कस्तूरी चक्रवर्ती
प्रकृति व्यापक अर्थ में, प्राकृतिक, भौतिक या पदार्थिक जगत या ब्रह्माण्ड हैं। प्रकृति का मूल अर्थ ब्रह्माण्ड है। इस ब्रह्माण्ड के एक छोटे से, टुकड़े के रूप में, इस पृथ्वी का अस्तित्व है, जिस पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म हुआ है। इस पृथ्वी के बगैर मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। कवि सुमित्रानंदन पंत के लिए प्रकृति काव्य प्रेरणा रही है। वे लिखते हैं–“कविता करने की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति के निरीक्षण से मिली है, मैं घंटों एकांत में बैठा प्राकृतिक दृश्यों को एकटक देखा करता था और कोई अज्ञात आकर्षण मेरे भीतर एक अव्यक्त सौन्दर्य का जाल बुनकर मेरी चेतना को तन्मय कर देता था।”(1) मनुष्य सदियों से प्रकृति की गोद में फलता-फूलता रहा है। इसी से ऋषि-मुनियों ने आध्यात्मिक चेतना ग्रहण की और इसी के सौन्दर्य से मुग्ध होकर न जाने कितने कवियों की आत्मा से कविताएँ फूट पड़ीं ।
वस्तुत: मानव और प्रकृति के बीच बहुत गहरा संबंध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मानव अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए प्रकृति की ओर देखता है और उसकी सौन्दर्यमयी बलवती जिज्ञासा प्रकृति सौन्दर्य से विमुग्ध होकर प्रकृति में भी सचेत सत्ता का अनुभव करने लगती है । मनुष्य के आकर्षण का केन्द्र प्रकृति का सौन्दर्य रहा है। भाव की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए प्रकृति का सहारा लिया जाता है। साहित्य, जीवन की व्याख्या होती है और प्रकृति जीवन का अभिन्न अंग है। मनुष्य प्रकृति को अपने संसर्ग से प्रभावित करता है और उसे नयी अर्थवत्ता देता है। उपन्यास अपनी संवेदनशील प्रवृत्ति के विभिन्न रूपों से प्रभावित करती है ।
हर रचनाकार किसी स्थान विशेष में जन्म लेता है और पलता-बढ़ता है। अपने स्थान विशेष की प्रकृति लोक जीवन और सुख-दुख के बीच उसके अनुभव एवं संवेदना का विकास होता है। उनकी रचनाओं के सर्वप्रथम स्थान विशेष से जुड़े अनुभव ही रूपायित होते है तथा रचना और रचनाकार की पहचान बनते हैं। प्रकृति की अनोखी और अनंत सत्ता मनुष्य को सदा से आकर्षित करती रही है। उसका मनुष्य के भाव जगत के संरक्षण और विकास में हमेशा एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है। प्रकृति की इस सुरम्य गोद में उपन्यास का जन्म हुआ है क्योंकि उपन्यास में आरम्भ से ही प्रकृति के प्रति एक अद्भुत आकर्षण एवं अलौकिक अपनत्व का भाव देखा जाता है । इतिहास भी प्रकृति का एक हिस्सा है। कभी इतिहास प्रकृति में बदलता है तो कभी प्रकृति इतिहास में बदल जाती है। एक स्थान पर निर्मल वर्मा ने लिखा है–“आदमियों द्वारा बनायी गयी इमारतें ‘प्रकृति’ में बदल जाती हैं–शाम की धूप में कालातीत, इतिहास से मुक्त, जबकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी नहाते यात्रियों ने गंगा की शाशवत धारा को अपनी स्मृतियों में पिरों दिया हैं–जहाँ इतिहास और प्रकृति एक-दूसरे से मिल जाते हैं।”(2) शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों ही दृष्टियों से प्रकृति मानव का पोषण करती हुई उसे जीवन में आगे बढ़ाती है। मानव और प्रकृति के इस अटूट सम्बंध की अभिव्यक्ति धर्म, दर्शन, साहित्य और कला में चिरकाल से होती रही है। साहित्य मानव का प्रतिबिम्ब है। अत: उस प्रतिबिम्ब में उसकी सहचरी प्रकृति का प्रतिबिम्ब होना स्वाभाविक है। इतना ही नहीं प्रकृति मानव हृदय और काव्य के बीच संयोजन का कार्य भी करती रही है। न जाने हमारे कितने ही उपन्यासकारों और कवियों को अब तक प्रकृति से काव्य रचना की प्रेरणा मिलती रही है। सृष्टि के आरम्भ से ही मनुष्य प्रकृति के सौन्दर्य से प्रभावित होता आया है। प्रकृति के संदर्भ में निर्मल वर्मा ने लिखा है–“प्रकृति के पास जाने का मतलब है, अपने अलगाव और अकेलेपन से मुक्ति पाना, अपने छिछोरे, ठिठुरते अहम् का अतिक्रमण करके, अनवरत समय की कड़ी में अपने को पिरो पाना, तो यह बोध पुराने खँडहरों के बीच भी होता है । यह विचित्र अनुभव है–ठहरे हुए पत्थरों के सामने बहते समय को देख पाना।”(3) विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ में प्रकृति के सहज ही दर्शन होते हैं। उन्होंने प्रकृति के अनेक बिम्बों और प्रतिकों को अपने रचना-संसार में रेखांकित किया है जो किसी न किसी व्यापक अर्थ को अपने अंदर संजोकर रखे होती है । उनके उपन्यास में नदी, समुद्र, लहर, पेड़, पक्षी, किरण, चांदनी, धरती, पवन, पहाड़ आदि अनेक प्राकृतिक सौंदर्य हैं। उन्होंने प्रकृति के बहुत ही सुन्दर चित्र खींचे हैं ।
विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ सन् 1997 ई. में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में एक निजी महाविद्यालय में व्याख्याता के रूप में कार्यरत रघुवर प्रसाद की जिन्दगी का कस्बाई यथार्थ है। सीमित आय में वह अपना और अपने परिवार का गुजारा करते हैं हैं। किराये का कमरा, महाविद्यालय जाने की असुविधा, माता-पिता की बीमारियाँ आदि से वह जूझते हैं। उपन्यास के केन्द्र में निम्नवर्गीय रघुवर प्रसाद और सोनसी का दाम्पत्य जीवन है। सोनसी से शादी होने के बाद वह अपने जीवन-संग्राम में जूझते रहते है। इस संदर्भ में विष्णु खरे लिखते हैं–“विनोद कुमार शुक्ल के इस उपन्यास में कोई महान घटना, कोई विराट संघर्ष, कोई युगीन सत्य तथा कोई उद्देश्य या संदेश नहीं क्योंकि इसमें वह जीवन है, जो इस देश की वह जिन्दगी है, जिसे किसी अन्य उपयुक्त शब्द के अभाव में निम्नमध्यवर्गीय कहा जाता है।”(4)
प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. नामवर सिंह कहते है–“‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ उपभोक्ता समाज में एक प्रति संसार की रचना करता है। इस यांत्रिक जीवन के विरूद्ध एक मिठास गरमाई का आभास खिड़की के बाहर कराता हैं। मैं चकित हूँ कि यह उपन्यास के भाँति छोटी-मोटी बातें, रोजमर्रा के ब्यौरे यहाँ भी हैं। मैं इस उपन्यास के शिल्प से भी प्रभावित हूँ।”(5)
यह उपन्यास सीधी-सादी, आंचलिक प्रेम कहानी हैं, जिसमें निम्नमध्यवर्गीय समाज के जीवन के ठंडे-मीठे रसीले मन को प्रकृति के खूबसूरत धागे में पिरोया गया हैं। इस उपन्यास में भाषा से एक सपनों का संसार रचा गया हैं। स्वयं विनोद कुमार शुक्ल ने एक इंटरव्यू में कहा–“किसी भी लेखक का शब्दों के साथ खेलने का संबंध तो बनता ही नहीं, जूझने का बनता है।” इस उपन्यास में दाम्पत्य रूपी घर में पति रघुवर प्रसाद ‘दरवाजे’ की तरह है तो पत्नी सोनसी ‘खिड़की’ की तरह। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। उपन्यास में खिड़की की दुनिया भले फैंटेसी की दुनिया हो पर प्रेम और श्रृंगार के यह दृश्य और उनका वर्णन एकदम सहज और स्वाभाविक है। उपन्यास की मुख्य कथा मिम्नमध्यवर्गीय दम्पति रघुवर प्रसाद और सोनसी के प्रेम-आख्यान है। वे दोनों इस खिड़की से एक अद्भुद चमत्कार की दुनिया में प्रवेश करते हैं और वहीं से अपने जीवन के सपने संजोते हैं।
‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ उपन्यास भारतीय निम्नमध्यवर्गीय जीवन संघर्ष के भीतर छिपे जीवन के सुख है। सारे बंधनों से मुक्त वे जीवन का सही आनंद लेते हैं। वे दोनों ऐसी दुनिया में हैं जिसमें सिर्फ दोनों की मौजूदगी का एहसास है। सोनसी रघुवर प्रसाद के लिए एक नई सुबह थी। रघुवर प्रसाद तालाब के किनारे सोनसी के सौन्दर्य को निहारते हैं–“पत्थर पर खड़ी वह इतनी मांसल और ठोस थी कि लगता था कि एक भी कदम आगे बढ़ाएगी तो तालाब का सारा पानी एक उछाल लेगा। तत्काल हृदय में हुए उलकापात के पत्थर की गढ़ी प्रतिमा का ठोसपन और दूर से गर्म लगता था। जब उसने साड़ी को जाँघ तक खोंसा तो लगा कि पत्थर चन्द्रमा का होगा या बृहस्पति का। अगर चन्द्रमा का होगा तो रंग पत्थर का ऐसा ही था जैसा चन्द्रमा दूर से दिखता है सुबह।”(6) छुट्टी के दिनों में जब भी उन्हें फुर्सत मिलती रघुवर प्रसाद और सोनसी के उस दुनिया में रहती बूढ़ी अम्मा अपने बच्चों जैसा प्यार करती है और उन्हें अपने हाथों से चाय पिलाती है। उसकी चाय उन्हें बहुत अच्छी लगती है। दोनों तालाब के खिले हुए कमल में घुसकर नहाने लगे। उनके नहाने से सफेद कमल के फूलों की संख्या भी बढ़ गई है। इतने में बूढ़ी अम्मा आकर आवाज देती है–“बाहर आ जाओ कमल में फँस जाओगे।”(7) यहाँ विनोद कुमार शुक्ल ने बहुत ही खूबसूरती के साथ कल्पना और यथार्थ का मिश्रण किया है कि पता नहीं चलता कब स्वप्न-युग में है। उपन्यास में–“बूढ़ी अम्मा प्रकृति-माँ की तरह हैं। खिड़की की दुनिया पर उनका पूरा नियंत्रण है। वह बन्दरों को डाँट सकती हैं, पक्षियों को पत्थर पर बीट करने के लिए गुस्से में घूर सकती है। यहां तक कि वह रघुवर प्रसाद और सोनसी को भी स्नेह भरी डाँट पिला देती हैं।”(8)
रघुवर प्रसाद के कमरे की खिड़की के बाहर प्रकृति का मनमोहक सौन्दर्य भरा हुआ है। उनको जब भी समय मिलता है वह और उनकी पत्नी सोनसी खिड़की से कूदकर एक अलग ही दुनिया में चले जाते हैं। वे इस संबंध को सौन्दर्य से सम्पृक्त कर देते हैं। रघुवर प्रसाद के लिए सोनसी ऐसी है जिसे बार-बार देखें तो एक नयापन है। सोनसी रघुवर प्रसाद के लिए एक नई सुबह है। वह भी उस अलग दुनिया में रघुवर प्रसाद के साथ जाकर प्रकृति के सौन्दर्य का भरपूर आनंद लेती है। उपन्यास में ‘खिड़की’ प्रेम की दुनिया में ले जाती है। रघुवर प्रसाद के मन में प्रेम की खिड़की खोलने का काम सोनसी करती है। उसके जीवन में सोनसी हवा के झोंकों की तरह आती है और उसके मन को हरा-भरा रखती है। सोनसी की सुन्दरता, रघुवर प्रसाद और उसके बीच प्रेम संबंध को चित्रित करते समय प्रकृति माध्यम बनती है। विनोद कुमार शुक्ल लिखते हैं–“एकदम सुबह का सूर्य बाईं तरफ तालाब में था। सूर्य के बाद तालाब में रघुवर प्रसाद थे, फिर सोनसी थी। सोनसी डुबकी से निकलते ही बालों को पीछे झटकारती तो एक अर्धचक्र बनाती बूँदे बालों से उड़ती तब रघुवर प्रसाद को बूँदों की तरफ इन्द्रधनुष दिखाई देता। सोनसी के गीले बालों को झटकारने से क्षण भर को इद्रधनुष बन जाता था।”(9) खिड़की की दुनिया में रघुवर और सोनसी के मन और उनकी आकांक्षाओं की दुनिया की तस्वीरें हैं। इनके प्रेम में नोक-झोंक, तनाव, चिंता, प्रेम, रूठना, मनाना इन सब से उपन्यास अधिक निखरा है। संबंध उतनी ही गहराई संवेदना, अंतरमन की अभिव्यक्ति के स्तर पर उनकी ही भाषा में प्रस्तुत है। पति-पत्नी के बीच बातचीत, खामोशी में आँखों के द्वारा चलने वाला बातचीत, ये सब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता स्थापित करता है।
वास्तव में खिड़की की दुनिया रघुवर प्रसाद और सोनसी के प्रेम, मन और प्रकृति से लगाव की दुनिया है। उस दुनिया में एक सुंदर नदी बहती है। यह नदी स्वच्छ और कम गहरी है। बरसात के समय इसमें बाढ़ नहीं आती। इस बीच हवा सोनसी की साड़ी उड़ाकर ले जा रही है। हवा में उड़कर जाती हुई रंगोली ने उसे ढाँक लिया था। हवा जब थम गई तो पेड़ों, फूलों, दूबों की गन्घ जो फैल गई थी वह पेड़ों, फूलों और दूबों के आसपास सिमटने लगी। बरगद के पेड़ के पास ही वहाँ तीज त्यौहारों के दिन की पूजा स्थल की सुगन्ध हैं। पेड़ का तना एकदम काला चिकना है। वहाँ एक शिवलिंग का पेड़ है। गोबर से लिपी-पुती जगह पर, पेड़ के नीचे सोनसी आँख बंद किए लेटी थी। सोनसी को जान-बुझकर रघुवर प्रसाद का आना मालूम नहीं हो रहा है। वह इन सब से अनजान दिखी तभी सोनसी की बाई बाँह पर टाएं-टाएं करता एक पक्षी आकर बैठा। बरगद का पेड़, फूल, फूलों का सुगन्ध, बन्दर और बच्चे हैं। साथ में रंग है। बकरी के बच्चे भी हैं। सूर्योदय, सूर्यास्त, चन्द्र और ध्वनियों के साथ प्रकृति उपस्थित है। यह सब रघुवर प्रसाद के मन की जगह है। गोबर से लिपी पगडण्डी मन की पगडण्डी थी। “पगडण्डी को मालूम था इसलिए वह रघुवर प्रसाद के चलने के रास्ते पर थी। रघुवर प्रसाद को टीले पर आना था। इसलिए जहाँ रघुवर प्रसाद आये थे वह टीले पर था। तालाब रघुवर प्रसाद के निहार में था। तालाब में तारों, चन्द्रमा की परछाई पड़ी कि रघुवर प्रसाद के निहार में हो। जुगनू रघुवर प्रसाद के सामने से होकर गए। कमल के फूल रघुवर प्रसाद को दिखने के लिए चन्द्रमा के उजाले में थे।”(10) बिष्णु खरे का कहना है–“एक सुखदतम अचंभा यह है कि इस उपन्यास में अपने जल, चट्टान, पर्वत, वन, वृक्ष, पशुओं, पक्षियों, सूर्योदय, सूर्यास्त, चन्द्र, हवा, रंग, गंध और ध्वनियों के साथ प्रकृति उपस्थित हो जितनी फणीश्वरनाथ रेणु के गल्प के बाद कभी नहीं रही।”(11)
वस्तुत: यह उपन्यास एक सांस्कृतिक परिघटना की तरह है। इस उपन्यास में गाँव में रहने वाले आम लोगों के जीवन की सच्चाई को लेखक ने आवेगपूर्ण और संवेदना में ढाला है। निम्नमध्यवर्गीय परिवार में घर, प्रकृति और परिवेश के छोटे-छोटे अनुभवों के प्रति लगाव रखना ही लेखक की जीवन दृष्टि रही है।
संदर्भ ग्रंथ
- डॉ. कृष्णदेव शर्मा, कविवर सुमित्रानंदन पंत और उनका आधुनिक कवि, रीगल बुक डिपो, दिल्ली, पृ. सं. – 7-8
- निर्मल वर्मा, शब्द और स्मृति, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. सं.- 129
- वही, पृ. सं. – 131
- विष्णु खरे, अनुकथन, पृ. सं. – 168
- सं. राजेन्द्र यादव, हँस, मासिक, जनवरी – 1999, पृ. सं. – 147
- विनोद कुमार शुक्ल, दीवार में एक खिड़की रहती थी , वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2014, पृ. सं. – 49-50
- वही, पृ. सं. – 51
- योगेश तिवारी, विनोद कुमार शुक्ल : खिड़की के अन्दर और बाहर, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2013, पृ. सं.- 53
- विनोद कुमार शुक्ल, दीवार में एक खिड़की रहती थी , वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2014, पृ. सं. – 58
- वही, पृ. सं. – 158
- वही, पृष्ठ फ्लैप से
लेखिका असम विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं
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