 जनवरी 2016 को, जब वह एक सिंचाई तालाब पर काम कर रही थी, सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया। उस पर पुलिस ने नक्सली होने का इल्जाम लगाया हालाँकि ग्रामीण इस बात से इंकार कर रहे थे। इसी तरह अंतागढ़ के गाँव में बीएसएफ, एसपीओ द्वारा बलात्कार और यौन शोषण की घटना की भी रिपोर्टिंग इसमें की गई है, जिसके माध्यम से हम जान सकते है कि ऐसी घटनाएँ कितने बड़े स्तर पर घटती है और उनकी रिपोर्टिंग कहीं भी मुख्यधारा की प्रिंट और मास मीडिया में रिपोर्टिंग नहीं की जाती। और अधिक विस्तार से जानने के लिए समयांतर के इस अंक को देखा जा सकता है।
आदिवासी स्त्री की जो एक और छवि हम देखते है वह है खेलों में उनकी सक्रिय भागीदारी। आदिवासी समुदाय से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल-कूद में भागीदारी करने वाली आदिवासी युवती को ही कितना स्थान देता है। मयूरभंज, उड़ीसा की 24 वर्षीय पूर्णिमा हेम्ब्रेम ने अभी तुर्कमेनिस्तान में आयोजित 5वें ‘एशियन इंडोर गेम’ में पेंटाथलॉन खेल प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक प्राप्त किया। इसी तरह हॉकी खेल में भी आदिवासी युवतियों की प्रस्तुति सराहनीय है लेकिन हॉकी को राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद मीडिया में क्रिकेट की तुलना में हॉकी को कम कवरेज दी जाती है। चूँकि हॉकी में व्यापारिकता और ग्लैमर का अभाव है, जो कि बाजार के नियंत्रक और नियंता भी काफी हद तक है इसलिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सिर्फ एक हैडलाइन तक ही आदिवासी स्त्री खिलाडियों की बुलंदियां सिमट कर रह जाती है। प्रिंट मीडिया के सहारे इक्का द-
क्का राष्ट्रीय व स्थानीय अख़बारों और पत्रिकाओं में ही क्षेत्रीय अभिमान के द्वारा आदिवासी स्त्री की खिलाडी की छवि सामने आती है।
आदिवासी वीमेन एक्टिविस्ट |
ऐसी ही कहानी है असुंता लकड़ा की, जो हॉकी खिलाडी है लेकिन बिरले ही हममें से उनका नाम जानते है। नीचे दी गई बातचीत जोहार झारखण्ड के फेसबुक पृष्ठ से ली गई है जिसे एक व्यक्ति ने अपने अनुभव के माध्यम से साझा किया है| किस तरह खेलों में भी आदिवासी स्त्री की उपेक्षा सिर्फ मीडिया ही नहीं बल्कि सरकार भी करती है| “क्या आप इन्हें पहचानते हैं? एक नजर में शायद आप भी इन्हें न पहचान पायें, लेकिन नाम और इनके काम का जिक्र आते ही आप इन्हें जरूर पहचान जायेंगे। ये हैं असुंता लकड़ा। ओलंपिक खेलों के लिए क्वालिफाइंग इंडियन टीम की कप्तान और झारखंड के सिमडेगा से आने वाली हॉकी सनसनी। दोपहर में रांची के हटिया स्थित डीआरएम ऑफिस के बाहर यूं ही पैदल चलते हुए मिल गयीं। शुरुआत में मैं भी उन्हें एक आम आदमी समझ आगे बढ़ चला था, लेकिन फिर गौर किया, तब समझा कि ये तो हमारी अपनी असुंता हैं। झिझकते हुए उनसे सवाल किया- आप असुंता हैं न? सरल तरीके से उन्होंने जवाब दिया- हां। फिर सवाल कौंधा और पूछ डाला, आप इतनी बड़ी हॉकी खिलाड़ी और आप ऐसे ही घूम रही हैं? कोई ताम-झाम नहीं, आस-पास कोई फैन भी नहीं? असुंता कहती हैं- मैं कोई क्रिकेट खिलाड़ी थोड़े ही हूं!! उनके इसी जवाब में छिपा दर्द भी सामने आ गया। फिर उन्होंने बताया कि कैसे आज भी उन्हें डिबडीह में एक किराये के मकान में रहना पड़ रहा है। आज तक सरकार की ओर से उन्हें न तो भूखंड मिला और न ही कोई क्वार्टर ही उपलब्ध कराया गया। असुंता इस देश में क्रिकेट के बाजारवाद के कारण तेजी से मरते जा रहे अन्य खेलों के भुक्तभोगी खिलाड़ियों की एक बानगी हैं। खैर, डीआरएम ऑफिस में उनका आना इसलिए होता है, क्योंकि वे रेलवे में कार्यरत हैं। वैसे उन्हें भोपाल में हॉकी कैंप में जाने के लिए टिकट कटाना था, इसलिए खुद इस दफ्तर में आना पड़ा। पहले तो रिजर्वेशन मिलना ही मुश्किल होता था, लेकिन जब से रेलवे ने उन्हें पहचान लिया है, तब से कम परेशानियां झेलनी पड़ती हैं। असुंता बताती हैं कि 2014 में दक्षिण कोरिया में होने वाले एशियाई खेल और ग्लासगो, स्कॉटलैंड में होने वाले कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर टीम की तैयारी चल रही है। झारखंड की सरकार से उन्हें क्या अपेक्षा है? इस सवाल पर असुंता मुस्कराती हैं, फिर जवाब देती हैं- मैं आज भी किराये के मकान में रह रही हूं, और क्या कहूं। आप लोग खुद समझ सकते हैं।” वर्तमान में भारतीय हॉकी टीम में खिलाडी नवजोत कौर दीप, ग्रेस एक्का, मोनिका मलिक, निक्की राधन, अनुराधा देवी, सविता पुनिया, पूनम रानी, वंदना कटारिया, दीपिका ठाकुर, नमिता टोप्पो, रेणुका यादव, सुनीता लाकरा, सुशीला चानू, रानी रामपाल, प्रीती दुबे और लिलिमा मिंज हैं। इनमें से कई आदिवासी समुदाय से आने वाली खिलाडी है| हाल ही में नई दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय नेहरू हॉकी प्रतियोगिता में 6 अक्टूबर 2017 को झारखण्ड की टीम ने पंजाब को 6-1 से पराजित किया लेकिन विस्तार से इन खबरों के बारे में हमें किसी मुख्यधारा की प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में देखने-पढ़ने को नहीं मिलता| यहाँ हम देख सकते हैं कि किस प्रकार आदिवासी स्त्री को खेल के क्षेत्र में भी सक्रिय होने पर मीडिया में उसकी प्रतिभा और खेल के प्रति जूनून को नजरअंदाज किया जाता है|
मॉडल रीनी कुजूर |
मीडिया में आदिवासी स्त्री की प्रस्तुति – मांसल देह के रूप में–
इस तरह यदि मीडिया की भूमिका आदिवासी स्त्री की छवि को प्रस्तुत करने में देखी जाए तो हमें मीडिया की बहुत कम दिलचस्पी आदिवासी स्त्री के जन-जीवन को जानने-समझने और उसके सवाल उठाने में नहीं दिखाई देती| इसकी बजाय मीडिया बरगलाने की राजनीति अधिक करती है क्योंकि मीडिया सरकार को देश मान बैठी है और उसकी गलत नीतियों के विरोध में खड़े होने वाले आदिवासी समुदाय जिसमें आदिवासी स्त्री और पुरुष दोनों सम्मिलित है, उन्हें अपना विरोधी मान बैठी है| जो मीडिया का आचार और नैतिकता के विरोध में है| यही कारण है कि मीडिया आदिवासी स्त्री को या तो नक्सली के रूप में चित्रित करती है या उससे जुड़े मुद्दों के बारे में चुप्पी साधे रहती है लेकिन जब मीडिया को आदिवासी स्त्री का भुनाने लायक कुछ मुद्दा मिल जाता है तो उससे फायदा उठाना भी नहीं भूलती| यही कारण है कि हमारे देश की मीडिया की रैंकिंग विश्व में 136वें स्थान पर है, इसका मतलब हुआ कि मीडिया की विश्वसनीयता, नैतिकता और निष्पक्षता बहुत ही कम है| इस रैंकिंग का अर्थ है कि मीडिया अपने देश के लोगों के लिए, लोकतंत्र की एकता और अखंडता के लिए काम नहीं करता| आदिवासी इलाकों में स्त्रियों पर किए जाने वाले अलग-अलग तरह के अपराधों के बारेमें अधिसंख्य मीडिया फर्म रिपोर्टिंग करने में दिलचस्पी नहीं लेते| इसके साथ ही साथ खेल-कूद जगत में आदिवासी इलाकों से उभरती प्रतिभाओं को किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, देश के लिए खेलने में आगे किस-किस तरह की चुनौतियों का सामना आदिवासी स्त्री खिलाडियों को करना पड़ता है| इस लिए यह कहा जा सकता है कि मीडिया जिसमें आज अधिकतर प्राइवेट फर्म के रूप में बाजार में है और हमारे घर में सूचना प्रसारण की जिम्मेदारी इन मीडिया फर्मों ने अधिकतर अपने जिम्मे ही ले ली है| ऐसी मीडिया ने आदिवासी स्त्री की छवि को बहुत नुक्सान पहुँचाया है| इसलिए स्थानीय मीडिया, सोशल नेटवर्किंग साइट्स, वेब न्यूज़पोर्टल आदि जैसी वैकल्पिक मीडिया ने आदिवासी स्त्री की छवि को प्रस्तुत करने की एक ईमानदार कोशिश शुरू की है| जिसमें उनकी यथास्थिति को समझने की कोशिश की जा रही है, और उसके माध्यम से उनके लिए न्याय और लोकतान्त्रिक नागरिक अधिकारों के लिए सवाल उठाए जा रहे है|
अंजली जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में शोधार्थी हैं सम्पर्क : anjali1441992@gmail.com
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