चुनाव आयोग को महिला संगठनों का पत्र: समुचित राजनीतिक प्रतिनिधत्व के लिए हस्तक्षेप की मांग

महिला आरक्षण के लिए सक्रिय संगठनों ने चुनाव आयोग को पत्र लिखकर महिलाओं के समुचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप की मांग की है. महिलाओं का एक प्रतिनिधिमंडल इस मांग और पत्र के साथ आयोग और विभिन्न राजनीतिक दलों से मिल रहा है.

चुनाव आयोग को लिखा गया पत्र:

हम, महिलाओं का राष्ट्रीय गठबंधन, राजनीतिक दलों द्वारा अपने द्वारा जारी सूची में महिला उम्मीदवारों को न्यूनतम टिकट दिये जाने के प्रति अपना गहरा असंतोष व्यक्त करने के लिए यह लिख रहे हैं। हमारा मानना है कि राजनीतिक दल जो अपने संगठन में महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, वे सही मायने में हमारे लोकतंत्र के प्रतिनिधि नहीं हैं। इसके अलावा, यह पत्र उन सबके लिए भी समान रूप से लिखा गया है जो एक न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था बनाने के लिए जिम्मेदारी की स्थिति में हैं। टिकट आवंटन में यह भेदभाव भारत में पुरुषों और महिलाओं के लिए उपलब्ध अवसरों में जेंडर असंतुलन पैदा करता है.

 नेशनल एलायंस फ़ॉर वीमेन रिज़र्वेशन बिल (कई महिला संगठनों के सदस्यों का एक मंच) पिछले चुनाव आयुक्तों से मिला है। हम कई मौकों पर उनसे अपील करते रहे हैं कि वे सभी राजनीतिक दलों के साथ लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के अधिक से अधिक प्रतिनिधित्व को लेकर उचित कदम उठाएँ। 16 वीं लोक सभा में केवल 12% महिला निर्वाचित प्रतिनिधियों का निराशाजनक प्रतिनिधित्व था। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, देश भर के कुल 4896 सांसदों / विधायकों में से केवल 418 यानी 9% महिलाएँ हैं।


हम यह बताना चाहते हैं कि हमारा संविधान सभी नागरिकों के लिए समान अवसरों की परिकल्पना करता है, जेंडर और अन्य भिन्नताओं से परे। हालांकि, यह वास्तव में दुखद है कि हमारी लगभग 50% जनसंख्या वाली महिलाओं को केंद्र और राज्य स्तर पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है. यह सब अधिक विडंबनापूर्ण है, क्योंकि संसदीय अध्ययन दल ने स्वयं एक महत्वपूर्ण सिफारिश की थी कि महिलाओं के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय हेतु प्रभावी नीतियों के लिए उनका न्यूनतम 33% प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

यह काफी हद तक स्पष्ट है कि पिछले कुछ वर्षों में, कॉर्पोरेट जगत, न्यायपालिका, खेल और यहां तक ​​कि सेना और पारा मिलिट्री फ़ोर्स जैसे पुरुष-केन्द्रित माने जाने वाले संस्थानों सहित विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगातार बढ़ रहा है. वे ख़ास तौर से दृश्य और प्रभावी मतदाता के रूप में भी उभरी हैं.

फिर भी, राजनीतिक दल महिला उम्मीदवारों को अवसर देने के प्रति अनिच्छुक हैं, भले ही वे जेंडर समानता के चैम्पियन होने के दावे निरंतर करते रहते हैं।  वे अक्सर महिलाओं की जीतने की क्षमता  का बहाना लेकर सामने आते हैं या यह कहते हुए बचाव करते हैं कि राजनीति महिलाओं का कैरियर नहीं है। राजनीतिक नेतृत्व की पितृसत्तात्मक मानसिकता इस तथ्य से परिलक्षित होती है कि वे महिलाओं पर प्रॉक्सी प्रतिनिधि और अक्षम प्रशासक होने का आरोप लगाते हैं, लेकिन उन पुरुष उम्मीदवारों के साथ सहज होते हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं, इनमें कुछ मामले महिलाओं के खिलाफ अपराध के हैं।


पुरुष उम्मीदवारों के चयन को प्रश्रय और महिलाओं के प्रति जेंडर आधारित भेदभाव राजनीतिक दलों के इरादों के बारे में संदेह पैदा करते हैं। राजनीतिक भागीदारी चाहने वाली महिलाओं के लिए शिक्षा, आर्थिक क्षमता आदि प्रमुख मापदंड हो जाते हैं हालांकि, पुरुषों को इस तरह के सभी मापदंडों से छूट हो जाती है। पुरुष होना ही उनकी योग्यता मान लिया जाता है.

जबकि हम जानते हैं कि इस मुद्दे को मुख्य रूप से राजनीतिक दलों द्वारा हल किया जाना चाहिए लेकिन चुनाव आयोग के लिए यह उचित होगा कि वह राजनीतिक दलों और आम जनता को महिलाओं को समान अवसर देने की जरूरत की याद दिलाये.

भारत का चुनाव आयोग बड़े पैमाने पर चुनावों के सफल और न्यायपूर्ण सञ्चालन के लिए एक प्रतिष्ठा प्राप्त संस्था है। महिलाओं की ओर से आयोग द्वारा सक्रिय हस्तक्षेप, देश में लोकतंत्र को सुनिश्चित करने की दिशा एन कदम होगा. चुनाव आयोग अगर इस तरह का कदम उठाता है तो यह मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट ’शब्द को एक गहरा अर्थ देगा और बदलते सामाजिक मानदंडों के पालन का एक सन्देश भी देगा।

हमें पूरी उम्मीद है कि चुनाव आयोग को यह निर्णायक कदम समाज में जेंडर असंतुलन को खत्म करने के लिए और महिला मतदाताओं की आकांक्षाओं के लिए जरूरी प्रतीत होगा. हम महिलाएं चुनाव आयोग को संविधान के संरक्षकों के रूप में  देखना चाहते हैं जिसका काम सिर्फ नियमित चुनाव करवाना भर नहीं हो बल्कि आगामी चुनावों में जेंडरभेद रहित स्थितियां निर्मित करने की भी हो.

हम सभी राजनीतिक दलों से, उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से परे जकार आग्रह करते हैं, कि वे महिलाओं के सशक्तीकरण और मुक्ति के उनके बार-बार के चुनावी दावे की दिशा में काम करें। दक्षिण या वाम, हर पंथ के राजनीतिक दलों में सभी ने व्यक्तिगत या सामूहिक क्षमता में महिला आरक्षण के पारित होने का समर्थन करने की बात की है। यह भाषणों और चुनाव घोषणापत्रों में अक्सर किया जाने वाला एक चुनावी वादा रहा है। फिर भी, इस विधेयक को न तो लोकसभा में लाया गया है और  न ही राजनीतिक दलों द्वारा अपने स्वयं संगठन के भीतर जेंडर-न्याय की दिशा में कोई कदम उठाया गया है।

हम इस अवसर पर राजनीतिक दलों के नेताओं को याद दिलाना चाहेंगे कि देश की आधी आबादी को उनके खोखले वादों पर अब सवाल उठ रहे हैं।

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