चैताली सिन्हा
‘तीसरा सप्तक’ के कवि केदारनाथ सिंह हिन्दी साहित्य जगत में अपनी काव्य प्रतिभा के लिए जाने जाते रहेंगे . उनकी रचनात्मक प्रक्रिया ही उनके व्यक्तित्व की विशेषता है . केदारनाथ सिंह हिन्दी साहित्य के ऐसे चितेरे हैं जिनकी कविताएं अपने समय के विरुद्ध खड़ी दिखाई देती है . केदारनाथ जी की कविताओं में गाँव की गरीबी और चकाचौंध दिखने वाली शहरों का तनाव साफ़ झलकता है . यह तनाव अब नहीं है या आगे नहीं रहेगा, ऐसा कहना बेमानी होगा . यह तनाव आगे भी रहेगा . गाँव और कस्बों से रोज़ी–रोटी की तलाश में शहर आए लोगों की सिसकती ज़िन्दगियां किस क़दर शहरों के छोटे से कमरों में सिमटकर रह जाती हैं इसे कवि स्वयं भी अनुभव करते दिखाई देते हैं . केदारनाथ जी अपनी कविताओं में एक ओर जहाँ प्रकृति की सौम्यता और सरलता की बात करते हुए इस पृथ्वी के रहने की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर अपनी कविताओं के माध्यम से यह भी दिखाने की चेष्टा करते हैं कि शहर आपकी संवेदनाओं को किस क़दर मार देती है . प्रकृति की सरल और सहज प्रवृत्ति को शहर कठोर और क्रूर बना देती है . इसीलिए केदारनाथ की कविताओं के भीतर एक छटपटाहट और एक बेचैनी दिखाई देती है . यह छटपटाहट अकारण नहीं है बल्कि इसके पीछे कवि के भीतर का वह द्वंद्व है जो निरंतर कवि के अपने आपसे बहस करता है . करता है बहस उन तमाम उलझे हुए प्रश्नों से, उन तमाम समस्याओं और चुनौतियों से लड़ने के लिए .
केदारनाथ सिंह जी ज़मीन से जुड़े हुए कवि हैं . निश्चित तौर पर नागार्जुन के बाद आधुनिक हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय, जनप्रिय कवि केदारनाथ सिंह जी ही ठहरते हैं . ‘तीसरा सप्तक’ में सम्मिलित कवि केदारनाथ अपनी ज़मीनी स्तर पर लिखी गई कविताओं के लिए ही लोक जीवन के ज़्यादा निकट दिखाई पड़ते हैं . इनकी कविताओं के तार गाँव से लेकर शहर और हिन्दी से लेकर भोजपुरी तक जुड़ते हैं . भले ही तार सप्तक का यह तार आज टूट गया परंतु केदार जी की कविताओं में जिस संघर्ष और असीम इच्छाओं का खाका मिलता है वह आज भी वैसा ही है, जैसा पहले था . ज़िंदगी की जद्दोजहद आज भी उतनी ही उलझी हुई सी मालूम होती है, इनमें कोई बदलाव नहीं दिखता . हिन्दी साहित्य के संसार में केदारनाथ सिंह की कविता अपनी विनम्र उपस्थिति के साथ पाठक वर्ग के समीप जाकर खड़ी हो जाती है . वे अपनी कविताओं में किसी क्रांति या आंदोलन के पक्ष में बिना शोर किए मनुष्य, चींटी, घास, पत्ते, फूल, कठफोड़वा या जुलाहे के समर्थन में दिखते हैं . लोकबिम्ब से लेकर आधुनिक जीवन के तीखे स्वर उनकी कविताओं में निरंतर व्याप्त है .
प्रेम के नितांत व्यक्तिगत क्षणों को केदारनाथ जी जितनी सरलता से अपनी कविताओं में कह जाते हैं, वह किसी उस्ताद के बस की ही बात है . प्रेम की पीड़ा को भी उन्होंने अपने शब्दों में बखूबी अभिव्यक्त किया है –
“मैं जा रही हूँ – उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि
जाना हिन्दी का सबसे खौफनाक क्रिया है .”
विदा की तरह कविता का यह बिम्ब उतना ही मार्मिक, विस्तीर्ण और सहज स्वभाव वाला है . उनके लिए कविता कोई व्यक्तिगत किस्म की उपलब्धि नहीं थी, बल्कि वह दुनिया को बनाने का एक उष्मीय इरादा रखती है . केदारनाथ सिंह जी जानते हैं कि मनुष्य अपने कल्पना लोक में कितना उर्वर, राजनीतिक और फ़ितनागर हो सकता है . उनकी कविता ‘बनारस’ को ध्यान से पढ़ने पर बनारस एक बिम्ब के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है . जिन तत्त्वों से मिलकर यह शहर बनता है . वह उनकी कविता की बुनावट में चला आता है . चाहे वह कबीर पर लिखी कविताएँ हों अथवा सुई-धागों के विषय में लिखी कविताएँ हों .
केदारनाथ जी की काव्य यात्रा नवगीत से शुरू हुई थी . उनके नवगीतों का संग्रह ‘अभी बिलकुल अभी’ हिन्दी में बहुत चर्चित रहा . आज जबकि हिन्दी में नवगीतों की परंपरा अमूमन ख़त्म सा हो गया है, उनके नवगीत आज भी पाठकों को आकर्षित करते हैं . जहाँ तक आधुनिक कविताओं की उनके पहले संग्रह की बात है तो यह केदारनाथ जी के प्रगतिशील होने की ओर संकेत करता है . ‘ज़मीन पक रही है’ एक अत्यंत महत्वपूर्ण संग्रह है . केदारनाथ सिंह जी हमेशा देहाती, गाँव के आदमी बने रहे . इसीलिए उनकी कविताओं का मिजाज़ गंवईपना लिए हुए है . गाँव से कस्बे में आने का, कस्बे से दिल्ली जैसे महानगर में आने का तनाव भी दिखता है . ऐसे तनाव का प्रयोग वे जिस प्रकार करते हैं वह भी अपने आप में अनोखा है . दिल्ली के विषय में उनकी यह पंक्तियाँ देखने योग्य है
“बारिश शुरू हो रही है
बिजली गिरने का डर है
वे क्यों भागे जाते हैं
जिनके घर हैं .”[1]
जहाँ तक केदारनाथ सिंह की कविताओं में स्त्री पक्ष की बात है तो वह हमें कई रूपों में दिखाई पड़ती है . स्त्री पर बात करते हुए केदारनाथ जी ने कई कविताएँ लिखीं हैं . इनमें – ‘हॉकर’, ‘जो एक स्त्री को जानता है’, ‘नमक’, ‘तुम आईं’, ‘टमाटर बेचनेवाली बुढ़िया’, ‘सुई और तागे के बीच’, ‘हाथ’, ‘जाना’, ‘आना’, ‘बाघ’, ‘घुलते हुए गलते हुए’, ‘एक पारिवारिक प्रश्न’ आदि . केदारनाथ सिंह की कविताओं में स्त्री का प्रेरणादायी रूप और ‘अजूबा’ रूप दोनों का चित्रण मिलता है . उनकी कविताओं में स्त्री एक सर्वस्व के रूप में स्वीकारी गई हैं तो कभी उसका परित्यक्ता रूप भी दिखाया गया है .
स्त्री की सुन्दर एवं प्रेरणादायी रूप का चित्रण करते हुए कवि लिखते हैं –
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए .”
इसी संदर्भ में उनकी एक और कविता को यहाँ देखना चाहिए, जहाँ कवि स्त्री की कठोर परिश्रमी रूप का चित्रण करते हुए ‘सुई और तागे के बीच में’ शीर्षक कविता में लिखते हैं –
माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है
पानी गिर नहीं रहा
गिर सकता है किसी भी समय
मुझे बाहर जाना है
और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है….”
यह एक लंबी कविता है, जिसमें कवि स्त्री के परिश्रमी और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबी हुई छवि को दिखाते हैं . परिवार का बोझा ढोते-ढोते एक स्त्री, एक माँ का शरीर किस प्रकार झुकता जाता है, ढलता जाता है, इसका बेहद मार्मिक और कारुणिक बिम्ब खड़ा करते हैं कवि केदारनाथ सिंह जी यहाँ . यह झुकना, स्त्री का सांसारिक बोझ से झुकना है, दिन-ब-दिन ढलते उम्र से झुकना है, कर्तव्यों के बढ़ते बोझ से, दायित्वों के बोझ से झुकना है . यानी परिश्रम करती स्त्रियों की पीड़ा, उनके कष्ट का मर्म कवि समझते हैं . इस थका देनेवाली दिनचर्या में स्त्री कभी खाली नहीं बैठती वरन सुई और तागा लेकर बैठ जाती हैं . कवि अपनी माँ के माध्यम से संपूर्ण स्त्री समुदाय का श्रम उजागर करते हैं .
यह सर्वविदित है कि गया वक्त पुनः लौटकर नहीं आता . फिर भी कवि का यह प्रयास है कि उस उधड़े हुए समय को फिर से सिलने का प्रयत्न किया जाए ! यहाँ हमें कवि के आशावादी होने का परिचय मिलता है . जीवंतता का परिचय मिलता है . सुई और तागे की बात करते हुए करघे की बात करना, इस बात का संकेत है कि केदारनाथ जी कहीं-न-कहीं महात्मा गांधी के लघु-कुटीर उद्योग से प्रभावित थे और हथकरघा पद्धति में भी विश्वास करते थे . साथ ही इस उद्योग के बहाने स्त्री-श्रम को जो बल मिला, रोज़गार मिली, आय के साधन बढ़े आदि बातों से भी कवि इत्तेफाक़ रखते थे . ‘खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे’ ये पंक्तियाँ खादी वस्त्र की विशेषता और सूत कातने वाले चरखे की ओर संकेत करता है .
इसी प्रकार केदार जी की एक और कविता है, जिसमें उन्होंने ग्रामीण जीवन में व्याप्त गरीबी, अभाव और स्त्री का सर्वस्व बचाकर रखने का भाव व्यक्त किया है . कविता का शीर्षक है – ‘घुलते हुए गलते हुए’ –
“सहसा बौछारों की ओट में
दिख जाती है एक स्त्री
उपले बटोरती हुई….
अंतिम पंक्तियों में कविता का बिंब देखने योग्य है –
स्त्री को
बौछारों में
धीरे-धीरे घुलते हुए
गलते हुए देखता हूँ मैं .”
यहाँ भी कामकाजी स्त्री की बात करते हैं कवि . स्त्री के जीवन में व्याप्त अभाव और गरीबी का यथार्थ चित्रण करते हैं . कवि ने स्त्री का बिंब एक ऐसे रूप में खींचा है जो सहज ही गाँव की जीवन शैली को दर्शाता है . ग्रामीण परिवेश में रचे-बसे लोक जीवन को दर्शाता है . ऐसे में यदि केदारनाथ सिंह जी को गाँव का कवि, जन का कवि कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी . कवि के काव्य जगत में स्त्री हर रूप में चित्रित की गई हैं . उपले बचाने की कोशिश के माध्यम से यहाँ स्त्री अपना सर्वस्व बचाने की चेष्टा करती दिखाई देती हैं . स्त्री का स्वभाव है सब कुछ समेटने, सहेजने और सुरक्षित रखने की . वह जीवन में कुछ भी खोना नहीं चाहती . अपने समर्पण का उदात्त भाव वह अपनी गृहस्थी में लगा देना जानती हैं . स्त्री का घुलना और गलना स्वयं के अस्तित्व को मिटा देने की उत्कट जिजीविषा को व्यक्त करता है . स्त्री कई बार इस प्रयास में स्वयं को, स्वयं के अस्तित्व को मिटा देती है . स्त्री का हृदय अधिक उदार और स्नेहिल भाव का होता है, इस बात को कवि भी कहीं-न-कहीं स्वीकार करते हैं . स्त्री का श्रमिक रूप हमें आगे चलकर मार्क्सवाद की ओर ले जाती है . इसके अतिरिक्त कवि की बेहद चर्चित कविता ‘बाघ’ की यदि बात की जाए तो हम देखेंगे कि इस कविता की शुरुआत ही एक स्त्री को जानने के संदर्भ में की गई है . जहाँ कवि लिखते हैं कि-
“मैं एक स्त्री को जानता हूँ
जो एक छोटे से शहर में रहती
तो हो …जाएगा प्रकट .”
कविता ज़्यादा लंबी तो नहीं परंतु जितनी भी है वह अपने आपमें बहुत कुछ कहती है .
कवि यहाँ किस स्त्री की बात करते हैं, इसे समझने की ज़रूरत है . क्या वह स्त्री कवि से इतना आत्मीय संबंध रखती थीं कि कवि को उस वृद्धा स्त्री की एक-एक शब्द याद हैं . अथवा गाँव की परंपरा में दादी–नानी कही जाने वाली कोई चिरपरिचित अपनी हैं . एक स्त्री के माध्यम से कवि जिस बाघ की कहानी कहलवा रहे हैं, समझने की बात यहाँ यह है कि बाघ अन्तत: किसका प्रतीक है? सत्ता का अथवा आज के लोकतंत्र का वह कुरूप सत्य है जिससे हम और हमारी पीढ़ी रू–ब–रू हो रहे हैं . यह भय सत्ता के भीतर मौजूद वह भय है जिससे सर्वाधिक आम आदमी खौफ़जदा और आतंकित हैं .
कवि का सूक्ष्म दृष्टिकोण उस ओर भी इशारा करता है, जहाँ प्रेम पर पहरा है . ऐसे पहरुओं के कारण प्रेम का उदात्त भाव या स्वरुप यहाँ नहीं पनप पाती क्योंकि जिस बाघ रूपी समाज का भय यहाँ उपस्थित है, वह बाघ कभी भी साधारण मनुष्य को डरा सकती है . डरा सकती है उन हथियारों से जिससे हो सकता है प्रेम का अंत . ऐसे पंजों से डरती है वह स्त्री, वह प्रेमी युगल जिसके भीतर सदैव एक डर बैठा रहता है, स्वयं के मारे जाने का .
यह बाघ दरअसल कोई और नहीं बल्कि एक भय का नाम है . यह भय हमारे समाज में भी मौजूद है और हमारे भीतर भी मौजूद है . यह बाघ कवि के स्वप्न का आधार है . बाघ मनुष्य के इतना निकट है कि एक के विनाश के साथ ही दूसरे के ध्वस्त हो जाने का संकल्प बहुत सहज भाव से जुड़ गया है .
केदारनाथ सिंह जी की स्त्री केन्द्रित एक और कविता है जिसका शीर्षक है ‘नमक’ . इसके अतिरिक्त एक अन्य कविता है, जिसका शीर्षक है – ‘जो एक स्त्री को जानता है’ . उपर्युक्त दोनों ही कविताएँ एक विशेष प्रकार की मांग करती है और वह मांग है स्त्री विमर्श और स्त्री अस्मिता की .
‘नमक’ कविता का आरम्भ नमक के स्वगत संवाद और वह भी प्रश्नवाची मुद्रा से होता है . नमक शहर से गुज़रता हुआ चुपके से एक घर में प्रवेश करता है . फिर चूल्हे के पास जाकर दाल-सब्ज़ी में घुल जाता है और जब खाने की मेज सजती है तो परिवार में सबसे अधिक नमक ही खुश होता है . मानो ‘नमक’ नमक न होकर परिवार का कोई सदस्य ही हो . (यहाँ नमक का अद्भुत मानवीकरण किया गया है .) कवि के ही शब्दों में –
“जैसे उसकी जीभ अपनी ही बोटी के
स्वाद का इंतज़ार कर रही हो .”
परंतु इसके तुरंत बाद ही यथास्थिति बिलकुल बदल जाती है जब घर का पुरुष चीखते हुए कहता है कि दाल फीकी है . और कविता, कविता न होकर मानो एक कहानी के रूप में अचानक से नाटकीय मोड़ ले लेती है –
“मैं कहता हूँ दाल फीकी है
पुरुष ने लगभग चीखते हुए कहा
अब स्त्री चुप
कुत्ता हैरान
ताकते हुए ….! (उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएँ : पृ. 20)
इस कविता का विश्लेषण जिस रूप में किया जाना चाहिए, उस रूप में नहीं की गई . इस कविता को सिर्फ़ नमक के स्वाद तक ही सीमित कर दिया गया . परंतु क्या बात सिर्फ़ उतनी ही है, जितनी कही गई या दिखाई गई ! सवालिया निशान खड़ा होता है .
इस पूरी प्रक्रिया में एक मात्र पुरुष ही चिल्ला रहा है, स्त्री चुप है, मानो उससे कोई बहुत बड़ी भूल हो गई हो . स्त्री की चुप्पी ही उसे स्वयं को अपराधबोध से भर देता है . क्या यहाँ पुरुष का संयमित होना भी आवश्यक नहीं था? सिर्फ़ ज़रा-सा नमक ही तो कम डला था खाने में ! इस पर पुरुष का चिल्लाना यह दर्शाता है कि स्त्री को किसी भी तरह की भूल करने की इजाज़त नहीं है . चाहे वह अज्ञानतावश ही क्यों न हो . पितृसत्ता के भीतर स्त्री की छोटी-से-छोटी भूल भी अक्षम्य है . पुरुष का स्त्री पर क्रोधित होना स्त्री पर उसके एकाधिकार भाव को दर्शाता है, जहाँ उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी करने की स्वतंत्रता नहीं है . परिवार की हर छोटी-बड़ी घटना के लिए स्त्री को दोष देना, ज़िम्मेदार ठहराना पितृसत्तात्मक समाज की विशेषता है .
परंतु यह पितृसत्ता यह भूल जाती है कि स्त्री का अपना भी कोई अस्तित्व है, कोई पहचान है . उसकी अपनी भी कोई इच्छा हो सकती है . स्त्री की खुद की भी कोई जिजीविषा हो सकती है . स्त्री को मनुष्य समझने की शक्ति अब तक इस पितृसत्ता में नहीं आई . स्त्री आज भी अपने होने का प्रमाण देती फिर रही हैं . ‘अस्मिता’ जो कि मुख्यतः स्त्री के स्वाभिमान की लड़ाई है, स्वत्व का बोध है, वह आत्मनिर्णय और आत्माभिव्यक्ति का प्रश्न है, जो किसी को व्यक्ति बनाता है . ‘अस्मि’ अर्थात् मैं हूँ .’ इस होने का एहसास स्त्री को बार-बार इस समाज में कराना पड़ता है . दरअसल अस्मिता-विमर्श सत्ता के समीकरण और शक्ति के संतुलन में अपने हिस्से पर दावे की सैद्धांतिकी है . यह स्वत्व का बोध असल में स्त्री के स्वाभिमान के साथ जुड़ा हुआ प्रश्न है . परन्तु कविता में चित्रित स्त्री की दशा पर यदि ध्यान दिया जाए तो हमें सीमोन द बोउवार की कुछ पंक्तियाँ अनायास ही याद हो आती है, जहाँ वह कहती हैं कि – ‘मात्र वर्ग-संघर्ष के द्वारा ही स्त्री-मुक्ति के महान लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता … चाहे साम्यवादी हों, मार्क्सवादी हों, माओवादी हों या ट्राटस्कीवादी, औरत हर जगह, हर खेमे में अधीनस्थ की स्थिति में है, सबसे निचले पायदानों पर खड़ी है .’
‘नमक’ कविता में स्त्री की चुप्पी का भी यही अर्थ है कि पितृसत्ता दलन के उन वैश्विक और ऐतिहासिक तरीकों का प्रयोग करती रही है, जो स्त्री को उसकी जैविक, अधीनस्थ स्थिति से बार – बार परिचित कराती है . पितृसत्ताक समाज स्त्री के मुद्दे पर सोचना ही नहीं चाहती . पितृसता की आन्तरिक इच्छा यही है कि समर्पण एक तरफा हो .
इस कविता की दूसरी विशेषता है कुत्ते और बच्चे की प्रतिक्रियाएं, जो कि उनकी भंगिमाओं से पता चलता है . केदारनाथ जी की कविताओं में भंगिमाओं के माध्यम से एक बिम्ब खड़ा करने का अद्भुत कौशल दिखाई पड़ता है . केदारनाथ सिंह एक ऐसे कवि हैं, जिन्होंने अपनी अमूमन कविताओं में स्त्री की पीड़ा को उकेरा है . यानी स्त्री मन को समझने की उनमें अद्भुत क्षमता है . ध्यान देने की बात है कि इन पंक्तिओं में मौन सबसे ज्यादा मुखर है – यह चुप्पी की दहाड़ और अनबोले की ताकत ! जिसका वहन भी वह स्त्री /पत्नी ही करती है, पुरुष अथवा पति नहीं .
केदारनाथ सिंह की कविताओं का एक स्वर और भी है, और वह है रूमानियत का . केदारनाथ जी की कविताएं देखने और पढ़ने में भले ही सरल लग सकता है परन्तु इनके अर्थ का गाम्भीर्य कभी-कभी पाठक को बड़ी उलझन में डाल देती है . कई बार यह नितांत कठिन हो जाता है कि अन्ततः कविता कहना क्या चाहती है . इसका उदाहरण हम उनकी कविता ‘ जो एक स्त्री को जानता है’ में देख सकते हैं . परन्तु यह जानना किस प्रकार का जानना है, एक अबूझ पहेली सी प्रतीत होती है – “हवा को बहने दो
और उस स्त्री को भूल जाओ
जिसे तुम प्यार करते हो
. . . . . . . . . . . . . . ..”
यहाँ स्वतः एक प्रश्न मन में उठने लगता है, क्या स्त्री से प्रेम करना इतना निकृष्ट कार्य है कि उसे भूलने के एवज में जंगली पत्तों और जंगली पशुओं से तुलना की जाए? हम जानते हैं कि ‘जंगली’ शब्द का अर्थ क्या होता है ! यानी एक ऐसा प्राणी जिसमें विवेक का अभाव होता है . क्या स्त्री या प्रेमिका की तुलना जंगली, विवेकहीन प्राणी या पेड़-पौधों और पत्ते से की गई है? क्या स्त्री को वाकई में इन उपमाओं से नवाजी जानी चाहिए ! क्या कवि का दृष्टिकोण भी स्त्री विरोधी नहीं है? यदि ऐसा है, तब तो निश्चित ही संत अगस्ताइन का यह कथन उचित है कि – “औरत वह जीव है, जो न स्थिर है और न कृत संकल्प .” और सीमोन का भी यह कहना उचित ही है कि – “स्त्री, पुरुष प्रधान समाज की एक कृति है . वह अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए स्त्री को जन्म से ही उनके नियमों के ढाँचे में ढालता चलता गया है .”[2]
तमाम ऐसे प्रश्न हैं इस कविता में जो स्त्री की छवि को धूमिल करती है . इसी कविता में कवि स्त्री को एक और नया नाम देते हैं – ‘अजूबा’ .
‘अजूबा’ कौन कहलाता है यह हम, आप सभी जानते हैं . अर्थात् हास्यास्पद दिखनेवाले, दुनिया में जो अनोखा हो, अद्वितीय हो . यदि अद्वितीय और अमूल्य के संदर्भ में बात हो तब तो निश्चित ही कवि का मंतव्य यहाँ एक स्त्री के प्रति अगाध प्रेम, स्नेह, सम्मान और आदरणीय भावनाओं के पक्ष में है . परंतु भाव यहाँ वह नहीं है . यदि ‘अजूबा’ से कवि का तात्पर्य व्यंग्यात्मक है तो यहाँ वही बात चरितार्थ होती है जो रोमन क़ानून में स्त्री को लक्ष्य करके कहा गया है कि – “स्त्री बेवकुफ और असंतुलित होती है .”[3]
कवि का मंतव्य यहाँ जो भी रहा हो परंतु यहाँ स्त्री की नकारात्मक छवि ही उभर कर आती है .
दूसरी ओर कवि नदी की बात करते हैं . नदी, जो प्रतीक है निरंतरता की, हर परिस्थिति में बहते जाने की, नदी प्रतीक है जीवंतता की . कवि का स्त्री की बात करते -करते अचानक नदी की बात करना दोनों में समानता की ओर संकेत करता है . जिस प्रकार नदी और घास तमाम मौसमी झंझावातों को झेलते हुए पुनः अपनी यथास्थिति में बनी रहती है, ठीक उसी प्रकार स्त्री अपने जीवन के सभी कष्टों, अन्यायों, अपमान, उपेक्षा और प्रताड़नाओं को सहती हुई फिर से अपने उदार रूप में, स्नेहिल रूप में लौट आने की शक्ति रखती है .
जिस हरे घास पर क्षण भर बिताने की बात अज्ञेय करते हैं, उसी घास को केदारनाथ सिंह जी किसी की आत्मा में उगाकर उसे फिर से हरा करने का प्रयत्न करते हैं . यह विरले ही होंगे कि घास को भी किसी की आत्मा से जोड़ सकते हैं और उसमें पुनः जिजीविषा के लिए ऊर्जा भर सकते हैं . यह एक बड़े रचनाकार की विशेषता है, दरअसल घास का हरापन जीवंतता का प्रतीक है, आशा का प्रतीक है, सृजनशीलता का प्रतीक है, इसलिए कवि घास को बार–बार अपनी कविता में लाते हैं . जीवन-संघर्ष की थपेड़ों से हारा हुआ मनुष्य गिर के पुनः संभल सके, यह प्रेरणा भी हमें घास से मिलती है . यहाँ घास प्रतीक है दबे कुचलों का, शोषितों का, दमितों का . परन्तु घास में अदम्य क्षमता है, फिर से उठ खड़े होने का .
स्त्री मन को केदारनाथ सिंह जी कितना समझते हैं, इसका प्रमाण हमें उनकी कविता ‘तुम आईं’ में देखने को मिलता है –
“तुम आईं
जैसे छीमियों में धीरे-धीरे
आता है रस – – – – – – – .
– – – – – – – – – – – – – – –
जैसे दाने अलगाए जाते हैं भूसे से
तुमने मुझे खुद से अलगाया .”
(1967),(‘केदारनाथ सिंह , प्रतिनिधि कविताएँ’, पृ.93-94 )
यानी मिलन के साथ ही बिछुड़ने का दंश . ये एक गंभीर एवं परिपक्व कवि की ही रचना हो सकती है . जिन्होंने बहुत ही कम शब्दों में और बिना किसी लाग-लपेट के प्रेम का आदि, मध्य और अंत, तीनों ही अवस्थाओं को दिखा दिया और किसी को पता भी नहीं चला . प्रेम का प्रारंभिक रूप अर्थात प्रथम परिचय फिर मिलन का बढ़ता उपक्रम और अंत में अलगाव . पाठक को यहाँ बहुत कम समय मिला यह समझने में कि कवि कब एक दूसरे से अलग भी हो गए दाने से भूसे की तरह . कविता में प्रयुक्त प्रत्येक शब्द एक बिम्ब खड़ा करता है . मानो वह पूरी प्रक्रिया साक्षात् हमारे समक्ष घटित हो रही हो .
ध्यातव्य है कि वह स्त्री कोई भी हो सकती है . एक पत्नी, एक प्रेमिका, एक पुत्री एक मित्र और एक माँ . जिनसे मिलना बहुत कम समय के लिए हुआ . जीवन में जिनके साथ रह पाने का सुख बहुत क्षणिक रहा . कवि केदार जी ने अपनी माँ और पत्नी से अपने स्नेहील अनुराग का भी उल्लेख किया है अपनी कुछ कविताओं में . कविता में प्रयुक्त शब्द ‘पकाना’ का अर्थ बड़े फ़लक पर है . पकाया अर्थात् जीवनानुभवों से पकाया . जीवन संघर्षों एवं चुनौतियों से लड़ना सिखाया . अच्छे-बुरे का भेद बताया . हर परिस्थिति में डटे रहना सिखाया .
इस कविता में एक गहरा दुःख है . एक गहरी वेदना है . संवेदना है उस स्त्री के प्रति, जो बहुत कम समय के लिए कवि के जीवन में आईं और बहुत जल्दी ही बिछड़ भी गईं . कवि छोटी-छोटी क्रियाओं के माध्यम से एक स्त्री के सभी चारित्रिक गुणों को उजागर कर देते हैं . उसका आना, हंसना, दिखना, हिलना तथा चलना आदि शब्दों से स्त्री के स्वरूप का स्वतः अनुभव हो जाता है कि वह जब आती है तो कैसे, जैसे छीमियों में धीरे-धीरे आता है रस यानी प्रेम का आगमन हुआ . स्त्री का कोमल स्वभाव, उसका हँसना जैसे तट पर पानी का बजना . कवि की अद्भुत कल्पना ! पानी बजता भी है . प्रायः पानी के कलकल ध्वनि के विषय में पढ़ते हैं परंतु केदारनाथ जी के यहाँ पानी बजता है .
इसी संदर्भ एक और कविता देखनी चाहिए, जहाँ वे लिखते हैं कि –
“उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गरम और सुंदर होना चाहिए .” (वही, पृ. 94)
हम जानते हैं कि हाथ कर्मों का प्रतीक है . इन पंक्तियों में कवि ने विश्व मानव की, विश्वबंधुत्व की बात की है . वैश्विक स्तर पर भाईचारे को स्थापित करने की बात की है . भूमंडलीकरण के इस दौर में और उपभोक्तावादी संस्कृति के दौर में आज मनुष्य के आपसी संबंधो में जो दूरी आई है कवि उसे लेकर कहीं-न-कहीं चिंतित दिखाई देते हैं . हाथ को माध्यम बनाकर वैश्विक परिप्रेक्ष्य में समभाव और सौहार्द की बात कह जाना एक दूरदर्शी रचनाकार की पहचान है .
केदारनाथ सिंह की कविताओं में स्त्री कई रूपों में दिखाई देती हैं . कभी वह प्रेयसी के रूप में आती है तो कभी पत्नी के रूप में, कभी पुत्री के रूप में तो कभी माँ के रूप में . कभी नदी के रूप में तो कभी विश्व के रूप में . कभी प्रकृति के रूप में आती है तो कभी एक श्रमिक स्त्री के रूप में . इतना ही नहीं केदारनाथ जी के यहाँ स्त्री एक ‘अजूबे’ के रूप में भी आती है . ‘अजूबा’ कहने और जंगली पत्तों एवं जानवरों के गर्म रोओं के साथ स्त्री के संसर्ग में रहने वाले व्यक्ति को भूल जाने की सलाह दे डालते हैं .
ये बात सच है कि स्त्री को अभी भी मनुष्य नहीं समझा गया . स्त्री का दायरा अभी भी एक सीमित घेरे में ही है . यदि स्त्री को मनुष्य समझा जाता तो केदारनाथ सिंह जी भी अपनी कविता में स्त्री को एक ‘अजूबा’ की संज्ञा देने से अवश्य कतराते . उनका स्त्री को जानना अर्थात् जंगली पत्तों और जानवर तथा अजूबे को जानने के बराबर यदि समझा गया तो निश्चित ही इसके पीछे यही कारण है . प्रभा खेतान की आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या’ में आइलिन प्रभा खेतान से यही प्रश्न करती है कि स्त्री को अभी भी मनुष्य समझा ही कहाँ गया है . स्त्री की अस्मिता आज भी खतरे में है और तब तक रहेगा, जब तक स्त्री को मनुष्य नहीं समझा जाएगा .
यद्यपि केदारनाथ सिंह जी की कविताओं में वर्णित उन स्त्रियों की विशेषताओं को भी नकारा नहीं जा सकता जहाँ उन्होंने स्त्री के संघर्षपूर्ण, श्रमिक और कामकाजी रूप को उजागर किया है .
स्त्री केंद्रित प्रायः प्रत्येक कविता में एक ऐसी स्त्री का चित्रण है जो किसी-न-किसी रूप में संघर्षपूर्ण जीवन जी रही हैं . फिर चाहे वह स्त्री कोई टमाटर बेचनेवाली हो या फिर बारिश में भीगते हुए उपले बचाती कोई स्त्री . दिनभर की थकान के बाद रात को जगकर सुई तागे का काम करती कोई आत्मीय हों अथवा कोई कहानी सुनाने वाली गाँव की दादी–नानी . सुई और तागे के काम में कवि ने वृद्धा की जो तल्लीनता दिखाई है वह प्रशंसनीय है . इस कविता को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि केदारनाथ जी गाँधी जी के लघु-कुटीर उद्योग से प्रभावित थे . चरखे और खादी वस्त्र के महत्त्व को समझते थे . हथकरघा पद्धति को अपनाने में कवि का विश्वास था .
ऐसा कौन-सा पक्ष और ऐसा कौन-सा विषय है, जिसपर कवि ने अपनी कलम नहीं चलाई . ऐसा कौन-सा मुद्दा नहीं है जिसपर वे बात नहीं करते . विषयों की वैविध्यता केदारनाथ जी की रचनाओं में देखने को मिलता है . चींटी से लेकर हाथी तक और राई से लेकर पहाड़ तक, अमूमन हर विषय पर उनकी लेखनी मिलती है . देश के प्रति उनकी चिंता कविताओं में साफ़ मुखर होती है . एकांगी होता मनुष्य का जीवन एक दिन सिर्फ़ अपना सिर ढोएगा, बोझा ढोने के बजाय, इस बात की चिंता कवि को सालती रहती है . और अंततः रह जाएगी मनुष्य की चिंताओं की गठरियाँ जिन्हें वह वीराने में ढोते फिरेंगे .
परन्तु यहाँ हमें एक और महत्वपूर्ण बात भी याद रखनी होगी कि कवि जीवन को और इस पृथ्वी को लेकर बहुत ही आशावादी हैं . उन्हें यकीन है कि यह पृथ्वी रहेगी उनके रहते हुए और उनके बाद भी . इससे कवि के सकारात्मक सोच का पता चलता है . कवि ने अपनी कविताओं में चुप्पी और शब्दों की ध्वनि पर बहुत ज़ोर दिया है . उनकी प्रायः हर कविता में ‘चुप्पी’ का अर्थ बहुत गंभीर और कई बार खतरनाक सन्नाटा पैदा करती है . इस चुप्पी के भीतर ही हमें स्त्री के लगभग प्रत्येक पक्ष को देखने का अवसर मिलता है . स्त्री कई बार उपेक्षित और कई बार सर्वोपरि स्थान में बिठा दिए जाने के रूप में दृष्टिगत होती है .
केदारनाथ सिंह गाँव से शहर और शहर से गाँव की ओर रुख करते हैं . उनके स्वयं के भीतर एक गाँव बसता है . इस गाँव के भीतर का हर एक रेशा, हर एक तंतु कवि की स्मृति में सजीव है, जीवंत है . इस जीवंतता में मौजूद हैं वे सारी स्मृतियाँ, वे सारे रिश्ते नाते, वे सारे पल-कण जिसे कवि एक-एक कर चुनते हैं और अपनी कविताओं की बगिया में बिछा देते हैं . बिछा देते हैं अपनी माँ के स्मृतियों को, अपनी पत्नी से जुड़ी यादों को, गाँव की उन तमाम उम्रदराज़ औरतों को, जिन्हें कभी उपले बचाते तो कभी टमाटर बेचते हुए देखा गया था . कवि की स्मृतियों में सिर्फ खुरदुरा और झुर्रियों से भरी चेहरे वाली स्त्रियाँ ही शामिल नहीं हैं बल्कि स्त्री का सौम्य, करुणामयी और प्रेयसी वाला रूप भी शामिल है .
अतः यह कहना समीचीन होगा कि केदारनाथ सिंह की कविताएँ न सिर्फ़ गली-मुहल्लों, कस्बों, गाँवों और नगरों की बात करते हैं वरन देश-विदेश की बात भी करते हैं . परंतु इनके अतिरिक्त वे स्त्री अस्मिता यानी स्त्री के अस्तित्व की बात भी पुरज़ोर तरीके से अपनी कविताओं में उठाते हैं . यहाँ बात करने का अंदाज़ भी कभी सकारात्मकता के संदर्भ में है और कभी नकारात्मकता के संदर्भ में .
जहाँ तक केदारनाथ जी की भाषा शैली की बात है तो वह लोक से निर्मित भाषा है . जो बोलती कम है और प्रभाव अधिक छोड़ती है . उनकी भाषा कहीं-न-कहीं परंपरा से जुड़ती है . लेकिन परंपरा से बहुत आगे निकलते हुए वे समकालीन जीवन से जुड़ते नज़र आते हैं . भाषा शैली की सबसे बड़ी विशेषता जो है, वह है बिम्बों और प्रतीकों का अद्भुत मिश्रण, उनका प्रयोग और उनका मानवीकरण . इसका कई उदाहरण हमें उनकी कविताओं में मिलती है –
“छोटे-से आँगन में
माँ ने लगाए हैं
तुलसी के बिरवे दो
पिता ने उगाया है
बरगद छतनार है
मैं अपना नन्हा गुलाब
कहाँ रोप दूँ .
मुट्ठी में प्रश्न लिए
दौड़ रहा हूँ वन-वन
पर्वत-पर्वत
रेती-रेती…
बेकार .” (‘केदारनाथ सिंह, ‘प्रतिनिधि कविताएँ’, 1957; पृ.140 )
केदारनाथ सिंह जी की कविताओं को यदि कोई सरल कहते हैं तो यह उनकी भूल होगी . उनकी कविताएँ सरल दिखते हैं ज़रूर हैं परंतु वह सरल कतई नहीं है . हर छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी कविता अपने में कई गहरे अर्थ समेटे हुए हैं, जिसे प्रथम दृष्टया समझना कठिन है . इन्हें समझने के लिए दिमागी कसरत करनी पड़ती है, मशक्कत करनी पड़ती है . केदारनाथ जी की कविताओं ने अपने समय और बाद के रचनाकारों को काफी प्रभावित और प्रेरित किया है और आगे भी करते रहेंगे .
इन कविताओं में सिर्फ़ शब्द का ही सच नहीं है बल्कि समय का भी सच है . इसी कारण केदारनाथ जी की कविताएँ प्रासांगिक हैं . यह प्रासंगिकता आगे भी बनी रहेगी, ठीक उसी तरह जिस तरह कवि को यह विश्वास है कि-
“यह पृथ्वी रहेगी”
यह जानते हुए भी कि एक दिन सबको जाना है, यह जानते हुए कि जाना हिन्दी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है .
संदर्भ-सूची
- केदारनाथ सिंह, ‘प्रतिनिधि कविताएँ’, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., बी-1, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली – 110002, प्रथम संस्करण : 1985, ग्यारहवां संस्करण : 2018
- www.thewirehindi.com
- प्रभा खेतान (अनु.), ‘स्त्री उपेक्षिता : सीमोन द बोउवार’, हिन्द पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, संस्करण : 1998
- प्रभा खेतान (अनु.), ‘स्त्री उपेक्षिता : सीमोन द बोउवार’, हिन्द पॉकेट बुक्स, नई दिल्ली, संस्करण : 1998 ; पृ. 28
चैताली सिन्हा:शोधार्थी – जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, भारतीय भाषा केंद्र
(हिंदी विभाग) . सम्पर्क: .chaitalisinha4u@gmail.com