4 अप्रैल 2019 को महिला संगठनों ने पूरे देश में ‘बदलाव के लिये वोट’ की राजनीति का आह्वान करते हुए अलग-अलग शहरों में पिछले पांच साल में लगातार बढ़े अन्याय, शोषण और कॉरपोरेट लूट और हिंसा के खिलाफ लोकतांत्रिक ढंग से जुलूस निकाले.
दिल्ली के जंतर-मंतर पर रैप की शक्ल में गाये जा रहे गीत, भाषण की शक्ल में की जा रही राजनीतिक गोलबंदी और युवा लड़के लड़कियों का तेज धूप में इन सारे कार्यक्रमों को सुनने और रिकॉर्ड करने का जोश देख कर लगा कि कल मीडिया में ये खबर जरूर सुर्खियां बटोरने पर कामयाब रहेगी क्योंकि ये मार्च पूरे देश में हुआ और छात्रों, बुद्धिजीवियों के अलावा ठीक-ठाक संख्या में राजनीतिक संगठनों में काम करने वाली श्रमिक महिलाओं की भागीदारी भी इस जुलूस में भरपूर दिखी.

दूसरा चुनावी माहौल में सत्ता पक्ष के खिलाफ उठ रही जनभावनाओं को मंच देने का काम मीडिया पिछले सालों के मुकाबले ज्यादा करता है.
पर अफसोस कि ये मार्च भी देश भर की लोकतांत्रिक संस्थाओं में भर दी गयी महिला विरोध की भावना की भेंट चढ़ गया. मुख्यधारा मीडिया में इस मार्च कि चर्चा आज न के बराबर दिख रही है. खासकर प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जो आम लोगों के बीच अभी सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं वे लगातार सत्ता के खिलाफ जारी राजनीतिक सामाजिक बदलाव को खारिज करने या आम लोगों के बीच न पहुंचने देने में एक षड़यंत्रकारी भूमिका निभा रहे हैं.
औरतों के मुद्दों पर जारी हर प्रगतिशील बहस का लगातार केवल अंग्रेजी मीडिया तक सिमटे रहना और रीजनल मीडिया खासकर हिंदी मीडिया के 90 फीसदी से ज्यादा हिस्से का भाजपाई सरकार के महिला विरोधी एजेंडा के लिए पूरा समर्थन मीडिया के अंदर मौजूद मर्दवाद द्वारा न केवल पोषित है बल्कि वही वह ताकत भी देता है कि कैसे मीडिया के अंदर मौजूद औरतों की संपादकीय क्षमता को आम लोगों तक नहीं पहुंचने देना है.
पितृसत्तात्मक संस्थाएं, औरतों के शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ जारी किसी बहस को आम लोगों के बीच न पहुंचने देने के मकसद में पूरी तरह से गोलबंद नज़र आ रही हैं और उनकी प्रोफेशनल भूमिकायें, औरतों के मुद्दों पर बेहद संदिग्ध हैं, यही वजह है कि पिछले पांच सालों में औरतों ने लगातार हर मुद्दे पर सरकार की जनविरोधी नीतियों का सबसे खुला प्रतिवाद किया है लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाए जिनमें मीडिया से लेकर न्यायालय और नोकरशाही सभी शामिल हैं, उन्होने लगातार आम लोगों से जुड़े हर मुद्दे का समाधान निकालने के बजाय उसे खारिज करने, दबाने और कुचलने का ही काम किया हैै.

पूरे देश में महिलाओं का बड़ी संख्या में वोटर लिस्ट से नाम गायब होना एक बड़ा मसला है , बावजूद इसके कोई राजनीतिक पार्टी इस मुद्दे को लेकर गंभीर नहीं दिख रही है. राजनीतिक पार्टियों का घोर मर्दवादी नेचर उन्हे अब भी औरतों की राजनीतिक इच्छाशक्ति को लोकतंत्र में समुचित जगह देने से इंकार कर रहा है.