न मार्क्सवाद, न अंबेडकरवाद, न स्त्रीवाद , बस एक्सपोजर चाहिए और मंच

सुशील मानव 


देश और समाज में  नफ़रत, वैमनस्य, असहिष्णुता, हताशा और मातम का माहौल है और साहित्य में लगातार एक के बाद उत्सव मनाए जा रहे हैं। पिछले ही सप्ताह इंडिया टुडे समूह का साहित्योत्सव‘साहित्य आजतक’ संपन्न हुआ और इसी सप्ताह दैनिक जागरण ‘जागरण संवादी’ आयोजित करवा रहा है। खुद को प्रतिपक्ष, जनवादी, मार्क्सवादी, अंबेडकरवादी, स्त्रीवादी कहलाने वाले तमाम साहित्यकार इन साहित्योत्सवों में बढ़-चढ़कर भागीदारी कर रहे हैं। लखनऊ में 30 नवंबर से 2 दिसंबर तक होने वाले जागरण संवादी के पहले दिन के कार्यक्रम के वक्ताओं, अपूर्वानन्द, मैत्रेयी पुष्पा और भगवानदास मोरवाल से  स्त्रीकाल के लिए सुशील मानव ने बातचीत की. कठुआ काण्ड में बलात्कारियों के पक्ष में रिपोर्टिंग करने वाले दैनिक जागरण ने लेखकों की मांग के बावजूद माफी मांगना उचित नहीं समझा, लेकिन लेखकों को इस बात का क्या फर्क पड़ने वाला है, वे अपने लचर तर्कों के साथ इसके मंचों को सुशोभित करने वाले हैं. बलात्कार के पक्ष में इस या उस तर्क के साथ खड़े अखबार की विडम्बना है कि वह मी टू पर भी एक सत्र रख रहा है. वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा जागरण संवादी में जाने के तर्क में अन्य लेखिकाओं को दोगला कह रही हैं. वह दिन दूर नहीं जब प्रगतिशील साहित्यकार, विचारक संघ के मंच से भी राष्ट्रवाद, स्त्री-पुरुष समानता और जातिवाद के विरोध में भाषण देंगे. 





प्रोफेसर अपूर्वानंद 
जागरण संवादी जैसे मंचों को आपकी ज़रूरत क्यों है?
प्रोफेसर अपूर्वानंद- इसका उत्तर जागरण से लेना बेहतर होता। उनसे मेरा कोई संपर्क नहीं रहा है। मैंने जागरण के लिए कभी लिखा नहीं, उन्होंने कभी कहा भी नहीं। मैं इससे पहले कभी उनके कार्यक्रम में नहीं गया हूँ। आयोजकों ने कहा कि वे राष्ट्र और राष्ट्रवाद पर बात करना चाहते हैं। यह एक ऐसा मुद्दा पर है जिस पर पिछले चार-पाँच सालों में बहुत भ्रम फैलाया गया है। मेरी समझ है कि इस पर ठहर कर विचार करने की ज़रूरत है। तो इस मुद्दे पर बात करने पर जितना ज्यादा लोग इसके बारे में जान सकें उतना अच्छा है। रही बात दैनिक जागरण की तो उसकी संपादकीय नीति से मेरी हमेशा असहमति रही है। उनका संपादकीय व्यवहार और रिपोर्टिंग गैरजिम्मेदाराना रही  है। हिंदी भाषी  समाज में विषाक्त माहौल पैदा करने में जिनका हाथ है उनमें से एक दैनिक जागरण भी है।

क्या आप जैसे लोगों का इस्तेमाल जागरण जैसे मंच खुद को लोकतांत्रिकता का जामा पहनाने के लिए नहीं कर रहे?
मुझे नहीं मालूम कि मैं इतना महत्त्वपूर्ण हूँ कि कोई मेरे माध्यम से वैधता हासिल करना चाहे। लेकिन इतना आश्वस्त हूँ कि कोई मेरा इस्तेमाल नहीं कर सकता। यह कठिन है। मेरी जो समझ है, जो तर्क है वो मंच के अनुसार नहीं बदलता।

साहित्य में उत्सवधर्मिता अचानक से बढ़ क्यों गई है? इन आयोजनों के पीछे का एजेंडा क्या है?
यह हर जगह हो रहा है। पूरी दुनिया में उत्सवों का सिलसिला देखा जा रहा है। भारत में तो पिछले कुछ सालों से ही शुरू हुआ है। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के बाद कई आयोजक साहित्यिक आयोजन करने लगे हैं। लिटरेचर फेस्टिवल रचना को उत्सव में  बदल रहे हैं। यह कल्चर  इंडस्ट्री है जो साहित्य को भी एक तुरंत मजेदार अनुभव  में बदल रही है। यह गंभीर साहित्य को सतही उत्पाद में बदल रही है। लेखक ब्रांड बनाए जाते हैं। इसमें साहित्य से ज़्यादा साहित्यकारों या सितारों में दिलचस्पी रहती है। अभी दिल्ली के इसी तरह के एक साहित्यिक आयोजन का पोस्टर देखा, उसमें किसी लेखक की तस्वीर न थी, या तो फ़िल्मी सितारे थे या कोई और लोकप्रिय चेहरे। जाहिर है साहित्य मात्र उपलक्ष्य है। यह साहित्य को जन संपर्क अभियान में  बदल देता है। साहित्य, जैसा मैंने कहा, इन मेलों का साध्य भी नहीं है।  साहित्य  और बाज़ार की यह दोस्ती दिलचस्प है, क्योंकि वक्त था जब साहित्य खुद को बाज़ार और राज्य का प्रतिपक्षी मानकर गर्व का अनुभव  करता था। अब रिश्ता  यारी का होता जा रहा है।

मैत्रेयी पुष्पा 
मैत्रेयी जी आप जागरणसंवादी में बतौर वक्ता आमंत्रित की गई हैं?इस पर आपकी कोई प्रतिक्रिया।
मैत्रेयी पुष्पा- मैं 2015 के संवादी में भी गई थी और मैंने अपनी बात रखी थी।मैंने अभी दैनिक जागरण संवादी और साहित्य आजतक के खिलाफ उनके दोगली नचनियों गवइयों को बड़ा मंच और साहित्यकारों को छोटा मंच देने को लेकर एक लेख लिखा है। एक-दो रोज में वो भी छपकर आ जाएगा। उस लेख को पढ़ने के बाद में मुझे बुलाते हैं या नहीं, पता नहीं। तो मेरा जाना न-जाना अभी सुनिश्चित नहीं है।

जागरण एक ओर संवादी चलाकर सबको एक मंच पर बुला रहा है तो दूसरी तरफ कठुआ से लेकर सबरीमाला तक और बाबरी मस्जिद से लेकर बीफ और लिंचिंग तक जागरण लगातार अपने मंचों और साधनों के जरिए स्त्रविरोधी, मुस्लिम विरोधी मुहिम चलाकर समाज में सांप्रदायिक जहर फैला रहा है?
दोगलापन कहाँ नहीं है। बहुत सी प्रगतिशील लेखिकाएँ हैं जो कर्मकांड पूजा-पाठ करती हैं, सिंदूर लगाती हैं। पिछले साल मैंने सिंदूर पर लिखा तो मुझे प्रगतिशील लेखिकाओं ने घेरकर गालियाँ दी। मैंने ऐसे कई लोगों को ऐसे प्रोग्रामों में जाते देखा है जो कार्यक्रम में शामिल नहीं होते पर घूमने खाना खाते जाते हैं। कई बार मैंने ऐसे लोगों से पूछा कि क्या आप भी कार्यक्रम में शामिल हो तो कहते हैं नहीं मैं तो दोस्त के लिए या सहेली के लिए आई हूँ।

जागरण जैसे मंचों के भी अपने लेखक हैं फिर उन्हें आपकी ज़रूरत क्यों है?
उनके पास लेखक कहाँ हैं। मृदुला सिन्हा जैसे कुछ गिने चुने लोग हैं तो उनके दम पर थोड़े ही साहित्य आयोजन कर लेंगे वो।

तो क्या आज साहित्यकारों को अपनी बात कहने के लिए जागरण संवादी के मंच की जरूरत है?
नवजीवन हो या दैनिक जागरण सबके अपने दल और दलीय एजेंडे हैं। पर मैं साहित्यकार की तरह चलती हूँ किसी दल की तरह नहीं।मैं साहित्य में आई तो कोई वाद ओढ़कर नहीं आई। जनवाद और स्त्रीविमर्श लेखन में लेकर आई। सारे वाद लेखन में लेकर आयी। पर जो गलत है वो गलत है। मैंने कई बार उनके खिलाफ़ उनके मंचों पर जाकर बोला है। खेमेबंदी हर ओर है। जलेस प्रलेस के लोग भी अपने मंचों पर अपने ही दोस्तों को ऑब्लाइज करते हैं।

क्या उनके मंचों को उन्हीं के लेखकों के लिए छोड़ देना ठीक नहीं होगा। गर आप जैसे साहित्यकार उनके मंचों पर न जाएँ, उन्हें लोकत्रंत्रिक न बनाएं तो उनके मंच सिर्फ मंचीय और सांप्रदायिक लोगों का अड्डा बनकर रह जाएं?
मैं कहूँगी तो खराब लगेगा पर एकल पहल से कुछ नहीं होता।ऐसे निर्णय सामूहिकता से लिए जाते हैं। इसके लिए हस्ताक्षर अभियान चलाओ। मैं भी उसमें सहयोग दूंगी और अपनी बात रखूँगी।

भगवान दास मोरवाल 
जागरण संवादी में अपनी सहभागिता पर आपकी प्रतिक्रिया?
मैं सीपीएम, सीपीआई सीपीआईएल या किसी भी राजनीति कम्युनिस्ट पार्टी या लेखक संघ का सदस्य नहीं हूँ। मेरी विचारधारा मेरी जाति, मेरा इलाके (क्षेत्रीयता), और मेरे समाज से बनी है। अतिवादी जितनी भाजपा है उतनी ही अतिवादी दूसरे और भी हैं। जलेस जैसे लेखक संगठन पोलिटिकल विंग हैं। ऐसा ही जसम का है। लेखक संगठनों पर ब्राह्मण, ठाकुर जैसे सवर्णों का कब्जा है। दलित लेखक संघ इसीलिए बना। जागरण अख़बार नहीं आता मेरे घर, न ही मैं उसकी विचारधारा का पोषक हूँ। पर वो मुझे बुला रहा है तो मैं एक लेखक और विचारक के तौर पर जा रहा हूँ।हिंदी साहित्य में ये एक अच्छी बात है कि फेसबुक ने आलोचना को खत्म कर दिया है। आज कोई रचना फेसबुक पर डालिए पाठक अपनी प्रतिक्रिया से परिचित करा देता है। साहित्य में आज कंबल ओढ़कर घी पीनेवाली प्रवृत्ति है। जब वो लोग जाते थे तब जागरण सेकुलर था अब जब जागरण उनकों अपने आयोजनों में नहीं बुला रहा है तो आप उसका विरोध कर रहे हैं। मैं तो खुल्लम-खुल्ला बोलकर जा रहा हूँ।

लेकिन उस वक्त क्या जब साहित्य के नाम पर होने वाले इन आयोजनों में लेखकों को छोटा कोना पकड़ाकर बड़े मंच प्रसून जोशी और पीयूष मिश्रा जैसों को सौंप दिया जाता है?
साहित्य उत्सव मनाया जा रहा है। जेएलएफ ने फेस्टिवल का रूप बनाया है। लेकिन जेएलएफ में अंग्रेजी लेखकों का वर्चस्व है। इन आयोजनों में आने वाले4% भी गंभीर साहित्य पाठक नहीं होते। इन आयोजनों में पाठक नहीं भीड़ होती है। भीड़ इकट्ठी करनी है तो भीड़ जावेद अख्तर के मंच पर जाएगी। भीड़ कुमार विश्वास के नाम पर आएगी। नूरा सिस्टर्स को सुनने आएगी। साहित्य आजतक में नूरा सिस्टर्स के मंच पर ढाई हजार लोगो की भीड़ थी। पर गंभीर लेखक के पास भीड़ नहीं आएगी।

क्या कारण है दलित या पिछड़े साहित्यकारों की इन मंचों पर सहभागिता बेतहाशा बढ़ी है।
दलित साहित्यकारों को वो मंच नहीं मिला कभी। पर पिछले तीन सालों में लगातार मेरी तीन किताबें आईं। आज लोग मुझे जानने लगे हैं। कई यूनिवर्सिटीज में मेरी किताबों पर 30 से भी ज्यादा रिसर्च हो रहे हैं। तो अब कहीं कोई मंच नहीं छोड़ना चाहते।मुझे याद है कि मैं अपनी रचना लेकर राजेंद्र यादव के पास गया था उन्होंने मुझे लेखक मानने से ही इन्कार कर दिया था तब मैंने उन्हें चैलेंज किया था मैं आपको लेखक बनकर दिखाऊँगा।पिछले दो सालों से मुझे खुद कई लोग अपने मंचों पर बुला रहे हैं।जागरण के मंच पर जाता हूँ तो वो बात कहता हूँ जो मुझे कहना है। मैं उस पर एहसान कर रहा हूँ। वो मुझ पर नहीं कर रहा है। इससे पहले मुझे एक कार्यक्रम में बलदेव भाई शर्मा ने बुलाया था। तो मैं सरकारी कार्यक्रम समझकर वहां चला गया।

साहित्यकारों को आज उत्सवधर्मी आयोजनों की ज़रूरत क्यों हैं?
बाज़ारवाद और उत्सवधर्मिता दोनों चीजों से साहित्यकार पता नहीं क्यों इतना चिढ़ते हैं। मैं उनसे असहमत हूँ। बाज़ार ने हमें तकनीक दी है। आज मैं तकनीक के जरिए अपने साहित्य का प्रचार कर रहा हूँ तो लोग कह रहे हैं मैं आत्ममुग्धता का शिकार हूँ। मैं साहित्य आयोजनों को लोगों से इंटरएक्शन के साधन के रूप में लेता हूँ। लोगों से मिलकर उनसे बात करके मैं अनुभव अर्जित करता हूँ। यही मेरे लेखन के काम आता है। एक कमरे में कैद होकर नहीं हो सकता। जैसे मैं आरएसएस को लेकर एक उपन्यास लिख रहा हूँ।तो मैंने छः महीने के लिए साखा ज्वाइन कर ली। अब इससे मैं संघी तो नहीं हो गया।पिछले साल भी मैं संवादी में गया था। ‘दलित लेखन की चुनौतियाँ’ विषय पर एक सत्र था। उसमें श्योराज सिंह ने कहा था कि अगर शिवलिंग पर बिच्छू होगा तो मैं उसे चप्पल से मार दूँगा। उस पर वहाँ हंगामा हो गया। वहाँ मौजूद श्रोता हंगामा करने लगे। तब मैंने सबको डॉटकर चुप कराया। श्योराज सिंह बेचैन की एक कविता संग्रह है चमार की चाय। अब लोग उस पर भी सवाल उठाते हैं कि वो चमार की चाय क्यों है दलित की चाय क्यों नहीं।

इस तरह के साहित्य उत्सव यही लोग क्यों करा रहे हैं जो एक खास विचारधारा के पोषक हैं?
प्रकाशकों के बारे में भी हम यही बात कर सकते हैं। वो बनिया हैं साहित्य-सेवी नहीं। उनके पास पैसा है। लेकिन वो रॉयल्टी नहीं देंगे,पर नामवर सिंह, केदरनाथ सिंह राजेंद्र यादव पर नोट लुटाएंगे। हर चीज के दो पहलू होते हैं। ब्लैंक एंड व्हाइट। किसी एक पक्ष पर बात करना और दूसरे को छोड़ देना बेमानी है।जेएएलएफ, जागरण संवादी, साहित्य आजतक इनका मकसद साहित्य सेवा नहीं है। पर हाँ उनके पास संसाधन हैं। तो वो साहित्य का आयोजन करेंगे। वो सबको बुलाएंगे। नाटककार, गायक, साहित्यकार सबको बुलाएंगे।

यदि गंभीर साहित्यकार इन मंचों पर न जाएं तो ये आयोजन सतही और मंचीय भर होकर रह जाएंगे। क्या गंभीर साहित्यकारों द्वारा सतहीपने को गंभीरता के बरक्स स्थापित नहीं किया जा रहा है?
जागरण के आयोजकों से मैंने भी ये बात कही, तो उन्होंने कहा कि सब गंभीर ही गंभीर कर देंगे कितने लोग आएंगे आयोजन में। बावजूद इसके उन्होंने अपने कार्यक्रम में सबसे ज्यादा हिंदी साहित्यकारों को बुलाया है। जागरण ने बेस्ट सेलर शुरू किया तो मैंने उनसे कहा इसे बंद करो। इसमें सतही खांचे की सारी किताबें होती हैं। दरअसल ये साहित्यिक आयोजन एक इवेंट भर हैं, साहित्य सेवा नहीं। इनका भी एक गणित है। इन साहित्यिक इवेंटों को ब्रांडेड कंपनियाँ स्पांसर करती हैं। जो शाम को महँगे महँगे शराब मुफ्त में परोसती हैं। आज हमें जूते से लोकर शर्ट मोबाइल तक हर चीज ब्रांडेड चाहिए। फिर हमें बाज़ारवाद खराब नहीं लगता है। बाजार के बिना हमारी दैनिक दिनचर्या नहीं चल सकती। आज मोबाइल के बिना स्त्री मुक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। घर-परिवार में भी कोई न कोई खराब निकल आता है तो क्या करें।


क्या वैचारिक विचलन पैदा करने के लिए साहित्यकारों को ग्लैमराइज किया जा रहा है?
मैं तो जाति का कुम्हार हूँ। घर का अकेला पढ़ा हूँ। मुझे लिखने का शौक़ है। पर स्वांतःसुखाय के लिए लिखने से सहमत नहीं हूँ। आप अपना हाँड, माँस, पसीना, समय, सोच सब लगाकर लेखन करते हैं। मेहनत के बाद रचना को ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच जाना चाहिए।हमें एक्सपोजर भी चाहिए। तो ये एक्सपोजर हमेंइन्हीं साहित्यिक उत्सवों के माध्यम से मिलेगा। मुझे दिल्ली जैसे महानगर में होने का फायदा मिलता है। यही अगर मैं भी अन्य साहित्यकारों की तरह दूर-दराज के क्षेत्रों में रहता तो मुझे कौन पूछता। माना कि इस तरह के साहित्य आयोजनों में 80 प्रतिशत कुछ और हो रहा है पर 20 प्रतिशत तो साहित्य पर फोकस हो ही रहा है। तब भी हमें इन उत्सवों के प्रति आभारी होना चाहिए।

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