कुसुम त्रिपाठी
राजीनति एक सार्वजनिक क्षेत्र है और परम्परागत रूप से भारतीय महिलाओं को सार्वजनिक क्षेत्र में आने की मनाही रही है। फिर भी 20वीं सदी में गांधीजी के प्रभाव से महिलाएँ भारी संख्या में राजनीतिक आन्दोलनों में भाग लेने लगी थी। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम होने का सबसे महत्वपूर्ण कारण ’’बंदिश’’ है। धार्मिक संहिताएँ (मनुस्मृति) सदियों से स्त्री को नियंत्रण और पाबन्दियों में रहने का आदेष देती है। बंदिशों की साजिश है पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को अपनी मिल्कियत समझाता है और लाख हजार कोशिशों के बावजूद वह महिला को अपनी जरूरत की सामग्री समझता रहेगा। जिस समाज में बेटियों को देर रात बाहर रहने के अंजाम से डराया जाता है, हमारे घरों में बेटियों को सहेली के घर जाने तक के लिए झूठ बोलना पड़ता है, फोन पर बात करने, घर पर आने-जाने को हर पल का हिसाब देना होता है। लड़कियों द्वारा खुल के बोली गई बातों पर घर के ही तिलमिलाए लोगों के फ्रस्ट्रेशन से जूझना पड़ता है। इन सब कारणों से हमारी शक्तियाँ, हमारी स्वभावगत संवेदनशीलता की वजह से इन छोटी-छोटी व्यर्थ की लड़ाइयों में इतनी खर्च हो जाती है कि हमारे उड़ानों की ऊँचाई, उनकी परिधि निःसंदेह घटती जाती है। लम्बी, ऊँची उड़ान भरने की हमारी महत्वकांक्षा को हमारे चरित्र को यूं गूंथ दिया जाता है कि अपनी महत्वकांक्षाओं को हम खुद किसी संगीन गुनाह की तरह देखने लगते हैं। समाज में महिलाओं को दोयम दर्जे का समझा जाता है, इसलिए महिला अधिकारों को मानवाधिकारों से काटकर देखा जाता हैं, महिलाओं को लोकतांत्रिक स्थान और मानवाधिकारों की गारंटी देने में विफल रहता है। महिलाओं की समस्याओं के बारे में चिन्ताओं को अक्सर पीछे धकेल दिया जाता है क्योंकि प्रतिनिधि संस्थाओं में अल्पमत में होने के कारण महिलाएँ निर्णय प्रक्रिया में कोई प्रभावी भूमिका नहीं निभा पाती इसलिए उनके हस्तक्षेप को प्रभावी बनाने के लिए उनका राजनीतिक सबलीकरण बेहद जरूरी है।
1947 अगस्त आजादी के बाद डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर ने संविधान में स्त्रियों को पुरूषों के समान राजनीतिक अधिकार प्रदान किए और साथ ही जाति, धर्म, वर्ग, जन्मस्थान और शैक्षणिक या संपत्ति के आधार पर भेद भाव बिना भारत के सभी नागरिकों को मताधिकार प्रदान किया। इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर भारतीय संविधान में महिलाओं को भी नागरिकों का मताधिकार प्रदान किया। इस प्रकार भारतीय सवंधिन में महिलाओं की स्वतंत्र तथा सक्रिय और समान राजनीतिक हिस्सेदारी को स्वीकार किया गया और राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका के लिए उनके राजनीतिक सबलीकरण की जरूरत को रेखांकित किया।
स्वतंत्र भारत की पहली लोकसभा में चुनाव के लिए 43 महिला प्रत्याशी खड़ी हुई जिसमें कुल 14 चुनाव जीती। जवाहरलाल नेहरू का ध्यान इस ओर गया और उन्होंने कहा- “मुझे अफसोस है कि इतनी कम महिलाएँ चुनाव जीती है। इसकी जिम्मेदारी हम सब पर है………हमारे कानून, हमारे समाज में सब जगह पुरूषों का वर्चस्व है और हम सबका इसको लेकर एकतरफा रवैया है……….लेकिन अंत में महिलाएँ ही भारत में भविष्य की निर्मात्री होंगी। (राय, शीरिन 1997, जेण्डर एण्ड रिप्रजेटेंशन : विमेन एमपीज इन इंडिया इन ऐनी-मारी मोटे (एडि.) गेटिंग इन्स्टीटूशन राइट फॉर विमेन, लंदन जेड बुक 1997)।” दूसरी ओर राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के लिए कोई उपाय नहीं सोचे गए। राजनीतिक पार्टियाँ स्वाधीनता के सुख बोध और विभाजन से जुड़ी भयावह हिंसा की भावनाओं में ही डूबी रही और उनका पूरा ध्यान वही लगा रहा। महिला समूहों के लिए विभाजन के समय महिलाओं पर हिंसा, (बलात्कार, अपहरण, कत्ल) का मुद्दा सर्वोपरि हो गया। उस समय सामाजिक समस्याएँ ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई और राजनीतिक भागीदारी का मुद्दा पीछे छूट गया। आश्चर्य कि स्वतंत्रता आन्दोलन में महिलाओं की जबरजस्त भागीदारी देखी गई थी, किन्तु स्वतंत्रता के बाद कई महिला नेत्रियाँ ने राजनीति से सन्यास ले लिया तो कई कल्याणकारी योजनाओं के अर्न्तगत समाज सेवा जैसा कार्यों में जुट गईं। डॉ. उषा मेहता (मुम्बई) जिन्होंने 1942 में मुम्बई में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान समानान्तर रेडियो स्टेशन चलाया था, जिसके कारण उन्हें ब्रिटिश सरकार ने आजीवन कारावास की सजा दी थी, आजादी के बाद जेल से छूटने के बाद अपनी पढ़ाई पूरी करने में लग गईं।
उनसे मैंने जनसत्ता में साक्षात्कार के दौरान पूछा था कि आप कभी चुनाव क्यों नहीं लड़ीं। उन्होंने जवाब दिया था-“जहाँ चुनाव में खड़े रहने के लिए पैसा भरना पड़ता हो और वे पैसे हम टाटा बिरड़ा जैसे उद्योगपतियों से लेकर भरेगें तो जरूर जिन उद्योगपतियों ने हम पर पैसे खर्च किये, बदले में वे चाहेगें कि हम उनका विकास करें न कि जनता का। सत्ता में महिलाओं की भागीदारी का प्रश्न सीधे-तौर पर नीति-निर्णायक निकायों में महिलाओं की भूमिका से जुड़ा है। इससे महिलाओं की चिन्ताजनक स्थिति नीतियों को तय करने में उनकी भागीदारी की अनुपस्थिति का संकेत देती है। यह सत्ता में महिलाओं की भागीदारी से जुड़ा पहलू है।”
अन्तरराष्ट्रीय मंचो पर महिला प्रश्न पर चली आ रही बहस और आन्दोलन का अपना एक लम्बा इतिहास रहा है। पूरे विश्व में विधायिकाओं में सिर्फ 10.5 प्रतिशत महिलाएँ हैं और मंत्री पद पर सिर्फ 6 प्रतिशत महिलाएँ है। हमारे देश की स्थिति हमारे पड़ोसी देशों से भी बदतर है। हमारे देश में भी महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण का प्रश्न अचानक ही उत्पन्न नहीं हुआ। 1947 में महिलाओं की स्थिति के संबंध में तैयार हुई रिपोर्ट में एक पूरा अध्याय ही महिलाओं की राजनीतिक स्थिति के बारे में था और इसमें विशेष रूप से इस बात का उल्लेख किया गया था कि महिलाओं की खराब स्थिति के लिए उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के साथ ही उनकी राजनीतिक स्थिति भी जिम्मेदार है और इससे उबरने के लिए विधायक निकायों में आरक्षण के बारे में कहा गया था. रिपोर्ट में इस बात की ओर ध्यान दिलाया गया था कि- “संविधान में महिलाओं को जिस बराबरी और सशक्तता की बात की गई है वह केवल एक भ्रमजाल है। 70’ के दशक में अनेक महिला समूह कोटा सिस्टम की बात उठाते रहे हैं। समिति ने ग्राम पंचायतों में कानून बनाने का सुझाव रखा ताकि ग्राम विकास कार्यक्रमों में महिलाएँ उपेक्षित न रहें।” राजनीतिक पार्टियों को भी कहा गया कि वे चुनाव प्रक्रिया का कुछ ऐसा तरीका निकालें कि सभी राजनीतिक इकाईयों में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व हो सके। समिति की रिपोर्ट में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को परिवर्तन का मुख्य जरिया माना।
1947 की स्टेट्स रिपोर्ट, 1988 की राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना की संस्तुतियों के कारण ग्राम पंचायतों और नगर निगमों में 33 प्रतिशत आरक्षण मिला। 1980’ के दशक में राजनीति में कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व कम होने के कारण भारतीय राजनीति में कई स्थानीय पार्टियाँ उभरी, जिन्हें नये निर्वाचन क्षेत्रों तक पहुँचने की जरूरत थी और इसी जरूरत के तहत कई राजनीतिक पार्टियों ने महिला संगठनों के पंचायती राज और नगर निगमों में 33 प्रतिशत आरक्षण के सुझाव का समर्थन किया। 1993 के संविधान के 73वें और 74 वें संशोधन विधेयक के पारित होने से महिलाओं को ग्राम पंचायतों और नगर निगमों में 33 प्रतिशत आरक्षण का कानूनी अधिकार मिल गया। इस संशोधन से तमाम महिलाएँ पंचायतों और जिला परिषदों में आई। उनकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के कारण 1996 में केन्द्रीय चुनाव के पहले महिला संगठनां ने संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग सभी राजनीतिक पार्टियों के सामने रखी। सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपनी चुनावी घोषणापत्रों में संसद और विधानसभाओं में एक तिहाई मांग का समर्थन किया लेकिन जैसा कि अधिकतर महिला संबंधी नीतियों के साथ होता है राजनीतिक भागीदारी की बात केवल कागज तक ही सीमित रही। 1996 के चुनावों में महिलाओं को 15 प्रतिशत से भी कम वोट मिले। पिछले 50 सालों में किसी भी संसद में महिलाओं का प्रतिशत 7 से ज्यादा नहीं बढ़ा।
राष्ट्रीय स्तर पर सत्तारूढ़ संयुक्त सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक को अपने ’’सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम’’ में शामिल किया। 12 सितम्बर 1996 को तत्कालिन प्रधानमंत्री देवगौड़ा ने लोकसभा के प्रथम सत्र में युनाइटेड फ्रन्ट सरकार ने 81वॉ संविधान संशोधन बिल पेश किया किन्तु यह पारित नहीं हुआ। इस समिति में संसद के दोनों सदनों के सदस्य थे। 13 जुलाई 1998 में यह बिल दूबारा पेष किया गया था। काफी हंगामें, शोर-शराबे और कड़े विरोध के कारण बिल फिर भी पारित नहीं हो पाया। पुरूष वर्चस्व वाली संसद बिल को पारित करने की शायद हिम्मत ही नहीं जुटा पाई। महिला आन्दोलन की बढ़ती मजबूती के कारण जेण्डर प्रतिनिधित्व के मुद्दे का काफी राजनीतिकरण हुआ है मगर मुख्यधारा राजनीतिक दलों ने जेण्डर-न्याय के मुद्दे को अभी तक मन से नहीं अपनाया। क्या संसद में महिलाओं का अधिक प्रतिनिधित्व बढ़ने से राजनीतिक क्षेत्र में पुरूष वर्चस्व को ज्यादा चुनौतिपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ेगी ? 81वें संशोधन बिल पर पक्ष व विपक्षी दोनों दलों के बीच काफी बहस चली।
आरक्षण के विरोधी पक्ष संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण के पूरे तर्क को पिछड़ा कदम मानते है. उनके अनुसार यह बराबरी के सिद्धांत का उल्लघंन करता है। वे आरक्षण के नीति के पूरी तरह खिलाफ है। उनके अनुसार- “इससे भारत टुकड़ों में बंटेगा। इन संविधानिक संषोधनों को इतिहास में भारतीय समाज को विभाजित करने की प्रक्रिया की तरह देखा जाएगा।’’ (हिन्दुस्तान टाइम्स, 30 नवम्बर, 1994 बुच) कुछ ऐसे लोग भी हैं जो पहले इस बिल का समर्थन कर रहे थे बाद में अल्पसंख्यकों के हितों की दुहाई देकर इस बिल के एकदम विरोधी हो गये। इस तरह जुलाई 1998 में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल यह कहकर कि महिला आरक्षण बिल में देष की मौजूदा जाति भेद को ध्यान में नहीं रखा गया है। उन्होंने कहा-’’जेण्डर न्याय को और दूसरे सामाजिक न्याय से अलग करके देखना एक शहरी मध्यवर्गीय संकल्पना है और यह देष की सभी महिलाओं के लिए उपयोगी नहीं हो सकती है।” (दि स्टेसमैन 13 जुलाई, 1998 संपादकीय)। इन पार्टियों का कहना है कि अन्य पिछड़ी जाति और अलप्संख्यक समूहों के लिए भी इसी में अलग से कोटा तय किया जाए। अंत में सवाल यह भी उठता है कि हमारी प्राथमिकताएँ क्या है? क्या भारतीय राजनीतिक तंत्र जिसमें अन्य चुनौतियाँ हैं, क्या इस एक चुनौती का सामना कर पाएगा? समता पार्टी के प्रभुनाथ सिंह ने बिल पर बहस के समय कहा- “आज देश के सामने कई और गंभीर समस्याएँ है…………..यह महिला आरक्षण बिल पेश करने का उपयुक्त समय नहीं है।” (स्टैटमेन, 15 जुलाई, 1998 पृ.।). बिल का विरोध करने वालों ने नारीवादियों और महिला समूहों को “बालकटी मेम साहब” और “बीबी ब्रिगेड” जैसे अपमानित करने वाले शब्दों का प्रयोग किया। महिला मुद्दे को “देश का विभाजन करने वाला” बताया।
महिला आरक्षण के पक्ष के लोगों का कहना है पुरूष-वर्चस्व वाले राजनीतिक तंत्र में महिलाओं को कोई जगह नहीं मिलती है। सीटों का आरक्षण होगा तो महिलाओं को स्थानीय स्तर पर राजनीतिक जगह मिलेगी तथा महिलाओं की सामाजिक एकजुटता बढ़ेगी। महिलाओें का तर्क है कि उन्हें बराबरी का हक चाहिए, कोई दया या भीख नहीं। वे आरक्षण को सामाजिक न्याय का हिस्सा मानती हैं। महिलाएँ दावे के साथ कहती हैं कि “विकास नीतियों के पीछे कई निजी स्वार्थ हित हैं जिसके अन्तर्गत काफी मोलभाव होता है। ये नीतियों अधिकतर प्रशासनिक अधिकारियों या फिर किसी ताकतवर छोटे समूह द्वारा बंद दरवाजों के पीछे तय की जाती है जहाँ किसी प्रकार की पारदर्शिता का प्रश्न ही नहीं उठता।’’ (स्टॉट 1991, पृ.65)। सवाल यह है कि जहाँ सब नीतियों को बनाने में पुरूषों का वर्चस्व है, महिलाएँ वहाँ कैसे पहुँचे? महिला संगठनों/समूहों का मानना है कि कोटा व्यवस्था से महिलाएँ उन सभी सामाजिक बाधाओं को पार कर सकेंगी, जिनके कारण वे अभी तक राजनीति से दूर रखी गई हैं और उनकी आवाज को अनसुना किया गया है।
भारत में कई राजनीतिक पार्टियों का महिला संगठनों से काफी घनिष्ठ संबंध रहा है। पार्टी राजनीति से जुड़ाव की एक नई समस्या हाल में और जुड़ गई। दक्षिण पंथीय पार्टियाँ भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के पुर्नस्थापना की दुहाई देकर महिलाओं को नए सिरे से लामबंद कर रहे हैं जिसमें वे औरतों का, परम्पराओं के रक्षक के रूप में आव्हान कर रही है।
महिला समूहों का मानान है कि यदि राजनीतिक संस्थाओं में नाममात्र मौजूदगी के बजाय 33 प्रतिशत महिलाएँ होगी तो पार्टियाँ उनको अनदेखा नहीं कर पाएंगे। इस कारण महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए। उनका तर्क है कि महिलाओं को राजनीति में आने की मौजूदा व्यक्तिगत जिम्मेदारी के बजाय यह जिम्मेदारी राजनीतिक पार्टियों की होनी चाहिए कि वे महिलाओं को टिकट देकर राजनीति में आने का मौका दें। महिलाओं को राजनीति से बाहर रखने का पूरा सामाजिक इतिहास है। वे भी दबे-कूचले समूह का हिस्सा हैं इस बात को मानकर इसकी क्षति-पूर्ति कानूनन आरक्षण देकर की जानी चाहिए।
भारत में महिला आन्दोलन इस वक्त संसद और राज्य विधान सभाओं में महिला के सवालों पर सकारात्मक कार्यवाही को लेकर बंटा हुआ है। यह मूलतः दो बातों पर केन्द्रित है-महिला आरक्षण का कोटा बढ़ाने को लेकर और उसमें पिछली जातियों की महिलाओं को लेकर और दूसरों अभिजात्यवाद के मुद्दों पर।
पंचायतों में 33 प्रतिशत आरक्षण के कारण महिलाएँ सरपंच तो बनी पर वे सरपंच स्त्रियाँ प्रोक्सी (नाम मात्र) नेता है। ग्राम पंचायतों में देखा गया कि यदि महिला सीट है तो प्रधान महिला जनरल मीटिग्स में नहीं जाती या नहीं जाने दिया जाता। उसका पति या ससुर ही प्रधान कहा जाता है। प्रधान-पति पैदा हो गए हैं. उत्साही महिला अभ्युदय (यू.एस.ए.) द्वारा किये गए सर्वे जो 19 महिला उम्मीदवारों पर किया गया था, उसमें से सिर्फ दो उम्मीदवारों ने स्वीकार किया कि वे अपनी मर्जी से आई है, अन्य सभी अपनी पार्टियों या परिवार की इच्छा से आई थी। इनके सर्वेक्षण से यह भी पता चला कि आरक्षण से प्रभुत्वशाली जातियों की ताकत में भी बढ़ोत्तरी हुई है। क्योंकि इस प्रक्रिया में भूस्वामियों को अपनी सत्ता को विस्तार देने का मौका मिला है। इस सर्वे में यह भी साफ किया गया कि महिलाओं पर दोहरी जिम्मेदारी है- “घरेलू कामों की और राजनीतिक दायित्वों की भी। महिला पंचायती राज सदस्यों के परिवारों में घरेलू कामों का कोई नया बंटवारा नहीं हुआ है जिससे राजीनीतिक दायित्वों पर भी बुरा असर पड़ा है”।
राजनीतिक जिम्मेदारियाँ निभाने में महिलाओं के सामने एक और भी दिक्कत आती है, वे राजनीतिक कार्यों में प्रशिक्षित नहीं होती, जहाँ प्रशिक्षण दिया जाता है वहाँ उनके पति या ससुर चले जाते हैं। कई गांवों में “सर्व महिला” पंचायतें भी बनी हैं क्योंकि कोई भी पुरूष महिला सरपंच के अर्न्तगत काम नहीं करना चाहता। पिढ़गारा (मध्यप्रदेश), ब्रहम नगर व श्रीरामपुर (महाराष्ट्र) पंचायतें इसका उदाहरण हैं। दलित, वंचित समाज की महिलाएँ आर्थिक और राजनीतिक दोनों दृष्टि से कमजोर है। उन्हें समाज में ऊँची जातियों से तथा दलित पितृसत्तात्मक संरचना से भी जुझना पड़ता है।
यह भी देखा गया कि जहाँ कहीं भी महिला प्रधान थोड़ी भी दबंग थी उस क्षेत्र का विकास अनुपात से कहीं अधिक हुआ है। औरतों ने स्कूल खोले, पम्पीसेट लगाएँ, कहीं कुएँ खोदे, टूबेल बनवाए, शौचालय बनवाए तो पुरूष सरपंचों ने दारू की भट्टी खोली।
हाल ही में यूनाइटेड नेशन यूनिवर्सिटी के वर्ल्ड इंस्टीच्यूट फॉर डेवलमेंट ईकोनॉमिक्स रिसर्च की एक रिपोर्ट सामने आई। उन्होंने इस शोध में 1992 से 2012 के बीच 4,265 राज्य विधानसभा क्षेत्रों को शामिल किया। 2018 में किये इस शोध में यह बात खुलकर आई कि भारत में महिला विधायकों के निर्वाचन क्षेत्र में पुरूष विधायकों के निर्वाचन क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा विकास हुआ है। यह शोध महिला विधायकों को चुनने के आर्थिक प्रभाव का विश्लेषण करने के लिए किया गया था ताकि अधिक विकास पर एक नेता के लिंग के कारण पड़ने वाले प्रभावों की जांच की जा सकें। उन्होंने पाया कि महिलाओं और पुरूषों के निर्वाचन क्षेत्रों के बीच विकास में एक चौथाई का अंतर है। नासा द्वारा ली गई तस्वीरों से पता चला कि महिला विधान क्षेत्रों में बिजली का प्रसार पुरूष विधान क्षेत्रों से ज्यादा हुआ है। सड़क निर्माण भी काफी हुआ है। नासा की तस्वीरों में यह भी सामने आया कि महिला निर्वाचन क्षेत्रों में पुरूष निर्वाचन क्षेत्रों की अपेक्षा अधूरी सड़क परियोजनाओं की संख्या 22 प्रतिशत कम है। (स्त्रीकाल 26 मार्च,2019 गायत्री आर्य).
अस्सी के उत्तरार्थ में राजनीति का अपराधीकरण होने लगा। आज तक सफेदफोश नेताओं की जो डॉन लोग, भाई लोग, माफिया लोग, मटका किंग तथा कई अफराधी प्रवृत्तियों में फंसे लोग पैसा देकर नेताओं को जिताते थे, उन्हें लगा क्यों न हम खुद राजनीति में उतरें, परिणामस्वरूप भारी संख्या में अपराधी प्रवृत्ति के लोग विधानसभाओं और संसदों में चुनकर आने लगें। ताकत और पैसों के बल पर चुनाव लड़ा जाने लगा। श्रीमती मृणाल गोरे जिन्हें महाराष्ट्र में पानी वाली बाई, बेलन वाली बाई के नाम से पुकारा जाता था जो आपातकाल के दौरान जेल में बन्द थी, आपातकाल के बाद जनता दल के टिकट पर लड़ी थी। भारी बहुमत से जीती थी, उन्होंने खुद चुनावी राजनीति में भाग लेना छोड़ दिया। मैंने जनसत्ता मुम्बई के लिए उनका इन्टरव्यू लिया था और ये सवाल पूछा था कि जिस मृणाल ताई को मुम्बई का बच्चा-बच्चा जानता है वे चुनावी राजनीति से क्यों सन्यास ले रही हैं। उनका जवाब था-“राजनीति में अब केवल गुण्डे रह गए है। हमारे नेता दलाली करते है। भ्रष्ट हैं और मैं इस भ्रष्ट और अपराधिक प्रवृत्ति के नेताओं के साथ काम नहीं कर सकती। अरे, मैं क्या कोई भी महिला इनके साथ चुनावी राजनीति में नहीं उतर सकती। इससे अच्छा है समाज-सेवा करना।” इस तरह राजनीति अनीति की शरणस्थली बन गयी। जहाँ अपराध और कपट को संरक्षण और प्रश्रय मिलने लगा। राजनीति का अपराधीकरण लगभग विश्व के अन्य देशों में भी हुआ। इन्टर पार्लियामेंटरी यूनियन की भारत की को-आर्डिनेटर नीलू मिश्रा ने बताया कि 178 देश इसके सदस्य है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर महिला सांसदों पर सर्वेक्षण किया गया तब पता चला दुनियाँ भर की महिला सांसदां के साथ पुरूषसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था अभद्र व्यवहार करता है। नीलू जी ने बताया 81.1 प्रतिशत महिलाओं के साथ अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर संसदीय संघ में हिंसा की जाती है। 44.4 प्रतिशत महिलाओं को मनोवैज्ञानिक समस्या झेलनी पड़ती है। 70 प्रतिशत औरतों को धमकी दी जाती है। महिला सांसदों ने बताया कि 21 प्रतिशत अफवाहें उनके साथ उड़ाई जाती हैं। 32.7 प्रतिशत महिला सांसदों ने बताया कि उनके अभद्र अश्लील कार्टून और तस्वीरें बनाई जाती है जो हमारे यौन से संबंधित होते हैं। आर्थिक उत्पीड़न 32.7 प्रतिशत महिला सांसदों का किया जाता है। अधिकतर महिलाएँ संसद के समक्ष बोल नहीं पाती। इस तरह इस सर्वेक्षण से साफ जाहिर है कि सांसद महिलाओं को भद्दी भाषा, अपशब्द, गालियों, अपहरण, बलात्कार, गन्दे कार्टून, जान से मार डालने तक की धमकी दी जाती है।
इस सबके बावजूद जो महिलाएँ पार्टी के अंदरूची ढाँचे में उपस्थिति दर्ज करवाने में कामयाब हो रही है उन्हें भी नेतृत्व के दूसरे दर्जे पर धकेल दिया जाता हैं, वे राजनीतिक दलों में नीति और रणनीति के स्तर पर बमुश्किल ही कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अक्सर उन्हें “महिला मुद्दों पर निगाह रखने का काम दे दिया जाता है जिससे कि चुनावों में पार्टी को फायदा मिल सकें।
साथ ही साथ राजनीति में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी न होने की वजह इस क्षेत्र में बढ़ता प्रदूषण भी है। यदि कोई दबंग लड़की या महिला यहाँ आना भी चाहती है तो परिवार वाले असुरक्षा और पीठ पीछे होती आलोचना और भद्दी बातों को देखते हुए जाने की अनुमति नहीं देते। किसी तरह महिलाएँ राजनीति में आ भी जाय तो अपराधी प्रवृत्ति के राजनीति के खुर्राट भेड़िये साबुत खा जाने को तैयार बैठे रहते हैं। पुरूष वर्चस्व समाज में स्त्रियों को चरित्रहीन साबित करने की होड़ लग जाती है ताकि उन लांछनों से शर्मसार होकर अपने बढ़ते हुए कदम वापस खीचं लें। हॉलांकि कई महिलाओं ने पुरूषों द्वारा खींची गयी लक्ष्मण रेखा को पार कर समाज में अपनी उपस्थिति मजबूती से दर्ज करवाई है, पर इनकी गिनती कम है।
आज सभी पार्टियों के नेता भ्रष्ट हैं। सभी साम्राज्यवादी देशों से जब डील करते है तो तगड़ा दलाली लेते हैं, इतना ही नहीं देश के भीतर भी व्यापारियों से किसी भी योजना को पास कराने के लिए दलाली लेते हैं। दलाल नेताओं के बीच देखा गया कि महिलाएँ भ्रष्ट नहीं होती (कुछ अपवाद हो सकते हैं)। दलाल सरकार, सांठ-गांठ, जोड़-तोड़, मंत्री पद के लिए खरीद-फरोख्त। उसके लिए गुण्डों का सहारा कभी-कभी माफिया तक का सहारा लिया जाता है। दारू-पीना -पिलाना। इन सबके बीच महिला नेता अपने-आप को असुरक्षित महसूस करती हैं। महिला विधायक पुरूष विधायकों से कम भ्रष्ट व अधिक कुशल होती हैं। हाल ही में जनरल ऑफ इकोनॉमिक विहेवियर एण्ड ऑर्गेनाइजेशन में प्रकाशित एक शोध में यह सामने आया कि सरकार में ज्यादा महिलाओं का होना भ्रष्टाचार को सीमित करता है। 125 देशों में हुए इस शोध से पता चलता है कि जिन देशों की संसद में महिलाओं की संख्या ज्यादा है, वहाँ भ्रष्टाचार काफी कम पाया गया है। इस बात की पुष्टि भारत में होने वाले बड़े-बडे़ घोटालों में लिप्त महिलाओं की न्यूनतम संख्या देखकर भी होती है। भ्रष्टाचार में कम लिप्त होना भी महिलाओं को अपने क्षेत्र के लोगों के प्रति ज्यादा जिम्मेदार साबित करता है। इस कारण उनका पूरा ध्यान अपने निजी आर्थिक हित साधने के बजाय अपने क्षेत्र के लोगों के विकास में अधिक लगता है।
आज भी राजनीतिक पार्टियाँ आधी आबादी को “चुनाव जिताऊ फैक्टर नहीं मानती।” आज भी हमारे देश की औरतों को यह कहते हुए सुना गया है कि पति जहाँ कहते है, हम वहीं वोट डाल देते है। स्त्रियों में राजनीतिक चेतना का अभाव देखा जा रहा है। राजनीति हमारे जीवन को प्रभावित करती है। यह मुख्य वजह है कि हम समाज में निर्णायक भूमिका में नहीं उतर पा रहे है। “अम्माजी”, “बहनजी” या “दीदीजी” ये सब सत्ता में आती है तब महिलाओं को उनके प्रश्नों को भूल जाती है। आज भी हमारे देश की मात्र 65.46 प्रतिशत महिलाएँ साक्षर हैं। स्वतंत्रता के इतने वर्ष बाद भी सरकारी कागज-पत्रों में अँगूठे की निशानी लगाने का प्रावधान रहता है। यह देश के लिए शर्म का विषय है।
महिलाओं की राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी इस भारतीय पितृसत्तात्मक सामंतवादी सोच के रहते मुश्किल ही है। जब डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर के “हिन्दू कोड बिल” को इस देश के पितृसत्तात्मक सामाजिक मूल्यों ने पास होने नहीं दिया जिसमें उत्तराधिकार की बात कही गई थी, जो भारतीय सामंती पुरूष अपनी पुत्रियों को घर की संपत्ति में उत्तराधिकार नहीं दे सकता भला हम उस समाज के पुरूषों से ये आशा ही कैसे कर सकते है कि वे सत्ता में महिलाओं को आने देगें।
इसलिए मुझे तो लगता है महिलाओं को खुद अपने लिए रास्ते बनाने होगें। जिस तरह सावित्रीबाई फूले ने जब लड़कियों के लिए स्कूल खोला तो रास्ते में ऊँच्य जाति/वर्ग के पुरूष उन पर गोबर फेंकते, उनको गालियाँ देते, अभद्र व्यवहार करते, जब सावित्रीबाई ने ये बात ज्योतिबा फुले से कही तो उन्होंने कहा, एक और साड़ी रख लिया करें। ताकि गन्दी साड़ी को बदला जा सके। सावित्री बाई ने वैसा ही किया पर एक दिन उन्होंने बड़े साहस के साथ उन पुरूषों का सामना किया, वे रूकी और एक आदमी को जोर का तमाचा जड़ दिया। वे नहीं जानती थी इसका परिणाम क्या होगा? पर परिणाम अच्छा निकला, दुसरे दिन से सारे पुरूषों ने उस रास्ते पर पर बैठना बन्द कर दिया और सावित्रीबाई की “स्त्री-षिक्षा” अभियान आगे बढ़ा। इसलिए आज हम सभी स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी बन पाई, यहाँ तक पहुँच पाई वरन् मनु स्मृति ने साढ़े तीन हजार के इतिहास में स्त्रियों/दलितों की शिक्षा पर पाबन्दी लगा रखी थी। यदि सावित्रीबाई ने डरकर स्त्री-शिक्षा से पांव पीछे ले लिया होता तो आज भी हम साढ़े-तीन हजार पहले के भारत में जी रही होती। इसलिए राजनीति में सत्ता में आने के लिए भी हमें सावित्रीबाई के तरीकों को अपनाना पड़ेगा। एकजूटता दिखानी पड़ेगी।
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- दि स्टेटमैन, 13 जुलाई, 1998 संपादकीय
- दि स्टेटमैन, 15 जुलाई, 1998 पृ. 1
- स्टॉट, 1991 पृ. 65
लेखिका कुसुम त्रिपाठी ( A/301,क्वीन्स, हीरानन्दानी इस्टेट, जी.बी.रोड,थाना-400607) लम्बे समय से स्त्रीवादी आन्दोलनों की मुखर आवाज रही हैं और मुंबई में पढ़ाती हैं.