दिल्ली का रंगमंच संख्यात्मक दृष्टि से बहुत उल्लेखनीय रहता आया है, क्योंकि यहां महीने में औसतन तीस से पचास नाटक मंचित होते हैं और उनमें भी स्वाभाविक तौर पर युवा निर्देशकों के नाटक ही अधिक संख्या में होते हैं। यदि बौद्धिक-वैचारिक स्तर पर दिल्ली के रंगमंच का आकलन करें तो आम तौर पर एक गहरी निराशा से दो-चार होना पड़ता है और कई बार ऐसा भी महसूस होता ही है कि यहां अधिसंख्य निर्देशकों की अपने समय-समाज के सवालों एवं संघर्षों में, उसके साहित्य में कोई रुचि नहीं है और न ही उनमें हस्तक्षेप करने की कोई इच्छा ही है। वे रंगकर्म को एक स्वान्तःसुखाय कर्म मानते हैं और एक प्रकार की आत्मरति में संतुष्टि की खोज करते हैं। अपने इष्ट-मित्र, स्वजन-सम्बंधी, प्रशंसक और अकादमियों-परिषदों की उत्सव-समितियों के सदस्य प्रस्तुति देख लें, उनकी सराहना और वाहवाही मिल जाये- जिसे आम तौर पर ‘‘स्टैडिंग आॅवेशन‘‘ की अतिरंजित शब्दावली में व्यक्त किया जाता है, कहीं किसी अखबार या अन्य किसी माध्यम में एक या दो काॅलम की कोई रपट छप जाये बस। इस चरण तक पहुंच जाने को प्रस्तुति का सफल रहना मानने का जैसे रिवाज़ है।
ईश्वर शून्य अपने साथी कलाकरों के साथ पहली पंक्ति में दायें से तीसरा |
प्रस्तुति की सार्थकता-प्रासंगिकता, उसकी भाषा और सम्प्रेषणीयता, कथ्य के सापेक्ष उसके शिल्प-शैली की नवीनता और प्रभावोत्पादकता को लेकर किसी चर्चा या विमर्श की न इच्छा है, न समीक्षा या आलोचना के प्रति स्वीकार्यता। इस अनुत्साही परिवेश में दिल्ली में रंग-समीक्षा या तो मौज़ूद ही नहीं है, या उदासीन है, या फिर उसने स्वयं को येन-केन-प्रकारेण जीवित भर रखने के लिये परिवेश के साथ एक अनुकूलन कर लिया है। रंगमंच के लिहाज़ से यह एक स्वस्थ स्थिति नहीं मानी जा सकती, और ऐसा रंगमंच एक कलात्मक सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधि का दर्ज़ा पाने की पात्रता भी नहीं रखता। एक निर्देशक के तौर पर निजी प्रोफ़ाइल में दस-बीस कथित ‘सफल‘ या ‘सर्वश्रेष्ठ‘ प्रस्तुतियां, पांच-सात ‘मेगा‘ महोत्सवों में हिस्सेदारी, दो-चार ‘जुगाड़ के‘ पुरस्कार और जीवन में कुछ ‘ईर्ष्याजनक‘ सुख-सुविधाएं इस तरह भले ही जुड़ जायें, पर एक सर्जक कलाकार और रंगकर्मी के तौर पर ऐसा योगदान समय-समाज की कसौटी पर खरा उतर कर समाज की सामूहिक चेतना और स्मृति का हिस्सा भी बन पायेगा, ऐसा मानना अनुभव से सही नहीं लगता। दिल्ली के रंगमंच में व्याप्त इन स्थितियों का समरूप हिन्दी के अन्य रंग-केन्द्रों में भी दिखायी देता है या नहीं, इस बारे में बहुत दावे के साथ कुछ कहने की स्थिति में मैं स्वयं को नहीं पाता।
निश्चित रूप से इस स्थिति के अपवाद भी हैं और वरिष्ठ से लेकर युवा पीढ़ी में मौज़ूद ये अपवाद रंगमंच को तो एक सोद्देश्य, प्रतिबद्ध एवं गम्भीर सृजनात्मक और बौद्धिक-वैचारिक गतिविधि के तौर पर उल्लेखनीय सक्रियता देते ही हैं, साथ ही इनकी सक्रियताओं का प्रभावी विस्तार रंगमंच से आगे बढ़ कर समकालीन साहित्य, राजनीति, जनान्दोलनों एवं समकालीन विमर्शों तक भी दिखायी पड़ता है। यह कितनी त्रासद स्थिति है कि सार्थक एवं समाजोपयोगी रंगमंच की ऐतिहासिक विकास-यात्रा में कुछ नया, कलात्मक, मूल्यवान और विचारोत्तेजक जोड़ने की बेचैनी और छटपटाहट से अनुप्राणित जिस रंग-धारा को रंगमंच की मूलधारा होना था, आज वही उपेक्षा, अभाव और तिरस्कार के कारण सिमट कर हाशिया बनती गयी है और इसका विलोम बेशर्मी के ऊंचे आसन पर प्रतिष्ठित दिखायी देता है। उसी का जयघोष है, सारे विशेषण, सारी जगह, सारा संरक्षण उसे ही प्राप्त हो रहा है। यह रंगमंच का पूंजीवादी विकास (वास्तव में ‘अविकास‘) है, जिसमें मनुष्य, समाज और उसके मूल्यों-संघर्षों के लिये उतनी जगह नहीं है, जितनी व्यक्तिगत मुनाफ़ों, सुख-सुविधाओं के अतिरिक्त संचय की अमानुषिक होड़ है। इस कथित ‘विकास‘ के मुहावरे के बाहर जो कुछ भी है, वह इसके प्रस्तावकों और साझीदारों की दृष्टि में महत्वहीन, कलाविहीन, स्तरहीन और इसलिये त्याज्य है, न उसे देखने की आवश्यकता है और न उसे विमर्श में आने देना है। उससे एक व्यापक दूरी बना कर रखनी है और लगे हाथ उसे लांछित भी करते रहना है। इस मानसिक रुग्णता के संगठित प्रदर्शन हम आये दिन देखते ही हैं।
नाटक के बाद |
ईश्वर शून्य दिल्ली के सर्वाधिक सक्रिय युवा निर्देशकों में से एक हैं, और वे रंगमंच की उसी बहुउपेक्षित धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो रंगकर्म को एक सोद्देश्य, प्रतिबद्ध एवं गम्भीर सृजनात्मक तथा बौद्धिक गतिविधि मानती है और उसके माध्यम से अपने समय में एक प्रभावी वैचारिक हस्तक्षेप करने का निरन्तर प्रयास करती है। साहित्य, समाज और राजनीति के समकालीन विमर्शों से गहरा जुड़ाव ईश्वर शून्य के रंगकर्म को साधनहीनता में भी एक अलग और विशिष्ट वैचारिक धार और कलात्मक प्रासंगिकता देता है, और समाज की उपेक्षित-दमित मनुष्यता की पक्षधरता और उसकी जीवन-स्थितियों में बदलाव लाने की बेचैनी ही उनकी रंगदृष्टि और रंगभाषा को आधार देती है। रंग-समीक्षक के तौर पर लगभग एक दशक से दिल्ली के अधिकांश और देश के दर्जनों युवा निर्देशकों के रंगकर्म को देखते हुए मैंने यह अनुभव किया है कि अधिकांश युवा प्रारम्भिक एक-दो नाट्य-प्रस्तुतियों में अपनी ऊर्जा, कल्पनाशीलता तथा नवाचार से दर्शकों को चमत्कृत भी करते हैं और अक्सर ऐसा प्रतीत होने लगता है कि वे अपनी एक नयी रंगभाषा की खोज करते हुए उसे प्राप्त कर चुके हैं, परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण रूप से आगे चल कर उनकी प्रस्तुतियां हमें निराश करने लगती हैं और निर्देशकीय यात्रा के प्रथम चरण में ही वे एक पराजित योद्धा की तरह अपने शस्त्रों से डूबती हुई नौका के अन्तिम पतवार का काम लेने लगते हैं। यह स्थिति उनकी सृजनात्मकता और कल्पनाशीलता के असमय ही चुक जाने का परिचायक लगती है और एक समीक्षक के तौर पर हमें उनके प्रारम्भिक कार्यों के आधार पर किया गया अपना ही आकलन अदूरदर्शी और जल्दबाज़ी से भरा महसूस होने लगता है। कम से कम मेरे लिये यह एक तक़लीफ़देह स्थिति होती रही है, जिसे ईमानदारी से स्वीकार करने में मुझे कोई हिचक नहीं है। अक्सर युवा निर्देशकों के काम में यह गतिरोध और जड़ता इसलिये आती है कि थोड़ी सराहना मिलने के बाद वे अहंकारी होने लगते हैं, अध्ययन में, समकालीन सवालों में उनकी रुचि नहीं रहती और वे कोई सृजनात्मक जोखिम लेने को तैयार नहीं हो पाते, इसलिये उनका काम दुहराव और सजावट से भर जाता है। उन्हें लगता है कि जिस कारण वे रंगकर्म में आये थे, उसकी पूर्ति इतने भर से ही हो जायेगी, इसलिये कुछ नया करने के बारे में सोचना मूर्खता है।
यही कारण रहे हैं कि ईश्वर शून्य के रंगकार्य को लगभग छह-सात वर्षों से निरन्तर देखते रहने के बावज़ूद मैंने कभी भी उसकी समीक्षा या आलोचना में एक शब्द भी ख़र्च नहीं किया और यह सच्चाई है कि उसकी निरन्तरता और सृजनात्मकता को लेकर इन वर्षों में एक सन्देह सदा ही प्रभावी रहा है। इससे भी अधिक सन्देह अपने आकलन को लेकर रहता आया, जिसके मूल में उसके बार-बार ग़लत सिद्ध होने की स्थितियां ज़िम्मेदार रही हैं। इसी मनःस्थिति के कारण ईश्वर शून्य के प्रारम्भिक चरण के पगला घोड़ा, माटी गाड़ी, मुद्राराक्षस, प्रेम परसाई और क़िस्सा जानी चोर आदि लगभग पांच-छह नाटकों को देखने के बावज़ूद मैंने जान-बूझ कर कोई औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं दी, और समय का इन्तज़ार करता रहा। पिछले वर्ष ओमप्रकाश वाल्मीकि के ‘जूठन‘ की समर्थ प्रस्तुति को देखने के बाद ही मुझे विश्वास हो गया था कि ईश्वर शून्य अपनी सृजनशीलता के अगले और महत्वपूर्ण चरण में प्रवेश कर चुके हैं, उन्होंने रंगमंच में अपना पक्ष एवं दृष्टिकोण चुन लिया है और आने वाले दशक में हमें उनकी प्रतिबद्धता और रचनात्मकता के कितने ही उर्वर आयामों से परिचित और समृद्ध होने का मौक़ा मिलेगा, जिसके लिये हमें तैयार रहना चाहिये। शिवाजी सावन्त की प्रसिद्ध कृति ‘मृत्युंजय‘ के रूपान्तरण और प्रस्तुतिकरण में ईश्वर ने महाभारत के सबसे जटिल पात्र कर्ण के हिन्दू धर्म की बर्बर वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मणवाद से अथक संघर्ष को वर्तमान भारतीय सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के एक प्रभावी रूपक में ढालने में असाधारण कल्पनाशीलता का परिचय दिया है, और यह प्रस्तुति दर्शकों की चेतना पर अमिट प्रभाव छोड़ती हुई सम्पूर्ण कलात्मकता के साथ अपने समय के विमर्श को आगे बढ़ाती है।
वर्ण-व्यवस्था द्वारा दलितों के हज़ारों वर्ष पुराने अपमान और अमानवीय उत्पीड़न को अपना कथ्य बनाने के बाद ईश्वर ने किन्नरों के जीवन और उनके बाह्यान्तरिक संघर्षों पर केन्द्रित नाटक ‘जानेमन‘ प्रस्तुत किया। मछिन्द्र मोरे द्वारा लिखित मराठी का यह नाटक मुम्बई की एक बस्ती के किन्नरों के जीवन के चित्रण के माध्यम से इस समुदाय की पीड़ा, आकांक्षाओं एवं संघर्षों को सामने लाने के लिये जाना जाता है। ईश्वर शून्य अब पितृसत्ता की हिंसा और स्त्रियों के सवालों को लेकर एक और नयी प्रस्तुति ‘औरत होने की सज़ा‘ तैयार करने जा रहे हैं। यह प्रस्तुति देश के जाने-माने कानूनविद, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद जैन की इसी शीर्षक से प्रकाशित बहुचर्चित पुस्तक पर आधारित होगी। देश में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के इस मौज़ूदा दौर में पितृसत्ता के ढांचे को एक नयी शक्ति मिली है और स्त्रियों के अधिकारों पर, उनकी यौनिकता पर जिस तरह संगठित हमले बढ़े हैं, उसमें यह प्रस्तुति प्रतिरोध के लिहाज़ से अहम भूमिका निभायेगी, ऐसी अपेक्षा रखनी चाहिये।
ईश्वर द्वारा निर्देशित एक नाटक पिंजर का एक दृश्य |
ईश्वर शून्य अपने समय के प्रमुख सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक आन्दोलनों में भी शामिल होते रहते हैं और एक एक्टिविस्ट के तौर पर उनकी यह सक्रियता उनके नाट्य-प्रदर्शनों को भी एक सामयिक चेतना से लैस करती है। हबीब तनवीर और नया थियेटर के साथ काम करने के दौरान उन्होंने जिस वैचारिकता का दामन थामा, उसे मांजते-सहेजते और विकसित करते हुए वे निरन्तर आगे बढ़ते आये हैं और अपनी एक नयी राह भी उन्होंने बनायी है। हाल के दिनों में ईश्वर शून्य ने नाट्यालोचना और समीक्षा के क्षेत्र में भी ज़ोरदार दस्तक दी है और इस वीराने में भी उम्मीद का नया बिरवा रोपा है।
इस तरह देखें तो हिन्दी रंगमंच में ईश्वर शून्य एक ऐसी नयी रंगभाषा लेकर सामने आये हैं, जिसमें हमारे समाज के अब तक हाशिये पर पड़े वर्गों एवं समुदायों की अनदेखी-अनजानी ज़िन्दगी और उसके जलते सवालों को अभिव्यक्ति मिल पा रही है। ये सवाल इतनी प्रमुखता, केन्द्रीयता और निरंतरता के साथ कम से कम पिछले तीस-चालीस वर्षों में हिन्दी के रंग-दर्शकों के सामने नहीं आये थे। हाशिये के समाजों एवं उनके मुद्दों के प्रति यही वैचारिक प्रतिबद्धता ईश्वर शून्य के रंगकार्य को एक अलग विशिष्टता और सार्थकता प्रदान करती है।
14 सितम्बर को ईश्वर शून्य का जन्मदिन था। उनको स्त्रीकाल और इस लेखक की तरफ़ से अशेष शुभकामनाएं!
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