का अभिव्यक्ति की आजादी का केस केस हार जाना !!
की कोई नयी अभिव्यक्ति नहीं है. वर्तमान समय में जिस तरह से मॉब लिंचिंग अभियक्ति
की स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभरकर सामने आई है वह बेहद
चिंताजनक तो है ही, लेकिन इसका इतिहास भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं रहा है. पिछले कुछ वर्षों में नरेन्द्र दाभोलकर (२० अगस्त २०१३, पुणे में
हत्या), गोविन्द पंसारे (२० फ़रवरी २०१५ को रुढ़िवादियों द्वारा गोली मारकर हत्या), एम.एम्.कलबुर्गी
(धारवाड़, कर्नाटक, ३० अगस्त २०१५ में हत्या), गौरी लंकेश (५ सितम्बर २०१७, बेंगुलुरु में
हत्या) आदि की हत्याएं रुढ़िवादी तंत्रों द्वारा हुईं और पिछले कुछ दिनों में
(जुलाई-अगस्त २०१८) देश के अलग-अलग हिस्सों में बहुजन- दलित बुद्धिजियों, प्रोफेसरों पर
जानलेवा हमले और ह्त्या की धमकी की घटनाएं सिलसिलेवार ढंग से बढ़ी हैं, वह संविधान की
मूल संकल्पना के उलट हैं. प्रोफ़ेसर कांचा शेफर्ड, प्रोफेसर लेला कारुण्यकरा, सहायक
प्रोफेसर संजय यादव आदि को रुढ़िवादी तंत्र ने जिस तरह से निशाना बनाया वह
लोकतांत्रिक मूल्यों पर करारा आघात है.
ऐतिहासिक-सामजिक संघर्षों, आन्दोलनो और बलिदानो की प्रक्रिया के बाद प्राप्त की गई और यही मूल्य दुनिया
में नयी व्यवस्था का आधार बनी, उसपर ऐसे हमले अपने ही जीवन मूल्यों की
आधारभूत संरचना पर आघात करने जैसा है. यह आघात लोकतंत्र की सबसे अहम् स्वतंत्रता—“अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता” पर है. जबकि होना तो यह चाहिए था कि स्वतंत्रता को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति का
अविच्छेद अधिकार बना दिया जाता. क्योंकि स्वतंत्रता के अभाव में किसी भी तरह की
बराबरी के समाज की परिकल्पना नहीं की जा सकती. ऐसा नहीं है कि “अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता” आज एक गर्म चर्चा और बहस का मुद्दा बन हुआ है. बल्कि, यह आजादी के पहले भी बुद्धिजीवियों, राजनितिक-सामाजिक
कार्यकर्ताओं और रुढ़िवादी विचारकों के बीच तनाव पैदा करने वाला विषय था किन्तु तब
शायद इसका निबटान कोर्ट में होता था. 1934 में भी कुछ ऐसी ही स्थिति का परिदृश्य
बना था महाराष्ट्र के मुंबई में, जब प्रोफ़ेसर कर्वे ने अपनी पत्रिका
“समाज स्वास्थ्य” में स्त्री की यौनिकता, यौन आनंद, यौन इच्छाओं तथा यौनता जनित स्त्री स्वास्थ
आदि को अपनी पत्रिका का केंद्रीय विषय बनाया था. इसमे स्त्री की यौन इच्छाओ को भी
उतना ही महत्वपूर्ण मानने की वकालत की गई थी जितना समाज परुषों को इस सन्दर्भ में
आजादी देता है. लेकिन उस समय का तत्कालीन समाज और भी ज्यादा कूपमंडूक और रूढ़िवादी
था, उनके इन अभिव्यक्तियों का फल उनपर मुकदमे के रूप में मिला जिसे तब डॉ. बाबा
साहेब भीमराव आंबेडकर ने बतौर उनके वकील के रूप में लड़ा. वह अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक केस साबित हुआ था. इस केस में आंबेडकर
के मुवक्किल एक रैडिकल सोचवाले समाजसेवी
थे जिनके कार्यों को जानना हमारे लिए उपयोगी होगा.
ब्राह्मण परिवार में जन्मे कर्वे का पूरा नाम रघुनाथ धोंडो कर्वे था. अपने पिता के योग्य वारिश होने का प्रमाण उनके क्रांतिकारी विचारों, संघर्षों और घटनाओं में देखा जा सकता है. उनके पिता महर्षि डॉ॰ धोंडो केशव कर्वे (अप्रेल १८, १८५८ – नवंबर ९, १९६२) भी प्रसिद्ध समाज सुधारक थे और महिला शिक्षा और विधवा विवाह के मसले पर उनका योगदान किसी से भी कम नहीं रहा. महिलाओं के प्रति सम्मान, स्वतंत्रता, और बराबरी की पैरोकारी की सोच उन्होंने अपने पिता से ही पाई थी. उनके पिता ने अपना पूरा जीवन महिला उत्थान को समर्पित कर दिया था और उनके द्वार मुम्बई में स्थापित एस एन डी टी महिला महाविघालय भारत के प्रथम महिला महाविघालय होने के गौरव के साथ आज भी महिला शिक्षण के क्षेत्र में कार्यरत है। उन्हे वर्ष १९५८ में भारत रत्न से सम्मनित किया गया. रघुनाथ कर्वे अपने पिता की इसी विरासत को और आगे बढाते हुए महिलाओं की स्वतंत्रता, स्वास्थ्य आदि के मुद्दों को एक नया आयाम देते हैं. बंबई के
विल्सन कॉलेज में गणित के प्रोफ़ेसर होने के साथ ही एक समाज सुधारक भी थे और मुंबई
में १९२१ में ही जनसँख्या नियंत्रण, जन्मदर नियंत्रण, आदि को एक समस्या के रूप में देखते हुए उसपर काम करना शुरू कर दिया था. लेकिन
जैसे ही उन्होंने इन मुद्दों को आम लोगों के सामने रखना शुरू किया, खासकर महिलाओं
के सेक्सुअल, सेंसुअल आनंद लेने के पुरुषों जितने अधिकारों की वकालत की, तो
संकीर्णतावादी कॉलेज के क्रिश्चियन प्रशासन ने उनसे इस्तीफा ले लिया और इसके बाद
से तो वह पूरी तरह से महिला मुद्दों और अधिकारों के प्रति खुद को समर्पित कर दिया.
कर्वे महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर इतने संजीदा और दूरदर्शी थे कि उन्होंने १९२१
में ही जन्म दर नियंत्रण क्लिनिक मुंबई में खोला जो भारत का ही पहला क्लिनिक साबित
नहीं हुआ बल्कि दुनिया के सबसे उन्नत देश—इंग्लैण्ड ने भी उसी वर्ष १९२१ में अपने यहाँ
लन्दन में जन्मदर नियंत्रण क्लिनिक खोला था.
स्वास्थय और खासकर यौन जनित स्वास्थ्य को लेकर भारतीय समाज इतना बंद और अंधकारमय
है कि इसकी चर्चा न तो परिवार के भीतर और न ही समाज में की जा सकती थी. ऊपर से अनेक
तरह के अंध-विश्वास और टैबू सांस्कृतिक रूप से स्त्री को गुलामी से भी बदतर स्थिति
में इस सन्दर्भ में डाले हुए थे. इन्ही सब चिंताओं और समस्याओं को लेकर कर्वे ने
मराठी में कई किताबे लिखी और अपनी एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. संतति नियमन
आचार आणि विचार, १९२३, गुप्त रोगापासून बचाव और आधुनिक
कामशास्त्र, १९३४, आधुनिक आहार शास्त्र, १९३८, वैश्य व्यवसाय, १९४०, आदि पुस्तकें लिखी. १९२७ में उन्होंने एक मासिक पत्रिका—”समाज
स्वास्थ्य” जिसे वे अपने मृत्यु पर्यंत(अक्तूबर १९५३) तक प्रकाशित करते रहे.
इस प्रत्रिका के माध्यम से वे लोगों, स्त्रियों में जन्म दर नियंत्रण, अनचाहे गर्भ
से बचाव के लिए निरोध के प्रयोग, गर्भपात, सेक्स शिक्षण की महता आदि का प्रचार- प्रसार
करते रहे. अपनी पत्रिका में वे लगातार
पुरुषों को भी बच्चे पालने की जिम्मेदारी लेने, जेंडर समानता, महिला सशक्तिकरण और महिलाओं को भी पुरुषों जितना ही सेक्सुअल
एवं सेंसुअल आनंद लेने के अधिकारों की वकालत जीवन भर करते रहे. महिलाओं के यौनिक
अधिकारों को लेकर कर्वे अपने समय से बहुत आगे थे और उनके विचार इतने रैडिकल और
क्रांतिकारी थे कि आज के समाज में भी उनके ये
विचार उतने ही रैडिकल विचार के रूप में देखे और समझे जा सकते हैं. भारतीय
समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियों के यौन आनंद की स्वतंत्रता का प्रबल
हिमायती होना, वह भी पति के होते हुए दुसरे पुरुष के साथ, अपने आप में इस तरह का विचार आज भी रैडिकल और
परिवार व्यवस्था और पितृसत्ता की चूलें हिला सकने वाला विचार है. वे स्पष्ट रूप से
कहते हैं कि “अगर प्रजनन और यौन संक्रामक बीमारियों पर रोक लग सके तो स्त्रियाँ भी उन्मुक्त
सेक्स का आनंद ले सकती हैं, यहाँ तक कि अगर वे विविधता पूर्ण यौन आनंद चाहती हैं तो वे पुरुष वेश्याओं के साथ सम्भोग में लिप्त हो
सकती हैं, अपने पतियों को बिना नुकसान पहुंचाए.”
कर्वे के इन क्रांतिकारी विचारों में साथ दिया उनकी क्रांतिकारी पत्नी मालती ने.
मालती ने आर्थिक बोझ को कम करने केलिए प्रोफ़ेसर कर्वे की भागीदार बनी. इसके अलावा
दोनों ने अपने सिद्धांतों और विचारों को अमली जामा पहनाने के लिए आजीवन बच्चे न
पैदा करने का प्राण लिया और आजीवन निःसंतान रहे. किन्तु समाज ने उनके इन विचारों
के बदले उनके प्रोफ़ेसरी की नौकरी तो ले ही
ली, इसके अलावे सामजिक बहिष्कार—“निर्वासन” का भी प्रतिफल दिया. निर्वासन एक राजनैतिक दंड
सिंद्धांत है जो सिर्फ भारत में ही प्रयुक्त नहीं होता अपितु लगभग दुनिया के तमान
राज्य ऐसे व्यक्ति के लिए इस दंड का प्रावधान करते थे जिसमे उस व्यक्ति के विचार
सत्ता और उस राज्य के नागरिकों के पारंपरिक विचारों को चुनौती देने लगें. इसे
अंग्रेजी में “ऑस्ट्रासिज्म” (Ostracism) के रूप में जाना जाता है. प्राचीन समय में
यह एथेनियन लोकतंत्र के तहत एक ऐसी
प्रक्रिया थी जिसमें किसी भी नागरिक को दस साल तक एथेंस राज्य से निष्कासित किया
जा सकता था। इसका इस्तेमाल किसी ऐसे व्यक्ति को बेअसर करने के तरीके के रूप में
किया जाता था जिसे राज्य या संभावित जुलूस के लिए खतरा माना जाता था। इसे विद्वान
पी जे रोड्स द्वारा “माननीय निर्वासन” (honourable
exile) कहा गया. आज
भी, आधुनिक लोकतंत्र में चौंकाने वाले विभिन्न मामलों के लिए शब्द
“ऑस्ट्रासिज्म” का उपयोग जारी है। उनके जीवन में लगातार तंगी बने रहने
के बावजूद भी वे धारा के विपरीत संघर्ष करते रहे और अपनी पत्रिका का प्रकाशन बंद
नहीं होने दिया.
कर्वे के इस महान संघर्ष में उनका साथ दिया महान विद्वान् रघुनाथ पुरुषोत्तम
परांजपे ने, जिन्हें न केवल भारत में विश्वविद्यालय की परीक्षा में पहली जगह हासिल की थी, बल्कि
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में गणितीय त्रिभुज परीक्षाओं में भी शीर्ष स्थान हासिल
किया था, जिसके बाद वह ‘सीनियर रैंगलर’ का सम्मान प्राप्त करने वाले पहले भारतीय बने थे. इनके अलावा डॉ. अम्बेडकर, रियास्त्कर
सरदेसाई और मामा वरेकर जैसे लोगों ने उनके संघर्ष को ऊँचाइयाँ प्रदान कीं.
आलोचक एम वी धोंड ने कर्वे पर तीन निबंध लिखे हैं। तीसरे निबंध में, उन्होंने
विश्लेषण किया कि क्यों कर्वे क्रमश: संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन में उनके
समकक्ष मार्गरेट सेंगर और मैरी स्टॉपस के रूप में अपने मिशन में सफल नहीं थे।
सेंगर और स्टॉप के लिए प्रतिबंधित नहीं था, अर्थात् परिवार के जीवन में खुशहाली, महिलाओं का
मुक्ति, आबादी का नियंत्रण। कर्वे लगातार प्रयत्नशील थे कि महिलाएं भी पुरुषों की तरह
से ही ज्यादा यौन आजादी और कामुक आनंद लें। धोंड का दावा है कि समकालीन समाज के
उद्देश्यों को सेंगर और स्टॉप के लिए प्रतिबंधित किया गया था और इसलिए न केवल
कर्वे के मिशन को पूरी तरह से पीड़ित किया गया था, बल्कि खुद को समाज द्वारा बड़े पैमाने पर
सताया गया था। अन्य कारण भी थे: कर्वे के अनैतिक व्यक्तित्व, खराब वित्त, और नेटवर्किंग
कौशल की कमी। दुर्भाग्य से कर्वे उस वक़्त तक जीवित नहीं रहे जब तीन प्रमुख घटनाएं, जो हमें महिला कामुकता को बेहतरबी तरीके से
समझने में मदद करती हैं, घटित हुईं. पहला था 1953 में किन्से रिपोर्ट (Kinsey report) का प्रकाशन. दूसरा, 1966 में
मास्टर्स और जॉनसन की पुस्तक(Masters and Johnson’s book) का प्रकाशन और 1976 में हाइट रिपोर्ट (The Hite Report) का प्रकाशन।
इन दस्तावेजों ने साबित कर दिया है कि महिला की यौनिकता और कामुकता को लेकर कर्वे
के विचार कितने सही थे. भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 292 के तहत ‘अश्लील
किताबों, चित्रों आदि की बिक्री, वितरण और कब्जे’ को प्रतिबंधित करता है, के अंतर्गत उनके जीवनकाल के दौरान तीन
बार (और उनकी मृत्यु के बाद भी) उन्हें कोर्ट से समन आते रहे.
पत्रिका “समाज स्वास्थ्य” महाराष्ट्र में रूढ़िवादियों के निशाने पर सदा
रही. कर्वे की पत्रिका का मूल विषय यौनिकता थी. स्त्री यौन शिक्षा, परिवार नियोजन, नग्नता, नैतिकता जैसे विषयों पर कर्वे की पत्रिका में लेख छपा करते थे. स्वस्थ्य
यौन जीवन और इसके लिए चिकित्सा सलाह पर केंद्रित कर्वे की पत्रिका में निर्भीक
चर्चाएँ हुआ करती थीं जो तर्क और विज्ञान सम्मत होती थीं. फिर भी, उनकी बातें
रुढ़िवादी और धर्मनिष्ट, भीरु, अशिक्षित समाज के ठेकेदारों को चुभतीं और इस तरह उनके कई दुश्मन समाज में पैदा
हो गए. लेकिन उन्होंने अपना लेखन और पत्रिका का प्रकाशन नहीं छोड़ा. उस समय भातीय
राजनीति और समाज में बहुत ही कम लोग, ना के बराबर थे जो कर्वे को नैतिक और
व्यावहारिक तौर पर समर्थन दे सकें, उनके लेखनी का समर्थन करते. ऐसे समय में कर्वे को बाबा साहब का साथ मिल जाने से बड़ा
सुयोग और क्या हो सकता था .
न केवल उनका साथ दिया बल्कि उनके लिए उनकी तरफ से वकील बनकर उनके केस में पैरवी भी
की. यह “समाज स्वास्थ्य” नामक उस महान पत्रिका के लिए लड़ा गया मुक़दमा था जो अभिव्यक्ति की आजादी, स्वतंत्रता और
लिंकिग समानता के लिए कृत संकल्प थी. इस मुकदमे में हुई बहस को भारत के सामाजिक –
राजनैतिक सुधारों के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण क़ानूनी लड़ाइयों के रूप में देखा
जाना चाहिए, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ा गया. अदालत में आंबेडकर के व्यक्त
किए गए विचार हमारे संविधान के मौलिक अधिकारों के अंतर्गत आज दर्ज हैं.
की पत्रिका में एक लेख प्रकाशित किया गया जिसका शीर्षक था — “व्यभिचार के
प्रश्न”. इस आलेख ने रुढ़िवादियों को इतना आहात कर गया कि उनपर रुढ़िवादियों
द्वारा मुक़दमा कर दिया गया, उन्हें गिरफ़्तार किया गया और दोषी ठहराए जाने के बाद 100 रुपये जुर्माना भी
लगाया गया. जब कर्वे ने उच्च न्यायालय में अपील की, तो मामले की सुनवाई तत्कालीन न्यायाधीश
इंद्रप्रस्थ मेहता के सामने हुई और उनकी अपील ख़ारिज कर दी गयी.
भीतर ही फरवरी 1934 में कर्वे को दुबारा गिरफ़्तार किया गया. इस बार “समाज स्वास्थ्य” के गुजराती
संस्करण में पाठकों द्वारा निजी यौन जीवन के बारे में किये गए सवाल के जवाब
रूढिवादियों के गले के नीचे नहीं उतरा. किसी पाठक ने हस्तमैथुन आदि से सम्बंधित
प्रश्न किये थे जिसका जवाब कर्वे ने दिया था. इस बार मुंबई उच्च न्य्यायालय में
मुंबई के एक सधे हुए वकील बैरिस्टर बी. आर. आंबेडकर उनकी ओर से उच्च न्यायालय में
लड़ने के लिए खड़े हुए. इस समय तक महाड और नासिक आन्दोलन का नेतृत्व कर चुके डॉ.
आंबेडकर वंचितों के लिए लड़ने वाले
राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे. इतना ही नहीं डॉ. आंबेडकर इस समय तक लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन में
आरक्षण की मांग और महात्मा गांधी के साथ प्रसिद्ध पुणे समझौता कर चुके थे.
रूप से इतना बड़ा कद हासिल कर लेने और इतनी व्यस्तताओं के बावजूद भी डॉ. आंबेडकर ने
उनका केस लड़ना स्वीकार किया तो इसके पीछे उनका कोई आर्थिक प्रयोजन तो निश्चित रूप
से नहीं ही था. आखिर उन्होंने इस केस के पीछे क्या संभावनाएं देखीं कि कर्वे का केस
लड़ने की मंशा बनाई जबकि वे अच्छी तरह जानते थे कि सामाजिक तौर पर उन्हें कर्वे का
केस लेने पर घोर आलोचना और लांछन भी मिलेगा ? बाद में मराठी के प्रसिद्द नाटककार अजीत
दल्वी ने इसी कोर्ट केस को आधार बनाकर एक नाटक लिखा “समाज स्वास्थ्य”
जिसका मंचन पूरे देश में किया जा रहा है.
दल्वी का मानना है, “आंबेडकर निश्चित तौर पर दलितों और वंचितों के
नेता थे लेकिन वो पूरे समाज के लिए सोच रखते थे. सभी वर्गों से बना आधुनिक समाज
उनका सपना था और वो उसी दिशा में आगे बढ़ रहे थे.”
डा. कर्वे |
भीमराव
आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर कहते हैं, “उन्होंने 1927 में मनुस्मृति क्यों जलायी, क्योंकि उनका
मानना था कि ऐसा साहित्य व्यक्तिगत आज़ादी को दबा देती है. इसलिए जहां भी
व्यक्तिगत आज़ादी के लिए संघर्ष चला बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर उसके पीछे खड़े
हुए.”
सम्बंधित मामले की सुनवाई 28 फरवरी से 24 अप्रैल 1934 तक चली. उस समय बाम्बे हाई कोर्ट के न्यायधीश
थे न्यायमूर्ति मेहता जिनके सामने बहस चली. कर्वे के ऊपर आरोप था कि उन्होंने यौन
मुद्दों पर सवालों का जवाब देकर अश्लीलता फैलाई.
ने अपना पहला तर्क यह रखा कि अगर कोई यौन मामलों पर लिखता है तो इसे अश्लील नहीं
कहा जा सकता. हर यौन विषय को अश्लील बताने की आदत को छोड़ दिया जाना चाहिए. इस
मामले में हम केवल कर्वे के जवाबों पर नहीं सोच कर सामूहिक रूप से इस पर विचार करने
की जरूरत है. न्यायाधीश के यह पूछने पर कि हमें इस तरह के विकृत प्रश्नों को छापने
की आवश्यकता क्यों है और यदि इस तरह के प्रश्न पूछे जाते भी हैं तो उनके जवाब ही क्यों दिये जाने चाहिए? इस पर आंबेडकर का जवाब था कि विकृति केवल ज्ञान से ही हार सकती है. उन्होंने
ने प्रत्युत्तर में प्रतिप्रश्न किया कि इसके अलावा इसे और कैसे हटाया जा सकता है ? इसलिए कर्वे को
सभी सवालों का जवाब अपने पाठको को देना ही
चाहिए था. आंबेडकर अपने तर्क के क्रम में खुश होने के अधिकार की भी बात की और
हेवलॉक एलिस के शोध को अदालत में उद्धृत किया जो समलैंगिकता पर किया गया एक शोध
था. उन्होंने कहा यदि लोगों में इस तरह की भी इच्छा होती है तो इसमें कुछ भी ग़लत
नहीं है. उन्हें अपने तरीक़े से खुशी हासिल करने का अधिकार है. इन बहसों ने
समलैंगिकता पर आनेवाले भविष्य में संविधान का रुख स्पष्ट कर दिया जो वर्तमान में
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में मुखरित होता है.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इतना महत्वपूर्ण माना है कि इसके लिए समाज के किसी
वर्ग की नारागागी भी वे मोल लेने को तैयार हैं. यदि समाज किन्ही विचारों को सुनने
के लिए तैयार नहीं है, या कुछ बातों को उसे सुनना पसंद नहीं है तब भी किसी व्यक्ति के विचारों को
अभिव्यक्त करने से रोका नहीं जा सकता. सभी मुद्दे पर खुलकर विचार किये बिना समाज
कभी आगे नहीं बढ़ सकता. कोई भी बंद समाज विकृतियों और रुढियों का वाहक होता है.
इसलिए खुलकर चर्चा और विचार रखना ही उपाय है.
बाबा साहेब अम्बेडकर |
१९२६ में भी अभिव्यक्ति से जुड़े मामले की वो
पैरवी कर चुके थे और अपने दोनों मुवक्किलों बाइज्जत बरी करवाया था. वाकया भी कम
मजेदार नहीं था. पुणे के प्रसिद्द नेता और कार्यकर्ता केशवराव जेधे और दिनकर राव
जवालकर को द्वारा जवालकर द्वारा लिखी गई
मराठी किताब देशाचा दुश्मन (देश के दुश्मन) के लिए 1926 में अदालत में एक मुकदमे
का सामना करना पड़ा। जेदे प्रकाशक थे। इस किताब में बाल गंगाधर तिलक और विष्णु शास्त्री चिपलुनकर
पर उनके ब्राह्मणवादी और गैर ब्राह्मण समुदाय पर व्यक्त उनके नजरिये के लिए जम कर
हमला किया गया था. इसपर पुणे में एक पुलिस
मामला दर्ज किया गया था और पूरा पुणे शहर जेदे और जवालकर के खिलाफ चला गया था।
आंबेडकर ने यह केस लड़ा और जीता.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दों से इतने संपृक्त थे कि अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता को संविधान में सर्वोपरि महत्व की सूची में स्थान दिया और उसे मौलिक
अधिकारों के अंतर्गत शामिल किया. परिवार नियोजन का बिल तो वे १९३७ में ही ले आए
थे. भले ही डॉक्टर आंबेडकर 1934 का वह केस
अदालत में हार गये थे और अश्लीलता के लिए कर्वे पर एक बार फिर 200 रुपये का
जुर्माना लगा था, पर उनके विचारों और अदालत में उनके तर्कों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के
क्षितिज का विस्तार नीले आसमान तक होने के संकेत मिल गए थे. धनञ्जय कीर ने उनकी
आत्मकथा में सही ही लिखा है कि आंबेडकर का अछूत होना भले ही उनके कानूनी पेशे के
लिए एक बड़ी अड़चन थी पर उनके जैसे दृढ विचार वाले व्यक्ति की शक्ति को रोकना असंभव
था.