माहवारी का ब्योरा नौकरी के लिए क्यों जरूरी (?) : बेड़ियां तोडती स्त्री: नीरा माथुर

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“जब हम भारतीय महिलाओं के लिए समान अधिकारों की संवैधानिक गारंटी प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं, तो भारतीय जीवन बीमा निगम यथास्थिति से आगे नहीं बढ़ रहा है. यह मामला  निगम के इस विशिष्ट रवैये को दर्शाता है.” (एआइआर 1992 सुप्रीमकोर्ट 392)


श्रीमती नीरा माथुर ने भारतीय जीवन बीमा निगम (“निगम”) में सहायक के पद के लिए आवेदन किया. लिखित परीक्षा और साक्षात्कार में सफल रही तो उसे एक घोषणा पत्र भरने के लिए कहा गया, जो उसने 25 मई,1989 को निगम को भर कर दे दिया। उसी दिन निगम के अनुमोदित पैनल की महिला चिकित्सक द्वारा भी जांच की गई और उसे नौकरी के लिए चिकित्सकीय रूप से फिट पाया गया. फिर उसे एक अल्पकालिक प्रशिक्षण कार्यक्रम से गुजरने का निर्देश दिया गया. सफलतापूर्वक प्रशिक्षण पूरा होने के बाद उसे नियुक्ति पत्र दिनांक 25, सितम्बर,1989 दिया गया. अब वह छह महीने की अवधि के लिए परिवीक्षा पर थी और अगर उसका काम संतोषजनक हुआ तो नौकरी पक्की हो जाएगी.

श्रीमती माथुर 9 दिसंबर, 1989 से 8 मार्च, 1990 तक लम्बी छुट्टी पर चली गई. वास्तव में, उसने 27 दिसंबर, 1989 को मातृत्व अवकाश के लिए आवेदन किया और उसके बाद 6 जनवरी, 1990 को चिकित्सा प्रमाण पत्र दिया. डॉ हीरा लाल के नर्सिंग होम में 10 जनवरी, 1990 को भर्ती कराया गया और अगले ही दिन उसने एक पूर्ण अवधि के बच्चे को जन्म दिया. 19 जनवरी, 1990 को उन्हें नर्सिंग होम से छुट्टी दे दी गई. 13 फरवरी, 1990 को दफ्तर पहुँची तो उसकी सेवा समाप्त कर नौकरी से (भी) छुट्टी दे दी गई. यह उसकी परिवीक्षा की अवधि के दौरान था. नौकरी से छुट्टी का कोई कारण (आधार) नहीं बताया-लिखा गया.

श्रीमती माथुर ने सेवा समाप्ति आदेश को उच्च न्यायालय (संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत) में इस आधार पर चुनौती दी कि नौकरी से हटाने का आदेश साधारण नहीं, बल्कि सेवा में शामिल होने से पहले उसके द्वारा की गई घोषणा में कुछ ‘विसंगति’ पर आधारित है. जवाबी शपथ-पत्र में निगम ने यह कहते हुए मामले का विरोध किया कि याचिकाकर्ता का काम ‘संतोषजनक’ नहीं था और इस तरह नियुक्ति की शर्तों के तहत उसे बिना सूचना और ‘बिना कोई कारण’ बताए छुट्टी की गई है. उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने सेवा समाप्ति के मुद्दे पर, किसी भी तरह से हस्तक्षेप करने से मना कर दिया. श्रीमती माथुर ने सुप्रीमकोर्ट में अपील दायर और उच्चतम न्यायालय ने अंतिम निपटान के लिए नोटिस जारी करते हुए अंतरिम आदेश दिया कि “इस आदेश की प्राप्ति की तारीख से 15 दिनों के भीतर याचिकाकर्ता (श्रीमती नीरा माथुर) को बहाल किया जाये.”भारतीय जीवन बीमा निगम ने याचिकाकर्ता की सेवाओं को समाप्त करने का औचित्य साबित करने का हर संभव प्रयास किया. निगम के वकीलों ने जोर देकर कहा कि वह अभी भी परिवीक्षाधीन (प्रोबेशन पर) थी, इसीलिए सेवाओं को समाप्त करने के समय, कोई कारण नहीं दिए गए थे, यह एक सरल आदेश है, याचिकाकर्ता पर कोई ‘कलंक’ नहीं लगाया गया, वह 9 दिसंबर, 1989 से 8 मार्च 1990 तक छुट्टी पर थी, उसने जानबूझकर फिटनेस के लिए चिकित्सीय परीक्षण से पहले घोषणा पत्र भरने के समय गर्भवती होने के तथ्य का उल्लेख नहीं किया, तथ्यों को छुपाया और निगम को तो बाद में तब पता चला, जब उसने निगम को सूचित किया कि उसने एक बेटी को जन्म दिया है.

25 मई, 1989 को याचिकाकर्ता द्वारा भरी गई घोषणा की शर्तों के संदर्भ में निगम ने भी कहा: “6. केवल मेडिकल परीक्षार्थी की उपस्थिति में महिला उम्मीदवारों द्वारा भरा जाना है:  ए) क्या आप शादीशुदा हैं- हां. बी) यदि ऐसा है, तो कृपया बताएं: i) आपके पति का पूर्ण नाम और व्यवसाय श्री प्रदीप माथुर, विधि अधिकारी, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली. ii) बच्चों की संख्या, यदि कोई हो, और उनकी वर्तमान आयु: एक बेटी: 1 वर्ष और 6 महीने. iii) क्या मासिक धर्म हमेशा नियमित और दर्द रहित रहा है, और क्या अब ऐसा है? …. हाँ. iv) कितनी अवधारणाएँ हुई हैं? कितने पूर्ण-अवधि में चले गए हैं? एक. v) अंतिम माहवारी की तारीख बताएं: … 29 अप्रैल, 1989. vi) क्या अब आप गर्भवती हैं? … नहीं. vii) अंतिम बच्चा जनने की तिथि: 14 नवंबर, 1987. viii) क्या आपका कोई गर्भपात या गर्भपात हुआ है? … नहीं. निगम ने आरोप लगाया कि याचिकाकर्ता द्वारा दी गई घोषणा ‘असत्य’ ‘गलत’ है. डॉ एस.के. गुप्ता, एमडी, डॉ हीरा लाल बाल एवं प्रसूति गृह, के अनुसार जानबूझकर निगम को मासिक धर्म की गलत तारीख (29 अप्रैल,1989) देने की घोषणा की गई थी, जबकि डॉ एसके गुप्ता को 3 अप्रैल,1989 को एलएमपी की सही तारीख दी थी. तर्क दिया गया कि यदि उसने अपनी घोषणा में मासिक धर्म की सही तारीख का उल्लेख किया होता, तो उसकी नियुक्ति को टाल दिया जाता. यह भी तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता को निगम की सेवा से मुक्त करने का निर्णय 2 आधारों पर था: (1) क्योंकि उसकी सेवा के प्रारंभिक चरण में उसके द्वारा दी गई झूठी घोषणा के कारण; और (2) परिवीक्षा की अवधि के दौरान उसका काम संतोषजनक नहीं था. निगम द्वारा जारी किए गए निर्देश 16 को भी संदर्भित किया गया जिसके अनुसार “……यदि चिकित्सा परीक्षण के समय, कोई भी महिला आवेदक गर्भवती पाई जाती है, तो निगम में उसकी नियुक्ति को प्रसव के तीन महीने बाद माना जाएगा।…..”

माननीय न्यायमूर्तियों (श्री के.जे. शेट्टी और योगेश्वर दयाल) ने अपने निर्णय में लिखा है “हमने मामले की सावधानी से जांच की है. हमारे पास यह बताने के लिए रिकॉर्ड पर कुछ भी नहीं है कि परिवीक्षा (प्रोबेशन) की अवधि के दौरान याचिकाकर्ता का काम संतोषजनक नहीं था. दरअसल, समाप्ति का कारण अलग-अलग प्रतीत होता है. यह सेवा में प्रवेश करने के चरण में उसके द्वारा दी गई घोषणा थी. यह कहा जाता है कि उसने अपनी गर्भावस्था को दबाने के लिए, पिछले मासिक धर्म की अवधि के बारे में झूठी घोषणा की थी. ऐसा लगता है कि याचिकाकर्ता को इस मामले में दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. निगम द्वारा अनुमोदित पैनल में शामिल डॉक्टर द्वारा उसकी चिकित्सकीय जांच की गई थी. वह पद से जुड़ने के लिए चिकित्सकीय रूप से फिट पाई गईं.

हालांकि, वास्तविक ‘शरारत’ एक महिला उम्मीदवार से घोषित घोषणा की प्रकृति के बारे में है. घोषणा में कॉलम (iii) से (viii) के तहत प्रस्तुत किए जाने वाले विवरण वास्तव में अगर ‘शर्मनाक’ नहीं तो ‘लज्जाजनक’ अवश्य हैं. विनम्रता और आत्मसम्मान शायद ऐसी व्यक्तिगत समस्याओं के प्रकटीकरण को रोक सकता है जैसे कि उसकी मासिक धर्म नियमित या दर्द रहित है, अवधारणाओं की संख्या; कितने पूर्ण अवधि के लिए गए हैं आदि निगम घोषणा में इस तरह के स्तंभों को हटाना बेहतर होगा. यदि घोषणा का उद्देश्य ‘मातृत्व अवकाश’ से मना करना है और सेवा में प्रवेश करने के समय गर्भवती महिला को कोई और लाभ ना देना है (जिस नियम कि संवैधानिक वैधता को चुनौती नहीं दिए जाने के कारण हम कोई राय नहीं व्यक्त करत रहे हैं), तो निगम उसे चिकित्सा परीक्षण के अधीन गर्भावस्था परीक्षण सहित कर सकता है. जिन परिस्थितियों में पहले से ही अंतरिम आदेश जारी किया गया है, हम निरपेक्ष हैं. हालांकि, हम यह मानते (कहते) हैं कि अपीलार्थी नौकरी से सेवा समाप्त करने (हटाने) की तारीख से वेतन की हकदार नहीं होगी. इस दिशा-निर्देश के साथ अपील का निर्णय हुआ, लेकिन मुकदमें की लागत (खर्च) के बारे में कोई आदेश नहीं दिया जा रहा.”कहते हैं कि अंत भला सो सब भला. जैसे दिन श्रीमती नीरा माथुर के बहुरे, वैसे सबके बहुरें! समता, समानता और सम्मान से जीने के तमाम मौलिक अधिकार प्रदान करने वाले संविधान (1950) बनने-बनाने के बाद, केंद्र सरकार को सरकारी, गैर-सरकारी संस्थानों में कार्यरत महिलाओं के लिए मातृत्व लाभ अधिनियम,1961(12 दिसंबर,1961) पारित करने में ग्यारह साल का समय लग गया.

संविधान बनने के चालीस साल बाद तक, भारतीय जीवन बीमा निगम (लगभग सरकारी संस्थान) महिलाओं की नियुक्ति के समय मासिक-धर्म की तारीख तक पूछ रहा है, ताकि महिलाओं को मातृत्व अवकाश (लाभ) ना देना पड़े. गर्भवती है तो नौकरी अभी नहीं (कभी नहीं) मिलेगी. माना कि ऐसे नियम की संवैधानिक वैधता को भी चुनौती दी जानी चाहिए थी, मगर क्या माननीय न्यायमूर्ति स्वयं इस पर संज्ञान नहीं ले सकते थे! जब नौकरी में बहाल किया तो वेतन भी दिलवा देते, बड़ी मेहरबानी होती हुज़ूर!