अपराधी हूँ मैं और अन्य कविताएँ

हेमंत कुमार(शोध छात्र) हिंदी विभाग, केरल केन्द्रीय विश्वविद्यालय.
  1. “अपराधी हूँ मैं”

जिंदगी और मौत के बीच,
हम साये बन गए,
कसूर बस इतना सा,
मेरा जन्म लेना,
जो अधिकार क्षेत्र नहीं हैं मेरा,
स्त्री- पुरुष से भिन्न, किन्नर हूँ मैं,
अपराध बस इतना सा,
शायद किस्मत का दस्तूर है,
या फ़रिश्ता,
अपराधी हूँ मैं.

साभार गूगल

2.क्या तुम जानते हो?

क्या तुम जानते हो?
उसे ….
जो मानवता की सच्ची पूजारन हैं,
जो तुम्हारे लिए खुशियाँ माँगती हैं,
जो तुम्हारे लिए नुमाइश है,
अरे, नहीं समझें ?
जो बच्चा पैदा होने पर,
शादी होने पर,
तुम्हारें लिए दुआएँ माँगती हैं,
आखिर क्यों ?
क्या संबंध हैं तुम्हारा,
न भाई, न बहन
न माता, न पिता….
कभी सोचा हैं तुमने ?
क्या तुम जानते हो,
ये लोग,
मोटर, बस, ट्रेन में..
यात्रा करना मुनासिब,
नहीं समझती
आखिर क्यों?
दस की जगह पचास देकर,
अकेले यात्रा करना,
वाजिब समझती हैं,
आखिर क्यों ?
ताकि तुम्हारी,
सभ्यता और संस्कार ,
मैले न हो जाये,
क्या तुम जानते हो?
उसका घर और ठिकाना,
क्या तुम जानते हो?
उसका नाम और पहचान,
आखिर क्यों ?

3. मैं कौन सा खिलौना हूँ?

मैं कौन सा खिलौना हूँ?
जिससे हर कोई खेलना चाहता हैं,
जिन्हें प्यारी हैं मेरी देह,
जिन्हें अच्छा लगता हैं,
मेरे द्वारा ताली बजाना,
हाव – भाव,
मगर मेरे साथ,
उठना-बैठना, हँसना- बोलना,
कोई नहीं चाहता,
जिन्हें नहीं पता,
मेरे हसमुख चेहरे का दर्द,
जिन्हें नहीं पता,
मेरे दिन-रात की घुटन
और सड़ाध,
जिन्हें नहीं पता,
किन्नर शरीर में,
कैद स्त्री का मर्म.

साभार गूगल

4. “मैं कौन हूँ”

मैं कौन हूँ,
सोनू,मोनू ,गोलू !
या फिर ,
सोनी, मोनी, डाली !
 नहीं !
मैं हिजड़ा हूँ !
हिजड़ा नहीं मै, गाली हूँ
सभ्य समाज के थाली में,
वह खाना हूँ,
जिसे कोई मन से खाता है,
कोई तन से खाता है,
बचा हुआ अवशेष,
मैं खुद खाती हूँ,
पेट के अंतड़ियोमें,
पच रही है,
रोजमर्रा की कमाई,
गाली और ताली,
जिससे सिंचित हो रहा है,
तन और मन.

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ISSN 2394-093X
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