करुणानिधि: एक ऐसा व्‍यक्ति जिसने बिना आराम किए काम किया, अब आराम कर रहा है

मनोरमा सिंह 


तमिलनाडु  की राजनीति के भीष्म पितामह कहे जाने वाले तमिलनाडु  के पूर्व मुख्यमंत्री और डीएमके नेता एम करुणानिधि की 94 वर्ष की आयु में कल 7 अगस्त को परिनिर्वाण हो गया,और इसके साथ ही तमिलनाडु की राजनीति में ‘लार्जर दैन लाईफ’ वाले नेताओं के युग का भी अंत हो गया है-अन्नादुराई, एमजीआर, जयललिता के बाद करूणानिधि की मौत के साथ तमिलनाडु के नेताओं की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व खत्म हुआ जिन्हें करिश्माई कहा जाता था। और मौजूदा राजनीति में अब वैसी संभावनाएं नहीं हैं, जिनमें नेताओं की छवियां इतनी बड़ी बन सकें लेकिन ये भी सच है कि तमिलनाडु का समाज और राजनीति आज जिस स्वरूप में है उसे गढ़ने का श्रेय इन नेताओं को ही है और करूणानिधि की इसमें खास भूमिका रही है। तमिलनाडु की राजनीति में लगभग सभी जातियों और समुदायों का अपना अपना राजनीतिक दावा और मजबूत भागीदारी है। कोई आश्चर्य नहीं कि आज तमिलनाडु पूरे देश में अकेला ऐसा राज्य है जहां 50 से ज्यादा राजनीतिक पार्टियां हैं लगभग सभी जातीय समूह का अलग अलग प्रतिनिधित्व करती हुई, दक्षिण भारत में ही  कर्नाटक और आन्ध्रप्रदेश में ऐसा नहीं है यहां तक कि मुस्लिम लीग के भी यहां दो—तीन धड़े हैं। ब्राह्रमणवाद के खिलाफ वे सबसे मुखर आवाजों में से रहे और यही विचारधारा उनकी शख्सियत, उनकी रचनात्मकता और उनकी राजनीति की धूरी रही।

 बहरहाल, करुणानिधि को प्यार से कलाइग्नर कहा जाता था जिसका अर्थ होता है सभी कलाओं में निपुण कलाकार, पांच बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहे करूणानिधि का राजनीतिक जीवन देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल से शुरू होकर नरेन्द्र मोदी तक आकर खत्म होता है जो अपने आप में एक उपलब्धि कही जा सकती है, 13 बार वे विधायक रहे और कोई चुनाव नहीं हारे। आखिरी बार 2016 के चुनाव में तिरूवरूर से चुने गए थे और बतौर विधायक ही उन्होंने आखिरी सांसे भी लीं, 1957 से 2018 कुल 61 साल सक्रिय राजनीति में रहते हुए, वैसे राजनीति में भागीदारी उन्होंने 14 साल की उम्र से ही शुरू कर दी थी। अक्टूबर 2016 से उनकी सेहत ठीक नहीं थी,गले और फेफड़े में हुए संक्रमण ने उनकी सक्रियता को कम कर दिया था लेकिन उनकी मौजूदगी के मायने तो थे जो अब उनकी मौत के बाद दिख रहा है। करूणानिधि पर अपने पहले मुख्यमंत्रित्व काल से ही भ्रष्टाचार के आरोप लगने शुरू हो गए थे बावजूद इसके उनकी लोकप्रियता  में कमी नहीं आयी थी, चुनाव जीतने—हारने के क्रम में भी कभी भी डीमएके का अपना वोट आधार कम नहीं हुआ तो उसकी वजह करूणानिधि थे, जिन्होंने डीएमके को मजबूत काडर वाली पार्टी बनाया था। तमिलनाडु में कहा जाता है कि एक वक्त था जब डीएमके का जिला स्तर का नेता भी खुद को जिलाधिकारी से बड़ा मानता था और स्थानीय मामलों को अपने स्तर पर हल करता था जबकि उसी दौर में एआईडीएमके भी थी जहां सारी सत्ता एमजीआर के पास हुआ करती थी, हालांकि वो खुद अपनी पकड़ नीचले स्तर तक भी रखते थे।

बहरहाल, करुणानिधि का जन्म 3 जून 1924 को तमिलनाडु के नागापट्टिनम ज़िले के एक निम्नवर्गीय परिवार में हुआ था। इसाई वेल्लालार जाति से आने वाले करूणानिधि ने जन्म से जातिगत भेदभाव और पूर्वग्रहों को देखा और सहा था, इसाई वेल्लालार जाति तमिलनाडु के सामाजिक—आर्थिक संरचना में सबसे निचले पायदान में आने वाली जाति है,इस समुदाय के लोग संगीत और वाद्ययंत्र बजाने वाले होते हैं और देवदासियां भी इसी जाति से होती रही थीं । इसके बावजूद करूणानिधि का तमिलनाडु की राजनीति में सर्वोच्च पर पहुंचना और पितामह जैसा स्थान हासिल करना उनकी अपनी शख्सियत का ही कमाल था। उनका महत्व राष्ट्रीय राजनीति में ये है कि सामाजिक न्याय और प्रगतिशील मूल्यों के वे साठ के दशक से ही  प्रणेता रहे हैं, तमिलनाडु में इन मूल्यों को उन्होंने साठ के दशक से ही लागू किया, जिसका व्यापक असर हुआ,नतीजा ये है कि आज तमिलनाडु में शासन,प्रशासन में कथित नीचले पैदान से आने वाली जातियों की ज्यादा भागीदारी हुई ब्राह्मणवाद का वर्चस्व लागातार कम हुआ। जनकल्याण की नीतियां तमिलनाडु की राजनीति का इस तरह हिस्सा बनीं कि जयललिता भी उन्हीं रास्तों पर चलती रहीं। हांलाकि बाद में तमिलनाडु की सरकारों के 2 रूपए किलो चावल के अलावा मुफ्त टीवी, मिक्सर ग्राईंडर देने जैसी योजनाओं की खूब आलोचनाएं भी हुई लेकिन ये भी सच है कि उसी दौर में मिड डे मील, गरीबों के लिए सस्ता अनाज जैसी योजनाओं ने तमिलनाडु को मानव विकास सूचकांक में हमेशा देश में सबसे आगे रखा, यहां की दलित जातियों के बच्चे देश के अन्य राज्यों के मुकाबले सबसे कम कुपोषित रहे, भूख से मरने वाले परिवार कम रहे इसलिए अर्मत्य सेन से लेकर ज्यां द्रेज ने सभी ने इन आधारों पर तमिलनाडु की सरकारों के काम को रेखांकित किया।

करूणानिधि किशोरावस्था में ही जस्टिस पार्टी के अलागिरीस्वामी से प्रभावित हुए बाद में पेरियार ई वी रामास्वामी से, गौरतलब है कि जस्टिस पार्टी का गठन 1916 में हुआ था जिसकी मूल विचारधारा उच्च जातियों खासतौर पर ब्राह्मण्वादी वर्चस्व के खिलाफ थी, ये वो दौर था जब भारतीय जनमानस का प्रतिनिधित्व केवल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कर रही थी लेकिन ये भी सच है कि तब कांग्रेस केवल ब्राह्मणों और पुंजीपतियों की पार्टी थी। पेरियार  जस्टिस पार्टी के इसी ब्राह्मणवाद विरोध और द्रविड़ अस्मिता की राजनीति और को आगे ले गए और तमिलनाडु की राजनीति में उसे केन्द्रीय विमर्श बनाया, बाद में अन्नादुराई और करूणानिधि ने इस विमर्श को सत्ता में स्थापित कर दिया, ये अपने आप में क्रान्तिकारी पहल रही है जिसका अनुसरण बाद में पूरे देश की राजनीति में हुआ और आगे भी होता रहेगा। वैसे राजनीति में आने से पहले बतौर पटकथालेखक भी करूणानिधि तमिलनाडु की भविष्य की राजनीति की एक नई पटकथा लिख रहे थे जिसकी चर्चा कम होती हैं, उनकी फिल्मों को सबआल्टर्न सिनेमा कहा जा सकता है जबकि उस दौर में या बाद में भी मुख्यधारा में हमारा सबआल्टर्न सिनेमा सिरे से गायब है,उन्होंने पराशक्ति, पानम और मनोहरा जैसी फिल्में लिखीं जिनमें द्रविड़ आंदोलन से लेकर,जमींदारी, जातिवाद, छुआछुत, विधवा विवाह जैसे तमाम मसले थे। तमिल बुद्धिजीवियों का एक बड़ा धड़ा फिल्मों में उनके योगदान  के लिए उन्हें दादा साहेब फाल्के अवार्ड का हकदार मानता है और इस बात पर सवाल करता है कि आखिर क्यों कला—संस्कृति में उनके योगदान को आज तक भारत सरकार ने किसी पद्म पुरस्कार के भी लायक नहीं माना?

हालांकि करूणानिधि की राजनीति ब्राह्मणवाद, जातीय वर्चस्व के बरक्स द्रविड़ अस्मिता की रही लेकिन शुरूआती दौर में वो हिन्दी विरोध और उत्तर भारत के वर्चस्व के विरोध की भी रही, तमिलनाडु के हिन्दी विरोधी आंदोलन ने भी अंतत: राष्ट्रभाषा के सवाल को लेकर एक व्यापक दृष्टिकोण दिया नतीजतन आज संविधान में शामिल सभी भारतीय भाषाओं का दर्जा एकबराबर है। दरअसल, तमिलनाडु को सामाजिक और आर्थिक रूप से तरक़्क़ीपसंद राज्य बनाने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है,औरतों को संपत्ति में अधिकार, शिक्षा ग्रहण करने वाली पहली पीढ़ी को स्नातक तक मुफ्त शिक्षा, तमिलनाडु  में दलितों, पिछड़ों के लिए 69 प्रतिश्रत तक आरक्षण सुनिश्चित करना, पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण, इसाई समुदाय के पिछड़े तबके को आरक्षण, जनता बीमा, श्रमिकों के काम,मजदूरी और पेशे को सम्मानजनक बनाना, सूची बहुत लंबी है और इस लिहाज से भारतीय राजनीति में करुणानिधि का योगदान अतुलनीय है।

करूणानिधि का महत्व भारतीय राजनीति में तर्कवाद के लिए भी रहेगा, उन्होंने धर्म और ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल किया, प्रचलित रूढ़ियों का जमकर विरोध किया, सामाजिक, धार्मिक रूढ़ियों और पाखंडों को मानने से इनकार किया। ये सब उन्होंने पचास के दशक में किया,आज इन बातों के और ज्यादा मायने हैं जब हम मौजूदा राजनीति को देख रहे है जहां हर तरह के प्रगतिशील मूल्यों का हवन हो रहा है, धर्म अपने सबसे कुत्सित और बर्बर रूप में इस्तेमाल हो रहा है। और उससे भी त्रासद ये है कि इन्हीं मूल्यों पर अब मुख्यधारा की राजनीति करना बहुत मुश्किल है। बहरहाल, 61 साल से ज्यादा समय से राजनीति में सक्रिय रहे करूणानिधि अब अपने राजनीतिक गुरू के बगल में हमेशा के लिए सोने चले गए हैं, आखिरी समय उनके ताबूत पर लिखा था ‘एक ऐसा व्‍यक्ति जिसने बिना आराम किए काम किया, अब आराम कर रहा है।’ तमिलनाडु की जनता ने अपने करिश्माई नेता को उनके कद के मुताबिक शानदार आखिरी विदाई दे दी है अब करूणानिधि और डीएमके की राजनीतिक विरासत उनके बेटे एम के स्टालिन के हाथों में है, ये अच्छी बात रही कि उनके जीवकाल में ही करूणानिधि की राजनीतिक विरासत को लेकर उनके दोनों बेटों में ठनी लड़ाई एक निर्णायक फैसले पर खत्म हो गई लेकिन दूसरा पहलू ये भी है कि निजी तौर पर जिन मूल्यों की अपेक्षा करूणानिधि जैसे नेता से की जाती थी कई बार वो खुद उनपर खरे नहीं उतरे, चाहे भ्रष्टाचार के मामले हों या भाई—भतीजावाद की या वंशवाद की राजनीति की, ये भी सच है कि डीएमके में उनके कुनबे से अलग कोई दूसरा योग्य नेता की कोई हैसियत नहीं रही।

मनोरमा सिंह बंगलौर में पत्रकारिता करती हैं. संपर्क: manorma74@gmail.com

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