जेंडर से जुड़े बहुत सारे कानूनी मसलों पर भारत में चल रही कानूनी लड़ाईयों पर पितृसत्तात्मक बुद्धिजीवियों का विश्लेषणात्मक रवैया कुछ ऐसा है जैसे वंचित समुदायों के जीवन में पूंजीवाद का कोई स्थान ही नहीं होना चाहिये जबकि तीसरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों का सच यह है कि वहां नवउदारवादी नीतियों ने स्त्रियों और वंचित वर्गों को शोषण के अलावा उन्हे उनके देशों की सामंती संरचना को तोड़ कर थोड़ी आजादी भी दी है. अपनी बाकी आजादी और मुद्दों के लिये वह अपने-अपने देशों की पितृसत्तात्मक राजनीतिक व्यवस्थाओं से जूझते हुए अलग-अलग मुद्दों पर कानूनी और अन्य सांस्कृतिक माध्यमों के जरिये अपनी लड़ाईयां लड़ रहे हैं. कई बार प्रगतिशील भी अपने ही देश के लैंगिक आंदोलनों के खिलाफ ऐसे तर्क गढ़ते हैं जो ऊपर से बहुत बौद्धिक और तार्तिक नज़र आते हैं लेकिन उसके अंदर भी पितृसत्ता की मूल शासक भावना ही काम कर रही होती है.
ऐसे में बाजारवाद के तर्कों को लैंगिक आंदोलनों के खिलाफ पढ़ते हुए लगता है कि महिलायें और अन्य वंचित वर्ग नव उदारवाद की खिलाफत क्यूं करे जबकि पता है कि लगभग सारे ही जनतांत्रिक आंदोलनों को आखिरकार अंतरराष्ट्रीय पूंजी के मार्फत विकसित और विकासशील देशों की चिर पुरातन लड़ाई में ही बदल जाना है. लैंगिक आंदोलनों की सफलता को अंतरराष्ट्रीय पूंजी और नेटवर्क की सफलता से जोड़ कर देखा जाना वाकई हास्यास्पद है यदि आप अपने ही देश में मौजूद वंचित वर्ग की चेतना को इस सफलता से मिल रही राहत को नहीं पहचान पा रहे.
आखिर पर्यावरणीय आंदोलन भी इसी तरह की लड़ाईयों का एक हिस्सा होते हैं. इसके बावजूद इस मसले पर मिली अदालती सफलताओं को हम अपनी लोकतांत्रिक उपलब्धि ही मानते हैं जबकि इस तरह के आंदोलनों में भी फंड बाहर से आता है कई बार उन्ही देशों से जहां की कंपनियों के खिलाफ तीसरी दुनिया के देश बगावत कर रहे होते हैं.
हाल ही में नेटफ्लिक्स पर ओशो की एक फिल्म – वाइल्ड-वाइल्ड कंट्री ने खासी शोहरत बटोरी उसके ट्रीटमेंट में एक खासियत है कि उन्होने अंतरराष्ट्रीय पूंजी के बरक्स ओशो के विचारों के उदय को दिखाया. उन्होने दिखाया कि कैसे पूरब के अध्यात्म-अभ्यास के साथ अगर पश्चिम की सेक्स-उन्मुक्तता को जोड़ दिया जाये तो पूरब और पश्चिम एक हो सकते हैं. यही वो विचार था जिसने ओशो को साल 1981 में अमेरिका के आरेगांव जैसे पथरीले प्रदेश में एक पूरा शहर बनाने के लिये यूरोपीय और अमेरिकी उच्च वर्गीय, संभ्रात लोगों का एक पूरा जत्था मिल गया.
हम भारतीय बहुत अच्छे से जानते हैं इस मेहनत को- आखिर हमने भी अपने ब्रिटिश आकाओं के लिये अंडा सेल जैसी औपनिवेशिक इमारतें बनाई हैं. कुछ उसी तरह ओशो के अनुयायियों ने उनके लिये रजनीशपुरम बना डाला. जो वहां के स्थानीय लोगों को अपनी संस्कृति पर हमला लगा और उन्होने इस सांस्कृतिक हमले के खिलाफ अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी. अमेरिका के नागरिकों को जीत हासिल हुई और मां आनंद शीला समेत भगवान ओशो के अन्य अनुयायियों को अध्यात्मिक पूंजीवाद के केंद्र में स्थित ओशो के अथॉरिटेरियन कैरेक्टर का पता चलता है.
शीला को पता चलती है 16 साल की उम्र में दुनिया छोड़ कर किये गये अपने प्रेम की हकीकत. ओशो का साम्राज्य ढह जाता है और वह अमेरिका से वापस आकर पुने स्थित अपने आश्रम में समाधि ले लेते हैं जिससे उन्हे बचाने के लिये शीला इस कदर डिफेंसिव हुई थी कि उसने दूसरों की हत्या जैसे कराने जैसे विकल्प चुने थे.
पूंजीवाद में किसी सुपर क्रिएटिव टीम और उसके सबसे खूबसूरत सपने का अंत इसी तरह एक दुखद कथा में बदलने को अभिशप्त होता है. ठीक वैसे ही किसी लोकतांत्रिक देश की कानूनी सफलतायें अक्सर किसी शक्तिशाली समूह और व्यक्ति के वर्चस्व की भेंट चढ़ जाती हैं. तो क्या तीसरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में चल रहे जनतांत्रिक आंदोलनों – खासकर लैंगिक आंदोलनों और मुदों को पितृसत्ता की भेंट चढ़ते देख कर खुशी मनायी जानी चाहिये?
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