डॉ. अनुपमा गुप्ता व डॉ. मनोज चतुर्वेदी
[चेतावनी : इस अध्ययन में शामिल शोधकर्ताओं का विनम्र किन्तु दृढ़ आग्रह है कि इस लेख को अपने परिवार के अव्यस्क सदस्यों के हाथों में न पड़ने दें। हम सब यह जानते हैं कि समाज की कुछ सच्चाईयाँ कितनी ही कड़वी क्यों न हों, उन्हें छुपाये रखने से तो निश्चित ही उन्हें कभी बदला नहीं जा सकेगा। उनकी कड़वाहट को सबके सामने ले आने से, इन समस्याओं पर गंभीर चर्चा प्रारम्भ हो सकती है, तथा इससे ही उनके स्वस्थ समाधान की ओर बढ़ने की राह निकलेगी, इसी यकीन और उम्मीद पर हम यह शोधपत्र प्रस्तुत कर रहे हैं।]
भारतीय सोशल मीडिया पर पोर्न (पोर्नोग्राफी का संक्षिप्त रूप) का प्रसारण व साझाकरण सामुदायिक स्वास्थ्य के लिए आज एक नये खतरे की तरह देखा जा रहा है। चेतावनी में सच कितना है इसकी पड़ताल के लिए हमारी पहल का परिणाम इस शोध पत्रा के रूप में प्रस्तुत है, जिसमें हमने देश के सभी उम्र और वर्गों में एक अत्यंत लोकप्रिय सोशल मीडिया ‘व्हाट्सएप’ पर धड़ल्ले से साझा की जा रही पोर्न सामग्री के एक लघु विश्लेषण का प्रयास किया। यह एक स्टिंग ऑपरेशन था, क्योंकि लेखक द्वय के अतिरिक्त अध्ययन समूह के मात्रा एक सदस्य को ही इसकी जानकारी थी।
उद्देश्य (Aims and objectives)
इस शोध का उद्देश्य यह जानना था कि भारतीय मध्य सामाजिक वर्ग में, जिसकी पिछली पीढ़ियों में पोर्न सामग्री को छुप कर व्यक्तिगत तौर पर ही देखा/पढ़ा जाता रहा है, अब उस वर्ग में भी सोशल मीडिया पर पोर्न सामग्री को बांटने के नये रुझान क्या कुछ नयी स्वास्थ्य, सामाजिक और जेण्डर समस्याएँ पैदा कर रहे हैं। इस सवाल से उठे मुद्दों का विश्लेषण करने के लिए निम्न लक्ष्य तय किये गये।
- समाज के शिक्षित, सफल, यौन-संतुष्ट माने जाने वाले वर्गों में पोर्न की लोकप्रियता आज के दौर में किस स्तर तक है, तथा यह पोर्न किस प्रकार का है?
- हाल के वर्षों में इसके इस तरह साझे मंचों पर अबाध प्रदर्शन तथा साझाकरण की नई प्रक्रिया के मूल में कौन से कारक सक्रिय हो सकते हैं।
- यौनिकता के ‘अमान्य’ माने जाने वाले स्वरूप, यानी पोर्न पर इस तरह की सार्वजनिक चर्चा से क्या पुरुषों की रतिक्रिया सम्बम्धी अपेक्षाएं-आकांक्षाएं, अपनी पत्नियों व अन्य स्त्रियों से उनका सामाजिक व्यवहार, उनका अपना स्वास्थ्य और नैतिक मूल्य नकारात्मक रूप से प्रभावित हो सकते हैं?
- यदि हाँ, तो ये प्रभाव कितने और किस प्रकार के हो सकते हैं?
- इस प्रक्रिया से स्त्री की सामाजिक स्वतंत्रता, यौन-छवि और स्वास्थ्य को क्या कोई हानि हो सकती है?
इस विषय पर पूववर्ती शोध-पत्र (Literature search)
जहाँ तक हमारी जानकारी है, यह शोध भारत में अपने प्रकार का सर्वप्रथम प्रयास है। इंटरनेट पर इस विषय पर प्रामाणिक भारतीय अध्ययनों को ढूंढने की हमारी कोशिश असफल रही। हालांकि युवाओं पर सोशल मीडिया के सकारात्मक व नकारात्मक प्रभावों पर कुछ अध्ययन जरूर हुए हैं, किन्तु पोर्न के सोशल मीडिया पर प्रवेश और प्रसार विषय पर कोई अध्ययन नहीं मिल सका। कुछ लोकप्रिय सामाजिक पत्रिकाएँ आजकल अपने सेक्स विशेषांक निकालती हैं लेकिन उनमें शोध अध्ययनों की गंभीरता नहीं होती और पोर्न पर कुछ विशेष कहा नहीं जाता। हालांकि पश्चिमी देशों में इस विषय पर हुए कई एक अध्ययन हमें मिले, मगर हमारे देश की यौन-संस्कृति के लिए वे बहुत कुछ अप्रासंगिक ही होते; साथ ही व्हाट्सएप माध्यम पर साझा पोर्न को लेकर किए गए हमारे इस विशेष अध्ययन की तरह का कोई प्रपत्रा हमें इंटरनेट पर उपलब्ध पश्चिमी शोधसाहित्य में भी नहीं मिला। व्यक्तिगत स्तर पर पोर्न देखने को ले कर हुए शोधों के विस्तार में जाने का हमने प्रयास नहीं किया।
फिर भी पोर्न के बारे में सामान्य जानकारी के लिए हमने कुछ वेबसाइट्स की मदद ली। परिभाषा के अनुसार पोर्नोग्राफी यौनक्रिया से सम्बंधित किसी वस्तु या क्रिया का व्यवसायिक चित्रण है जो किताबों, पत्रिकाओं, तसवीरों, एनीमेशन, आवाजों की रिकॉर्डिंग, फोन कॉल, फिल्मों या वीडियो गेम्स के रूप में कामोत्तेजना पैदा करने के लिए परोसा जाता है। इसमें आंखों द्वारा साक्षात देखी गई यौन गतिविधियाँ शामिल नहीं हैं। पोर्न और कामशास्त्र (pornography Vs Erotica/positive porn) में अंतर यह माना जाता है कि कामशास्त्र में रतिक्रिया को एक कला के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जिसमें अनुभवों और भावनाओं का भी पर्याप्त स्थान होता है; जबकि पोर्न का उद्देश्य सिर्फ़ सनसनीखेज शारीरिक क्रियाओं या दृश्यों द्वारा कामोत्तेजना पैदा करना होता है। इसी संदर्भ में सॉफ्ट पोर्न वह है जिसमें यौनक्रिया की तरफ इशारा भर हो जबकि हार्ड पोर्न में वास्तविक यौनक्रिया दर्शायी जाती है।1 यदि भारत की बात करें तो हमारे देश के कानून में पोर्न देखने की अनुमति तो है लेकिन इसका किसी भी रूप में उत्पादन, प्रकाशन अथवा प्रसारण गैरकानूनी है। हालांकि इस कानून को कभी दृढ़ता से लागू नहीं किया गया। वर्ष 2015 में एक बार सरकार ने 857 पोर्न वेबसाइट्स पर प्रतिबंध लगाया था मगर इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडरों के व्यवसाय में इससे हो रहे बड़े आर्थिक नुकसान को देखते हुए यह प्रतिबंध पांच दिन बाद ही हटा लिया गया और अब यह प्रतिबंध सिर्फ़ चाइल्ड पोर्न पर है।2
जर्नल ऑफ सेक्सुअल मेडीसिन में प्रकाशित एक शोध3 के अनुसार पोर्न देखने वाले लोग तीन तरह के हो सकते हैं–
- रीक्रियेशनल (Recreational) : वे जो सिर्फ मनोरंजन व कामेच्छा में बढ़ोत्तरी के लिए पोर्न देखते हैं। ये लोग पोर्न देखने वाले लोगों की कुल संख्या का 75% हैं और हफ्ते में करीब 24 मिनट के लिए पोर्न से रूबरू होते हैं। तीनों में से सिर्फ़ इसी समूह के लोग मनोचिकित्सकों द्वारा सामान्य माने गये हैं। निम्न अन्य दो समूहों का पोर्न देखने का तरीक़ा मनोविकार की श्रेणी में आता है।
- डिस्ट्रेस्ड (Distressed) : वे लोग जो किसी तरह के यौन अवसाद से पीड़ित हैं। ये संख्या में सबसे कम हैं।
- कम्पल्सिव (Compulsive) : वे जिन्हें इसका व्यसन जैसा हो गया है। ये हैं तो मात्र 11-12 % लोग, मगर हफ्ते में अपने लगभग 110 मिनट पोर्न को दे रहे हैं। ये ऐसे लोग हैं जिनकी कामेच्छायें अतृप्त हैं और ये उनकी प्राथमिकताओं में आती हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि इनमें से कुछ लोगों के लिए पोर्न देखना शराब या नशीली दवाओं की तरह का वास्तविक व्यसन बन सकता है।
अमेरिका की एक मनोवैज्ञानिक एना ब्रिजेज द्वारा किये गये कुछ और अध्ययनों के परिणामों में पुरुषों के पोर्न गतिविधियों में अत्यधिक लिप्त होने की वजह से वास्तविक कामेच्छा में कमी, यौन-साथी के साथ प्रेम की अंतरंगता में कमी व हिंसक व्यवहार भी परिलक्षित किये गये हैं।4
शोध की रूपरेखा, अध्ययन समूह का चयन एवं पद्धति (Material and Methods) :
हमारे अध्ययन के अत्यंत व्यक्तिपरक (Subjective) रूप को देखते हुए हमने शोध की गुणात्मक पद्धति (qualitative research design) को चुना जिसमें सचेत प्रेक्षण तथा साक्षात्कार (critical observation and interview) विधियों का उपयोग किया गया।
शोध के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए सबसे पहले हमारा यह सुनिश्चित करना जरूरी था कि यह सामग्री सीधे पोर्न वेबसाइट्स से हम तक नहीं पहुंची, और न ही इसे लोगों द्वारा निष्क्रिय रूप से केवल देखा भर जा रहा है, बल्कि यह व्हाट्सएप पर आपस में व्यापक रूप से साझा की जा रही सामग्री में से है और इस पर सदस्यों द्वारा लम्बी चर्चायें, रायशुमारी व लाइक्स जारी हैं।
हम ऐसे मानव समूह को खोज रहे थे जिसके ‘सुसंस्कृत-सामाजिक व यौन-संतुष्ट’ होने की संभावना अधिक से अधिक, और इसीलिए पोर्न गतिविधियों में शामिल होने की संभावना कम से कम हो। इस खोज के पीछे हमारी परिकल्पना यह थी कि अन्य पुरुष समूहों में तो ये गतिविधियाँ ज्यादा ही होने की संभावना है, इसलिए हमारा यह अध्ययन समूह इस पैमाने पर ‘सबसे कम गतिविधि’ (standard for minimum porn activity on social media) का मानक बनाया जा सकता है और फिर बाक़ी समूहों पर भविष्य में होने वाले अन्य अध्ययनों के परिणामों की तुलना इससे की जा सकेगी। इसके लिए हमने जून 2018 में दस दिनों के लिए एक ऐसे व्हाट्सएप ग्रुप में सेंध लगाई जो सफल पारिवारिक जीवन जी रहे, मध्य वय (45 वर्ष से अधिक उम्र), उच्च मध्य वर्ग के प्रतिभाशाली, ग्रेजुएट/पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षित व एक अति प्रतिष्ठित सफेद कॉलर व्यवसाय से जुड़े पुरुषों का था, और जहाँ पोर्न नियमित रूप से परोसा और सराहा जाता है। देश के हिन्दीभाषी प्रदेशों के प्रतिनिधित्व वाला, पांच साल पहले (वर्ष 2013 में) बनाया गया यह ग्रुप कॉलेज जीवन में एक साथ पढ़े ऐसे पुरुषों का है जिनमें आपस में इतनी अंतरंगता है कि वे, अपनी प्रतिष्ठित सामाजिक छवि वाले जीवन में पूर्ण वर्जित, पोर्न जैसे विषय को आपस में खुल कर साझा कर सकें। यहाँ स्त्रियों की सदस्यता पूर्ण रूप से वर्जित है। वर्तमान में इस ग्रुप में कुल 16 सदस्य हैं (जिन्होंने अपनी पुरानी कक्षा के कुल 56 साथियों में से स्वयं को एक खास दल की तरह चुना है) और इनमें से 9-10 सदस्य ग्रुप में चल रही चर्चाओं में नियमित व सक्रिय भाग ले रहे हैं। यहाँ एक दिन में करीब 10 से 100 तक पोर्न सामग्री की पोस्ट्स साझा की जाती हैं।
अवलोकन के लिए हमारे द्वारा चुने गये दस दिन क्रमिक नहीं, बल्कि अक्रमिक तरीक़े से चुने गये (randomly selected) जून माह के कोई भी दस दिन थे, ताकि एक ही विषय पर 1-2 दिन चलती चर्चा से बचा जा सके और जहाँ तक हो अधिकांश तरह की सामग्री के सेम्पल इकट्ठा हो सकें। इस अवलोकन के दौरान लेखक द्वय इस ग्रुप के सदस्यों से नितांत अपरिचित बने रहे और उन्होंने मात्रा प्रेक्षक की भूमिका निभाते हुए चर्चा को किसी खास दिशा में मोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया। हमने साझा की जा रही सामग्री की सामान्य विषयवस्तु को और उस पर सदस्यों की प्रतिक्रियाओं को दर्ज किया, साथ ही सबसे ज्यादा प्रतिक्रियाएँ मिलने वाली पोस्ट्स पर विशेष रूप से ध्यान दिया। शुरुआती आठ दिनों तक साझा की गई पोर्न सामग्री के अवलोकन के पश्चात उपलब्ध आंकड़ों व रुझानों का एक बार मोटे तौर पर प्रारंभिक विश्लेषण किया गया जिससे कुछ समान व बार-बार उभरने वाली अवधारणाएँ (common themes) नज़र आने लगीं। इसके बाद, इन अवधारणाओं के आधार पर हमने कुछ प्रश्न तैयार किये और फिर ग्रुप के एक प्रतिनिधि, सक्रिय सदस्य का टेलीफोनिक साक्षात्कार लिया गया। इस साक्षात्कार में हम उन तीन खास चुनी गई पोस्ट्स पर सदस्यों की प्रतिक्रियाओं के विस्तार में भी गये जो, इन आठ दिनों में हमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण लगीं।
अवलोकनों तथा साक्षात्कार के विश्लेषण से उभरी अवधारणाओं की पुनःपुष्टि अगले दो दिनों में की गई।
अवलोकन के परिणाम (Results) :
अवलोकन की दस दिनों की अवधि के दौरान हमारे अध्ययन के माध्यम रहे व्हाट्सएप ग्रुप में पोर्न का जो स्वरूप हमें नज़र आया, उसमें शौकिया (amateur) तौर पर बनाई गई और व्यवसायिक पोर्न (reality porn) दोनों प्रकार की तथा सॉफ्ट व हार्ड पोर्न सभी तरह की सामग्री शामिल थी। ग्रुप के अतिसक्रिय सदस्य पोर्न देखने वाले लोगों की कम्पल्सिव (Compulsive) श्रेणी में पाये गये3
सर्वाधिक चर्चित व पसंद की गई कुल 16 (I से XVI) सामग्रियों का विवरण (content analysis) तालिका 1 में प्रस्तुत किया गया है। इन सभी सामग्रियों को हमारे द्वारा चुनने का आधार यह था कि इनमें से हरेक में पांच से अधिक लोगों ने रुचि ली। तालिका 1 में वे अवधारणाएँ भी प्रस्तुत की गई हैं जो हमारे अवलोकन का परिणाम हैं और जिनके आधार पर आगे के साक्षात्कार के प्रश्न तय किये गये।
टेलीफोनिक साक्षात्कार में अध्ययन ग्रुप के प्रतिनिधि से पूर्वनिर्धारित निम्नलिखित पहले दस प्रश्न ही पूछे जाने थे। किन्तु साक्षात्कार के दौरान चर्चा की दिशा में बदलाव आने से 11वें और 12वें प्रश्न पूछने की स्थिति बनी।
1. सोशल मीडिया पर इस तरह की गतिविधियों में शामिल होने के लिए पुरुष प्रेरित क्यों होते हैं? इसमें आपके लिए सकारात्मक चीज क्या है?
उत्तर : यूँ ही मज़े के लिए। कोई खास औचित्य हो ऐसा नहीं है। कहा जाता है न, कि राजनीति लोगों को बांटती है मगर पोर्न जोड़ता है।
2. क्या पोर्न का साझाकरण सभी उम्र और वर्गों के पुरुषों में इतना ही लोकप्रिय है जितना आप लोगों में?
उत्तर : हाँ, ये यूनिवर्सल है, मगर केवल इस तरह के निजी ग्रुपों में ही।
3. व्हाट्सएप के आने के पहले क्या आप लोग ऐसे ही किसी प्लेटफार्म पर पोर्न को साझा कर सकते थे?
उत्तर : नहीं, पहले ये नामुमकिन था। हाँ, दो लोगों के बीच निजी बातचीत में एस एम एस जरूर भेजे जा सकते थे।
4. क्या इस तरह पोर्न को साझा करने और उस पर चर्चा करने से आपके ग्रुप का कोई पुरुष इतना निर्भीक बन सकता है कि अपने आस-पास की स्त्रियों का काम-आह्नान कर सकें?
उत्तर : नहीं, किसी पुरुष के व्यक्तित्व या उसकी दबंगई पर इन सब का कोई असर नहीं पड़ता। न ही कुंठा नाम की कोई चीज इससे हो सकती है। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में निश्चित ही इसका कोई महत्व नहीं है। जैसा कि मैंने कहा, ये सिर्फ मस्ती के लिए है।
5. यदि स्त्रियाँ भी इसी तरह सार्वजनिक पोर्न साझा करने या उस पर चर्चाओं में शामिल हों तो क्या आप ज्यादा खुलापन महसूस करेंगे?
उत्तर : नहीं, कोई भी पुरुष ये नहीं चाहेगा कि स्त्रियाँ भी इन प्लेटफार्म्स पर उनके साथ रहें।
यदि हमें शामिल न करके स्त्रियाँ स्वयं आपस में ऐसी बातें करें तो ठीक है। कम से कम मुझे तो उनके इस तरह की बातें करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मेरी पत्नी तो एक ऐसे ही स्त्रियों वाले ग्रुप में है भी; हालांकि वहाँ सॉफ्ट पोर्न ही साझा होता है।
6. सदस्यों की कभी-कभी की कुछ ज्यादा ही उद्दंड टिप्पणियों के पीछे क्या दोस्तों के साथ दिखने का दवाब (peer pressure) भी काम कर रहा होता है?
उत्तर : कोई जवाब नहीं दिया गया।
7. एक बच्चे और उसकी टीचर के बीच स्नेह की अभिव्यक्ति आपको कामोत्तेजक क्यों लगती है?
उत्तर : कोई जवाब नहीं दिया गया।
8. कियारा अडानी द्वारा की गई बहू की भूमिका वाली फिल्म में क्या आपको एक यौन असंतुष्ट पत्नी और इस सच्चाई से अनभिज्ञ एक पति दिखाई देता है?
उत्तर : क्या सच में ऐसा है? हमने वीडियो को इतने ध्यान से नहीं देखा। असंतुष्ट पत्नी का मतलब आखिर होता क्या है?
कामतृप्ति/चरमसुख तो वीर्य स्खलन की तरह ही आसानी से होने वाली चीज है। हमें इसका अनुभव 12-13 साल की उम्र से ही होने लगता है। मुझे मालूम है कि औरतों को भी आसानी से ही ऐसा होता है। मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि मैं ये हर बार कर सकता हूँ। यदि हम अपनी पार्टनर को कामतृप्ति का अनुभव न करा पाये तो हमारी (मर्दानगी) व्यर्थ है।
9. क्या लैला-मजनूं वाली वह कविता आपको वीभत्स नहीं लगी?
उत्तर : कोई जवाब नहीं दिया गया।
10. क्या आपको लगता है कि आपमें से किसी ने विवाहेतर सम्बंधों का अनुभव लिया है? या फिर, पोर्न देखने, साझा करने और इसका मज़ा लेने की यह पूरी प्रक्रिया सिर्फ़ एक मौखिक व्यायाम व नैनसुख मात्रा है?
उत्तर : हममें से करीब सभी के विवाहेतर सम्बन्ध चल रहे हैं। हम ये सोचने में वक्त बिल्कुल बरबाद नहीं करते कि इसमें क्या सही है और क्या ग़लत। यहाँ सिर्फ बेल्ट के नीचे वाले अंग काम कर रहे होते हैं।
11. ये स्त्रियाँ कौन होती हैं जिनसे आपके स्तर के पुरुष ऐसे सम्बंध बना सकते हैं–पहचाने हुए आसपास के परिवारों की स्त्रियाँ, कॉलेज की लड़कियाँ या आपके मातहत काम करने वाली कर्मचारी।
उत्तर : नहीं, ये अक्सर अधिकारियों या निजी व्यवसायियों की ऊबी हुई पत्नियाँ होती हैं।
12. एक आखिरी सवाल–क्या आप लोग अपनी पत्नियों को भी इन अधिकारियों या निजी व्यवसायियों की पत्नियों की राह पर जाने की अनुमति देंगे, यदि वे भी अपनी यौन जरूरतों को आपको न बता पा रही हों; ठीक वैसे ही, जैसे आप उन्हें अपनी जरूरतें नहीं समझा पाते?
उत्तर : सच कहूँ तो इस बारे में अपने मन में मैं बिल्कुल निश्चित हूँ कि यह उसकी ज़िंदगी है और उसे पूरा अधिकार है कि अपनी प्राथमिकताएँ खुद तय कर सके। शर्त बस इतनी है कि इसके बारे में मुझे नहीं बताया जाना चाहिए क्योंकि मैं खुद भी सचाई बताने का ये अत्याचार उस पर नहीं कर रहा हूँ। क्या ग़लत है, क्या सही ये तो सिर्फ़ सामाजिक अभिव्यक्तियाँ हैं; जब तक कोई इंसान अपने मन में स्वयं को चैन से जीता हुआ पा रहा है, तब तक हर चीज सही है।
विवेचन (Discussion) :
इस अध्ययन में समाज के शिक्षित, सफल, यौन-संतुष्ट माने जाने वाले वर्गों में आज के दौर में लोकप्रिय पोर्न की और उसके लिए जुनून की जो झलक हम देख सके वह बहुत कुछ चिंतित करने वाली है।
इस शोध में अध्ययन समूह के सदस्यों की पसंद और प्रतिक्रियाओं से निम्नलिखित अवधारणाएँ सामने आईं जिनमें से पहले समूह को दरअसल नकारात्मक नहीं माना जा सकता क्योंकि वे चिकित्सीय दृष्टि में सामान्य प्राकृतिक यौन उद्दीपनों को ही दर्शाती हैं। किन्तु दूसरे समूह यानी नकारात्मक पहलुओं में रखी गई अवधारणाएँ पोर्न संसार की समाज-निरपेक्ष-यौनिकता में भले ही स्वीकार ली जाएँ, परन्तु हमारे सामाजिक स्वास्थ्य के लिए उन्हें निश्चित ही नकारात्मक कहा जायेगा :
प्राकृतिक उद्दीपन : नग्नदेह के प्रति आकर्षण (सीमा में); अनन्वेशित प्रतीत होती स्त्रा देह का अदमनीय आकर्षण; स्त्रा से समर्पण की चाह; युवा लड़कियों की देहयष्टि निहारने का नैनसुख; असामान्य जगहों या समयों पर रतिक्रिया के प्रति आकर्षण।
नकारात्मक पहलू : सामान्य सामाजिक व्यवहारों का उपहास; सस्ते व द्विअर्थी प्रहसन; कामेच्छा व यौनतृप्ति का पुरुषजीवन में बहुत अहम माना जाना; यौनक्रिया को जीवन के प्रत्येक कार्यकलाप पर आरोपित करना; पुरुषों के कामोत्तेजन के लिए स्त्रा के दर्द झेलने या अस्वास्थ्यकर तरीके अपनाने का और यहाँ तक कि किसी भी स्तर की हिंसा का सहज स्वीकार; अश्लील भाषा को बढ़ावा; यौन सम्बन्धों में विवाहित स्त्रियों को तजरीह देना; बच्चों या वृद्धों को स्त्रा देह के पास देख कर ईर्ष्याभाव; स्त्रा-पुरुषों के लिए यौन व्यवहारों के दोहरे मापदंड रखना; किसी भी स्त्रा को जबरन या धोखे से स्पर्श करने की कामना; एक लम्बे यौन अनुभव के बावजूद भी स्त्रा की असल यौन प्रकृति के बारे में बड़ी नासमझी व स्त्रियों की यौन असंतुष्टि के बारे में अज्ञान; जीवन के प्रति स्त्रियों के पुरुषों से अलग नज़रिये का और उनके पारिवरिक-सामाजिक बोध का उपहास; उन्हें एक सामान्य बुद्धि वाला मानव न मान कर उनसे सिर्फ यौन संतुष्टि पाने की अपेक्षा रखना; प्रत्येक स्त्रा में यौन साथी को ढूंढना; वैवाहिक सम्बन्धों में झूठ की अनिवार्य उपस्थिति की स्वीकार्यता; तीसरे लिंग के व्यक्तियों को निकृष्ट मानना; अनुमति लिए बिना स्त्रियों की तस्वीरें साझा करना; यौन अपराधों का संज्ञान तक न लेना; नैतिक जिम्मेदारी और भावनाओं से पल्ला झाड़ने वाला रवैया।
साक्षात्कार में सामने आये मनोभाव : सोशल मीडिया पर पोर्न के सार्वजनिक साझाकरण को यदि हम साक्षात्कार में व्यक्त किये गये विचारों से जोड़ें तो एक दूसरे कोण की भी संभावना दिखाई देती हैµक्या यह संभव है कि यह खास पुरुष समूह अपनी प्रकृति में ही उग्र कामेच्छा रखता हो और पोर्न का साझाकरण इस कामेच्छा के उग्र होने का कारण नहीं, बल्कि परिणाम हो? पोर्न देखने या उस पर चर्चा की वजह से उनके व्यवहार न बदले हों, बल्कि उनके व्यवहार इस प्रकार के हैं कि पोर्न भी उनके जीवन का सामान्य पहलू बन गया है, जैसा कि हमें उत्तर भी मिले (साक्षात्कार प्रश्न 1, 3, 4)। बहरहाल, इस दूसरे कोण से देखने पर भी हमारे अध्ययन के परिणाम महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये अब भी उस 20-30 प्रतिशत सभ्य पुरुष जनसंख्या (कुल 56 के समूह में से 10-16) के यौन व्यवहारों को पहचानने का कार्य कर रहे हैं।
अपने शोध के पूर्वनिर्धारित लक्ष्यों को हम यदि एक-एक करके देखें, तो हमें महसूस हुआ कि अपने जैसे दोस्तों के साथ देखने के कारण इन पुरुषों के लिए इन पोस्ट्स की उग्रता/अटपटापन शायद कम हो जाता है, जिनमें से कुछ बहुत आपत्तिजनक थीं। इन्हें देखना, स्वीकारना बल्कि अपनी साप्रयास छुपाई गई मानसिकताओं पर चर्चा करना आसान हो जाता है जब साथ में और लोग भी देख रहे हों। भारतीय उपमहाद्वीपीय जीवन में अन्यथा असंभव प्रतीत होती काम-कल्पनाएँ भी (fantasies) कुछ पूरी हुई लगती हैं। खासकर तब, जब इस सब से उपज सकने वाले नैतिक व स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रश्नों की बात कोई भी न उठा रहा हो। हमने जब ऐसे प्रश्न उठाने की कोशिश की तो इनसे बच कर निकल जाने की प्रवृत्ति साफ नज़र आई। (साक्षात्कार प्रश्न 6, 7, 9, 10)
जैसा कि हमारा अनुमान था, आज पोर्न के सार्वजनिक मंचों पर साझाकरण प्रक्रिया की लोकप्रियता में वैसे तो व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया की समाज के हर कोने तक सरल पहुँच का बहुत बड़ा हाथ दिखाई दिया (साक्षात्कार प्रश्न 2, 3, 5) किन्तु इसके साथ ही मूल में आज वर्ष 2018 में भी उसी कारक की सक्रियता मुख्य थी जो आज से 30 वर्ष पहले, इस वर्ग की पिछली पीढ़ी के साथ थी, यानी कि अतृप्त व अनियंत्रित कामेच्छाओं की अभिव्यक्ति (तालिका 1)।
साक्षात्कार के दौरान इस बात से चाहे शुरू में इनकार किया गया हो (साक्षात्कार प्रश्न 1, 4) किन्तु सभी परिणामों को एक साथ देखने से प्रतीत हुआ कि पोर्न देखने से चाहे न भी हो मगर पोर्न पर इस तरह की सार्वजनिक चर्चा से पुरुषों की काम-कल्पनाएँ, उनका यौनमनःस्वास्थ्य और आसपास की स्त्रियों को देखने का उनका तरीक़ा जरूर प्रभावित हो सकता है, जैसा कि बच्चे और उसकी टीचर के वीडियो पर उनकी प्रतिक्रियाओं में देखा जा सकता है (तालिका 1, सामग्री VIII)। हमने ये भी देखा कि पुरुष इस ग्रुप पर अपनी उपस्थिति को अहम मान रहे हैं और पसंद आने वाली पोस्ट्स पर चर्चाएँ कर पाने का समय अपनी दिन भर की व्यस्तता में से नियमित रूप से निकाल रहे हैं जिसका अर्थ है कि यह उनके लिए दिन का एक जरूरी अंग है। और इसी के आधार पर हमने इन्हें कम्पल्सिव श्रेणी3 में रखा। अब यह अलग मुद्दा है कि इन अतिरंजित कल्पनाओं में से कितनी इस वर्ग के लिए असल में पूरी हो सकती होंगी, क्योंकि जैसा कि हमने साक्षात्कार में पाया कि उनके विवाहेतर सम्बंधों में भी अधिकांशतः उनकी अपनी पत्नियों जैसी ही दूसरे लोगों की लगभग यौननिरक्षर सी पत्नियाँ होती हैं (साक्षात्कार प्रश्न 11)। यद्यपि साक्षात्कार में दावा किया गया कि वे चैन से हैं (साक्षात्कार प्रश्न 12), मगर स्पष्ट था कि विवाहेतर सम्बन्ध भी उनकी कामेच्छा को तृप्त नहीं कर पा रहे हैं जिसका कारण पोर्न की वजह से अतिरंजित उनकी काम-कल्पनाएँ हो सकती हैं जैसा कि एना ब्रिजेज ने अपने अध्ययनों में पाया4 और या फिर भारतीय संदर्भों में उनकी यौन-साथिनों का अनाड़ीपन भी हो सकता है जिसकी वे शिकायत करते पाये गये।
सभी स्त्रियों की पर्याप्त सामाजिक स्वतंत्राता यूँ तो हमारे समाज में अभी भी एक दिवास्वप्न ही है क्योंकि उन्हें सभी प्रकार के पुरुष वर्गों से इसके लिए जूझते हुए हम हर रोज देखते हैं। किन्तु क्या अपने इस अध्ययन से हम ये प्रारंभिक निष्कर्ष निकाल सकते हैं (तालिका 1 सामग्री VIII) कि हमारे अति सभ्य माने जाने वाले इस अध्ययन वर्ग के संपर्क में आती शिक्षित, व्यवसायिक रूप से सफल स्त्रियों को भी कदाचित अपनी यौन-पहचान से मुक्ति अभी नहीं मिली है? कार्यस्थलों व सामाजिक कार्यकलापों में रात-दिन स्त्रियों के साथ मिल कर काम करते हुए इन अति-शिक्षित, लम्बे समय से विवाहित व सुसंस्कृत पुरुषों में से कम से कम 30» (56 में से 16 इसे स्वीकार कर सके, अन्य के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती) के मनों में स्त्रियों की एक यौन वस्तु से अधिक उपयोगिता की कोई सामाजिक छवि अब तक भी नहीं बन रही है। इसके अतिरिक्त इस प्रक्रिया में पुरुषों और उनके देह-संपर्क में आती कई स्त्रियों में यौन-संक्रमणों तथा भांति-भांति की हिंसा का शिकार बनने की संभावनाओं के बीज भी पनप रहे हों तो हमें आश्चर्य नहीं होगा।
हमें यह भी प्रतीत हुआ कि एक पोर्न ग्रुप का सदस्य होते हुए भी अपनी पत्नियों के साथ इन पुरुषों का व्यवहार बदलने का खतरा तो हालांकि नहीं है (क्योंकि दरअसल वे उनके दृष्टि व रुचिक्षेत्रा से ही बाहर हो गई प्रतीत हुईं) और न ही अनुपलब्ध प्रतीत होने वाली स्त्रियों से उनका व्यवहार (कम से कम इस वर्ग-समूह के पुरुषों का)। किन्तु सामने दिखने वाली हर स्त्रा में अपना काम-साथी ढूंढने की उनकी अतिउत्सुक नज़र को, मुंह भींच कर बंद किये हुए समाज में कोई सार्वजनिक समर्थन नहीं मिल सकता, यह जान कर ही उनका व्यक्तित्व कई मुद्दों पर सार्वजनिक व गोपन, इन दो खंडों में विभाजित अवश्य दिखाई दिया। साक्षात्कार में ‘ये तो सिर्फ़ मस्ती या मज़े के लिए है’ कहने वाले पुरुष, ग्रुप में आपस में बात करते हुए इस पोस्ट पर जमकर तालियाँ पीटते और खुश होते दिखाई दिये कि, ‘‘एक आदमी किसी औरत के कपड़ों के बारे में सबसे ज्यादा आनंद ये सोच कर लेता है कि वह इन कपड़ों के बिना कैसी दिखेगी!’’ साथ ही नैतिक मुद्दों पर उनकी प्रतिक्रियाएँ एक ओर चुप रह जाने और दूसरी और बिंदास चरित्रा दिखाने की रहीं (साक्षात्कार प्रश्न 9, 10)। ऐसा व्यवहार वे दोस्तों के सामने सिर्फ ‘मर्दाना’ दिखने के लिए भी कर सकते हैं (साक्षात्कार में प्रश्न 6 का जवाब नहीं दिया गया) अथवा यदि उनकी प्रतिक्रियाओं पर निगाह डालें तो वे सचमुच ही इस तरह सोच रहे हो सकते हैं। स्त्रियों के प्रति उनके नज़रिये में भी दुविधाओं का आभास होता है। वे स्वयं शायद प्रत्येक स्त्रा को यौन उब्लधता की दृष्टि से परखना चाहते हैं; लेकिन स्त्रियाँ या तो इस दृष्टि से घृणा करती हुई दिखती हैं, या फिर यौनकुंठित मालूम होती हैं; और इससे वे और भी भ्रमित हो जाते हैं। इस छोटे समयकाल व छोटे समूह के अध्ययन द्वारा यह बहुस्तरीय दोहरा व्यवहार हमें दिखाई तो दिया, लेकिन इन सभी सच प्रतीत होती संभावनाओं में से मात्रा इस अध्ययन के आधार पर पूरा सच खोजना बहुत मुश्किल है। इस दोहरे व्यवहार की व्याख्या तथा संभावित परिणाम आगे के शोधों का विषय हो सकते हैं।
पुरुषों की इन सब दूसरी ही दुनिया की लगती दुविधाओं से परे, इस दुनिया के दायरे में वापिस लौटें तो हमारी सामाजिक मान्यताएँ आज भी भारतीय स्त्रा की शास्त्रा-मान्य ‘पारिवारिक, मासूम व त्यागमयी’ वाली सार्वजनिक छवि में किसी भी प्रकार के बदलाव के खि़लाफ लामबंद हैं, जिसकी वजह से स्त्रियों की स्वाभाविक यौनेच्छा तक का क्रूर निरादर जारी है। यह उलटबांसी वाकई हैरतअंगेज़ है कि जहाँ एक ओर संस्कृति द्वारा घर की चारदीवारी के भीतर स्त्रियों से कोई उग्र यौन आकांक्षाएँ न रखने की कड़ी अपेक्षा है जो शायद उन्हें रति-उदासीन बना रही है (और जो पुरुषों के अनुसार उन्हें घर से बाहर यह आनंद खोजने को मजबूर कर रही है—(तालिका 1 सामग्री XIV); वहीं दूसरी ओर घर से बाहर उन्हीं स्त्रियों से पुरुषों द्वारा सर्वथा मुक्त यौनव्यवहार की अपेक्षा भी की जा रही है। जहाँ एक ओर पार्टनर को यौनतृप्ति न दे पाना उनके अंहकार को चोट पहुंचाता है, वहीं पत्नी की यौन असंतुष्टि के बारे में वे पूर्ण अनभिज्ञ हैं (साक्षात्कार प्रश्न 8)!
महात्मा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान, सेवाग्राम में प्राध्यापक डा. अनुपमा गुप्ता स्त्रीकाल की संस्थापक संपादकों में हैं और डा मनोज चतुर्वेदी फिरोजाबाद में ईएनटी डॉक्टर हैं.
क्रमशः
यह आलेख स्त्रीकाल के प्रिंट एडिशन के स्वास्थ्य अंक में प्रकाशित है.
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