ज्योति प्रसाद
कुछ ही हफ़्ते बाक़ी हैं इस देश के लोकतंत्र के चुनावों में. मीडिया से लेकर देश का छोटे से छोटा चौक तमाम तरह की चर्चाओं से गरम है. राजनीति के नाम पर मुंह पर रूमाल रख लेने वाले भी अपने विचारों को साझा करने से नहीं हिचकिचा रहे. सबके अपने अपने मत और तर्क हैं. सभी लोगों के अपने मूल मुद्दे हैं जिनसे टीवी का टीआरपी वाला मीडिया बेख़बर है. लेकिन इस देश की आम औरत और आम आदमी अपने मुद्दे जानते हैं.

वह बड़ा ही साहसी दिन होगा जब आधी आबादी का दृढ़ निश्चय, इतिहास में जबरन घुसकर अपने हिस्से के मिलते-जुलते चरित्रों को खींच लाएगा. अपनी मज़बूत ज़मीन को समझेगा. ऐसा होना चाहिए. ऐसा होना होगा. ऐसा हो रहा है. किसी ‘प्लेटोनी’ और ‘अरस्तुनी’ के दिमागों की चर्चा तो हुई होगी कभी. उनके ख़याल भी तो होंगे कि राज्य कैसा हो और इसका शासन कैसे चलाया जाए?
क्या हर बात जाने भी दो यारों से ख़त्म करने की कोशिश की जाए? जवाब है –“नहीं, कतई नहीं!” जिंदा जलाए जाने पर भी औरतों की नस्ल ऐसी है कि मैदान में बराबर टिकी हुई है. आज भी लड़ाई ख़त्म नहीं हुई है. अंग्रेज़ी की बहुत ही चर्चित फ़िल्म “किल-बिल-2” (2004) में एक ग़ज़ब का दृश्य है. कई लोगों को वह गप भी लगता है. उस दृश्य में बदला लेने वाली औरत को ज़मीन में दफ्न कर दिया जाता है. लेकिन वह औरत ज़मीन को फाड़कर बाहर आ जाती है. उसी रात को एक कैफे में जाकर एक गिलास पानी मांगती है. कहने को तो यह दृश्य एक एक्शन फ़िल्म का दृश्य मात्र है लेकिन अगर औरताना जिजीविषा के बरक्स इस दृश्य को देखे तो औरतें इतिहास में इसी तरफ अपनी कब्रों से बाहर आती रही हैं.
बात अगर राजनीति के संदर्भ में हो तो आज भी भारत में 33 प्रतिशत आरक्षण की आवाज़ बुलंद है. पच्चीस-छब्बीस बरसों में 33 प्रतिशत आरक्षण औरतों को नहीं मिल पाया है. भले ही यह एक असफलता हो पर जो बात-बार की जाती वह वास्तव में वह गूंज बन जाती है. गूंज की ख़ासियत यह है कि वह ज़रा देर से मरती, पर अपने को दोहराना नहीं छोड़ती. इसलिए राजनीति में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण की मांग एक गूंज बन चुकी है, जो मर नहीं रही है.
घर और ख़ासतौर से रसोईघर की रौनक मान ली गई औरतों के पांव जब राजनीति गलियारों में पड़े तो ऐसा नहीं रहा कि उनका सफ़र आसान रहा हो. उन्हें उतने ही भयानक और तीखे हमलों से गुज़ारना पड़ा जो हवा में ग़ायब हो गए और कुछ अनुभव तो दर्ज़ भी नहीं हो पाए. उन्हीं महिलाओं और उनसे जुड़ी कुछ बातों को इस साल के लोकसभा चुनावों में जानना बेहद ज़रूरी और दिलचस्प होगा.
छत्तीसगढ़ की मिनीमाता
‘न्यूटन’ फिल्म सन् 2017 में रिलीज़ हुई थी. यह फ़िल्म भारतीय लोकतंत्र के उन राज्यों की स्थिति दिखाती है जिसे टीवी और फ़िल्मों की दुनिया ने सिर्फ़ और सिर्फ़ ‘झींगा लाला’ शब्दों में तब्दील कर दिया है. भारत में इन राज्यों को रेड बेल्ट कहकर भी पुकारा जाता है. छत्तीसगढ़ ऐसा ही राज्य रहा है. दूर दिल्ली से इन राज्यों की भरी-पूरी विरासत का अंदाज़ा तमाम तरह के राष्ट्रीय पुरस्कारों के दौरान ही पता चलता है. सन् 1913 में जन्मी मिनीमाता इसी तरह की ख़ास शख्सियत थीं. उनका असली नाम मीनाक्षी देवी था. उनके जन्म का क्षेत्र असम राज्य है. पर उनकी कर्म-भूमि छत्तीसगढ़ प्रदेश रहा.
सन् 1952 में पहली बार लोक सभा सदस्य बनने वाली मिनीमाता को जनता के बीच राजमाता भी कहा जाता था. 1952 के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. 1957, 1962, 1967, और 1971 के वर्षों में वे लगातार जीत दर्ज़ करते हुए सासंद बनती रहीं और अपने काम को करती रहीं. समाज में में उनकी छवि लोकप्रिय नेत्री की रही. उनके नाम से छत्तीसगढ़ में कई सरकारी स्थलों और छात्रवृत्तियों के नाम हैं. एक अच्छी नेत्री या बेहतर नेता किसी पार्टी विशेष का नहीं होता. इसलिए मिनीमाता को कांग्रेस पार्टी से जोड़कर और उनके कामों का सही विश्लेषण न करके उनके साथ नाइंसाफी कर सकते हैं.
उनके बारे में गूगल की दुनिया में काफी लेख और यूट्यूब पर गीत भी मिल जाएंगे. उनके बारे में ऑनलाइन दुनिया काफी कुछ बताती है कि उन्होंने उन तमाम लोगों के लिए काम किया जिन्हें अभी तक सही सम्मान हासिल नहीं हुआ है. अस्पृश्यता विधेयक को संसद में पास करवाने में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा. गैर-बराबरी को उन्होंने समझा कि यह किसी भी समाज के लिए कितना घटक है और उसे ख़त्म करने में वह लगातार काम करती रहीं. उनके कामों में ममतामयी छवि के चलते ही उन्हें मिनीमाता कहकर पुकारा गया है. किसी व्यक्ति के काम ही उसके व्यक्तित्व के बारे में अधिक बताते हैं.

यह एक और विशेषता है कि औरत जब राजनीति में आती है तो अपने साथ वह किसी दूसरे के दर्द को समझने का हुनर भी साथ लाती है जिसे उसकी ज़ात ने हजारों साल से जीया है. मिनीमाता का कुछ ऐसा ही चरित्र था. कई उल्लेखनीय लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उनका राजधानी दिल्ली में जो घर था वह सांसद का घर कम बल्कि आश्रम ज़्यादा था. क्या आज के युवा नेताओं और महिला नेताओं को यह नहीं सीखना चाहिए जो नेता बन जाने पर अपनी ज़मीन और लोगों से कटकर बैठे रहते हैं.
एक विमान हादसे में इनकी मृत्यु सन् 1972 में हुई. यह राजनीति में किसी अहम् स्थान का असमय शून्य होने जैसा था. इन्हों बहुत कम वक़्त में बड़ा चरित्र बनाया. अपने कामों से राजनीति में वह जगह बनाई जो आगे आने वाले समय में बहुत लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बन सकती है.
ज्योति प्रसाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं, समसामयिक मुद्दों पर लिखती हैं.