महादेवी वर्मा की 112 वीं जयंती पर संगीत नाटक अकादमी के सहयोग से स्त्रीकाल और समकालीन रंगमंच ने महादेवी-काव्य-संध्या का आयोजन 26 मार्च को संगीत-नाटक अकादमी के प्रांगन में किया. पहले सत्र में महादेवी वर्मा की कविताओं का गायन एवं दूसरे सत्र में समकालीन 7 कवयित्रियों का कविता पाठ हुआ.
आयोजन के पूर्व साहित्यकार एवं आदिवासी-दलित-महिला अधिकारों की प्रवक्ता रमणिका गुप्ता के स्मृतिशेष होने की खबर आयी. कार्यक्रम की शुरुआत में उन्हें याद करते हुए दो मिनट का मौन रखा गया. कई कवयित्रियों ने उन्हें अपनी कवितायेँ समर्पित करते हुए कविता-पाठ किया.
प्रथम सत्र में गायिका उषा ठाकुर ने महादेवी की ‘कीर का प्रिय आज पिंजर खोल दो’ ‘मैं नीर भरी दुःख की बदली, ‘विहंगम मधुर स्वर तेरे’ आदि 9 कविताओं/गीतों का गायन किया. उनके साथ तबले पर संगत किया अंजनी कुमार झा ने और पैड एवं कीबोर्ड पर थे बाबलू और जयदेव शर्मा.
दूसरे सत्र की शुरुआत नीतीशा खालको ने जम्मू के बकरवाल समुदाय की लडकी ‘आसिफा’ की याद में कविता पढ़ते हुए की. आसिफा की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गयी थी. नीतीशा की कविता ‘अखबार और आसिफा’की पंक्तियाँ हैं, ‘
रोज आसिफा आती है
बतियाती है
और छूने की नाकाम कोशिश करती है
और यह कहकर वापस अखबार में समा जाती है
कि अगली बात मुझे 33 करोड़ देववासियों
की देवनगरी और देवभूमि में मत आने देना
मुझे जीने देना
आसिफा बकरवाल बन नहीं
बल्कि आदमजात मात्र
पढी गयी कविताओं में स्त्री के संघर्ष, स्वप्न दर्ज हुए और जेंडर-भेद की स्थितियों को भी ये कवितायेँ संबोधित करती दिखीं. शुभा ने अपनी अन्य कविताओं के साथ अपनी चर्चित कविता ‘गैंगरेप’ भी सुनायी, गैंगरेप की पंक्तियाँ:
‘हमारे शास्त्र पुराण, महान धार्मिक कर्मकांड, मनोविज्ञान मिठाई और
नाते रिश्तों के योग से लिंग इस तरह
स्थापित हुआ जैसे सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता
आश्चर्य नहीं कि मां की स्तुतियां
कई बार लिंग के यशोगान की तरह सुनाई पड़ती हैं।
लिंग का हिंसक प्रदर्शन उस समय ज़रूरी हो जाता है जब लिंगधारी का प्रभामंडल
ध्वस्त हो रहा हो”
अनिता भारती की कविताओं में स्त्री-आंदोलनों के अंतरविरोध की पहचान स्पष्ट होती है और भविष्य की स्त्री की तस्वीर पेश होती है. उनकी एक कविता ‘रहस्य’ की पंक्तियां हैं:
पर मेरी बेटी
जो हमसबके भविष्य की सुनहरी नींव है
जो जन्मघुट्टी में सीख रही है
सवाल करना
कब से? क्यों? कैसे? किसका?
मुझे पता है वह हालत बदल देगी
उसमें है वह जज्बा
लड़ने का, बराबरी का
क्योंकि उसे पता है संगठन, एकता का रहस्य
रजनी अनुरागी की कविता स्त्री की अस्मिता के पक्ष में कथन हैं. उनकी पढ़ी गयी कविताओं में से एक ‘फूलन’की पंक्तियाँ हैं:
तुम अकेली और वो कायर लिंग थे केवल
तुम्हारे मान मर्दन की तमाम कोशिशों के बावजूद
वह अट्टहासी क्रूर हिंसा तुम्हें तोड़ नहीं पाई
तुम टूट भी नहीं सकती थीं
कि तुमने जान लिया था स्त्री जीवन के डर का सच
जान लिया था कि स्त्री का मान योनि में नहीं बसता
वह बसता है स्त्री के जीवित रहने की उत्कट इच्छा में
यह जान लेना ही तुम्हारा साहस था
जिसे तुमने नहीं छोड़ा
जीवन की आखिरी सांस तक
रश्मि भारद्वाज की एक कविता पाठ और आलोचना के जेंडर-भेद को स्पष्ट करती है. कुछ पंक्तियाँ हैं:
एक पुरुष ने लिखा प्रेम
रची गयी प्रेम-परिभाषा
एक स्त्री ने लिखा प्रेम
लोग उसके शयन-कक्ष का भूगोल तलाशने लगे
एक पुरुष ने लिखा स्त्रियाँ
वह सब उसके लिए प्रेरणाएं थीं
एक स्त्री ने लिखा पुरुष
वह सीढियां बनाती थी
स्त्री ने जब भी कागज़ पर उकेरे कुछ शब्द
वे वहां उसकी देह की ज्यायमीतियाँ ढूंढते हैं
मृदुला शुक्ला की पढ़ी गयी एक कविता प्रेम में अस्तित्व और भूमिका के बदलने का आश्वासन चाहती है, प्रेम में स्त्री के हिस्से पारम्परिक समर्पण में बदलाव चाहती है. पात्र और बिम्ब तथा नियत का बदलाव:
जब तुम मुझसे कर रहे थे प्रणय निवेदन
तुम्हारी गर्म हथेलियों की बीच
कंपकंपा रहा था मेरा दायाँ हाथ
ठीक उसी वक्त
तुम्हारे कमरे की दीवार पर मेरे ठीक सामने
टगी थी एक तस्वीर
जिसमे एक जवान औरत पीस रही थी चक्की
बूढी औरत दे रही थी
चक्की के बीच दाने
पास ही औंधा पड़ा खाली मटका
उसी तस्वीर में
एक जवान आदमी दीवार से सिर टिकाये
गुडगुडा रहा था हुक्का
एक बूढा बैठा बजा रहा था सारंगी
मुझे स्वीकार है तुम्हारा प्रणय निवेदन
वचन और फेरों के फेर के बगैर
जब मेरा बेटा कर रहा हो प्रणय निवेदन अपनी सहचरी से
उसके पीछे दीवार पर टंगी तस्वीर में
बूढी औरत बजा रही हो सारंगी
बुढ़ा गुडगुडा रहा हो हुक्का
जवान औरत और आदमी
मिल कर चला रहे हो चक्की
सुनो !क्या तुम मेरे लिए बदल सकते हो
दीवार पर टंगी इस तस्वीर के पात्रो की जगह भर
लीना मल्होत्रा की यह कविता जेंडर निर्माण को स्पष्ट करती है यह चिह्नित करते हुए कि औरत की देह किस तरह उसका एकमात्र अस्तित्व बना दी जाती है. हालांकि यथास्थिति का स्वीकार भी नहीं है सिर्फ स्त्री के भीतर, संभावनाएं विद्रोह की भी हैं:
क्यों नहीं रख कर गई तुम घर पर ही देह
क्या दफ्तर के लिए दिमाग काफी नहीं था
बच्चे को स्कूल छोड़ने के लिए क्या पर्याप्त न थी वह उंगली जिसे वह पकड़े था
अधिक से अधिक अपना कंधा भेज देती जिस पर टँगा सकती उसका बस्ता
तुमने तो शहर के ललाट पर यूं कदम रखा
जैसे
तुम इस शहर की मालकिन हो
और बाशिंदों को खड़े रहना चाहिए नज़रे झुकाए
अब वह आग की लपट की तरह तुम्हें निगल जाएंगे
उन्हें क्या मालूम तुम्हारे सीने में रखा है एक बम
जो फटेगा एक दिन
उन्हें ध्वस्त करता हुआ
वे तो ये भी नहीं जानते
तुम भी
उस बम के फटने से डरती हो।
काव्य संध्या का संचालन राजेश चन्द्र और धन्यवाद ज्ञापन संजीव चन्दन ने किया.