सबरीमाला मामले में ये जो धर्म के अंदर वालों को ही तय करने का हक होना चाहिये, वाला तर्क है, ये भारतीय आर्थिक मठों ( घरेलू उद्योग से शुरू होकर कॉरपोरेट घरानों तक) में महिलाओं की इंट्री को लेकर होने वाले शुरुआती बवालों वाले तर्कों से बहुत मिलता-जुलता तर्क है.
बहुतों को इस बात से आपत्ति हो सकती है कि कॉरपोरेट घरानों या घरेलू उद्योगों में लड़कियों या महिलाओं का काम करना एक लोकतांत्रिक मूल्य है जबकि धार्मिक संस्थाओं में प्रवेश की आजादी एक रिग्रेसिव या सामंती समाज की बुनियाद है.
सही है, दोनों एक बात नहीं है. लेकिन धर्म हो या अर्थव्यवस्था दोनों ही महिलाओं को उनकी पारंपरिक भूमिकाओं में जकड़ कर रखना चाहती है. यहीं पर वे समान हैं. दोनों ही संस्थायें महिलाओं को मात्र उतनी ही आजादी देती हैं जितनी उनकी सेविका या अनुयायियों की भूमिका में बने रहने के लिये जरूरी है.
पारंपरिक भारतीय अर्थव्यवस्था जिस तरह से महिलाओं को सबसे अधिक श्रम के, अनवरत खटने वाले कामों में बिना उचित मजदूरी दिये उनका शोषण तय करती है, ठीक उसी तरह मंदिर भी अनुयायियों और सेविकाओं की भूमिका में महिलाओं की श्रद्धा और भक्ति चाहते हैं. महिलाओं को बिना प्रवेश दिये, उनकी शारीरिक स्वाभाविकताओं पर अपनी सदियों पुरानी यौन कुंठाओं को परंपरा के रूप में साधते हुए, उनका भक्त बना रहना तय करते हैं.
पवित्र और अपवित्र होने का तर्क सीधे-सीधे महिला और पुरुष की पारंपरिक मालिकाने की भूमिका से निकलता और समृद्ध होता है. कामख्या मंदिर में महिलाओं की माहवारी पूजने की चीज़ है जबकि सबरीमाला के भक्त इस पूरे दौरान महिलाओं की परछाईं भी खुद पर पड़ने नहीं देते.
जिन्हे इस बात से आपत्ति है कि महिलायें मंदिरों में प्रवेश क्यूं चाहती हैं उन्हे तो इसका बहिष्कार करना चाहिये था, उन्हे ये भी तर्क समझना होगा कि होने को तो महिलाओं को उनके शारीरिक श्रम की नाजायज़ मांग करने वाली हमारी सभी लोकतांत्रिक और अब वैश्विक आर्थिक दुकानों का भी बहिष्कार कर देना चाहिये था पर वो ऐसा नहीं कर सकती थीं.
ठीक वैसे ही जैसे पुरुष – खासकर जो अर्थव्यवस्था से बाहर हैं, वो चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकते. वो बाजार के नियमों के हिसाब से कटने और समझौते करने को विवश हैं. कम पगार पर भी ‘काम मिलना’ ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है. क्यूंकि बहिष्कार तो तब होगा जब उस पर बराबर का अधिकार हो.
एक उदाहरण से इसको समझा जा सकता है कि बॉलीवुड में महिलायें खासकर अभिनेत्रियां सालों से अपने पुरुष सहकर्मियों के मुकाबले बहुत कम मेहनताना पाती हैं लेकिन अब जाकर कुछ अभिनेत्रियां इस बाबत अपनी आवाज़ उठाने का साहस कर रही हैं. मंदिर हो या बॉलीवुड महिलाओं को उनकी पारंपरिक भूमिकाओं में रखने से दोनों का ही इंकार नहीं है लेकिन वहां उनकी एंट्री, बरावरी की दावेदारी के साथ करते ही दोनों ही जगहों पर बराबरी का भूचाल आता है.
जिस तरह तनुश्री के यौन शोषण के मामले को बरगलाने के लिये राखी सावंत का इंटरव्यू मीडिया में प्रसारित किया गया. ठीक उसी तरह सबरीमाला की भक्तिनों ने सुप्रीम कोर्ट के महिलाओं के प्रवेश के फैसले के खिलाफ जुलूस निकाल कर अपना विरोध दर्ज कराया.
तो एक तरफ हमारे देश में औरतें अभी मंदिर में प्रवेश के लिये लड़ रही हैं और दूसरी ओर औरतें बिग कॉरपोरेट हाउसेज में अपने काम के लिये, आदमियों के बराबर वेतन पाने के लिये जूझ रही हैं. मंदिर हो या बड़े कॉरपोरेट घराने, एक बिंदु पर इन दोनों में गजब समानता है कि आखिरकार मर्द ही इनके सर्वोच्च मालिक हैं. …और दोनों ही जगहों का कारोबार बिना स्त्री-पुरुष के शोषण के नहीं चलता.
फिर भी मर्द पारंपरिक रूप से इन दोनों जगहों का मालिक है जबकि महिलाओं को प्रवेश से लेकर मंदिर के पुजारी या बरावर वेतन और अधिकार की हिस्सेदारी पाने तक हर जगह संघर्ष करना है.
…इन सबके बीच औरतों का शोषण कहां है, कहां नहीं है, कहां कम है, कहां ज्यादा है, ये सब बहस-मुबाहसे के विषय हो सकते हैं. लेकिन एक आजाद नागरिक की हैसियत से महिला भी वो सब कुछ करने के लिये स्वतंत्र है जो पुरुष आज भी कर रहे हैं और सदियों से करते रहे हैं.
जया निगम स्वतंत्र पत्रकार हैं.
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