पिंजरे की तीलियों से बाहर आती मैना की कुहुक

स्मरण

चंद्रकिरण सौनरेक्सा की 98 वीं जयंती पर… 
सुधा अरोड़ा

 

”मैं देश के निम्नमध्यवर्गीय समाज की उपज हूं। मैंने देश के बहुसंख्यक समाज को विपरीत परिस्थितियों से जूझते, कुम्हलाते और समाप्त होते देखा है। वह पीड़ा और सामाजिक आर्तनाद ही मेरे लेखन का आधार रहा है। उन सामाजिक कुरीतियों, विषमताओं तथा बंधनों को मैंने अपने पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया है जिससे वह भी उनके प्रति सजग हों, उन बुराइयों के प्रति सचेत हों जो समाज को पिछड़ापन देती हैं। पचहत्तर साल का लेखन ‘पिंजरे की मैना’ के साथ संपूर्ण होता है और यह मेरी छियासी साल की जीवनयात्रा का दस्तावेज है।”
– चन्द्रकिरण सौनरेक्सा 
हिन्दी कथा साहित्य में महिला रचनाकारों की आत्मकथाएं उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं। पुरुषवर्ग अक्सर यह सवाल पूछता है कि लेखिकाएं अपनी आत्मकथाएं क्यों नहीं लिखतीं? कारण अनगिनत हैं पर लिखी गयी आत्मकथाओं को इस या उस कारण से स्वीकृति नहीं देता। महिला रचनाकारों और प्राध्यापिकाओं का भी एक बड़ा वर्ग इस विधा में लेखन को ‘अपने घर का कूड़ा’ या ‘जीवन का कच्चा चिट्ठा’ मानकर गंभीरता से नहीं लेता बल्कि एक सिरे से खारिज करते हुए कहता है कि साहित्य कूड़ा फेंकने का मैदान नहीं है ।
‘साहित्य समाज का दर्पण है’ उक्ति घिस घिस कर पुरानी हो गई, पर साहित्य का समाजशास्त्रीय विश्लेषण आज भी साहित्य का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं बन पाया। साहित्य और समाजविज्ञान के बीच की इस खाई ने साहित्य को शुद्ध कलावादी बना दिया और समाजविज्ञान के मुद्दों को एक अलग शोध का विषय, जिसका साहित्य से कोई वास्ता नहीं ।
सुभद्राकुमारी चौहान, सुमित्राकुमारी सिन्हा के कालखंड की एक बेहद महत्वपूर्ण लेखिका चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी ने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में एक लंबी चुप्पी को तोड़ने के बाद अपनी आत्मकथा में अपने जीवन के ऐसे बेहद निजी अनुभवों और त्रासदियों को उड़ेल दिया जिसे सहज ही उस समय के वृहत्तर मध्यवर्गीय समाज की घर और बाहर एक साथ जूझती एक औसत स्त्री की त्रासदी से जोड़कर देखा जा सकता है। वे उम्र के उस पड़ाव पर थीं, जब व्यक्ति अपनी जिन्दगी जी चुकता है, जिया जा रहा समय उसे बोनस लगता है और वह महसूस करती है कि अब उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं बचा। उसकी कलम बेबाक हो जाती है और सच बोलने से उसे न खौफ होता है, न परहेज क्योंकि समाज का डर उसे अब गिरफ़त में नहीं लेता।
चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी का जन्म 1920 में पेशावर, पाकिस्तान में हुआ ! यह समय था जब अधिकांश औरतें पढ़ने लिखने के बावजूद अमूमन गृहस्तिनें ही हुआ करती थीं। 1940 में उनका विवाह लेखक-पत्रकार और सुप्रसिद्ध छायाकार कांतिचंद्र सौनरेक्सा से हुआ। शादी के बाद बच्चों की तमाम जिम्मेदारियां निभाते हुए भी चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी हमेशा एक सफल कामकाजी महिला रहीं। उन दिनों दूरदर्शन था नहीं और मनोरंजन के एक प्रमुख साधन के रूप में रेडियो काफी लोकप्रिय था । रेडियो पर लता मंगेशकर के गाने जितने लोकप्रिय थे, लखनऊ के पुराने वाशिंदे बताते हैं कि उतनी ही लोकप्रिय चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी की ‘गृहलक्ष्मी’ की वार्ताएं और ‘घर चौबारा’ की कहानियां हुआ करती थीं।
आकाशवाणी में बेहद लोकप्रिय और नये से नये कार्यक्रम देने वाली यह उस समय की युवा लेखिका भी एक मां और पत्नी के रूप में एक सामान्य औसत गृहिणी के त्याग और सहनशीलता के गुणों से लैस जीवन जीती हैं। उसकी एक कहानी प्रेमचंद के समय की ‘हंस’ में स्वीकृत होती है तो पति संपादक का पत्र देखकर फाहश शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं। पत्नी की कहानी की स्वीकृति पर ऐसी प्रतिक्रिया उस पति की है जो तीन बेटियों का बाप होने के बावजूद सरकारी नौकरी के प्रोबेशन पीरियड में ही एक प्रेम में पड़ जाता है। इससे त्रस्त पत्नी अपने लेखन और ट्यूशन के बूते अपने बाबूजी के पास अलीगढ़ जाना चाहती है पर पत्नी के चले जाने से सामाजिक प्रतिष्ठा और नौकरी जाने की संभावना है इसलिए पति को यह स्वीकार नहीं – ‘‘रोमांस और शादी – यथार्थ की धरती पर चूर चूर हो गए । किसी के दोनों हाथों में लड्डू नहीं हो सकते। यह खोने और पाने का सिलसिला न होता तो दुनिया कब की जंगलराज में बदल चुकी होती। ’’
प्रोबेशन पीरियड खत्म होने के बाद डिप्टी कलेक्टर का स्थायी पद पाने के बाद फिर एक दिन लेखक-पत्रकार-छायाकार पति रात को नौ बजे अपनी एक बीस वर्षीय महिला मित्र को हॉस्टल से घर ले आते हैं और सारे क्रोध, अपमान, आत्मग्लानि के बावजूद पत्नी अपने पति का तथाकथित सम्मान और उनकी इस हरकत को परिवार के सदस्यों की नजर से बचाने के लिए कमरे में भेज देती है और सारी रात गैलरी में अखबार बिछाकर दरवाजे से टेक लगाकर बैठ जाती है। लेकिन बात छिपती नहीं – डिप्टी डायरेक्टर साहब को सस्पेंड किया जाता है और समाचार पत्रों में इस रंगीन अफसाने की खबर छप जाती है। फिर रोटी रोजी का सवाल! किसी तरह सुमित्रानंदन पंत और जगदीशचंद्र माथुर के सहयोग से चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी लखनउ आकाशवाणी की नौकरी पर नियुक्त हो जाती हैं। घर और बाहर का मैनेजमेंट – पिछली पीढ़ी की औरतों ने भी कैसे बखूबी निभाया है, यह किताब इसे समझाने में सक्षम है। पिछली पीढ़ी में तमाम पौरुषीय कारनामों के बावजूद कैसे और क्यों शादियां टिकी रहती थीं और किस कीमत पर … यह ‘‘ पिंजरे की मैना ’’ किताब पढ़कर बखूबी जाना जा सकता है ।
1985 में प्रभात प्रकाशन से उनकी किताब का प्रकाशन, कांति जी के लिए प्रतिशोध का कारण बन गया। उसके बाद हर वर्ग का पुरुष कांति जी को अपनी पत्नी का प्रेमी लगने लगा – चाहे वह कोई संभ्रांत परिचित हो या अखबार देने वाला । कांति जी को यह समझ नहीं आया कि लेखिका चन्द्रकिरण सौनरेक्सा से प्रतिशोध लेने में बदनामी सौनरेक्सा खानदान की बहू की, उनके अपने बच्चों की मां की हो रही थी । ‘‘ अपमान, आत्मग्लानि और घोर मानसिक पीड़ा के दौर से गुजरते हुए, उम्र के इस पड़ाव पर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ थी कि किस तरह झूठ के इस बवंडर का सामना करूं ? ’’
उन्होंने एक लंबे अरसे तक साहित्यिक जगत से अपने को काट लिया, साहित्यिक समारोहों में जाना बंद कर दिया पर इसकी टीस लगातार बनी रही – ‘‘ मैं आज भी निम्नमध्यवर्ग का अंश हूं, तब भी थी। सोचा, एक मुक्केबाज की चोट से अगर बचना चाहते हो, तो उसके रास्ते से हट जाओ। तब उसके मुक्के हवा में चलेंगे, चलानेवाला भी जब उसकी व्यर्थता जान लेगा, तो हवा में मुक्केबाजी बंद कर देगा। मैं स्वनिर्मित गुमनामी के अंधेरे में खो गई। वृंदावन से एक बंदर चला जाए तो वृंदावन सूना नहीं हो जाता। चन्द्रकिरण के साहित्य जगत से हटने से वह सूना नहीं हो गया।’’
इस आत्मकथा की तुलना अगर किसी दूसरी आत्मकथा से की जा सकती है तो वह है मन्नू भंडारी की ‘‘एक कहानी यह भी’’ जो दरअसल आत्मकथा नहीं, मन्नू जी की संक्षिप्त लेखकीय यात्रा है पर दोनों किताबों में गजब की ईमानदारी, साफगोई और पारदर्शिता है। शब्द झूठ नहीं बोलते – दोनों आत्मकथाएं इस बात की गवाह हैं।
अब से सात दशक पहले चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जैसी कामकाजी महिला ने जिस खूबी से अपने घर और कार्यक्षेत्र की मांग को अपनी दिनचर्या में सुव्यवस्थित किया, उसे देखकर हम नहीं कह सकते कि स्त्री सशक्तीकरण आज के आधुनिक समय की अवधारणा है। स्त्री सशक्तीकरण के बदलते हुए चेहरे को समय के साथ बदलता हम देख पा रहे हैं पर इस अवधारणा का शुरुआती दौर देखने के लिए चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की आत्मकथा ‘पिंजरे की मैना’ एक बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक साबित होगी ।
हिन्दी कथा साहित्य के उन पिंजरों में, जिसमें आज भी कई मैनाएं हैं, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा का यह बेबाक और पारदर्शी बयान बहुतों के लिए ताकत का सबब बनेगा।
पुनश्च : यह किताब फिलहाल अनुपलब्ध है। पूर्वोदय प्रकाशन से इसका पहला संस्करण 2008 में प्रकाशित हुआ था । आशा है, कोई प्रकाशक इसे पुनः प्रकाशित कर पाठकों तक इस ज़रूरी किताब को पहुंचाएगा।

लिंक पर  जाकर सहयोग करें , सदस्यता लें :  डोनेशन/ सदस्यता
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह ‘द मार्जिनलाइज्ड’ नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. ‘द मार्जिनलाइज्ड’ के प्रकाशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  अमेजन ,   फ्लिपकार्ट से ऑनलाइन  खरीदें 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016, themarginalisedpublication@gmail.com

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles