यह एक आदिवासी महिला तारिका लकड़ा की कहानी है। छत्तीसगढ़ में रायगढ़ जिले के तमनार गांव के सरकारी अस्पताल में 32 वर्षीया तारिका एक नर्स है। उसके पास कभी अपने गांव में 27.5 एकड़ का बाग़ हुआ करता था जिसमें लगभग 300 आम के पेड़, 400 काजू, 315 सागवान सागौन और 400 स्थानीय महुआ से भरा-पूरा जंगल था। उसके पिता ने अपनी ज़िन्दगी की सारी बचत इस ज़मीन के टुकड़े पर खर्च की थी, लकड़ा कहती हैं, इसे सींचने के लिए दो नलकूपों को भी लगवाया था.
तारिका लकड़ा का उपजाऊ बाग अब JSPL के अधीन है। लेकिन वह कहती है कि उसकी जमीन को हड़प लिया गया है। मई 2003 में, लकड़ा फसल की जांच करने के लिए जब अपने बाग पहुंची तब जमीं पर मिट्टियों और कटे पेड़ों के पहाड़ देखे, उसे लगा कि उसे भ्रम हुआ है. हालांकि उसे कंपनी की तरफ से जमीन बेचने की नोटिस आई थी, जिसे उसने मना कर दिया था और अबतक उसपर कोई निर्णय नहीं ले पायी थी. लेकिन जब वह अपने बाग़ का यह नजारा देखा और अपने गेट पर पहुंची तो जिंदल के लोगों ने उसे अपने गेट पर रोक दिया और कहा कि अब यह संपत्ति JSPL की है।

लकड़ा कहती है कि उसने कंपनी पर अपनी जमीन हड़पने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई, लेकिन पुलिस और राज्य सरकार के अधिकारियों ने उसकी अनदेखी की। जेएसपीएल ने उसे मुआवजे के रूप में लगभग 1.5 मिलियन रुपये ($ 24,000) का भुगतान किया, जो बाजार मूल्य का चौथाई भी नहीं है। छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय-बिलासपुर में JSPL के वकीलों ने बाग में केवल एक नीलगिरी का पेड़, एक इमली का पेड़ और एक फूस का घर होने की बात कही। लकड़ा ने कहा, “उन्होंने कहा कि यह बंजर भूमि थी और उन्होंने इसकी कीमत चुका दी है।” अदालत ने कंपनी को आदेश दिया कि जब तक मामले का फैसला न जाए, तब तक वह अपनी जमीन पर निर्माण करना बंद कर दे, लेकिन जिंदल के लोग रुके नहीं और जल्द ही ओ.पी. जिंदल इंजीनियरिंग कॉलेज और एक निजी सड़क का निर्माण वहाँ पूरा किया गया, जहां कभी उसके बागों पेड़ बड़े हुए थे।
उद्योगपतियों और नौकरशाहों द्वारा उनके परिवार पर जो अत्याचार किए गए, वह आत्मा की पीड़ा है और ऐसी ही पीड़ा वहाँ लगभग हर आदिवासियों के दिलों में है। उन्होंने सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश – ए के पाटनयक, मानवाधिकार अधिवक्ता – कॉलिन गोंजाल्विस और अखिल भारतीय वकील संघ के सचिव- शौकीन अली की उपस्थिति में, हिदायतुल्ला लॉ यूनिवर्सिटी में प्रसिद्ध कानूनी विशेषज्ञों के साथ अपनी कहानी साझा की।

पीडिता ने जो आपबीती सुनाई वह उद्योगपतियों के असली चेहरे को उजागर करने वाली है और मानवता को घायल करने वाली है …
मेरे पिता एक सरकारी कर्मचारी थे। 1998 में उनका निधन हो गया। हमारी जमीन हमारे गांव से तीन किलोमीटर दूर है। 2000 में, नवीन जिंदल खुद हमारी जमीन लेने के लिए दो दोस्तों के साथ आए, लेकिन मेरी मां ने इसे देने से इनकार कर दिया क्योंकि यह पिता की मृत्यु के बाद हमारे लिए दो भाइयों और बहनों की आजीविका का स्रोत था। हमने अपने गाँव में बिजली पहुँचाने के लिए रिश्वत भी दी थी. वास्तव में छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हमारे लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। बिजली के तार चोरी हो गए, हमने शिकायत की लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।
2003 में, हमें पता चला कि हमारी भूमि का अधिग्रहण कर लिया गया। लेकिन सरपंच से
हमें पता चला कि भूमि अधिग्रहण के लिए पुंजिपथरा में कोई ग्राम सभा नहीं हुई है। कोटवार और एक कांस्टेबल ने मेरी मां को बताया कि हमारी जमीन प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण के क्षेत्र में आती है, और उन्होंने कहा कि मुआवजा लेकर जाओ. मां के मना करने के बाद, उत्पीड़न की चक्की शुरू हो गई. मेरे घर की चारदीवारी तोड़ी जा रही थी, मेरी माँ खुद एक सरकारी मुलाजिम थी, शिकायत करने एसडीएम के यहाँ गई। मेरी मां शुगर और बीपी की मरीज है, फिर भी उसे वहां बंधक बनाकर रख लिया गया । एक तरफ, माँ बंद थी, दूसरी तरफ मैं अपने पति और भाई के साथ अपनी जमीनपर खड़े थे। हम विरोध कर रहे थे और कह रहे थे कि हम अपनी जमीन में बुलडोजर नहीं चलने देंगे।
इस बीच, एसडीएम कार्यालय में, माँ को लगातार धमकी दी गई थी कि अगर वह जमीन देने के लिए सहमत नहीं होती है, तो उसके बच्चों को बुलडोजर द्वारा कुचल दिया जाएगा। बाहर कार्यालय में डी के भार्गव और राकेश जिंदल (जो जिंदल के दलाल थे) बैठे थे। जब यह तय हो गया कि बुलडोज़र चल जाएगा तो मां ने दबाव में हमें एसडीएम कार्यालय में बुला लिया, जब यह ।
हम चार घंटे वहां थे, बुलडोजर चल चुका था। आम-काजू के पेड़ नष्ट हो गए थे । अब वहाँ एक कच्ची सड़क बन गई थी जिसपर गाड़ियां वहां आने-जाने लगीं।
…जब भाई की हत्या को एक दुर्घटना में तब्दील कर दिया गया !
मां ने समझौते के कागजात पर हस्ताक्षर नहीं किए और पुलिसकर्मियों ने मेरे भाई प्रवीण को परेशान करना शुरू कर दिया। वे उसे हर दूसरे दिन पुलिस स्टेशन बुलाते थे, उसे धूप में खड़ा करते थे और सजा देते थे। 1 अप्रैल, 2007 को मेरा भाई अपने दोस्तों के साथ तरैयामल गया था। 2 अप्रैल की सुबह, हमने सुना कि उसकी दुर्घटना हो गई है। जब मैं मौके पर पहुंची तो प्रवीण अपने अन्य दोस्तों के साथ मर चुका था। किसी भी तरह से, यह एक दुर्घटना की तरह नहीं दिखता था। सरकार-प्रशासन ने उनकी हत्या को एक दुर्घटना में बदल दिया था। अभी हमारी आधी जमीन पर कब्जा था। जब हमने शिकायत दर्ज करने की कोशिश की, तो उलटे मेरी मां पर शांति भंग करने का मामला दर्ज किया गया।
31 मई 2015, यौन उत्पीड़न का खौफनाक मंजर
मैं अपनी मां (पति और बच्चे ससुराल में थे) के साथ पुंजिपथरा में थी, उस रात मैं तेज बुखार में थी, अगली सुबह, बस स्टॉप पर अकेले तमनार के लिए बस का इंतजार कर रही थी, क्योंकि मैं वहीं (स्वास्थ्य विभाग) कार्यरत थी। मैं अकेली गई क्योंकि मेरी माँ मेरे साथ रहने के लिए बहुत बूढ़ी हो गई थी।
मैं बस-स्टॉप पर इंतजार कर रही था, 20-25 मिनट के बाद, एक जीप आई और ड्राइवर ने पूछताछ की कि क्या मैं तमनार जा रही हूं?मैं जीप में बैठ गई. मुझे ठीक-ठीक पता नहीं है कि क्या हुआ था. लेकिन जब मुझे होश आया, तो मैंने खुद को बेबस पाया, आँखों पर पट्टी थी, और दोनों हाथ बिस्तर से बंधे थे। कुछ लोग एक दुसरे को मैनेजेर डाइरेक्टर कह कर बात कर रहे थे. मैं चिल्लायी, एक आदमी ने दौड़कर पास आया और धमकी दी – ‘तुम्हारी जमीन का एक हिस्सा पहले से ही हमारे कब्जे में है, कलेक्टर को पत्र लिखो कि अपनी बाकी जमीन भी हमें दे रही हो।जब मुझे उसने झकझोरा तब मुझे पता चला कि मेरे शारीर पर कपडे नहीं हैं. आँखों पर मेरे पट्टी बाँधी गई थी. उन्होंने मेरे साथ गन्दी हरकतें की. वे मेरी हाथों में अपना गुप्तांग पकड़ा रहे थे. मैं चीखना चिल्लाना और भागना चाहती थी. मैं यदि आपको उनलोगों के बारे में बताउंगी तो आप अपना सिर शर्म से झुका लेंगे। इस भयावह मंजर के बाद मुझे फिर मुझे उसी स्थान पर गिरा दिया गया जहाँ से मुझे उठाया गया था।
मैं अपनी पीड़ा अपनी माँ को नहीं बता सकती थी, हालाँकि, जैसे ही मेरे पति वापस आए (३ जून २०१३), हम शिकायत करने के लिए तमनार पुलिस स्टेशन गए, हालाँकि मुंशी ने वहाँ यह शिकायत रख ली ।
5 जून को, पुलिसवाले हमारे घर आए, सभी पुरुष थे और मेरे पति को धमकी दी कि ज्यादा नेतागिरी करोगे तो किसी नक्सली मुठभेड़ में मार दिए जाओगे और हमारी शिकायत फाड़ दी .
मैंने अपने बच्चों को रायगढ़ के बाहर सुरक्षित स्थान पर भेज दिया है, वे अभी भी मेरे लिए रोते हैं, उन्हें अलग करना एक कठिन निर्णय था लेकिन आवश्यक था। 2014 में मैंने फैसला किया कि मैं आखिर तक लडूंगी, मेरे भाई की हत्या (जिंदल गुंडों द्वारा) और लड़ाई नहीं कर पाने का अपराधबोध चीजों को असहनीय बना रहा था।
मैं आखिर तक लडूंगी …..
मेरा केस सुप्रीम कोर्ट में पहले रजिस्ट्रार के स्तर पर ही ख़ारिज हो गया था. बहुत संघर्ष के बाद 7 अप्रैल 2015 को SC में फिर केस फ़ाइल किया गया। SC में जिंदल का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील भी इस सभा में मौजूद हैं, जिन्हें देखकर बहुत दुःख हुआ. एक तरफ हमारे पास 1-2 वकील और दूसरी तरफ वकीलों की फ़ौज. कैसे मिलेगा न्याय?
जब मैं लौटकर वापस आई और कलेक्टर से विनती की कि मुझे नौकरी ज्वाइन करने की अनुमति दी जाए, तो मेरा तबादला दूर-दराज के गाँव चपलाय में कर दिया गया. मुझे कोई सुरक्षा भी नहीं दी गई थी जबकि बार बार जिंदल गुंडों से धमकी मिल रही थी. मैं कमिश्नर के पास गई, बहुत सर पटकने के बाद मुझे सरियापल्ली में स्थानांतरित किया गया, हालाँकि उत्पीड़न का दौर जारी है, मुझे सरकार द्वारा वेतन भी नहीं दिया जा रहा है।
इस माहौल में, मुझे नहीं लगता कि कभी न्याय होगा। मुझसे पहले के वक्ताओं ने बड़े उद्योगपतियों के सामने अपनी बेबसी जाहिर की है। हालांकि मैं लड़ूंगी और जब तक मैं मरूंगी नहीं तब तक लड़ूंगी और जीतूंगी……!!