अनुवाद : डॉ. प्रमोद मीणा
भाकपा के नये महासचिव संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरा देखते हैं वेल्लूर जिले के चिपचूर गाँव में एक अनुसूचित जाति परिवार में जन्मे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नये महासचिव डी. राजा को गरीबी और भूख के साथ संघर्ष करना पड़ा था। उनकी महाविद्यालयी शिक्षा एक छोटे से कस्बे गुडियाथम में हुई जो साम्यवादी आंदोलन, द्रविड़ आंदोलन और अंबेडकरवादी आंदोलन जैसे राजनीतिक आंदोलनों का गढ़ था। गरीबी और अन्याय के खिलाफ उनके गुस्से ने उन्हें साम्यवादी आंदोलन के प्रति आकर्षित किया। ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के साथ काम करते हुए वे छात्र नेता के रूप में उभरे और बाद में ऑल इंडिया यूथ फेडरेशन के महा सचिव बने और 1975 में पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गये। ‘दि हिंदू’ के लिए बी. कोलाप्पन द्वारा लिये गये साक्षात्कार में डी. राजा ने याद किया कि ‘‘मेरे माता-पिता भूमिहीन किसान थे। मैं एक हरिजन कल्याण विद्यालय में पढ़ाई करता था और (मुख्यमंत्री) कामराज द्वारा शुरु किये गये मध्यावधि भोजन खाता था। मैं आज भी वह दिन याद करता हूँ जब मुझे उनसे मिलने का अवसर मिला था। मेरे पास पहनने के लिए कमीज न थी। मैंने सिर्फ उन्हें छुआ भर था।’’ इस साक्षात्कार का हिंदी अनुवाद :
आप भाकपा के महासचिव एक ऐसे समय बने हैं जब समस्त घटनाक्रम भाजपा से संचालित होता है। आपकी चुनौतियाँ क्या हैं ॽ
यह सिर्फ वाम के लिए चुनौतीपूर्ण समय नहीं है, अपितु यह लोगों के लिए और संपूर्ण देश के लिए ही चुनौतीपूर्ण है क्योंकि दक्षिणपंथी ताकतों ने राजनीतिक सत्ता हथिया ली है। भाजपा उस आरएसएस की राजनीतिक भुजा है जिसकी विचारधारा विभाजनकारी, सांप्रदायिक, कट्टरतावादी और फासीवादी है। वे अपने कार्यक्रम को आक्रमणकारी ढंग से लादने की कोशिश करते हैं। यह संविधान और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए एक खतरा पेश करता है। सरकार निगमों और व्यवसायिक घरानों के हितों की रक्षा के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है। इसका लक्ष्य है – दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों पर होने वाली भीड़ की हिंसा और हमलों को बढ़ावा देना। अगर कोई सरकार पर सवाल उठाता है या इसकी नीतियों की आलोचना करता है तो उस पर राष्ट्र विरोधी और अर्बन नक्सली होने का ठप्पा लगा दिया जाता है।
दूसरी महत्वपूर्ण चुनौती है सेकूलर और लोकतांत्रिक ताकतों की एकता। तमिलनाडु को छोड़कर 2019 के आम चुनावों में ऐसा घटित नहीं हो सका। यह न सिर्फ कांग्रेस के लिए अपितु बसपा, सपा, राजप और वाम जैसे दलों के लिए झटका था। दूसरी बड़ी चुनौती है – सेकूलर लोकतांत्रिक ताकतों में एका कैसे स्थापित किया जाए। वामदल बेजुबानों की ज़बान हैं और भारतीय राजनीति के ये नैतिक घटक हैं। लोग जानते हैं कि अगर वाम कमजोर होता है तो इससे भारतीय राजनीति में एक नैतिक शून्य पैदा हो जाता है। वाम लोगों की उम्मीद लगातार बना हुआ है।
एक मत है कि भाजपा ने वाम और दूसरे दलों के ‘मुसलिम तुष्टिकरण’ को भुनाया .
भाजपा झूठी कहानी गढ़ने और नकली तर्क प्रसारित करने में सफल रही। यह पार्टी एक तरह से इस चीज में सफल रही जिसे वास्तविक मुद्दों से परे लोगों की सोच और उनके दिमागों में सेंधमारी करना कहा जा सकता है। भाजपा ने मास मीडिया और सोशल मीडिया एवं धन शक्ति का इस्तेमाल किया। कॉरपोरेट वित्त और चुनावी बांड का भाजपा ने जमकर प्रयोग किया। एक तरफ भाजपा दूसरे दलों पर अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने का आरोप लगाती है, और दूसरी तरफ यह अतिश्योक्ति के स्तर पर जाकर बहुसंख्यकों की पीड़ितता को प्रदर्शित करती है।
यहाँ तक कि वे संकीर्ण, सांप्रदायिक और विभाजनकारी तरीके से राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे का इस्तेमाल करते हैं और एक स्तर पर वे डर की मानसिकता पैदा करते हैं और दूसरे स्तर पर धमकाते-डाँटते हैं। जिस तरीके से आरटीआई अधिनियम संशोधन विधेयक पारित किया गया और जिस तरीके से वे छानबीन की समुचित प्रक्रिया के बिना ही सभी विधेयकों को पारित करवाने के लिए हर चीज को मटियामेट कर रहे हैं, उन बातों को लोग अब जान रहे हैं। यह दिखाता है कि कैसे संसद और दूसरे संस्थानों को क्षति पहुँचाई जा रही है।
अपने परंपरागत मैदान तक पर वाम की पराजय का क्या कारण है ॽ
केरल में अपने तमाम प्रयासों के बावजूद भाजपा एक सीट जीतने में भी नाकामयाब रही। पश्चिम बंगाल चिंता का विषय बन गया है। तृणमूल कांग्रेस ने वाम से सत्ता ऐंठ ली किंतु वाम के खिलाफ अपनी लड़ाई में उसने भाजपा के उभार की स्थितियाँ पैदा कर दीं। अब तृणमूल भी समस्या झेल रही है क्योंकि भाजपा सत्ता के लिए संघर्षशील ताकत के रूप में उभरने की कोशिश कर रही है। यह एक गंभीर स्थिति है और वाम भी अपनी रणनीति पर मंथन कर रहा है और लोगों के मुद्दों को उठाने में लगा है और यह इन्हें लेकर सड़कों पर उतरेगा। टैगोर, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद की जमीन पर लोगों को विभाजित करने के लिए जय श्री राम का नारा इस्तेमाल किया जा रहा है और अमर्त्य सेन जैसे नोबेल विजेता खुलकर इसके विरोध में आये हैं।
साम्यवादी हमेशा वर्ग संघर्ष पर बल देते हैं किंतु जाति पर हिसाब-किताब साफ करना रह जाता है .
कई बार मैंने यह साफ किया है कि साम्यवादियों का वर्ग संघर्ष आर्थिक मुद्दों तक सीमित नहीं किया जा सकता था। भारतीय संदर्भ में वर्ग संघर्ष सामाजिक न्याय के लिए है और यह जातीय विभेदन के खिलाफ है। यहाँ तक कि अंबेडकर ने भी बुर्जुआ वर्ग को और ब्राह्मणवाद को दो शत्रुओं के रूप में चिह्नित किया था। हमें सामाजिक वास्तविकता को संबोधित करना है, अधिरचना और आधार के बीच के द्वंद्वात्मक संबंधों को समझना है। अगर हम सामाजिक न्याय के लिए और जातीय भेदभाव के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ते हैं तो हम क्रांति को पूरा नहीं कर सकते। सिर्फ आर्थिक मांगों को संबोधित करके हम क्रांति की प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ा सकते।
(अनुवादक :– डॉ. प्रमोद मीणा,
सहआचार्य, हिंदी विभाग, मानविकी
और भाषा संकाय, महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय,
जिला स्कूल परिसर, मोतिहारी, जिला–पूर्वी चंपारण, बिहार–845401, ईमेल – pramod.pu.raj@gmail.com,
pramodmeena@mgcub.ac.in; दूरभाष – 7320920958 )
[1] बी. कोलाप्पन द्वारा लिया गया डी.राजा का यह साक्षात्कार 29 जुलाई, 2019 के दि हिंदू में छपा है।