पुनीता जैन
सूर्यनारायण रणसुभे द्वारा अनूदित संध्या रंगारी की मराठी कविताओं का हिन्दी अनुवाद ‘बेटी को बोलना सिखाउंगी’ को पढ़ते हुए अकस्मात् कथादेश, जून 2019 में मीनाक्षी मुखर्जी के एक आलेख में उल्लेखित रवीन्द्रनाथ टैैगोर की एक कहानी ‘स्त्री-पत्र’ (1914) का स्मरण हो आता है जिसमें रूढ़िवादी पारिवारिक व्यवस्था के भीतर एक स्त्री की दुरवस्था का चित्रण है. छोटी उम्र में विवाहित मृणाल आजीवन पारिवारिक, सामाजिक कर्तव्यों के निर्वहन में खपती है. जब वह एक रिश्तेदार वृद्धा के साथ तीर्थयात्रा पर समंदर किनारे पहुँचती है तब उसे अपने अस्तित्व के महत्त्व का बोध होता है. वह भी एक इंसान है तथा सृष्टि के साथ उसका स्वतंत्र संबंध है. एक विवेकशील, सजग स्त्री का यह अस्तित्व बोध उसे एक स्वतंत्र निर्णय की ओर ले जाता है जहाँ वह उस व्यवस्था में वापिस न लौटने का निर्णय लेती है . ‘सीमंतनी उपदेश’ की ‘एक अज्ञात हिन्दू स्त्री’, मृणाल या संध्या रंगारी, भारतीय पारिवारिक व्यवस्था में स्त्री का यह आत्मसंघर्ष आज भी निरंतर जारी है. महत्त्वपूर्ण यह है कि ये स्त्रियाँ उत्पीड़न को विविध कोण से देखते हुए स्वयं अपनी मुक्ति का रास्ता तलाशती है तथा हाशिए के उत्पीड़न के साथ अपने परिवेश और समय में शोषण के विविध चेहरों को भी चिह्नित करती हैं. संध्या रंगारी की कविताओं में भी पारिवारिक दायित्वों के बीच विलुप्त होती स्त्री, पति के रूप में पितृसत्तात्मक व्यवस्था का शोषक रूप सहज प्रश्नाकुलता के साथ अभिव्यक्त हुआ है. वस्तुतः स्त्री के प्रश्न उसकी मुक्ति का पहला कदम है और संध्या की कविताएँ मुखर प्रश्न ही हैं! ये प्रश्न स्त्री उत्पीड़न विषयक ही नहीं है वरन इसका विस्तार दलित समाज, राजनैतिक विडंबनाओं और दंगों के कारण ध्वस्त होती मानवता तक जाता है. संध्या की विकलता और मुखरता के पीछे धैर्य के चुुक जाने की स्थिति दिखती है. संभवतया वे अपने काव्य संकलन का नाम ‘बेटी को बोलना सिखाउंगी’ इसलिए देती हैं ताकि स्त्री की सहनशीलता की कठोर परीक्षा बंद हो और उसे न्याय और स्वतंत्रता स्वाभाविक अधिकार के रूप में उपलब्ध हों.
संध्या की कविताओं में व्यंजित वैयक्तिकता भी समूह मन के साथ सम्बद्ध है. उनकी व्यक्तिगत पीड़ा में हाशिए के समुदायों का दुख समाहित है. मराठी के सुविख्यात हस्ताक्षर सूर्यनारायण रणसुुभे द्वारा चिह्नित और रेखांकित संध्या रंगारी के काव्य कर्म का यह वैशिष्ट्य है कि वे दलित और स्त्री पक्ष के साथ-साथ अपने समय व परिवेश की तमाम विसंगतियों पर पैनी नजर रखती हैं. गजानन माधव मुक्तिबोध का कथन है- ‘‘काव्य रागात्मक संदर्भों की भावात्मक अभिव्यिक्त्ति है.’’ आगे वे कहते हैं ‘‘स्वानुभूति का सहअनुभूति होना ही काव्य का श्रेष्ठ तत्व है.’’ (आलोचना – जुलाई-सितं. 2015, पृष्ठ 45-46) यहीं इलियट के इस कथन का भी उल्लेख है- ‘दि ग्रेट पोएट, इन राइटिंग हिम सेल्फ, राइट्स हिज़ टाइम.’ उल्लेखनीय है कि संध्या की स्वानुभूति में परानुभूति को विस्तार मिला है. वे वैश्वीकरण, धार्मिक, जातिगत उन्माद, सत्ता व तंत्र के अन्तर्विरोध, आंदोलनों के भीतरी दृश्यों को भी काव्य-विषय बनाती हैं. संध्या की कविताओं में मुखरता और आक्रोश की विशेष जगह है. इस मुखरता में वे भाषिक सौन्दर्य और कलात्मकता को नज़र अंदाज करती हैं. बल्कि यहाँ तक कि वे काव्यात्मकता के स्थान पर गद्यनुमा संबोधन, संवाद सीधे पितृसत्ता, वर्चस्ववाद और तमाम शक्ति केन्द्रों से स्थापित करने का प्रयास करती हैं. यह सूर्यनारायण रणसुभे जी का अनुवाद कौशल है कि वे कवयित्री के मूल स्वर को बनाए रखते हुए मराठीपन के सौन्दर्य की रक्षा कर ले गए हैं. ये कविताएँ हिन्दी में अनूदित होकर भी अपने मराठी लहज़े को जीवंत रखती हैं.
वस्तुत वैमर्शिक जगत के भीतर दलित कविता ने एक सर्वथा भिन्न सौन्दर्य दृष्टि विकसित कर ली है, जिसमें प्रखर आक्रोश, विद्रोह और दृढ़ता है. यहाँ निषेधों पर प्रश्नचिह्न लगाए गए हैं. कला सौन्दर्य, भाषा के आभिजात्य संसार, बिम्ब, प्रतीक अर्थात स्थापित प्रतिमानों का यहाँ महत्व नहीं है. यहाँ अन्तर्वस्तु महत्वपूर्ण है तथा वह किस तरह अपनी अभिव्यक्ति के मार्ग गढ़ती है, इस पर ध्यान कम है. दलित कविता के उद्गारों में इतना ओज है कि उसके कथन अपना भाषिक कलेवर स्वाभाविक अभिव्यक्ति के प्रवाह द्वारा निर्मित करते हैं. संध्या रंगारी का काव्य जगत लैंगिक और जातिगत विषमता व पहचान के भीतर तीव्र विकलता का आगार है. सौन्दर्य की स्थापित दृष्टि व अवधारणाओं के प्रति ठोस आग्रह संध्या की कविताओं में भी नहीं मिलता. हालांकि उनकी कविताओं का बड़ा हिस्सा स्त्री -उत्पीड़न से संबंधित है. परिवार और विवाह जैसी सामाजिक संस्थाओं में स्थापित परंपराओं और संस्कारों के नाम पर स्त्री के अधिकारों को सदैव सीमित किया गया और उसे अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने से दूर रखा गया है. घरेलू दायित्वों के नाम पर स्त्री के संपूर्ण जीवन का होम सांस्कृतिक दृष्टि से अपरिहार्य घोषित किया गया. इस संग्रह में यही स्त्री अपने स्वतंत्र अस्तित्व हेतु सौन्दर्य व कलात्मक आग्रहों को दरकिनार करते हुए अपने प्रखर बयानो को धारा प्रवाह रूप से प्रकट करती है. यहाँ जाति और लैंगिक पहचान दोनों रूप में वंचित अस्मिता का बेबाक विस्फोट हुआ है. संध्या की कविता में स्वाभाविक आक्रोश और विषाद है. ये गुस्सा उन्हें तल्ख और उनकी मुद्रा को निरंतर प्रश्नवाचक बनाता है. भाषा को सीमा में बाँधकर रखना उन्हें उपयुक्त नहीं लगता, फलतः अंग्रेजी शब्द यहाँ धाराप्रवाह रूप से प्रयुक्त हैं. वे चीजों को स्थापित रूढ़ दृष्टि से नहीं देखती बल्कि बोलने की पूरी आजादी लेते हुए प्रत्येक विसंगति, विडंबना पर प्रहार करती हैं.
स्त्री की पीड़ा के मूल में उसकी लैंगिक पहचान को लेकर नियत निषेध, वर्जनाएँ और सीमाएँ है . संध्या की विकल चेतना स्त्री के लिए निर्धारित उपमानों, अलंकारों से बाहर जाने की इच्छुक हैं, वह चाहती है उसे नख-शिख वर्णन से इतर मनुष्य रूप में देखा-समझा जाए. स्त्री के मौन में उसके उत्पीड़न का इतिहास छिपा है . शारीरिक अत्याचार, शोषण, हिंसा, क्रूरता की कथाएँ स्त्री उत्पीड़न की स्थिति बयान करती हैं. स्त्री की सहनशीलता ने उत्पीड़कों को सर्वदा बल दिया है. इसलिए संध्या कहती हैं- ‘‘ अतीत ठीक नहीं था औरत का /परंतु भविष्य / मैंने ठान लिया है कि मैं अपनी बेटी को बोलना सिखाउंगी.’ (पृष्ठ 22) ये पंक्तियाँ प्रतिरोध के जीवंत हस्तांतरण का उदाहरण बनती हैं. संध्या की कविताएँ स्त्री प्रताड़ना के विरूद्ध मौन का समर्थन नहीं करती, वे आने वाली पीढ़ी से मुखर प्रतिरोध का आह्वान करती है. बेटियों पर प्रतिबंध, निषेध व उनकी स्वतंत्र उड़ान व इच्छाओं की काट-छाँट को सुंदर बिम्ब में संध्या इस तरह प्रस्तुत करती हैं- ‘‘घर घर में / बोन्साई बेटियाँ / सजाई हुई.’’ (पृृष्ठ28) बेटी को बोलना सिखाने के निश्चय के पीछे पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री उत्पीड़न की लंबी परंपरा के विरूद्ध प्रत्यक्ष संघर्ष चेतना की आवश्यकता को रेखांकित करना है. इन कविताओं में बेटी के दुख को सांझा करती, ढाँढस बंधाती माँ अपने पीठ के ताजे जख्म बेटी को दिखाती है. यह बेटी अपनी माँ को जीती जागती लाश की तरह ठंडा पाती है. किन्तु इस स्थिति को लेकर वह मूक नहीं है. अपनी बेटी व संपूर्ण भावी पीढ़ी को लेकर उसमें गहरी चिंता है तथा वे समताप्रेमी बुद्धिजीवी पुरूष वर्ग के दोहरे चरित्र पर भी गंभीर प्रश्न उठाती हैं, जिसके कारण स्त्री का जीवन तमाम आदर्श कथनों के बावजूद यथावत हैं- ‘‘मेरी पाँच-छह वर्ष की बेटी / भारी स्कूली बस्ते का बोझ / संभालते हुए घर आती है / उतार लेती हूँ, मैं उसका बोझ / पर डर लगता है मुझे / कल ससुराल में गृहस्थी संभालते हुए / गर वह आ गयी चार दिनों के लिए / मायके / तब उसकी पीठ पर लदे दुख के /बोझ को क्या उतार ले सकूंगी मैं?’’ (पृष्ठ 28) स्त्री के जीवन व समय पर परिवार, बच्चों व पति का आधिपत्य है, अपने लिए उसके पास समय नहीं है . स्त्री स्वतंत्रता को भ्रम कहते हुए वे पूछती हैं- ‘‘यह भी तो सच है कि / औरत कहाँ होती है मनुष्य?’’ (पृष्ठ 29) अन्यत्र उनका प्रश्न है- ‘‘लड़कियों का / खुद का बिम्ब कहाँ होता है ?’’(पृ. 32) स्त्री चेतना व विकलता के ऐसे स्वर संध्या के काव्य जगत को आकार देते हैं . स्त्री जीवन के कई पक्षों तथा पितृसत्ता में उसके स्थान को लेकर कई प्रश्न उनकी कविताओं में प्रखरता से उठाए गए हैं.
बौद्धिक समाज में स्त्री विमर्श व स्त्री-स्वतंत्रता की चर्चा या महिला दिवस जैसे कार्यक्रमों की वास्तविकता को संध्या अपनी कविताओं में चिह्नित करते हुए स्पष्ट करती हैं कि महत्वाकांक्षी स्त्रियाँ पितृसत्तात्मक मानसिकता को घर के बाहर तो अच्छी लगती है किन्तु घर में वे अस्वीकार्य है. घर-गृहस्थी के भीतर दबी -कुचली, अस्तित्वहीन स्त्री के कई बिंब व स्त्री के अस्तित्व संघर्ष की कुलबुलाहट उनकी अधिकांश कविता का विषय बनती है. वे इनके माध्यम से अपने अस्तित्व को खोजती है, प्रश्न करती हैं, व्यंग्य करती है और समाज और परिवार के अन्तर्विरोधों को सम्मुख लाती हैं. समस्त जिम्मेदारियों का निर्वहन करती यह बेचैन स्त्री अपने अस्तित्व बोध को लेकर विद्रोही स्वर भी अपनाती है- ‘‘कभी-कभी /वह प्यार में आकर पूछता है / प्रिय, तू किसकी ? / वह अब दृढ़ता से कह देती है / मैं अब खुद की .’’ (पृष्ठ 37) पितृसत्ता मौन समर्पण चाहती है और परंपराओं का निष्ठापूर्ण अंधानुकरण . किन्तु संध्या की कविताओं की स्वतंत्रचेता स्त्री करवाचैथ के पाखंड से मुँह मोड़ लेने का चुनाव करती है. इस स्त्री में संघर्ष का माद्दा है और दृढ़ आत्म विश्वास व स्वाभिमान भी. किन्तु इसी के साथ यथास्थितिवाद की छाया भी इन कविताओं में बिखरी है- ‘‘ आदत सी हो गयी है अब अन्याय की / न्याय, समता जैसी बातें /सजाकर रख दी है मैंने कविता में / मेरी बेटी के लिए .’’ हताशा और आशा का गहरा द्वन्द्व इनकी कविताओं में मिलेगा. गहरी थकान और निराशा के बावजूद इन कविताओं की स्त्री बेटी को आश्वस्त करती है कि उसके जीवन में जब किसी पुरूष के भीतर का शैतान जाग जाए तो वह निःसंकोच मायके लौट आए. यहाँ झुकी कमर की हालत में भी एक माँ उसको आश्रय देगी. यह निडरता, साहस व दृढ़ता ही स्त्री चेतना की रीढ़ है, जिसे ये कविताएँ शब्द बद्ध करती हैं. दुख, हताशा व विकल प्रश्नानुकूलता के बावजूद पारिवारिक दायित्वों से बंधी यह स्त्री अपनी मुक्ति, स्वतंत्रता को लेकर बारंबार आशंकित है- ‘‘मन में अपार करूणा सागर होते हुए भी / औरत हो नहीं सकती बुद्ध.’’ (पृष्ठ 45)
संध्या रंगारी की कविताएँ यथार्थ का प्रतिबिंब उकेरती हैं. दलित कविता में इस यथार्थ का रूपांतरण काव्यात्मक लय, सौन्दर्य से आबद्ध न होकर प्रायः सपाट रूप से होता आया है. संध्या की कविता में भी अभिधार्थ का प्राधान्य है, व्यंजना यहाँ क्षीण है. विमर्श मूलक काव्य स्वर होने के कारण यहाँ विषयवस्तु रूप पक्ष की अपेक्षा सशक्त है. एक रचनाकार, जिसके चार काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. उससे वस्तु और रूप दोनों पक्षों में सशक्त संतुलन की अपेक्षा गलत नहीं कही जा सकती . संध्या ने अपनी कविताओं के शीर्षक नहीं दिए हैं. इसलिए उनकी कई कविताओं को रेखांकित करने में अवरोध उपस्थित होता है. जैसे क्रमांक सत्ताइस कविता अपनी कमजोर शुरूआत के बावजूद आगे अपनी मार्मिकता व सघन संवेदनशीलता के कारण प्रभावित करती है. यह कविता स्मृति पक्ष का सुंदर उदाहरण हैं. स्त्री दुख की कातर ध्वनि, ससुराल और मायके नामक दोनों स्थान में अनचीन्ही, अनचाही होने की पीड़ा, माँ के दुलार व स्वयं मातृत्व बोध की गहन अनुभूति आदि कई दृष्टि से इस कविता की अन्तर्वस्तु तीव्र संवेदनशीलता के साथ हृदय को स्पर्श करती है. किन्तु शीर्षक रहित रह जाने से इसे रेखांकित या उद्धत करना कठिन हो जाता है. विवाह, परिवार, ससुराल, मायका, गृहस्थ जीवन में स्त्री-पुरूष की भूमिकाओं के द्वन्द्व के साथ-साथ संस्कार, रूढियाँ, मान्यताओं के नाम पर अनेकानेक बंधनों के भीतर कसमसाती स्त्री की मुक्ति चेतना इन कविताओं में बारंबार अनेकविध अभिव्यक्त होती है- ‘‘कैसे कहूँ हे तथागत ! कितनी छटपटाहट है मेरे भीतर / मनुष्य होने के लिए .’’ (पृष्ठ 56) संध्या की कविताएँ ‘स्त्री’ होने के इस सामाजिक नाम से छुटकारा चाहकर ‘मनुष्य’ रूप में जीने की इच्छा रखती है. पुरूष या पति के साथ गुलामी का जीवन जीने वाली स्त्री, जातिगत हाशिए के भीतर हाशिए को वहन करती है. पति जातिगत गुलामी से मुक्ति चाहता है किन्तु स्वयं वह गृहस्थी में पितृसत्ता और वर्चस्ववाद का पोशक है. संध्या इस अन्तर्विरोध व विडंबना को प्रश्नांकित करती हैं. मराठी लेखन में स्त्रियाँ अधिक बेबाक व स्पष्टवादी है. वस्तु या भोग्य होने के तीक्ष्ण बोध के परिणाम स्वरूप मुखर प्रतिरोध उनकी पहचान है.
स्त्री-पुरूष संबंध में गैरबराबरी व स्वामी-दास का भाव सर्वथा अन्यायपूर्ण कहा जाएगा. पति-पत्नी के बीच मालिक-गुलाम के से रिश्ते पर कवयित्री कहती है- ‘‘दुनिया का कोई भी गुलाम अपने/ मालिक पर प्रेम नहीं करता और/मालिक कभी भी गुलाम को बराबरी / का हक नहीं देता.’’ (पृष्ठ -65) स्त्री पुरूष संबंध की इस स्थिति को वे ‘विवाह संस्था की निरर्थकता’ कहती है. संध्या के भीतर की शोषित स्त्री जीवंत रूप से उनके शब्दों में उपस्थित है, स्पष्ट नकार व विद्रोह भावना के साथ. परिवार और मातृत्व के सम्मुख सर्वस्व समर्पित करती स्त्री की स्थिति यह है कि -‘‘सीमाएँ जानकर भी नहीं छूटता हाषिया.’’ (पृष्ठ 69) स्त्रीमन की प्रत्यक्ष, यथार्थ अभिव्यक्ति के बीच उनकी कई प्रस्तुतियां सौंदर्यपूर्ण और कलात्मक भी है- ‘‘मेरे ही भीतर था सरसराता हुआ / एक हरा-भरा पेड़/ वह दिखलाई नहीं दिया उसे कभी/ और / मैं भी नहीं कर पाई प्रदर्षन उसका / सूखती गयी मैं /’’ (पृष्ठ 71) गृहस्थ जीवन में स्त्री की उपस्थिति को हरे-भरे पेड़ के सूख जाने के बिम्ब में प्रस्तुत करती यह कविता स्त्री की स्वतंत्र पहचान के विलुप्त होते जाने की पीड़ा का बयान करती है. यह पीड़ा इसलिए भी है क्योंकि वे मानती हैं कि – ‘‘ घर-गृहस्थी होते हुए भी मैं/ विस्थापित .’’ (पृष्ठ 72) पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री हेतु निर्धारित कर्तव्यों को विस्तृत अभिव्यक्ति संध्या की कविताओं में मिलती है. जिसमें अंतर्द्वंद्व, विडंबना, अन्तर्विरोध, स्मृति, स्वप्न और प्रतिरोध के स्वर गुंफित हैं. उत्पीड़न, यातना, त्रासद स्थितियों के भीतर भी आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और दृढ़ निश्चय के स्वर उनकी कविताओं को संभावनापूर्व बनाते है. स्त्री का विकट आत्मसंघर्ष, पराजय बोध और विसंगत स्थितियों से अनुकूलन की प्रवृत्ति को वे इस तरह व्यक्त करती है- ‘‘ गर्भ में ही हार जाती हूँ मैं/ अपने खुद के जीने की लड़ाई / तुझे जैसी चाहिए वैसी उसी साँचे की / बनती जाती हूँ मैं.’’ (पृष्ठ 77) पितृसत्ता के अनुरूप ढलना और निरंतर उसका विरोध भी करना, यह आत्मसंघर्ष कविता में स्त्री जीवन के यथार्थ का सटीक चित्रण प्रस्तुत करता है. यह भी सही है कि स्त्री के गुलाम, दासी होने से सदैव इंकार करती, जूझती संध्या प्रतिशोध भाव को उचित नहीं मानती. किन्तु निश्चित ही वे अपनी जगह और स्वतंत्रता हेतु संघर्ष करना चाहती हैं. विवाह, परिवार संस्था में स्त्री हेतु तमाम प्रतिकूलताओं को चिह्नित करते हुए भी इसे तोड़ने के पक्ष में वे नहीं दिखती. उनकी कसमसाहट स्पष्ट रूप से न्याय, समानता, आत्म सम्मान और स्वतंत्रता की आवाज को बल देती है.
चूंकि संध्या लैंगिक पहचान की अपेक्षा ‘मनुष्य’ के रूप में पहचाने जाने की पक्षधर हैं अतः मनुष्य के रूप में वे अपने समय की सूक्ष्म पड़ताल भी करती हैं. आत्मविश्लेषण, आत्मावलोकन किसी भी कलम की बड़ी ताकत है. दलित आंदोलन के भीतरी चरित्र पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हुए वे अपनी कलम की ताकत को दर्शाती हैं- ‘‘कर क्या रहे हैं हम/ धरना, मोर्चा, निर्देशन, निवेदन / अथवा / सबकी नजर बचाकर भीतर ही भीतर / किया गया सेटलमेंट.’’ (पृष्ठ 83) दलित आंदोलन के दोहरेपन, झूठ ओर पाखंड पर वे तीखे प्रहार करती हैं- ‘‘ बाबा ने हमारे हाथों में कलम दी/ और हम लोगों ने कलम बेचकर /दलाली की .’’ (पृष्ठ 103) ये कविताएँ अभिधात्मक है, साफगोईयुक्त, बेबाक और स्पष्ट . काव्यात्मक लय की जगह इनमें गद्य का प्रभाव अधिक परिलक्षित होता है, हालांकि कई बार अंग्रेजी शब्दों का अधिक प्रयोग खटकता है.
यह सही है कि संध्या की कविताएँ मुख्यतः स्त्री को लेकर प्रश्न व चिंता व्यक्त करती हैं. वैश्विक विकास के दौर में स्त्री के दायित्व बढ़े हैं किन्तु उसकी घरेलू भूमिकाएँ अपरिवर्तित रही हैं. वह एक देह, एक भोग्य वस्तु की तरह ही देखी जाती है. संध्या स्त्री के इस निर्धारित बिम्ब को तोड़ने की इच्छुक हैं. किन्तु स्त्री पक्ष के अतिरिक्त जाति, धर्म, पंथ, सामाजिक वैमनस्य को लेकर भी वे चिंता व्यक्त करती हैं. राष्ट्रवाद, धर्मान्धता, भीड़ तंत्र वर्तमान परिदृष्य की बेहद गंभीर चुनौतियाँ है. सामाजिक सद्भावना, सहिष्णुता व मानवता के ठोस आग्रह शिथिल हुए हैं. मानवीय संबंधों में गहरी शंकाओं, दुर्भावनाओं ने जगह बना ली है. इस परिदृश्य के परिप्रेक्ष्य में एक शिक्षक के रूप में संध्या अत्यंत सरलता पूर्वक एक ज्वलंत प्रश्न को उठाती हैं- ‘‘ क्या पढाऊँ मैं उन्हें/ पुस्तक में लिखा समृद्ध भारत/ कि/सड़क पर देखा हुआ सच्चा भारत ?’’ (पृष्ठ 114) यहाँ वास्तविकता अत्यंत सहजता से प्रस्तुत हुई है. इस यथार्थ तक पहुँच बनाते हुए ये कविताएँ किसान, सरकार, नेता, कुर्सी, आरक्षण, मीडिया, भाषा, रिश्ते-नाते, विस्फोटक होते शहर, दंगों आदि विविध विषयों तक पहुंँच बनाती हैं. आतंक, दहशत, घृणा और हिंसा के परिवेश में उनके भीतर की माँ अपने बच्चों के बहाने भावी पीढ़ी के लिए चिंतित है- ‘‘ किस गुफा में / इंसानियत का षिल्प कुरेद दूँ / शापित भविष्य / तेरे हाथों में कैसे दूँ.’’ (पृष्ठ 121) हताषा, अवसाद और प्रतिकूल स्थिति में भी वे कविताओं द्वारा सुरक्षित मानव जीवन की संभावनाएँ तलाशती हैं- ‘‘मेरे घोंसले में स्थित नन्हों के लिए तो/अपने ही घर में / तैयार करना चाहती हूँ/ एक छोटी सी दुनिया / भय मुक्त / दषहत की छाया में जीते हुए भी.’’ (पृष्ठ 122) व्यवस्थागत विसंगतियों, संवेदनहीनता को उनकी कविताएँ रेखांकित करती हैं. दंगों के दहशत भरे माहौल में दम तोड़ती मानवता केदृश्य भी यहाँ जीवंत रूप से प्रस्तुत हुए है. दंगों की तबाही के बाद की राख से पुनः रास्ते तलाशने की दृढ़ इच्छाशषक्ति मानवता पर विश्वास का उदाहरण है. अमानवीय स्थितियों को ये कविताएँ दृढ़ स्वर में अभिव्यक्ति देती हैं. हताशा की चरम स्थितियाँ भी उन्हें चुप रहने नहीं देती – ‘‘मेरी कविता/घायल सैनिक की तरह/लड़ भी नहीं सकती/और चुप बैठ भी नहीं सकती.’’ (पृृष्ठ 137) इसलिए वे अपनी कविताओं को ‘मन के भीतर का तूफान’ कहती हैं. संध्या मानती है कि ऐसी मुखरताएँ प्रायः व्यवस्था द्वारा प्रदत्त सम्मान, पुरस्कार के कारण चुप हो जाती हैं, किन्तु ये कविताएँ इस तरह की समझौता परस्त प्रवृत्ति के विरूद्ध मुखर हैं.
बहरहाल, संध्या की कविताएँ अपनी उपस्थिति द्वारा ‘नया आकाश’ खोजने का प्रयास करती हैं. ये संध्या का अत्यंत सकारात्मक व आशावादी स्वर है कि वे अपनी कविताओं को ‘कागज पर लगाए गए पेड़’ के रूप में फलता-फूलता देखती हैं. उनकी संघर्ष चेतना में भावी स्वप्नों और संभावनाओं के लिए पर्याप्त उर्वरता है. यही वैशिष्ट्य उनकी कविताओं को महत्वपूर्ण बनाता है.
लेखिका पुनीता जैन भेल, भोपाल में स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी की प्राध्यापिका हैं. इनसे इनके ईमेल आईडी rajendraj823@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.