मीना बुद्धिराजाकविता अपनी संरचना और प्रकृति में तमाम भेद-भावों से परे और लिंग,वर्ण,समुदाय, जाति- वर्ग की अवधारणाओं से मुक्त और आज़ाद रहती है । मानवीय संवेदना और नियति के सामूहिक प्रश्नों को नि:संदेह कविता हमेशा व्यापक और उदार रूप से उठाती है । अस्मिता के मानवीय संकट में जब स्त्री रचनाकार अपनी पहचान और अस्तित्व को खोलती हुई कविताओं में प्रस्तुत होती है तो इतिहास में सदियों से चला आ रहा भेदभाव और पितृसत्तात्मक समाज में लैंगिक असमानता और स्त्री -शोषण का अमानवीय रूप बेनकाब हो जाता है ।हिंदी कविता के समकालीन परिसर में स्त्रीवाद के वैचारिक और गंभीर अकादमिक विमर्श की दृष्टि से स्त्री के पक्ष में बोलने वाली स्त्री-कविता अपना विशेष महत्व रखती है । कविता समाज और जीवन के सरोकारों की सिर्फ सूचना भर नहीं देती अपितु पाठक के ह्रदय को स्पंदित करके उसकी चेतना को भी जीवित रखती है । यही विशेषता समकालीन स्त्री कविता को भविष्य के लिये उसकी पहचान के संघर्ष और मुक्ति की उम्मीद के रूप में अत्यंत सचेत-सजग बनाती है । हिंदी कविता में स्त्री चेतना का यह फलक निरंतर विस्तृत और गंभीर होता दिख रहा है जिसमे समकालीन अनेक कवयित्रियां सक्रिय और सजृनशील हैं । ये कवयित्रियाँ अपने अनुभव और यथार्थ को कविता में जिस रूप में दर्ज़ कर रहीं हैं वह उनके अनथक संघर्ष का दीर्घ स्वप्न है जो उनकी रचनात्मकता का भी केंद्रबिंदु है ।
समकालीन हिंदी कविता के संदर्भ में देखा जाए तो भूमंडलीकरण के प्रभाव से स्त्री का संघर्ष अब इकहरा न होकर विश्व में मानव मुक्ति के संघर्ष से भी जुड़ चुका है जो आधी आबादी के स्वतंत्र अस्तित्व और उसके बुनियादी अधिकारों का भी मुख्य स्वर है । स्त्री कविता सभी वर्ण, जाति, लिंग के स्त्री-समाज की सामूहिक संवेदना को अपने देश-काल , परिवेश , संस्कृति और समय -संदर्भों की भाषा में अभिव्यक्त कर के स्त्री अस्मिता के सभी प्रश्नों और संभावनाओं को समाहित कर रही है । स्त्रीत्व की मुक्ति के सभी आयाम , संघर्ष और अनुभव समकालीन कविता में गंभीरता और प्रखरता से अभिव्यक्त हो रहे हैं । मुख्यधारा के साथ- साथ हाशिये की स्त्री- अस्मिताएँ दलित, आदिवासी विमर्श और वंचित वर्ग की स्त्री-मानवता के कटु अनुभव, दुख -तकलीफ और शोषण के स्वर भी आज की स्त्री कविता में विशेष महत्वपूर्ण हैं । यहां भी स्त्री पक्ष में समकालीन कविता आक्रोश और प्रतिरोध के साथ सभी स्तरों पर अमानवीय और शोषणवादी व्यवस्था के विरूद्ध अपना सशक्त प्रतिरोध दर्ज़ कराती है ।अपनी ही आकांक्षाओं और अधिकारों से विस्थापित -निर्वासित स्त्री दैहिक- आर्थिक शोषण और अंधेरों को सहती हुई अपनी ज़मीन,सम्मान और घर को तलाश रही है ।
इसलिये पितृसत्तात्मक और पंरपरागत भाषा-शब्दों की अर्थसीमाओं को पहचानकर स्त्री-कविता एक नये भाषिक तेवर और विकल्प की खोज भी जारी रखती है जिनमें स्त्री-अस्मिता के प्रश्नों को हाशिये पर नहीं बल्कि समाज और जीवन के केंद्र में रखती है । यहां स्त्री कविता अपनी संवेदना और अनुभवों की अभिव्यक्ति संरचना और भाषिक- शिल्प का एक नया सौंदर्यशास्त्र तैयार करती है । बदलते परिवेश और समय की सामाजिक प्रक्रिया में स्त्री का संघर्ष पहले से अधिक जटिल और चुनौतीपूर्ण हुआ है इसलिए आज की बहुआयामी वास्तविकता को देख-परखकर सभी प्रश्न और समस्याएं स्त्री- रचनाकारों की कविताओं में आते हैं ।
समकालीन स्त्री- कविता जहां आज के क्रूर और हिंसक यथार्थ में मानवीय संवेदना और इस सृष्टि तथा प्रकृति के लिये प्रेम और करुणा को बचाये रखने की कोशिश करती हैं । दूसरी ओर स्त्रीवाद की कठोर जमीन पर खड़े होकर समकालीन सामाजिक विसंगतियों, स्त्री -उत्पीडन और स्त्री समाज के त्रासद यथार्थ के प्रति भी उसकी दृष्टि पूर्णतय सजग और सतर्क है । कात्यायनी, अनामिका, सविता सिंह, गगन गिल, तेज़ी ग्रोवर, सुमन केशरी,नीलेश रघुवंशी , निर्मला पुतुल जैसी अनेक कवयित्रियाँ सामाजिक संरचना में अतंर्निहित स्त्री-जीवन के दुखतंत्र की बहुआयामी गहराई में उतरकर स्त्री- मुक्ति के इस दौर में स्त्री के वास्तविक अस्तित्व को व्यापक और नया स्वर दे रही हैं । बाज़ारवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति में आज स्त्री- कविता का संघर्ष अधिक विचारशील,तार्किक और आधुनिक हुआ है जिसमें स्त्री को हमेशा वर्चस्व और शोषण के नये- नये तरीकों की चुनौती का भी सामना करना पड़ा है । स्त्री –अस्तित्व को एक स्वंतत्र मानवीय ईकाई के रूप में स्थापित करने की दिशा में समकालीन कविता सार्थक और रचनात्मक आंदोलन के रूप में निरंतर संघर्षरत है । मात्र देह मुक्ति ही नहीं अपितु स्त्री की बौद्धिक और मानसिक स्वतंत्रता भी इक्कीसवीं सदी की इस स्त्री कविता की परंपरा को सुदृढ करती है । इन कविताओं में स्त्री-जीवन को प्रभावित करने वाले सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ की संवेदनहीनता और अपने परिवेश की तमाम अमानवीय भेदभावपूर्ण असंगतियों के प्रति चिंताएं भी शामिल हैं जिनसे समकालीन स्त्री- कविता सीधा और आत्मीय संवाद भी स्थापित करती है । स्त्री का आत्मसंघर्ष, स्मृतियां , पीड़ा और अतर्द्वंद्व बुनियादी सवालों के रूप से चारों तरह के अस्थिर और निर्मम यथार्थ से टकराकर अपने अनुभवों की सघनता में ईमानदारी से इन कविताओं में व्यक्त हुई है । स्त्री- अस्मिता और उसकी गरिमा का संघर्ष ही इस कविता कासौंदर्य तथा काव्य -रचनात्मकता का केंद्रीय बिदुं है जिनमे सार्थक सृजनात्मकता की अनंत संभावनाएं हैं । यह कविता सामाजिक, आर्थिक , पितृसतात्मक उत्पीड़न के अतिरिक्त भी स्त्री की जातीय,वर्गीय और लैंगिक असमानता की समस्या से मुक्ति तथा स्वतंत्रता की पक्षधर और प्रतिबद्ध कविता है । इस दृष्टि से स्त्री के प्रति यह अधिक उदार और मानवतावादी समाज- संस्कृति की मानसिकता के निर्माण के लिये संकल्पबद्ध है । अपने समय के सरोकारों से संबधं रखते हुए यह स्त्री कविता अपने सहज अधिकारों और न्याय को हमेशा उपेक्षित किये जाने का मुखर विरोध करती है । इस कविता में समसामयिक स्त्री यथार्थ का संवेदनशील और विवेकपूर्ण समन्वय है जो स्त्री-चेतना की साझा संस्कृति व स्त्री स्वप्नों और आकांक्षाओं का मानवीय विस्तार करती है ।
आज स्त्री लेखन के परिदृश्य में स्त्री-अस्मिता का संघर्ष वस्तुत: पूरी सांमती मानसिकता और व्यवस्था के विरुद्ध है जिसमें स्त्री- कविता की भी व्यापक भागीदारी है । इस कविता में स्त्री- अनुभवों और अस्तित्व से जुड़े गहरे और खुले विचार हैं जो समाज की क्र्रूरता से लड़ने का आत्मविश्वास भी देते हैं । ‘मैं किसकी औरत हूँ’, ‘देह नहीं होती है स्त्री एक दिन और उलट-पुलट जाती है सारी दुनिया अचानक’तथा ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’जैसी सशक्त अभिव्यक्तियाँ समकालीन स्त्री कविता को एक नया मजबूत स्वर देती है । आज स्त्री- कविता दुनिया और व्यवस्था द्वारा बनाये गये खोखले नियमों और रूढ़ियों से आगे अपना विस्तार चाहती है और उसमें समकालीन विसंगतियों और हालात को देखने की तीक्ष्ण दृष्टि है जिसमें सारी चिंताओं, और प्रश्नों से गुज़रते हुए ये कवयित्रियाँ स्त्री के लिये तय की गई वेदनाओं और यातनाओं को भूलती नहीं हैं । समकालीन कविता की संवेदना स्त्री की आत्मानुभूति का भोगा हुआ यथार्थ है अत: यह कविता सदैव स्त्री को समाज द्वारा परिधि पर रखने की पौरुषपूर्ण सोच के विरुद्ध अनथक संघर्ष यात्रा है ।समसामयिक आधुनिक और विचारशील कहे जाने वाले समाज में भी स्त्री के दु:ख और संत्रास की परतें उसकी व्यवस्था में अंदर तक समाहित हैं इसलिये यहां स्त्री मुक्ति और स्त्री पक्षधरता महज़ किसी विमर्श के लिये नहीं आई है। इस कविता में सामाजिक विषमताओं की गहरी पड़ताल है और स्त्री के प्रति पितृसतात्मक समाज की सत्ताकेद्रिंत संकीर्ण और एकागीं मानसिकता का प्रखर विरोध है । स्त्री कविता में यह विषय अब व्यक्तिगत न होकर जाति, वर्ग और वर्ण की सीमाओं से मुक्त और संपूर्ण स्त्री-अस्मिता के आत्मसम्मान और समाज के वैचारिक विवेक से भी संबंध रखता है । इसके लिये पंरपरा से मुक्त एक नयी स्त्री भाषा चेतना और नये संदर्भों में सार्थक- जीवंत अभिव्यक्ति का सशक्त शिल्प भी समकालीन स्त्री कविता की महत्वपूर्ण और सृजनात्मक उपलब्धि कही जा सकती है ।
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