संजय कुमार
आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 ने इस बात की चर्चा की कि खेती का महिलाकरण हो गया है। इसका मतलब था कि महिला श्रम का बड़ा हिस्सा खेती में था और महिलाओं के श्रम की बदौलत ही खेती चल रही है। हालांकि जब हम खेती की महिलाकरण की बात करते हैं, तब हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम इसके उत्पादन संरचना के मालिकाने में बदलाव की बात नहीं कर रहे होते हैं, बल्कि महज इसके उत्पादन में लगे श्रम की हिस्सेदारी के बदलाव के बारे में बात कर रहे होते हैं।
ऐसे यह माना जाता है कि कृषि के उद्भव में महिलाओं की ही सबसे प्रधान भूमिका थी. लेकिन, कालांतर में समाज में न केवल प्रभुत्व की संरचना में बदलाव हुआ, बल्कि खेती में भी मालिकाने की संरचना में पूरी तरह पुरुषों का प्रभुत्व हो गया। हजारों सालों में अनेकों तरह के बदलाव के बावजूद यह बात अभी भी सामान्य है कि इस पर पुरुषों का प्रभुत्व बरकरार है और इसमें महिलाओं की भूमिका महज श्रम में भागीदारी तक सीमित है। न तो उनके नाम जमीन का मालिकाना है, न ही उनके श्रम को बराबर कीमत मिलता है।
भारत में कृषि में बदलाव काफी जटिल और धीमी रही है। यह एकदम शुरू से ही जाति और लिंग जैसे कई सामाजिक पहलुओं से गूंथा हुआ रहा है। खेती-बाड़ी अपने संपूर्णता में एक लैंगिक कार्यकलाप रहा है जिसमें काम का विभाजन भी लैंगिक आधार पर रहा है। हालांकि इसके बावजूद यह पूरी तरह पुरुषों के नियंत्रण में ही रहा है। खेती में संक्रमण ने खेती की इस जटिलता को और बढ़ा दिया है जबकि मालिकाना के लैंगिक आधार में अभी भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। भूमंडलीकरण के बाद से खेती में लगे श्रमिकों का पलायन खेती से गैर खेती कार्यों में बढ़ा है। 1972-73 में कुल ग्रामीण श्रमिकों का 84 फीसदी खेती में लगा था, जो 1999-2000 में घटकर 76 फीसदी रह गया। लेकिन, यह विस्थापन पूरी तरह खेती से पुरुषों का विस्थापन था। एनएसएसओ के रोजगार और बेरोजगारी सर्वेक्षण के अनुसार, 1999-2000 में खेती में लगे किसानों का 62 फीसदी पुरुष, जबकि 38 फीसदी महिलाएं थीं। 2004-05 में पुरुषों की संख्या घटकर 58 फीसदी, जबकि महिलाओं की संख्या बढ़कर 42 फीसदी हो गयी। एनएसएसओ के इसी सर्वेक्षण के अनुसार, कुल ग्रामीण रोजगार के अनुपात में खेती में रोजगार (कृषि और कृषि मजदूर दोनों) पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए अधिक था। 2004-05 में कुल महिला श्रमिकों का करीब 84 फीसदी खेती में था, जबकि पुरुषों के लिए यह 67 फीसदी था ( श्रीवास्तव एंड श्रीवास्तव 2009)। 2011-12 में महिलाओं के लिए यह आंकड़ा 75 फीसदी हो गया, जबकि पुरुषों के लिए यह 59 फीसदी हो गया ( एनएसएसओ 2014 )। ग्रामीण रोजगार में पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा हैं और इसमें समय के साथ इजाफा ही हो रहा है। खेती में संक्रमण के दौरान भी खेती से श्रमिकों के विभाजन और इससे महिला श्रमिकों के बाहर निकलने की प्रक्रिया नाटकीय रूप से काफी कम रही है। 2011 की जनगणना के अनुसार, जहां श्रमिक पुरूषों की आधी आबादी खेती से बाहर है, वहीं महिलाओं के मामले में यह हिस्सा मात्र 35 फीसदी है। इसमें जाति के आधार पर भी विभाजन साफ-साफ देखी जा सकती है। 2011 में खेती में काम करने वाले अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की आबादी 83.7 फीसदी, जबकि अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए यह आंकड़ा 59.9 फीसदी था (भारतीय जनगणना, 2011)। खेती में महिलाओं की बढ़ी भागीदारी की प्रकिया को खेती का महिलाकरण (फेमिनाइजेशन ऑफ एग्रीकल्चर) का नाम दिया गया है।
भारतीय कृषि पर जिस कदर दबाव है और खेती की लागत बढ़ी है, उसमें खेतिहरों खासकर गरीब किसानों के बढ़े हुए उपभोक्ता व्यय को छोटे जोत की उपज से पूरा कर पाना असंभव है। ऐसे में एक परिवार को खेती के अलावा अन्य रोजगार में शामिल होना पड़ रहा है। इससे खेती के काम का बड़ा हिस्सा महिलाओं के भरोसे रह गया है। ऐसे भी खेती में रोपाई और निकौनी का पूरा काम महिलाओं के भरोसे ही रहा है। लेकिन, हाल में खेती के संकट की वजह से खेती को खासकर सीमांत किसानों की खेती को महिलाओं का ही सहारा रह गया है। आर्थिक सर्वेक्षण (2017-18) के अनुसार पुरुषों के रोजगार के लिए पलायन की वजह से खेती में महिलाओं की हिस्सेदारी में इजाफा हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, कुल महिला श्रमिकों का 55 फीसदी कृषि कार्य में और 24 फीसदी कृषि मजदूर के काम में थीं। हालांकि जमीन के मालिकाना हक वाली महिलाओं की संख्या महज 12.8 फीसदी थी। विश्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि देश के स्तर पर खेती की जीडीपी में भूमिका में काफी गिरावट आयी है। भारत में खेती द्वारा कुल अर्थव्यवस्था में जोड़ा गया मूल्य 2006-11 के 18.6 फीसदी से घटकर 2011-14 में 17.8 फीसदी हो गया (विश्व बैंक 2016)। इसका मतलब यह है कि कुल अर्थव्यवस्था में खेती की भूमिका घट रही थी और किसानों की आय में गिरावट हो रही थी। भारत सरकार के 11 वीं योजना के राष्ट्रीय किसान आयोग 2005 की रिपोर्ट कहती है कि जैसे-जैसे पुरुष खेती के काम से बाहर रोजगार में शामिल हो रहे हैं खेती के काम में महिलाओं की संख्या बढ़ रही है।
आर्थिक उदारीकरण के प्रवक्ता महिलाओं की खेती में बढ़ रही हिस्सेदारी को उनके आर्थिक सशक्तिकरण के रूप में देखते हैं, जबकि इसके अलोचक इस प्रक्रिया को खेती के संकट से जोड़ते हैं। जयदीप हार्दिकार ने 2004 में मध्यप्रदेश में दो गांवों के अध्ययन के आधार पर यह पाया कि पुरुषों का खेती से पलायन से खासकर सीमांत और छोटी जोत वाले समूहों की महिलाओं पर दबाव बढ़ रहा है। कई अन्य अध्ययनों ने इस बात को रेखांकित किया है कि खेती से पुरुषों के पलायन का सीधा संबंध खेती में महिलाओं की बढ़ती हिस्सेदारी से है।
महिलाओं की बड़ी आबादी भले ही खेती में लगी हुई हो, लेकिन उनके पास जमीन का मालिकाना नहीं है। लिंग के आधार पर जमीन के मालिकाना का कोई आधिकारिक आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन इसे परिचालन संबंधी (ऑपरेशनल होलिं्डग) आंकड़े के आधार पर इसे समझें तो 2010-11 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार कुल परिचालन जोत का 13.5 फीसदी जोत महिलाओं के पास है, जबकि 11 फीसदी जमीन उनके संचालन में है। इसका दूसरा मतलब यह है कि कुल जोत का करीब 87 फीसदी पुरुषों के अधीन में है। महिलाओं के मालिकाना में महज 13.5 फीसदी जमीन है, जबकि खेती में लगी महिलाओं की संख्या 65 फीसदी है। बिहार में जहां 13.7 फीसदी जमीन का मालिकाना महिलाओं के नाम है, वहीं 12.9 फीसदी महलाओं के संचालन में है।( विश्व बैंक, 2008, फूड एंड एग्रीकल्चर आॅरगेनाइजेशन 2011)
खेतिहर महिलाओं का खेत के जोत के साथ उलटा संबंध है। जैसे-जैसे जोत के आकार में वृद्धि होती है, वैसे-वैसे खेत में काम करने वाली महिलाओं की संख्या भी घटती है। जोत के औसत आकार में एक फीसदी की वृद्धि से खेती में महिलाओं की भागीदारी में 286 फीसदी की गिरावट होती है लेकिन गैर खेती कार्यों (घरेलु उद्योग समेत अन्य श्रम ) में उनकी भागीदारी में महज 71 फीसदी वृद्धि होती है। इसका मतलब है कि आम तौर पर महिलाओं को मजबूरी में खेती में काम करना पड़ रहा है। आम तौर पर छोटे जोत वाली महिलाएं ही खेती में हिस्सेदारी करना चाहती हैं। जैसे ही जोत का आकार बढ़ता है वे खेती से बाहर का रोजगार पसंद करती हैं या फिर खेती में काम करना छोड़ देती हैं। ( पटनायक 2017)। इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि जोत के आकार में वृद्धि होने से खेती के कार्य से बाहर निकलने की संभावना ज्यादा है। दूसरी तरफ गरीबी वह सबसे प्रमुख कारण है, जिसमें महिलाएं खेती या फिर उसके बाहर के काम में हैं। गरीबी के स्तर में एक फीसदी वृद्धि होने से खेती में काम करने वाले महिलाओं की संख्या में 25 फीसदी का इजाफा होता है, जबकि गैर खेती कार्य में शामिल महिलाओं की संख्या में पांच फीसदी का इजाफा होता है। प्रतिव्यक्ति आय में एक फीसदी इजाफा होने से महिलाओं के गैर खेती कार्य में शामिल होने की संभावना 166 फीसदी बढ़ जाती है ( पटनायक 2017)। इस तरह यह कहा जा सकता है कि गरीबी और खेती का संकट ही वह मुख्य वजह है, जिससे खेती पर आश्रित महिलाओं की संख्या में इजाफा हुआ है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार बिहार में महज सात फीसदी महिलाओं के पास जमीन का मालिकाना है, जबकि खेती में लगे कुल श्रमिकों का लगभग 51 फीसदी महिलाएं हैं। बिहार में खेती का पैटर्न और इसमें श्रम विभाजन लिंग के आधार पर रहा है। जहां रोपनी और सोहनी का काम पूरी तरह महिलाओं के जिम्मे है, वहीं कटनी में महिलाएं पुरुषों के साथ मिलकर काम करती हैं। हालांकि महिलाओं को मिलने वाली मजदूरी पुरुषों से कम है।
खेती में महिलाओं के काम की प्रवृति भी पुरुषों की तुलना में अधिक अनिश्चित रहा है। आम तौर पर खेती में उन्हें महज रोपनी, सोहनी और कटनी जैसे कार्यों के अलावा अन्य कार्यों में शामिल नहीं किया जाता। पुरुषों और महिलाओं की मजदूरी में भी काफी अंतर है। रोजगार की तलाश में पुरुषों के पलायन से खेती भले ही महिलाओं के भरोसे रह गयी हो, लेकिन आमतौर पर उनका जमीन पर कोई अधिकार नहीं है। भूमि के मालिकाने में यह लैंगिक भेदभाव अभी भी बरकरार है। भूमि सुधार के ‘शास्त्रीय बहस’ में जमीन जोतने वाले को ही उसका मालिक माना जाता है। इसे स्पष्ट करते हुए एलिस थ्रोनर का कहना है कि हम भूमि सुधार की शुरुआत इस बुनियादी प्रस्थापना से कर सकते हैं कि जमीन और उसके उत्पाद पर उसी का अधिकार हो, जो जमीन को जोतता हो ( थ्रोनर, 1956,79)। जमीन जोतने वाले का मतलब हल चलाने, रोपने और काटने से है।
खेतिहर की यह परिभाषा परिवार के लिहाज से ठीक है, लेकिन यह व्यक्तिगत रूप से उपयोगी नहीं है। इस परिभाषा में महिलाओं को खेतिहर बनने से ऐसे ही बाहर कर दिया जाता है, क्योंकि वे हल चलाने और खेत जोतने का काम नहीं करतीं और इसके लिए उन्हें सामाजिक रूप से प्रतिबंधित किया गया है। हालांकि इस परिभाषा से तो पुरुष भी जोतदार नहीं हो सकते, चूंकि अधिकतर पुरुष रोपाई और सोहनी का काम नहीं करते (अग्रवाल, 2003)। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव का एक कारण यह समझ भी है, जिसमें परिवार में पुरुषों को ही रोटी कमाने वाला समझा जाता है। आमतौर पर खेती में महिलाओं को हल्का काम दिया जाता है। इसके अलावा सामाजिक बंदिश भी महिलाओं को सामूहिक कार्यो में शामिल होने में बाधा बनती है।
बिहार में खेती पर जरूरत से ज्यादा भार और रोजगार के अभाव की वजह से पलायन की दर काफी अधिक है। ऐसे में खेती का भार महिलाओं पर और अधिक आ जाता है। आईएचडी ने अपने अध्ययन में पाया कि कृषि क्षेत्र में कार्यरत 70 फीसदी महिलाएं उन परिवारों से थीं, जिनके घर का पुरुष सदस्य बाहर काम की तलाश में गया हुआ हो। इस अध्ययन का मानना था कि बिहार में कृषि क्षेत्र में कार्यरत कामगारों में आधी महिलाएं हैं। हालांकि महिलाओं की मजदूरी पुरुषों की तुलना में कम है। खेती में काम भी काफी अनिश्चित है। महिलाओं को आम तौर पर मजबूरी में काम दिया जाता है। अब पुरुषों के धान रोपने के काम में शामिल होने की वजह से यह काम भी महिलाओं के हाथ से निकल गया है। इस तरह खेती के मोर्चे पर महिलाएं भले ही अपनी मेहनत से इसे बचा रही हों, लेकिन इसमें उन्हें कोई भी अधिकार नहीं है। महिलाओं की जमीन में हिस्सेदारी एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है। यह न केवल महिलाओं का सशक्तिकरण करता है, बल्कि उनकी सामाजिक हिस्सेदारी में भी इजाफा करता है। इस मामले में चीन का उदाहरण गौरतलब है। चीन में महिला सशक्तिकरण के लिए संघर्ष न तो कभी केंद्रीय था, न ही उतना अधिक लड़ाकू, जितना कि भूमि सुधार के लिए। क्रांति के लिए युद्ध के दौरान मुक्त इलाकों में भूमि सुधार कार्यक्रमों का उल्लेखनीय लाभ मिला था। भूमि सुधार ने महिलाओं को भूमि पर बराबरी का अधिकार दिया, जो कि किसान महिलाओं की आजादी की पहली शर्त है। महिलाओं ने भूमि सुधार के प्रभाव को परिवार में अपनी हालत के संबंध में जल्दी ही समझ लिया और इन संघर्षों के पक्ष में काफी सक्रिय भागीदारी की (हिंटन 1966)। आम तौर पर भारत में भूमि सुधार के सवाल में महिलाओं के अधिकार की अनदेखी की गयी है। परिवार में भी जमीन के मालिक के रूप में भी पुरुषों को ही देखा गया है। ऐसे में खेतिहर महिलाओं के लिए अपने जीवन में कोई भी सुरक्षा नहीं बच जाता। बिहार मे बोधगया भूमि आंदोलन के समय महिलाओं के नाम से जमीन देने के सवाल काफी प्रमुखता से उभरे, लेकिन अभी भी आधिकारिक रूप से सरकारों द्वारा जमीन के मालिकाना में महिलाओं की हिस्सेदारी को चिन्हित नहीं किया गया है।
महिलाओं के लिए श्रम विभाजन महज लैंगिक ही नहीं है, बल्कि जातीय भी है। हमने अध्ययन के दौरान पाया कि तमाम इलाकों में यह बात समान है कि आम तौर पर ऊंची जाति की महिलाएं या फिर मध्यम या बड़े जोत वाले आकार के परिवार की सभी जाति की महिलाएं खेतों में काम नहीं करतीं। अन्य पिछड़ी जातियों में भी ऊपरी पायदान पर आनेवाली जातियों की महिलाएं आम तौर पर खेतों में काम नहीं करतीं। एक तरह से यह मान्यता बन गयी है कि खेती में गरीब और सामाजिक पायदान पर नीचे आनेवाली जातियों की महिलाएं ही काम करती हैं। हाल के दिनों में कई इलाकों में फसलों की कटाइ का मशीनीकरण हुआ है और रोपनी के काम में भी पुरुषों की भूमिका में इजाफा हुआ है। इसने महिलाओं के लिए रोजगार के संकट को और बढ़ा दिया है।
संदर्भ:
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Itishree Pattnaik, Kuntala Lahiri-Dutt, Stewart Lockie & Bill Pritchard (2017): The feminization of agriculture or the feminization of agrarian distress? Tracking the trajectory of women in agriculture in India, Journal of the Asia Pacific Economy
NSSO (National Sample Survey Organisation). 2014. “Employment and Unemployment Situation in India.” Round no 68. Report no 554. Ministry of Statistics & Programme Implementation, Government of India
Srivastava, Nisha, and Ravi Srivastava. 2009. “Women, Work and Employment Outcomes in Rural India.” FAO, Rome; 31 March–2 April.
Throner, D., 1956, The Agrarian Prospect in India, Allied Publishers, Bombay, 1976
World Bank. 2008. Gender in Agriculture Sourcebook. Washington, DC: World Bank
(लेखक पटना विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में शोधार्थी है।)
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