इर्शादुल हक़
मायावती को कांशी राम ने अवसर दिया तो उन्होंने अपनी लीडरशिप साबित करके दिखाई. वह न सिर्फ भारत के सबसे बड़े राज्य की अनेक बार मुख्यमंत्री बनीं बल्कि अपनी पार्टी बसपा को उन्होंने राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलाने में भी सफलता हासिल की. वहीं राबड़ी देवी को परस्थितियों ने मुख्यमंत्री बनाया. एक घरेलू गृहणी की भूमिका निभाने वाली राबड़ी देवी बड़ी-बड़ी चुनौतियों से जूझते हुए अपना नेतृत्व साबित किया और बिहार में लगातार सात वर्षों तक मुख्यमंत्री रहीं. नेतृत्व साबित करने की सबसे कठिन डगर अपने बलबूते संघर्ष कर आगे बढ़ने का होता है. पीपुल्स पार्टी ऑफ इंडिया (डेमोक्रेटिक) की राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. मनीषा बांगर इसी तीसरी श्रेणी में आती हैं जिन्हें संघर्षों से आगे बढ़ते हुए अपना नेतृत्व स्थापित करने को ठान लिया है.
मनीषा बांगर को भले ही मायावती की तरह अवसर और राबड़ी देवी की तरह परस्थितियां नहीं मिली हों लेकिन उनमें जहां मायावती की तरह कूट-कूट कर साहस भरा है तो दूसरी तरफ राबड़ी देवी की तरह चुनौतियों से जूझने का माद्दा भी है. अगर किसी व्यक्ति में साहस और चुनौतियों से जूझने का माद्दा हो तो उससे भविष्य की बहुत सारी उम्मीदें वाबिस्ता हो जाना स्वाभाविक है. लेकिन जब बात डॉ. मनीषा बांगर की हो तो उन्हें खुद भी अपनी संघर्षशीलता, साहस और चुनौतियों को गले लगाने की कर्मठता पर विश्वास है. वह कहती हैं कि हमें जहां बीते जमाने की सावित्री बाई फुले, फातिमा शेख जैसी महान हस्तियों से प्रेरणा मिली है तो दूसरी तरफ यह स्वीकारने में ऐतराज नहीं कि कुछ सैद्धांतिक मतभिन्नता के बावजूद मौजूदा समय की दो नेत्रियों- मायावती व राबड़ी देवी जैसी शख्सियतों से भी प्रेरणा मिलती है.
मनीषा फिलहाल नागपुर लोकसभा सीट से पीपीआई (डी) की उम्मीदवार हैं और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक नितिन गडकरी के सामने चुनौती पेश कर रही हैं.
एक चिकित्सक के रूप में अपने करियर की शुरुआत करने वाली मनीषा बांगर गत 20 वर्षों से सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं. उन्होंने बामसेफ जैसे राष्ट्रीय संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को निभाया तो मूलनिवासी संघ से जुड़ कर नीतिगत फैसले लेने वाली टीम का अभिन्न हिस्सा रहीं. इसी दौरान पीपुल्स पार्टी ऑफ इंडिया( डेमोक्रेटिक) के गठन का फैसला हुआ तो उन्होंने इसके संस्थापक सदस्या के रूप में सक्रिय भूमिका निभाई.
दर असल बामसेफ व मूल निवासी संघ जैसे संगठनों ने मनीषा बांगर की योग्यता को पहचाना है और इन संगठनों को उनसे बड़ी उम्मीदें हैं. उधर मनीषा की खासियत यह है कि वह सफलता के लिए किसी भी शार्टकट को अपनाने के बजाये एक लम्बे संघर्ष के रास्ते को चुना. वह कहती हैं कि “संघर्षों और चुनौतियों की भट्टी में तप कर निखरा हुआ नेतृत्व आमजन के लिए स्वीकार्य होता है. हम इसी रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं”.
सामाजिक आंदोलनों के लम्बे अनुभवों के साथ मनीषा अब राजनीतिक मैदान में कूद पड़ीं हैं. नागपुर लोकसभा से चुनावी मैदान में वह अपना अमिट छाप छोड़ रही हैं. वह कहती हैं कि राजनीतिक संघर्ष का एक पड़ाव है चुनाव. इस पड़ाव के बाद का सफर अनवरत जारी रहेगा.
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इर्शादुल हक पेशे से पत्रकार हैं.