‘मेरे हॉस्टल के सफ़ाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन
फेंकने से कर दिया है इनकार
बौद्धिक बहस चल रही है
कि अख़बार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें
ढँका जाए ताकि दिखे नहीं ज़रा भी उनकी सूरत
करीने से डाला जाए कूड़ेदान में
न कि छोड़ दिया जाए
‘जहाँ-तहाँ’ अनावृत …’
उपरोक्त पंक्तियाँ कवि शुभम श्री की कविता ‘मेरे हॉस्टल के सफ़ाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है’ से है। जिसमें लड़कियों की यूज्ड सौनिटरी पैड के प्रति एक पुरुष सफाईकर्मी की घृणित मानसिकता की अभिव्यक्ति हुई है। लेकिन क्या समाज में सिर्फ पुरुषों में ही ये मानसिकता होती है। जाहिर है आप का जवाब होगा नहीं। लेकिन अगर वो महिलाएं शिक्षक हों जिनका काम ही है बच्चों को सही शिक्षा देकर समाज को चेतना संपन्न और बराबर बनाना तो फिर क्या कहेंगे आप। बता दें कि तीन दिन पहले पंजाब के एक बालिका स्कूल के महिला शिक्षकों ने स्कूस की बारह लड़कियों को महज इसलिए कपड़े उतारने मजबूर कर दिया क्योंकि उन्हें स्कूल टॉयलेट में एक इस्तेमाल (यूज) किया हुआ सैनिटरी पैड मिला था। तो उन्होंने छात्राओं के कपड़े उतरवा दिए ताकि यह पता चल सके कि उनमें से किसने सैनिटरी पैड पहना है!
इस मामले में एक वीडियो क्लिप सामने आया है जिसमें यह छात्राएं रोते-बिलखते हुए आरोप लगा रही हैं कि 3 दिन पहले कुंडल गांव में उनके विद्यालय परिसर में शिक्षिकाओं ने उन्हें नंगी किया।लड़कियां छठवीं, सातवीं और आठवीं कक्षा की हैं। लड़कियों ने एसडीएम पूनम सिंह को दिए बयान में कहा कि किसी लड़की ने इस्तेमाल के बाद सैनेटरी पैड टॉयलेट में फेंक दिया था। सातवीं की प्रभारी शिक्षिका ज्योति चुघ इससे नाराज हो गईं। वे जानना चाहती थीं कि पैड किस लड़की ने फेंका। जवाब नहीं मिला तो वे 12 लड़कियों को स्कूल के किचन में ले गईं और उनके कपड़े निकलवाकर चेक किया।
इससे पहले बिल्कुल ऐसी ही बर्बर और अमानवीय घटना पिछले साल 25 मार्च 2017 में मुजफ्फरनगर के जिले की खतौली तहसील में स्थित कस्तूरबा गाँधी बालिका आवासीय स्कूल में घटित की गई थी।जब इस स्कूल में प्रधानाध्यापक ने 70 लड़कियों को मासिक धर्म की जांच के लिए कपड़े उतारने को मजबूर किया था। लड़कियों और उनके परिजनों ने एक शिकायत में आरोप लगाया था कि स्कूल की प्रधानाध्यापक ने 70 लड़कियों को कपड़े उतारने पर मजबूर किया था और आदेश न मानने पर नतीजे भुगतने की धमकी दी थी। सिर्फ इसलिए कि स्कूल के टॉयलेट में मासिक के खून के धब्बे मिले थे। टॉयलेट में ख़ूनदेखकर प्रधानाध्यापक का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया था, और किस लड़की के पीरियड्स चल रहा है, ये चेक करने के लिए उनके कपड़े उतरवा दिए गए थे।
भारतीय समाज में मासिक धर्म और इस्तेमाल की गई नैपकिन पैड एक टैबू (वर्जित कर्म) बनी हुई है। जहाँ महिला शिक्षक बच्चियों को ये शिक्षित करने के बजाय कि सैनेटरी पैड्स का सही तरीके से कैसे निस्तारण कैसें उन्हें उनकी गलती के लिए बर्बर और अमानवीय तरीके से मानसिक प्रताड़ना देती है। एक लड़की की गलती के बहाने पूरे स्कूल की लड़कियों को नंगी करके उनके आत्मसम्मान पर चोट करती है। जबकि होना ये चाहिए था कि शिक्षिका एक लड़की के बहाने स्कूल की सभी लड़कियों को शिक्षित करती। उनसे मानसिक धर्म और सैनिटरी पैड के इस्तेमाल पर बात करती। इस्तेमाल किए गए सैनिटरी पैड का कहाँ और कैसे निस्तारण किया जाए ये समझाती। लेकिन लड़कियों के साथ इतनी हुज्जत करने के बजाय उन्हें दंडित करना ज्यादा आसान और कारगर समझ में आया उन शिक्षिकाओं को। शिक्षा पर दंड को प्राथमिकता देना स्त्री शिक्षकों के उस क्रूर सामंती मानसिकता को दर्शाता है।
इन शिक्षिकाओं की मानसिकता केरल सबरीमाला मंदिर के उन प्रतिगामी पुजारियों से कहाँ अलग है जिन्होंने ये फरमान सुनाया कि वे लड़कियां/स्त्रियां ही मंदिर में प्रवेश कर सकेंगी जिनके या तो पीरियड्स शुरू नहीं हुए या खत्म हो चुके हैं। मंदिर में एक ऐसी मशीन लगाने का विचार भी सामने आया जो यह पता लगा सके कि किस लड़की/स्त्री को पीरियड्स हो रहे हैं, ताकि उसे मंदिर प्रवेश से रोका जा सके।
इन महिला शिक्षकाओं की मानसिकता उस कम पढ़े लिखे दुकानदार से कितनी अलग है जो सैनिटरी नैपकिन को काली पन्नी में लपेटकर छुपाकर देता है मानो वो दुनिया का सबसे वर्जित और गैरकानूनी चीज दे रहा हो। आखिर कब तक पीरियड्स को वर्जित विषय की तरह नहीं देखा जातारहेगा। इस विषय पर चुप्पी लैंगिक हिंसा, लैंगिक भेदभाव का प्रतीक है और यह सब शर्मनाक है न कि पीरियड्स। पीरियड्स के दौरान लड़कियों/स्त्रियों के साथ अछूतों जैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए न हीं कपड़ों और सौनिटरी पैड पर लगे धब्बों के लिए शर्म महसूस करवाई जानी चाहिए।आखिर कब तक पीरियड्स के मसले पर फुसफुसाकर बात करना, पैड्स को मांगने में शर्म आना और दुकानदार द्वारा पैड्स को काले पॉलिथीन में लपेटकर दिया जाता रहेगा।
पितृसत्तात्मक सोच के जाल में औरत को इतना उलझाया गया कि वह माहवारी वाले दिनों में खुद को अपवित्र और कमतर मानने लगी। जिसके चलते औरतें तमाम तकलीफें सहकर भी माहवारी छिपाने लगी।माहवारी के टैबू में उलझी औरत माहवारी को छिपाते और स्वच्छता को नजरअंदाज करते कब बीमारियों से जकड़ जाती है उसे पता ही नही चलता। एक आँकड़े के मुताबिक प्रतिवर्ष 10 लाख से ज्यादा औरतें सर्वाइकल कैंसर की चपेट में आ रही है। जो काम पहले धर्म करता था आज वही काम ये जाहिल महिला शिक्षक कर रही हैं, नैपकिन का सही निस्तारण न करने पर लड़कियों को दंड़ित करके वो समाज के लिए दबी कुचली खुद को कमतर समझने वाली औरतों की नई पौध तैयार कर रही हैं।
सुशील मानव फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं. संपर्क: 6393491351
लिंक पर जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें : डोनेशन/ सदस्यता