क्यों अनंतपुर के पक्षियों और ग्रासलैंड के लिए खतरा हैं पवन चक्कियां

 

क्यों अनंतपुर के पक्षियों और ग्रासलैंड के लिए खतरा हैं पवन चक्कियां

( पवन चक्कियों का अनंतपुर की वनस्पति और जीवों पर प्रभाव, ग्राउंड रिपोर्ट)
मनोरमा

आंध्र प्रदेश का अनंतपुर जिला राजस्थान के जैसलमेर के बाद भारत का दूसरा सबसे शुष्क इलाका है, अल्प वर्षा और शुष्क भूमि के कारण इसे दक्षिण का रेगिस्तान कहा जा सकता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, अनंतपुर जिले की जनसंख्या 40,83 लाख है, जिले की कुल आबादी का 71.19 प्रतिशत ग्रामीण आबादी है। कुछ विशेषज्ञ  अनंतपुर जिले के  प्रागैतिहासिक अतीत को  ‘अनंतसागरम’ नाम से जोड़ते हैं, जिसका अर्थ है अंतहीन महासागर’,  आज के अनंतपुर के लिए इसे एक विडंबना ही माना जाएगा। जबकि 71.19 प्रतिशत ग्रामीण आबादी वाले आंध्र प्रदेश के इस सबसे बड़े जिले में पिछले तीन -चार सालों को छोड़ दें तो  बारिश की कमी और लगातर सिकुड़ते जलस्रोत गरीबी और पलायन की सबसे बड़ी वजहों में से एक रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक 2013 से 2018 तक अनंतपुर सूखे के चपेट में रहा और  2019 से 2022  यहाँ औसत से अत्यधिक बारिश हुई। कुल मिलाकर अनियमित बारिश खेती -किसानी को अभी भी यहाँ के लोगों के लिए रोजी -रोटी को मुश्किल बनाये हुए है।

 

बहरहाल, अनंतपुर की पहचान सिर्फ यही नहीं है, पिछले दो दशक में अनंतपुर  पवन ऊर्जा के प्रमुख केंद्र के रूप में भी उभरा है, पुरे जिले में पवन चक्कियों या विंड मिल्स का जाल बिछा हुआ है जो अनंतपुर को एक अलग भू दृश्य, पवन चक्कियों और पवन ऊर्जा के शहर में बदलता है।  रामगिरी, कदवकल्लू, वज्रकरूर, तलारीचेरवु, नालकोंडा, मुस्तिकोवेला, पेनाकचेरला कल्याणदुर्ग, उरावकोंडा, कादिरी से गुजरने पर पहाड़ों के साथं आप  विशाल पवन चक्कियों से भी होकर गुजरते हैं। आंध्रप्रदेश सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2021-22 तक राज्य की पवन ऊर्जा क्षमता , 8 गीगावाट है, फिलहाल राज्य में 4000 मेगा वाट पवन ऊर्जा उत्पादन हो रहा है जिसमें अनंतपुर का योगदान 2700  मेगा वाट है।  गेम्सा रिन्यूएबल्स, सुजलॉन एनर्जी, हरेऑन सोलर, लोंगी सिलिकॉन जैसी प्रमुख कंपनियों ने यहां  संयंत्र स्थापित किया है या कर रही हैं।

जिले में जहां भी हवा का वेग अधिक है, वहां बिजली उत्पादन के लिए पवन चक्कियां स्थापित करने के प्रयास किये गए, आमतौर पर अप्रैल से सितंबर तक अनंतपुर में  45 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से हवाएं चलती हैं जो पवन ऊर्जा पैदा करने के लिए उपयुक्त होती हैं। इसके अलावा जिले की पहाड़ी भू संरचना भी विंड टर्बाइन के प्रभावी तरीके से काम करने के लिए ज्यादा उपयुक्त मानी जाती है। आंध्र प्रदेश के गैर-पारंपरिक ऊर्जा विकास निगम (नेडकैप) के द्वारा किये गए सर्वेक्षण में भी अनंतपुर जिले को  पवन चक्कियों की स्थापना के लिए आदर्श माना गया।

साल 2016 में आंध्र प्रदेश सरकार ने राज्य में पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने के लिए  32 उपयुक्त स्थानों  की पहचान की थी जिसमें  25 स्थान अकेले अनंतपुर में थे, बाकी सात स्थान कुरनूल, नेल्लोर, कडपा और विशाखापत्तनम जिलों में स्थित हैं। इसके कारण अनंतपुर को जिले में निवेश करने के लिए प्रमोटरों के साथ गैर-पारंपरिक ऊर्जा केंद्र का टैग भी हासिल हुआ। और  पिछले कुछ सालों के दौरान यह जिला  “विंड एनर्जी हब” के तौर पर उभरा।

 

लेकिन अनंतपुर की पवन चक्कियों वाली तस्वीर का ये एक पहलू है दूसरा पहलू पर्यावरण, बारिश, जंगल, हरियाली, जीव जंतु, पक्षी, तितलियों के अस्तित्व के गंभीर सवालों से जुड़ा है, साथ ही इन विंड टर्बाइन के साथ लगे गांवों के लोगों की सेहत उनकी खेती, जीविकोपार्जन, जमीन की कीमत और  मुआवजे से भी जुड़ा है। पिछले दो दशक में लगातार इस पर विशेषज्ञों ने ध्यान दिलाया है और जो समय समय पर रिपोर्ट भी होती रही है कि वन और सरकारी भूमि पर पवन चक्कियां स्थापित किये जाने के कारण रायलसीमा क्षेत्र की  हरित पट्टी या जंगल बेदर्दी से नष्ट हो रहे हैं या हुए हैं, और जो कंपनियां पवन चक्की लगा रही हैं उनपर वैकल्पिक हरियाली विकसित करने की भी कोई जिम्मेदारी नहीं है या वो सिर्फ कागजी है, नेताओं, ठेकेदारों को कुछ पैसे या कमीशन देकर कागज पर हरियाली का विकास दिखा दिया जाता है। जबकि, उपयुक्त जलवायु परिस्थितियों और पवन चक्कियों को स्थापित करने के लिए पर्याप्त भूमि की उपलब्धता के कारण देश विदेश की कई कंपनियों को अनंतपुर जिलों में सरकारी भूमि लीज पर विंड टरबाइन लगाने के लिए दिया गया है। इस सन्दर्भ में सम्बंधित विंड मिल कंपनियों के अधिकारियों से कई बार संपर्क करने की कोशिश की गई लेकिन किसी भी अधिकृत अधिकारी का संपर्क मुहैया नहीं कराया जा सका जिससे कंपनियों के पक्ष के बारे में बात हो सके। जबकि एक बात बार बार दोहराई गई कि हम सरकार के निर्देश और मंजूरी के साथ काम कर रहे हैं।

 

अंनतपुर के ही टेकुलोड़ू गांव के इम्तियाज़ ने पवन चक्कियों की बात करने पर अपने कई दोस्तों के गांव का जिक्र किया जो खुद या उनका परिवार या रिश्तेदार इन विंड टर्बाइन्स के कारण प्रभावित हैं जिनसे हमने एक एक बार बात की उनके गांव जाकर। लेकिन इससे पहले वो इसे प्रसंग को अंनतपुर के इतिहास और अपने गांव के नाम से जोड़कर कहते हैं ऐसा पहली बार नहीं है, आप यकीन नहीं करेंगे अंनतपुर कभी बहुत हरा भरा इलाका हुआ करता था ऐसा उनके पिता और दादा कहते रहे हैं।  खुद उनके गांव का नाम टेकुलोड़ू  इसलिए है कि 1857 के बाद जब अंग्रेज भारत में अपना अधिपत्य स्थापित कर रहे थे तो रेलवे की शुरुआत, विकास और विस्तार हुआ, इम्तियाज़ के गांव से रेलवे के लिए पुरे इलाके से इतनी “टीक ” की लकड़ियां लादी जाती थी कि उनके गांव का नाम ही “टेकुलोड़ू ” यानी जहां टीक लोड होता है पड़ गया।

टेकुलोड़ू गांव के इम्तियाज़

इम्तियाज़ अपने पिता की ही स्मृतियों के हवाले से बताते हैं यहां के हरे भरे जंगल की लकड़ियों का अंग्रेजों ने जब वो भारत में रेल सेवा शुरू और विस्तार कर रहे थे जम का कर इस्तेमाल किया। इसके अलावा पुराने दस्तावेजों में कर्नल बेडडोम ने 1880 में इस बात का खासतौर पर जिक्र किया है कि अनंतपुर के सभी घरों के बीम देखकर कहा जा सकता है कि 30-40 साल पहले आसपास के गांव से बड़ी मात्रा में में  ठीक बीम प्राप्त किया जाता रहा है। 1880 में ही मिस्टर गैंबल ने भी दर्ज़ किया है कि उन दिनों अनंतपुर के जंगलों का सबसे बड़ा दुश्मनचूड़ी निर्माण उद्योग था। अनंतपुर में चूड़ियाँ बनाई जाने वाली

क्षारीय मिट्टी बहुतायत में पाई जाती थी। मिस्टर गैंबल लिखते हैं, इस उद्योग को बहुत अधिक ईंधन की आवश्यकता थी और ईंधन आपूर्ति आसपास के गावों के जंगलों से हो रही है, पेनुकोंडा तालुक के 14 गांव में 93 चूड़ी भट्टों से कम नहीं, जिनमें से 75 को छोड़ दिया गया और 18 काम कर रहे थे।

 

अनंतपुर में पवन चक्कियों के कारण पर्यावरण पर पड़े दुष्प्रभाव के सन्दर्भ में खोजबीन करने पर सबसे हैरान करने वाली बात इस जिले में टिम्बकटू कलेक्टिव नाम से काम कर रहे एनजीओ की इस मसले पर चुप्पी रही। टिम्बकटू कलेक्टिव ने 1992 में सीके बबलू गांगुली और मैरी वट्टमट्टम के नेतृत्व में कल्पावल्ली से लगभग 20 किलोमीटर दूर चेन्नेककोथपल्ली (सी के पल्ली) गाँव में बंजर भूमि पर ग्रामीणों के साथ संयुक्त रूप मिलकर जंगल विकसित करने और पुनर्जीवित वनों की रक्षा का काम दिया था। यह एनजीओ पिछले 30 साल से अनंतपुर में काम कर रहा है और अनंतपुर के चेननेकोथापल्ली, रोडडम और रामगिरी मंडल के तहत आने वाले  6,000 एकड़ में फैले कल्पावल्ली और आसपास के 181 गांवों में जंगल पुनर्जीवित करने साथ ही कल्पावल्ली और आसपास के गांव के   23,172 परिवारों के साथ मिलकर जैव विविधता संरक्षण को बढ़ावा देने का दावा करता है।  टिम्बकटू कलेक्टिव का दावा है कि अनंतपुर में इनके द्वारा कुल  9,000 एकड़  भूमि पर जिसमें  कल्पावल्ली सामुदायिक संरक्षण क्षेत्र (केसीसीए) भी आता है, में  वनों की कटाई, अतिवृष्टि, जंगल की आग, जलवायु परिवर्तन, आदि के कारण हुए नुकसान की भरपाई करने, जंगल,पारिस्थितिकी तंत्र और जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने का काम किया गया है।  जैविक खेती कार्यक्रम के परिणामस्वरूप बेहतर पैदावार, बेहतर मिट्टी की गुणवत्ता, पौधों की विविधता में वृद्धि सुनिश्चित किया गया है। साथ ही कल्पावल्ली कार्यक्रम केसीसीए के तहत  सवाना घास के मैदान पारिस्थितिकी तंत्र और उष्णकटिबंधीय झाड़ी वन जो भालू, तेंदुए, काले हिरण और लकड़बग्घा का घर है को सफलतापूर्वक बहाल करने, भारतीय ग्रे वुल्फ आवास की रक्षा और संरक्षण, 250 से अधिक वनस्पतियों की  प्रजातियों, पक्षियों की 126 प्रजातियों, स्तनधारियों की 22 प्रजातियों  और हर्पेटोफ़ुना की 60 से अधिक प्रजातियों के संरक्षण का दावा करता है।

टिम्बकटू कलेक्टिव स्टोर

और उससे भी महत्वपूर्ण बात जिसके कारण अनंतपुर में पवन चक्कियों के द्वारा होने वाले पर्यावरणीय नुकसान के सन्दर्भ में  टिम्बकटू कलेक्टिव का जिक्र जरूरी है क्योंकि अक्षय ऊर्जा के तहत पवन ऊर्जा के  संभावित नकारात्मक प्रभाव पर टिम्बकटू कलेक्टिव एनजीओ, कल्पावल्ली सीबीओ, और एसपीडब्ल्यूडी के साथ मिलकर नई दिल्ली में भारत के ग्रीन ट्रिब्यूनल में सार्वजनिक मुकदमा दायर करने वालों में से रहा है।

लेकिन पुरे तीन महीने से ज्यादा टिम्बकटू कलेक्टिव से जुड़ें अलग अलग लोगों को संपर्क करने के बावजूद उनमें से कोई भी विंड टर्बाइन से होने वाले प्रदुषण पर कुछ भी कहने को तैयार नहीं हुआ।

 

कई बार फोन और मेल के बाद अंततः टिम्बकटू कलेक्टिव की संस्थापक मेरी वट्टमट्टम  की ओर से मेल के मार्फ़त स्पष्टीकरण दिया गया कि  हाल के दिनों में हम कोविड महामारी से लंबित काम को पूरा करने में बहुत व्यस्त थे।  संवाद नहीं कर पाने का कारण यह हो सकता है। टिम्बकटू कलेक्टिव और कल्पावल्ली ट्री ग्रोअर्स कोऑपरेटिव  ने पवनचक्की कंपनियों द्वारा संरक्षित क्षेत्र को हुए नुकसान के संबंध में एनजीटी से संपर्क किया था। एनजीटी ने पवनचक्की कंपनियों को इसके लिए मुआवजा देने का निर्देश दिया था। हमें बताया गया कि यह मुआवजा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को दिया गया है।

गौरतलब है कि है कि नालकोंडा पवन ऊर्जा परियोजना का कल्पावल्ली क्षेत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की बात की गई थी जिसे टिम्बकटू कलेक्टिव द्वारा स्थानीय वनीकरण के द्वारा बहाल किया गया था। वर्ष 2013 में इस क्षेत्र में जब  50.4 मेगावाट का पवन फार्म स्थापित किया गया था, तब  टिम्बकटू कलेक्टिव ने ही इससे वनस्पति आवरण और जलग्रहण क्षेत्रों को नुकसान पहुंचने की बात कही थी, साथ ही पहाड़ियों के कटाव और स्थानीय लोगों की आजीविका के प्रभावित होने की बात की थी।

जबकि परियोजना सीडीएम के तहत कार्बन क्रेडिट के लिए पंजीकरण का अनुरोध कर रही थी। यह भी कहा गया था कि इस परियोजना का नकारात्मक स्थानीय प्रभाव पड़ा है और परियोजना से पहले स्थानीय समुदायों से उचित परामर्श भी नहीं लिया गया है।

 

सीडीएम क्या है?

 

सीडीएम का मतलब है क्लीन डेपलपमेंट मैकेनिज्म यानी स्वच्छ विकास तंत्र। संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के जलवायु परिवर्तन पर क्योटो प्रोटोकॉल के अनुच्छेद 12 में सीडीएम को परिभाषित किया गया है जिसके मुताबिक क्योटो प्रोटोकॉल (एनेक्स बी पार्टी) के तहत कम उत्सर्जन या उत्सर्जन-सीमा प्रतिबद्धता वाले देशों को विकासशील देशों में कम उत्सर्जन वाली परियोजना को लागू करने की अनुमति देता है।

सीडीएम विकासशील देशों में उत्सर्जन में कमी वाली परियोजनाओं को सर्टिफायड इमिशन रिडक्शन (सीईआर) क्रेडिट अर्जित करने की अनुमति देता है, जिसमें प्रत्येक एक टन CO2 के बराबर होताहै। इन सीईआर को क्योटो प्रोटोकॉल के तहत खरीदा बेचा जा सकता है और औद्योगिक देशों द्वारा अपने उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों के एक हिस्से को पूरा करने के लिए उपयोग किया जा सकता है।

 

नेशनल ग्रीन ट्रायब्यूनल, दूसरा पक्ष     

उल्लेखनीय है कि पवन ऊर्जा परियोजना के कारण सामुदायिक  सहयोग के द्वारा विकसित जंगल को नुकसान पहुंचने के सवाल पर टिम्बकटू कलेक्टिव नेशनल ग्रीन ट्रायब्यूनल के समक्ष जा चूका है। जिसके तहत पर्यावरण और वन मंत्रालय भारत सरकार, प्रमुख सचिव वन, आंध्र प्रदेश सरकार, आंध्र प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, एनरकॉन (इंडिया) लिमिटेड और नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय भारत सरकार के खिलाफ कल्पावल्ली ट्री ग्रोवर्स म्यूचुवली एडेड कोऑपरेटिव सोसायटी लिमिटेड,टिम्बकटू कलेक्टिव और सोसाइटी फॉर  प्रोमोशन ऑफ़ वेस्टलैंड डेवलपमेंट ने नेशनल ग्रीन ट्रायब्यूनल एक्ट, 2010 की धारा 15 के तहत 2013 में मिलकर याचिका दायर की थी।

 

मामले में वादी का दावा था कि इस क्षेत्र में 50.4 मेगावाट का पवन फार्म स्थापित किया गया था, जिससे वनस्पति आवरण और जलग्रहण क्षेत्रों को नुकसान पहुंचा, पहाड़ियों का क्षरण हुआ। ग्रामीणों के मुताबिक सड़कों के निर्माण एवं पर्वतों की चोटियों को समतल करने के कारण  30,000 से अधिक पूर्ण विकसित पेड़ और हजारों छोटे पेड़ों का नुकसान हुआ। वृक्षारोपण कार्यक्रम के तहत ताजा लगाए गए वृक्ष और झाड़ियां  नष्ट हुईं। 10 किलोमीटर सड़क पर ट्रकों द्वारा लगातार भारी यातायात के कारण धूल  प्रदूषण बढ़ा, क्षेत्र में तापमान में वृद्धि, और कृषि की गिरावट आयी।

इससे स्थानीय लोगों की आजीविका प्रभावित हुई है। 2007 में एनरकॉन ने कल्पावल्ली और आसपास के क्षेत्रों में 48 पवन चक्कियों की स्थापना के लिए आंध्र सरकार के साथ बातचीत शुरू की थी। लेकिन स्थानीय समुदायों से उचित परामर्श नहीं लिया गया, ये भी कहा गया कि कल्पावल्ली क्षेत्र ग्रासलैंड के लिए जाना जाता है, पहाड़ी ढलानों पर उगने वाली घास भेड़ों और बकरियों के लिए अधिक उपयुक्त होती हैं, बारिश नहीं  होने पर भी कल्पावल्ली में प्रचुर घास उगती थी जो यहाँ के लोगों के पशुपालन आजीविका का आधार है। लेकिन खासतौर पर नालकोंडा पवन ऊर्जा परियोजना का कल्पवल्ली जंगल पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा, इस इलाके में सड़कों के निर्माण के साथ, पहाडों के काटे जाने के कारण ,भूजल स्रोतों का विनाश हुआ और 48 विशाल विंड मिल संरचनाओं की स्थापना के कारण कल्पावल्ली की घास कम हो गई, पहाड़ पर भी मवेशी घास चरने में असमर्थ हैं क्योंकि पहाड़ों की ढलानें बाधित हो गई. इन सबके कारण कल्पावल्ली के लोगों की आजीविका का एक प्रमुख स्रोत बाधित हुआ। साथ ही पेड़ों के कटने से क्षेत्र के वन्य जीवन विलुप्त हुए टिम्बकटू के मुताबिक 384 वनस्पति प्रजातियों और 123 से अधिक जीवों की प्रजातियों से  समृद्ध इस क्षेत्र में 18 महीने की अवधि में  जैव विविधता और वन्य जीवन में नाटकीय गिरावट दर्ज़ हुई।

हालाँकि इस क्षेत्र को शुरू से पवन ऊर्जा के सन्दर्भ में लिए उच्च क्षमता वाला माना जाता रहा है लेकिन कल्पावली में 20 -25 साल में तैयार हुए जंगल की, सरकार और कंपनी दोनों ओर से उपेक्षा की गई। और राज्य सरकार के द्वारा इसे “बंजर भूमि” के रूप में संदर्भित किया गया, जो सही नहीं था।यूएनएफसीसीसी में दर्ज़ विवरण के मुताबिक भी नालकोंडा विंड फार्मपर्यावरण और वन मंत्रालय (एमओईएफ), भारत सरकार के अनुसार, पवन ऊर्जा उत्पादन संयंत्र के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) अध्ययन एक आवश्यक आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह 1994 की ईआईए अधिसूचना में वर्णित ग्यारह श्रेणियों 12 के अंतर्गत या2006 और 2009 की संशोधित अधिसूचनाओं में शामिल नहीं है। परियोजना गतिविधि को पर्यावरण पर किसी भी प्रकार के नकारात्मक प्रभाव का कारण नहीं माना गया है। पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए ) का कोई अध्ययन आयोजित नहीं किया गया है।

 

याचिका में “भूमि हथियाने का मुद्दा और इसमें इसके प्रभाव” को भी दर्ज़ किया गया था। जिसे बाद में ग्रीन ट्रायब्यूनल ने भी माना कि भूमि लिए अनुमोदन नहीं लिया गया। 2015 में अपने दिए गए फैसले में ट्रायब्यूनल ने माना कि यह दर्शाने के लिए कोई सामग्री नहीं है कि प्रतिवादी ने संभागीय वनाधिकारी से ऐसा कोई अनुमोदन प्राप्त किया और ना ही ऐसी कोई याचिका दी। इसके अलावा, डॉ. पी. एस. राघवैया, आई.एफ.एस., संभागीय वन अधिकारी, अनंतपुर द्वारा वन संरक्षक, अनंतपुर अंचल, अनंतपुर को प्रस्तुत रिपोर्ट भी यह नहीं दर्शाता है कि ऐसी कोई स्वीकृति प्रदान की गई। इसलिए, उपलब्ध सामग्री के आधार पर एक कहा जा सकता है कि कोई अनुमोदन नहीं प्राप्त किया गया था।

दूसरी ओर ट्रायब्यूनल ने ये भी कहा कि हालांकि आवेदक ये दावा कर सकते हैं कि उन्होंने  बंजर भूमि को जंगल में बदला। लेकिन PW2 द्वारा प्रस्तुत PW2/2 रिपोर्ट और गवाहों द्वारा दिए गए मौखिक साक्ष्य के साथ हमें यह मानने के लिए कोई सामग्री नहीं मिली कि वादी में से एक टिम्बकटू कलेक्टिव को इस जमीन का कोई अधिकार दिया गया था। मंडल राजस्व अधिकारी चेन्नेकाओथापल्ली की प्रक्रियाओं के मुताबिक भी टिम्बकटू कलेक्टिव को आंध्र प्रदेश सरकार की जीओएमएस संख्या 218 . में जारी दिशा-निर्देशों के तहत सप्पादी में और उसके आसपास सर्वे नं. 314 के 1000 एकड़ जमीन में वृक्षारोपण और वाटरशेड विकास दोनों की अनुमति थी। यह भी स्पष्ट था कि ना तो वादी और न ही उनके अधीन काम करने वाले किसी लाभार्थी को उस जमीन पर कोई अधिकार दिया गया था, हालांकि जंगल के उत्पाद के इस्तेमाल की उन्हें अनुमति थी। इसलिए, भले ही यह मान लिया जाए कि आवेदक भूमि का कायाकल्प कर रहे हैं; उक्त आदेश के आधार पर उन्हें मुआवजे का दावा करने का अधिकार नहीं है। साथ ही याचिका के तहत प्रकाश में लाये गए     आरोप कि विंडमिल्स से पशुओं का नुकसान हुआ है,  मसलन,  विंडमिल्स के लिए अन्य निर्माण और सड़क निर्माण के दैरान छोड़े गए मलबे के प्लास्टिक और धातु को खाने से कई मवेशियों की मौत हो गई, इसके पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं।

 

टिम्बकटू कलेक्टिव के द्वारा कल्पावेळी जंगल को हुए नुकसान के मुवावजे के मामले में सम्बंधित प्रतिवादी के वकील ने तर्क दिया कि जब आवेदकों का भूमि पर कोई अधिकार नहीं है, तो वे मुवावजे के दावेदार नहीं हो सकते। एक समझौते के आधार पर भी जो कि आवेदकों के अनुसार उन्होंने निरस्त कर दिया था किसी मुवावजे का दावा नहीं किया जा सकता। प्रतिवादी के वकील ने यह भी बताया कि वादी द्वारा उत्पन्न की जा की गई रुकावटों और शांति के लिए ताकि परियोजना का  सुचारू संचालन हो सके आवेदकों को 20,00,000/- का भुगतान किया गया था और वो भी सोशल रेस्पॉनिसिबिलिटी या  सामाजिक जिम्मेदारी के अंश के रूप में  इसलिए, आवेदक किसी भी राशि का दावा करने के हकदार नहीं हैं और वह भी तब जब वादी के द्वारा 12 लाख रुपये का चेक  यह कहकर भेजा गया कि वो कंपनी द्वारा दिए गए पैसे का पुनर्भुगतान कर रहे हैं लेकिन वो चेक बैंक में पर्याप्त फंड ना होने के कारण बाउंस हो गया। इसलिए वादी को कंपनी किसी भी नुकसान का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी नहीं है।

जबकि ट्रायब्यूनल ने माना कि सड़क निर्माण के दौरान पेड़ों की व्यापक क्षति हुई है, ट्रायब्यूनल ने कहा बेशक सबूत यह स्थापित करते हैं कि सड़क का निर्माण करते समय, यहाँ की टोपोग्राफी को आसपास के क्षेत्र, पारिस्थितिकी और पर्यावरण व्यापक नुकसान हुआ। इसलिए सम्बंधित प्रतिवादी को सड़क के दोनों ओर पेड़ खासतौर पर उस इलाके के स्थानीय पेड़ लगाने के निर्देश दिए, साथ ही सड़क निर्माण के दौरान क्षेत्र में उनके द्वारा जनित धूल आसपास के पर्यावरण के और प्रदुषण का कारण नहीं बनना चाहिए। मलबा और प्लास्टिक कचरा नहीं छूटना चाहिए। और पहाड़ की चोटी  जहां पवन टरबाइन स्थापित हैं, इस क्षेत्र में ऊपर तक निर्मित सड़क के दोनों ओर पेड़ लगाने होंगे  इन वृक्षों के रख-रखाव की जिम्मेदारी लेनी होगी और सम्बंधित प्रतिवादी को पवन टरबाइन के आस पास हरित क्षेत्र बनाये रखना होगा।

 

जैसे पहले बताया गया है पर्यावरण और वन मंत्रालय को आंध्र प्रदेश राज्य द्वारा अग्रेषित प्रस्ताव के अनुसार 38.90 हेक्टेयर वन भूमि का मेसर्स एनरकॉन इंडिया प्रा. लिमिटेड, के पक्ष में डायवर्जन की मंजूरी को पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा अनुमोदन प्रदान किया गया था। आंध्रप्रदेश राज्य द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव से पता चलता है कि डीएफओ ने गैर वन भूमि में डायवर्ट की जाने वाली 39 हेक्टेयर वन भूमि के लिए प्रतिपूरक वनीकरण योजना तैयार किया था। और जो मुख्य बातें कही गई उसके तहत सबूत और सामग्री से स्पष्ट है कि राज्य द्वारा प्रधान मुख्य संरक्षक को प्रदान किए गए अनुमति में विशिष्ट प्रावधान के बावजूद संबंधित प्रतिवादी को भूमि हस्तान्तरित करने का आदेश उपरोक्त क्षेत्र में सड़कों का संरेखण करने करने वाली मान्यता प्राप्त फर्म द्वारा किया जाना चाहिए थे और इसे संबंधित डीएफओ द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए था। लेकिन इस शर्त का पालन नहीं किया गया।

 

चूंकि, सबूत यह स्थापित करते हैं कि सड़क का निर्माण करते समय, भूआकृति,  आसपास के क्षेत्र, पारिस्थितिकी और पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ, अतः सम्बंधित प्रतिवादी, पारिस्थितिकी और पर्यावरण की इस क्षति की भरपाई करने के लिए बाध्य है, और उसे इसके लिए आंध्र प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को एक माह के भीतर पचास लाख रुपये (50, 000, 00/-) का मुआवजा देना होगा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राज्य वन विभाग के परामर्श से इस राशि का उपयोग केवल उस क्षेत्र की पारिस्थितिकी और पर्यावरण को बहाल करने के लिए करेगा और दो महीने के भीतर अनुपालन रिपोर्ट ट्रिब्यूनल के समक्ष पेश करना होगा।

 

इस पुरे प्रकरण में जो नोट करनेवाली बात है वो ये हैं कि अंनतपुर में विंडमिल्स लगाने के दौरान पर्यावरण के कई नियमों में छूट ली गई या उसे सुविधाजनक ढंग से अनुकूल बनाया गया।

 

 

क्या कहते हैं विंडमिल्स के पास के गांव के लोग?           

 

आगे जब हमने अलग अलग गांवों में जाकर लोगों से बात की तो तस्वीर ज्यादा सुस्पष्ट होकर सामने आने लगी, जबकि सरकार का दावा है कि जिले के लोगों को ऐसी कोई शिकायत नहीं। आंध्र प्रदेश के  न्यू एंड रिन्यूएबल एनर्जी डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ़ आंध्र प्रदेश लिमिटेड ( एनआरईडीसीएपी लिमिटेड, राज्य सरकार कंपनी ) में कार्यरत  जिला प्रबंधक श्री एम कोडंदरामा मूर्ति कहते हैं, सरकार के द्वारा लोगों को मुआवज़ा दिया गया है अगर उनकी जमीन का अधिगहण किया है। उन्होंने कहा विंड टरबाइन की आवाज, शोर इन्हें लेकर कुछ शिकायतें  आसपास के गांव के लोगों से कुछ शिकायतें जरूर मिली है लेकिन आवाज, शोर  से होनेवाला असर बहुत नकारात्मक रहा है।

 

हर सोमवार को हर मंडल के हेडक्वाटर में  सरकार के द्वारा हर तरह की समस्यायों की सुनवाई प्रशासनिक अधिकारीयों के मार्फ़त होती है, लोग विंड टर्बाइन्स के सन्दर्भ में वहां शिकायत कर सकते हैं. इसके अलावा सरकार के द्वारा 1902 हेल्पलाइन शुरू किया गया है, लोग इस लाइन पर संपर्क कर शिकायत कर सकते हैं। अभी तक हमें  विंड टर्बाइन्स से सम्बंधित कोई शिकायत नहीं मिली है।  श्री एम कोडंदरामा मूर्ति कहते हैं इस सन्दर्भ में किसी भी किस्म की पर्यावरण संबंधी अनदेखी या अनियमितता जैसे मसले की सुनवाई के लिए वैसे भी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल या राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण है, अभी भी अपनी ऐसी किसी शिकायत के लिए लोग जा सकते हैं जैसे टिम्बकटू कलेक्टिव ने भी किया था। एम कोडंदरामा जी की बात सही है लेकिन शायद वो भूल रहे हैं गांव के लोग केवल अपनी क्षमता से इस स्तर पर लड़ाई नहीं लड़ सकते।

 

 

 

सबसे पहले हम एलजीबी  नगर गए जो  रोद्दम मण्डल के तहत आने वाला अनंतपुर जिले का एक छोटा सा गाँव है,  यह थुरकलापट्टनम पंचायत के अंतर्गत आता है।  100 घरों वाले इस गांव की आबादी 310 लोगों की है, जिसमें 20 घर के लोगों की जमीन पवन चक्कियों के नज़दीक हैं या उनके ऊपर से बिजली वितरण की लाइन गुजरती है।

 

एलजीबी नगर में ही रह रहे  10 एकड़ की खेती वाले मारुति रेड्डी बताते हैं उनके गांव में पिछले 10 साल से विंडमिल्स है, नागेंद्र पेशे से ड्राइवर है, रामकृष्ण  रेड्डी भी इसी गांव के हैं ड्राइवर हैं और उनके पास 4 एकड़ की खेती है, प्रकाश रेड्डी 10 भी एकड़ की खेती वाले किसान हैं, ये सभी किसान विंडमिल आने के बाद एकसाथ हरियाली की कमी की शिकायत कर रहे हैं थे, पशुओं के चारे की कमी सबकी सबसे बड़ी शिकायत थी, उनका कहना था जब विंड टर्बाइन्स नहीं थे तब  पहाड़ों पर पर्याप्त हरियाली हुआ करती थी और उनके पालतू पशु दिन भर वहां पर चारा खाते थे।  रामकृष्ण कहते हैं कि जिस भी खेत से पावर लाइन पावर गुजरती है है वहां के खेतों की कीमत कम हो जाती है। मारुति रेड्डी और प्रकाश रेड्डी दोनों कहते हैं गांव की दूसरी साइड में फिलहाल जमीन की कीमत तीस लाख प्रति एकड़ है जबकि जिन खेतों से बिजली की लाइन गुजर रही है उनकी कीमत सिर्फ 8 लाख प्रति एकड़ ही है।  यह अपने आप में बहुत बड़ा नुक्सान है। क्षतिपूर्ति के तौर पर जिन खेतों से बिजली की लाइन गुजरी है उन्हें मात्र 1 लाख रूपये प्रति एकड़ की दर से मुआवजा दिया गया है।

 

मारुति रेड्डी बताते हैं विंड टरबाइन की आवाज के कारण पहाड़ों पर घूमने वाले जानवर जंगली जानवर जैसे जंगली सूअर लोमड़ी,हिरण नीलगाय और खरगोश मोर अब वहां नहीं जाते बल्कि खेतों की तरफ चले आते हैं जिसके कारण उनकी फसल को नुकसान होता है, जंगली जानवर गांव में भी आ जाते हैं नारायण और अरुणा स्कूटर से जा रहे थे उन्होंने सुना कि कोई विंडमिल से होने वाली  शिकायत सुन रहा है तो अपने स्कूटर रोक करके उन्होंने अपनी बात कही। जो खेत दूर हैं उनकी प्रति एकड़ प्रभावित नहीं हुई है लेकिन जो भी खेत विंडमिल के नजदीक है या जहां से लाइन गुजरती है उनकी प्रति एकड़ उपज भी कम हो गई है।

एलजीबी नगर गांव के लोग

हम  मुस्टिकोविला गांव पहुंचे जहाँ श्रीरामलू अपने खलिहान में ईश्वरम्मा,  मालम्मा  और नरसिंहा के साथ मिलकर खेत से काट कर लायी गई रागी और धान की फसल को पुआल से अलग कर रहे थे। मुस्टिकोविला अपेक्षाकृत बड़ा गांव है जहां लगभग 500 घर हैं और पिछले नौ साल से यहां विंड टर्बाइन्स लगे हुए हैं, बल्कि श्रीरामलू  का खलिहान ठीक उस पहाड़ी से लगा हुआ है जिसपर पवन चक्की पृष्ठभूमि में घूम रही थी और जिसकी आवाज़ हम तक भी आ रही थी।  श्रीरामलूके बेटे पहले विंडमिल लगाने वाली कंपनी सुजलॉन में सिक्योरिटी गार्ड थे, लेकिन 6 साल नौकरी करने के बाद साल पहले उन्होंने नौकरी छोड़ दी कारण वेतन मात्रा  4500-5000  हज़ार रुपए होना और काम के घंटे 12 तक भी हो जाना। अभी भी गांव के 12  युवक सिक्योरिटी गार्ड की दिन -रात की नौकरी कर रहे हैं।  इनका गांव विंड मिल्स से दूर हैं तो आवाज़ से तभी ज्यादा परेशानी होती है जब खेत में काम करने आते हैं, गांव तक आवाज़ नहीं पहुँचती।

श्रीरामलू, मुस्टिकोविला गांव

 

विंड टर्बाइन लगने के बाद पहाड़ी पर की हरियाली ख़त्म हो गई और लगातार बारिश भी कम होती गई, शिकायत करने पर पंचायत को कंपनी की ओर से पेड़ लगाने के लिए 20  लाख दिए गए, श्रीरामलू कहते हैं पैसा एक स्थानीय नेता गोपाल ने ले लिया और पहाड़ों पर वापस वृक्षारोपण भी नहीं कराया।  उन्होंने गोपाल के बारे में ये भी बताया कि  वो पहले टिम्बकटू कलेक्टिव से जुड़ा था और बाद में गांव का सरपंच भी बना।

मुस्टिकोविला गांव

 

 

कादिरप्पा भी इसी गांव से हैं और बताते हैं विंड टरबाईन लगने के बाद उनके इलाके में लगातार पहले 5 -6  साल तक बारिश हुई ही नहीं जबकि इससे पहले कम मात्रा में ही सही मौसम में बारिश जरूर होती थी, पिछले दो साल से चूँकि पुरे अनंतपुर में सामान्य से ज्यादा बारिश हो रही है तो उनके गांव में भी सूखा नहीं पड़ा। लेकिन ये बारिश भी सामान्य जलवायु चक्र नहीं है, उल्लेखनीय है कि आईएमडी के आकड़ों के मुताबिक पिछले दो दशक में साल 2000 से 2020 तक अनंतपुर ने 18 बार सूखे का सामना किया है, और पिछले तीन साल से यहाँ सामान्य से भी ज्यादा बारिश हो रही है। हालांकि इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध विंड टर्बाइन्स से हो इस प्रकार का ना कोई अध्ययन है और ना ही आंकड़े।

 

मुतियालप्पा भी पहले विंडवर्ल्ड कंपनी के विंड टर्बाइन के लिए सिक्योरिटी गार्ड का काम करते थे दो साल काम करने के बाद उन्हें वाईएसआर कांग्रेस और जगनमोहन रेड्डी की सरकार बनते नौकरी से निकाल दिया गया क्योंकि मुतियालप्पा टीडीपी के समर्थक रहे और विंड टर्बाइन एजेंसी का मालिक चंद्रगिरि रामू  वाईएसआर कांग्रेस समर्थक था।

इसके अलावा वेतन भी बहुत कम ( 5 हज़ार रूपये ) और काम के घंटे बहुत ज्यादा थे। मुतियालप्पा कहते हैं मुस्टिकोविला में 240 के करीब अलग अलग कंपनियों के विंड टर्बाइन्स हैं।

मुतियालप्पा

 

कंपनी वाले और सरकार की ओर से ग्रीन कवर के लिए मीटिंग हुई थी, टिम्बकटू कलेक्टिव ने भी अपनी आपत्ति दर्ज़ की थी , इनकी आपसी मीटिंग के बाद इनकी आपस में रजामंदी हो गई।  श्री रामलु और कादिरप्पा दोनों दावा  करते हैं टिम्बकटू कलेक्टिव ने भी ग्रीन कवर लगाने के नाम पर पैसे मिल जाने के बाद अपनी आपत्ति पर चुप्पी साध ली। श्रीरामलु , कादिरप्पा और मुतियालप्पा तीनों ने कहा  टिम्बकटू कलेक्टिव  के लोग शुरू में खूब आये क्योंकि कल्पावल्ली जंगल भी इस गांव से ज्यादा दूर है, विदेशी मेहमानों के आने पर भी टिम्बकटू कलेक्टिव  के लोग उन्हें अपना काम दिखाने को बोलकर गांव दिखाने लेकर आते रहे लेकिन हक़ीक़त में उन्होंने गांव के लिए कुछ भी नहीं किया। इस सन्दर्भ में टिम्बकटू कलेक्टिव का पक्ष जानने के लिए फोन फिर मेल किए जाने पर कोई जवाब नहीं मिला बाद में उनके द्वारा मेल पर जानकारी दी गई कि नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल द्वारा निर्देशित मुआवजे का भुगतान  कंपनी द्वारा प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड को किया गया है, टिम्बकटू कलेक्टिव को नहीं।

 

 

मुतियालप्पा बताते हैं विंड टर्बाइन्स से ख़त्म हुई हरियाली के नाम पर उनकी  खुद  जमीन पर  टिम्बकटू कलेक्टिव के लोग आए थे ये कहते हुए कि ये कल्पावल्ली फारेस्ट के तहत आनेवाली जमीन है और उन्हें उनकी ही जमीन से भगाने लगे, मुतियालप्पा ने जवाब में तलवार निकाल कर उन्हें दौड़ा दिया, वो कहते हैं मैंने अपनी और मेरे साथ के लोगों की जमीन ऐसे बचाई, उस घटना के बाद हमारी जमीन पर  टिम्बकटू कलेक्टिव के लोग कभी नहीं आए।

 

रामगिरि गांव के नवीन ने अभी अभी डिग्री ख़त्म की है, उनके गांव में 500 के करीब घर हैं और कहते हैं विंड टर्बाइन्स उनके गांव से दूर हैं इसलिए प्रत्यक्ष  किसी को कोई फर्क महसूस नहीं होता लेकिन गांव के बुजुर्ग बारिश की अनियमितता और हवा के लगातार शुष्क होने की बात कहते रहते  हैं।

रामगिरि गांव

 

इसी तरह रास्ते में गोंडीपल्ली, नागासमुद्रम गांवों से गुजरते हुए रास्ते में दोनों ओर विंड टर्बाइन्स ही दिख रहे थे और स्थानीय चरवाहे लिंगैया से बात करने पर उसने बताया इन पवन चक्कियों ने पहाड़ को खाली कर दिया, उनकी ही तरह आसपास के और चरवाहों को भी अपनी भेड़ और बकरियों के चारे के लिए गांव से दूर हरियाली वाले पहाड़ों पर  जाना पड़ता है।

स्थानीय चरवाहा

 

यहां उल्लेख करना जरूरी है कि अनंतपुर जिले में रामगिरी और तल्लीमदुगुला दो ऐसे स्थान हैं जहां दो दशक पहले पवन ऊर्जा परियोजनाएं स्थापित की गई थीं। 100 मेगावाट पवन ऊर्जा की संयुक्त क्षमता के साथ 17 कंपनियों ने यहां संयंत्र स्थापित किए थे।

एलजीबी नगर गांव के रस्ते में  रूद्रप्पा मिले जो 4 साल से यहां पर रह रहे हैं लेकिन उनके आने से काफी पहले से यहां पर पवन चक्की है, चूँकि उनका फार्म  विंडमिल से थोड़ी दूरी पर है इसलिए उन्हें ज्यादा कुछ महसूस नहीं होता लेकिन अनियमित बारिश और हवा में नमी की कमी वो नोटिस करते हैं।

एलजीबी नगर गांव के ही लक्ष्मी नारायण रेड्डी अपनी पत्नी अनीता के साथ रोज पेनुकोंडा की ओर आते रहते हैं खासतौर पर अपने पालतू पशुओं के चारे के लिए, वो बताते हैं वैसे कोई बहुत बड़ा दुष्प्रभाव तो नहीं नोटिस हुआ है लेकिन विंडमिल्स के कारण बारिश की अनियमितता बढ़ी है और हवा पहले से ज्यादा शुष्क और गर्म हुई है।

एलजीबी नगर गांव के लक्ष्मी नारायण रेड्डी अपनी पत्नी अनीता के साथ

 

 

हमारी बात चीत उर्वकोंडा के रवि कुमार और एदुगुर्र्रालापल्ली  के कोंडापुरम विजय कुमार से और उनके दोस्तों से भी हुई। विजय कुमार के गांव और आसपास 20 के लगभग टर्बाइन्स हैं। विजय कुमार कहते हैं उनके गांव और आसपास 20 विंड टर्बाइन्स है और सभी टर्बाइन्स किसानों की उस जमीन पर है जो कभी मूंगफली की उपजाऊ जमीन हुआ करते थे, उनके रिश्तेदार की तीन एकड़ से ज्यादा जमीन विंड टर्बाइन्स के लिए ली गई। विजय कुमार आवाज से प्रदूषण की बात करते हैं लेकिन वो कहते हैं ये उनके जैसे आवाज के प्रति कुछ बेहद संवेदनशील लोगों को ही ज्यादा परेशान करता है जैसे सिर में गनगनाहट सा महसूस होना और अनिद्रा की शिकायत।

 

इसके अलावा  विजय विंड टर्बाइन्स  नाम पर किसानों को मिले अपर्याप्त मुआवजे की भी बात करते हैं उनके गांव में प्रति एकड़ 4 लाख मुआवजा दिया गया जबकि उनका ये भी कहना है गांव के लोग कहते हैं कंपनी की ओर से ज्यादा राशि दी गई थी लेकिन स्थानीय नेता ने उसे किसानों तक नहीं पहुंचने दिया।

 

विजय भी अनियमित बारिश और हवा के शुष्क होने की शिकायत करते हैं उनका कहना है लगातार विंड टर्बाइन चलने से पुरे इलाके की हवा में मौजूद आर्द्रता प्रभावित हुई है। सरकार की हेल्पलाइन की बात बताने पर जहां कोई भी अपनी किसी भी शिकायत को दर्ज़ करा सकता है, विजय कहते हैं इस बारे में ज्यादातर लोगों को जानकारी नहीं है।  लेकिन विजय की असली चिंता अपने गांव के पहले से ही बहुत शुष्क और बंजर होने की है जो विंड टर्बाइन लगने के बाद और ज्यादा शुष्क और बंजर जमीन में तब्दील होती जा रही है क्योंकि सरकार और कंपनियों की ओर से भी उनके गांव में वैकल्पिक हरियाली विकसित करने की कोई कोशिश अब तक नहीं हुई।

 

 

जंगलों में सड़कें बनाने से रैखिक विखंडन होता है, सड़कों का मतलब सिर्फ ट्रैफिक नहीं है, जिससे जानवर प्रभावित होते हैं और दुर्घटनाग्रस्त होकर मरते भी हैं, पहाड़ पर रोड को समतल बनाने के लिए पहाड़ी के किनारों को काटा जाता है यह  कटिंग अक्सर कई मीटर ऊंची होती हैं जिसे जानवर चढ़कर पार नहीं कर पाते और फिर पहाड़ पर नहीं चढ़ पाते इससे उनका आवास और भोजन की तलाश दोनों बाधित होता है। उर्वकोंडा के रवि कुमार भी विंड टर्बाइन्स के कारण खासतौर पर बारिश की अनियमितता और हवा की शुष्कता की बात करते हैं और कहते हैं इसे समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं होना चाहिए कि जिन पहाड़ों पर या जमीन पर विंड टर्बाइन्स हैं वहां की हरियाली स्वतः प्रभावित होती है पंखे के चलते रहने के कारण और इसलिए वहां के जानवर और पक्षी भी प्रभावित होते हैं विंड टर्बाइन्स के आसपास ना जानवर जाते हैं और ना ही पक्षी और इन सबका आपस में एक चेन जैसा संबंध भी है एक के ख़त्म होने से दूसरे पर असर होता है जैसे हरियाली, पेड़ के ख़त्म होने से स्वतः चिड़ियों का आवास ख़त्म हो जाता है यहाँ तक कि कई तितलियों और कीट पतंगों का भी। जंगली जानवरों का भोजन और आवास भी प्रभावित होता है जैसे उनके गांव में विंड टर्बाइन्स लगने के बाद जंगली सूअर और लोमड़ी पहाड़ों से किसानों के खेतों की ओर आने लगे हैं और फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं।  रवि ये भी कहते हैं जिस भी जमीन या उसके आसपास विंड टर्बाइन्स हैं उसके साथ लगे जमीन की  कीमत अपने आप आधी से भी कम हो जाती है आखिर क्यों ? लोग कोई शिकायत नहीं भी करें लेकिन वो जमीन पर इसने दुष्प्रभाव को जानते हैं इसलिए।

 

लेकिन सच क्या हैं?  

 

पवन चक्कियों के पर्यावरण पर दुष्प्रभाव के क्रम में  खासतौर पर अनंतपुर या पुरे आंध्र प्रदेश में उस  तरह से उल्लेखनीय काम नहीं हुआ है जिस तरह से गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान में हुआ है, “लेट इंडिया ब्रीद” से जुड़े यश लेखी भी इस बात को मानते हैं इसलिए “लेट इंडिया ब्रीद”    सक्रियता गुजरात, महाराष्ट्र  राजस्थान में ज्यादा है। इसलिए अनंतपुर की पवन चक्कियों और उनसे वनस्पतियों और जीवों पर होनेवाले दुष्प्रभाव के सन्दर्भ में इस रिपोर्ट में देश के अन्य राज्यों में हुए शोध, अध्ययन और  निष्कर्ष को पेश किया गया है।

पवन ऊर्जा को ग्रीन ऊर्जा कहा जाता है,लेकिन अरसे से इसके द्वारा वन्यजीवों पर्यावरण पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव की भी बात होती रही है,   स्थलीय स्तनधारियों और सरीसृपों पर इसके नकारात्मक प्रभाव की बात की जाती रही है लेकिन पक्षियों और चमगादड़ों पर इसका ज्यादा असर पाया गया है। टरबाइन के घूमते  ब्लेड पक्षियों के टकराने और मौत का कारण बनते हैं. इसके अलावा, विंडमिल्स  क्षेत्र से पक्षियों का विस्थापन और शोर के कारण पक्षियों के व्यवहार  और अधिवास में परिवर्तन भी नकारात्मक प्रभाव है।

सबसे पहले इस बारे में  जानकारी 1990 में अमेरिका के अटामाउंट पास में बड़े पैमाने पर शिकारी पक्षी मृत्यु दर के दस्तावेजीकरण से प्रकाश में आयी थी, इसके बाद यूरोप और उत्तरी अमेरिका में विंडमिल्स के कारण पक्षी मृत्यु दर का बड़े पैमाने पर अध्ययन किया गया, लेकिन भारत में इस बारे में बहुत ज्यादा शोध नहीं किया गया है। चमगादड़ और पक्षियों पर महाराष्ट्र और गुजरात में  किये गए दो अध्ययन के  निष्कर्ष के बाद इसकी जरूरत समझी  गई है कि पूरे देश में फैले 554 महत्वपूर्ण पक्षी क्षेत्रों (आईबीए) में पक्षियों की समृद्ध विविधता को ध्यान में रखते हुए, पवन टरबाइनों की तेजी से बढ़ती संख्या और पक्षिजगत पर इससे पड़ने वाले संभावित प्रभावों की की जांच की जानी चाहिए।

हाल की रिपोर्टों में दुनिया के कुछ देशों में चमगादड़ और अन्य पक्षियों पर पवन टरबाइन के पर्यावरणीय प्रभाव पर लगातार चिंता व्यक्त की गई है, भारतीय संदर्भ में पक्षियों और चमगादड़ों पर पवन चक्कियों के प्रभाव का कम अध्ययन किया गया है और इस विषय पर बहुत कम शोध सामग्री उपलब्ध है। सलीम अली सेंटर फॉर ऑर्निथोलॉजी एंड नेचुरल हिस्ट्री से सम्बद्ध शोधकर्ता अब्दुल हमीद मोहम्मद समसूर अली द्वारा सितंबर 2011 में कच्छ, गुजरात में विंडमिल्स के पर्यावरण प्रभाव,पक्षियों और चमगादड़ो की मृत्यु दर पर शोध अवधि के दौरान उन्हें यहाँ ग्रेटर माउस-टेल्ड बैट राइनोपोमा माइक्रोफिलम के दो शव मिले जिनकी मौत पवन टर्बाइनों से टकराने के कारण हुई थी।

फिर सेल्वराज रमेश कुमार, वी. अनूप, पी. आर. अरुण, राजा जयपाल और ए मोहम्मद समसूर अली द्वारा बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी और सलीम अली सेंटर फॉर ऑर्निथोलॉजी एंड नेचुरल हिस्ट्री, कोयंबटूर के सौजन्य से कच्छ, गुजरात के समखियाली क्षेत्र और दावणगेरे, कर्नाटक के  हारपनहल्ली क्षेत्रमें  दो पवन फार्मों पर किए गए अध्ययन में कच्छ में  तीन वर्षों की अवधि में इस क्षेत्र में पायी जाने वाली पक्षियों की कुल 174 प्रजातियों में कम से कम 11 प्रजातियों से कुल 47 पक्षी शव मिले जबकि दावणगेरे कर्नाटक में एक वर्ष की अवधि में पक्षियों की कम से कम तीन प्रजातियों के सात शव पाए गए। कच्छ के लिए अनुमानित वार्षिक पक्षी मृत्यु दर 0.478 पक्षी/टरबाइन दर्ज हुआ और दावणगेरे  के लिए यह दर  0.466 पक्षी/टरबाइन रहा। ये आकड़ें छोटे स्तर पर ही सही लेकिन सच बताते हैं।

पवन चक्कियों से वनस्पतियों, जीव -जंतुओं और समस्त पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का सही आकलन इसपर दीर्घकालीन शोध से ही सामने आ सकता है जबकि भारत में अभी इस ओर बहुत व्यवस्थित शोध नहीं किया जा रहा है खासतौर पर सरकारों के द्वारा।  नाम उद्धृत नहीं किये जाने की बात पर एक विशेषज्ञ कहते हैं, विंडमिल्स के सन्दर्भ में विशेषज्ञों द्वारा दिशानिर्देश विकसित किये गए लेकिन सरकार द्वारा उसे किनारे कर दिया गया। भारत में इस ओर ज्यादा शोध वित्तीय एजेंसियों जैसे वर्ल्ड बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक या ऐसे ही संस्थानों के सौजन्य से हुए हैं क्योंकि ये संस्थाएं किसी परियोजना में निवेश करने से पहले अपने नियमों और शर्तों के अनुसार उससे सम्बंधित हर तरह की जानकारी जुटाती है और इसी आधार पर निवेश करने या नहीं करने का का फैसला लेती हैं। भारत में पवन-ऊर्जा के सन्दर्भ में पर्यावरण मंजूरी तक की जरूरत नहीं है  वेस्ट लैंड दिखाकर परियोजनाओं को मंजूरी दे दी जाती है जबकि पर्यावरण मंजूरी अनिवार्य नियम होना चाहिए ।

 

 

क्या कहते हैं विशेषज्ञ 

 

डॉक्टर जस्टस जोशुआ ने किसी वित्तीय एजेंसी के लिए  2013 -14 में एक 1 साल के अध्ययन कार्यक्रम के तहत विंडमिल का पक्षियों खासतौर पर चमगादरों पर क्या असर पड़ता है इस पर महाराष्ट्र के सतारा इलाके में काम किया है। उन्होंने कच्छ के नकतवारा इलाके में भी इसी तरह का काम किया है, अपने अध्ययन के दौरान उन्होंने पाया कि विंड टरबाइन खासतौर पर पक्षियों टकराने और उनकी मौत की वजह बनते है। स्थानीय या प्रवासी दोनों पक्षियों के साथ वन्य जीवों के हैबिटैट और मार्ग में विंड टरबाइन की मौजूदगी उनके अधिवास और प्रवास दोनों प्रभावित करते हैं, वो उस इलाके आना बंद कर देते हैं।

वो मानते हैं कि उत्सर्जन के हिसाब से पवन ऊर्जा कम प्रदूषणकारी माना जाता है लेकिन इन्हें स्थापित करने के दौरान जो निर्माण होता है उससे पर्यावरण जरूर प्रभावित होता है। और जलवायु पर इसके असर के बारे में अभी अमेरिका में भी शोध जारी है।

हालाँकि इससे कितने पक्षी मरते हैं इसके बारे में ठीक संख्या बताना इसलिए मुश्किल मानते हैं कि भारत में इस सन्दर्भ में सिलसिलेवार शोध नहीं होता है लेकिन अपने शोध के दौरान सात माह के अवलोकन में डॉक्टर जोशुआ ने सतारा में विंड टरबाईन से टकराकर कुल 52 पक्षियों की मौत दर्ज की, जिसमें चमगादड़ों की 5  प्रजाति और 12 अन्य प्रजातियों के पक्षी शामिल थे। कच्छ में उन्होंने विंड मिल्स के स्थापित हो जाने के बाद उस इलाके में पहले से पाए जानेवाले पक्षियों की संख्या में भी कमी दर्ज़ जिसे वो हैबिटैट लॉस मानते हैं, क्योंकि उन्होंने विंड मिल्स की स्थापना से पहले भी काम किया था। डॉक्टर जस्टस जोशुआ ये भी कहते हैं जिस इलाके में पानीस्रोत केवल 1 हेक्टेयर या इससे कुछ कम क्षेत्रफल का हो वहां भी विंडमिल्स की स्थापना पर शोध किए जाने की जरूरत है।

डॉक्टर जोशुआ “वेस्ट लैंड ”  संकल्पना को पर्यावरण, वन्य जीवन और पक्षियों के लिए बहुत खतरनाक मानते हैं वो कहते हैं “वेस्ट लैंड ” जैसा कुछ होता नहीं ग्रासलैंड जैव विविधता और कार्बन सिंकिंग के भू-क्षेत्र होते हैं, वेस्ट लैंड बताकर बगैर किसी शोध या अध्ययन के तमाम ग्रासलैंड में विंडमिल्स को मंजूरी देने के दीर्घकालीन परिणाम गंभीर हो सकते हैं, सरकारों को इसपर ध्यान देने जरूरत है।

वेस्ट लैंड, अनंतपुर

 

ए एम समसूर अली, एस. रमेश कुमार, पी.आर. अरुण, एम. मुरुगेसन द्वारा गुजरात के कच्छ जिले के जंगी क्षेत्र में ‘पक्षियों और चमगादड़ों के विशेष संदर्भ में जंगी पवन ऊर्जा फार्म (91.8 मेगावाट) का  प्रभाव’ इस शीर्षक तहत एविफौना के प्रारंभिक सर्वेक्षण के सन्दर्भ में  किए गए शोध में यहाँ 45 पक्षी परिवारों से संबंधित पक्षियों की कुल 139 प्रजातियां रिकॉर्ड किया, जिसमें 67 प्रजातियां स्थानीय थीं  बाकी अलग -अलग किस्म  प्रवासी प्रवासी। सबसे ज्यादा संख्या में पसेरिफोर्म्स इसके बाद चराड्रिफोर्मेस, सिकोनीफोर्मेस, कोरासीफोर्मेस औरअंसेरिफोर्म्स। ल्यूकोसेफला), ओरिएंटल व्हाइट इबिस (थ्रेस्कीओर्निस मेलानोसेफालस), लेसर फ्लेमिंगो (फीनिकोप्टेरस) माइनर), ब्लैक-टेल्ड गॉडविट (लिमोसा लिमोसा), यूरेशियन कर्लेव (न्यूमेनियस अर्क्वेटा), ब्लैक-बेल्ड टर्नो स्टर्ना एक्यूटिकौडा) और यूरोपीय रोलर (कोरसिअस गर्रोलीयस )  ये सभी  आईयूसीएन 2011 की सूचि के तहत संकटग्रस्त अस्तित्व वाली प्रजातियों थीं । कच्छ के दक्षिण-पूर्व में लगभग 20 किमी दूर, भचाऊ तालुक के चार गांव  वंधिया, मोदपार, लखपार और जंगी समखियाली में किये गए शोध में पाया कि इस क्षेत्र के पक्षियों पर कोई पिछला अध्ययन उपलब्ध नहीं है।

 

क्षेत्र में उन्होंने 190 प्रजाति और 69 परिवारों समेत कुल 273 पौधों की प्रजातियां दर्ज की इनमें से 126 प्रजातियां जड़ी-बूटियों की थीं, 69 प्रजातियाँ पेड़, 34 प्रजातियाँ झाड़ियाँ, 22 प्रजातियाँ लताओं की और 22 प्रजातियाँ घास की थीं।

इन्होने पाया कि विंडमिल्स का असर पक्षियों पर होता है, पवन टर्बाइनों के साथ टकराव के परिणामस्वरूप इन्होने छह पक्षियों की मृत्यु दर्ज की ब्लू रॉक कबूतर (कोलंबा लिविया), हाउस क्रो (कॉर्वस स्प्लेंडेंस) चित्तीदार कबूतर (स्ट्रेप्टोपेलिया) चिनेंसिस), कैटल एग्रेट (बुबुलकस आइबिस), यूरेशियन कॉलर डव (स्ट्रेप्टोपेलिया डिकाओक्टो) और एक अज्ञात एग्रेट। इस इलाके की जैव विविधता खासतौर पर संरक्षणात्मक महत्व की कई प्रजातियां और विभिन्न प्रकार के एविफौना के लिए एक महत्वपूर्ण क्षेत्र होने के कारण इन्होंने निष्कर्ष दिया कि यहाँ इनके संरक्षण पर तत्काल ध्यान दिया जाना चाहिए। और पक्षियों की आबादी और घनत्व पर पवन टर्बाइनों के प्रभावों को बेहतर समझने के लिए आगे जांच और शोध जरूर किया जाना चाहिए।

 

गुजरात के ही संगनारा गांव के सरपंच शंकर कहते हैं पवनचक्की से हमारा विरोध नहीं है लेकिन हम अपना जंगल बचाना चाहते हैं, हमारे अर्द्ध शुष्क इलाके में कंटीले झाड़ीनुमा पेड़ ज्यादा पाए जाते हैं जैसे बबूल, कीकड़, ऐसे जंगल तैयार होने में तीस -चालीस साल का समय लग जाता है, उनके काटे जाने  दोबारा लगाने पर भी तीस -चालीस साल की भरपाई कैसे हो सकती है?  उन्होंने बताया सांगनारा में प्रस्तावित 40 विंडमिल में से 2015 में केवल 7 विंड मिल्स  लगाए जा सके। सुजलॉन कंपनी के 7 विंडमिल्स  बाद हमने अपने गांव में प्रस्तावित और विंडमिल लगने ही नहीं दिया, क्योंकि एक विंडमिल के लिए 1000 -1500 तक पेड़ काटे जाते हैं और कंपनियां इस आदेश के साथ आती हैं कि वहां कोई पेड़ नहीं है। 2019 में  हमने इस आदेश को चुनौती दी  2020 में हम नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल गए तबसे आगे  काम बंद है। अडानी पावर और एक और कंपनी अभी भी इस गांव लगने वाले अपने प्रोजेक्ट पर कायम हैं, इनके हटने से हमारी जीत।

 

शंकर ये भी बताते हैं कि मोर उनके गांव और लोगों में बहुत पवित्र पक्षी माने जाते हैं लेकिन विंडमिल्स ट्रांसमिशन लाईन  के कारण 8-10 मोरों की मौत चुकी है, जिसमें से पांच की पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी इनके पास है, जबकि हर मौत हम देख भी नहीं पाते हैं क्योंकि झटका लगने से मरने वाले मोर को आधे घंटे में भी दूसरे जानवर खा जाते हैं। शंकर गांव के लोगों द्वारा पंखों के शोर से भी असहज बात कहते हैं।1200 एकड़ में फैले सांगनारा गांव जहाँ की आबादी 14 सौ है, यहाँ के लोगों का मुख्य पेशा पशुपालन, थोड़ी बहुत खेती और मजदूरी है। 7 विंडमिल्स के कारण ही गांव के लोगों ने जंगल, घास और भूजल पर इसका असर देखा, उनके  गांव के पास एक ही मीठे पानी का स्रोत है किसी भी कीमत पर अपने आसपास की प्रकृति से छेड़छाड़ नहीं चाहते। बल्कि वो गर्व  बताते हैं उनसे पहले  सरपंच ने भी इस मामले में कोई समझौता नहीं किया।  उनके गांव के लोग भी कंपनियों द्वारा नुकसान भरपाई के लिए पैसा दिए जाने की बात पर कहते हैं तुम अपना पैसा अपने पास रखो हमें हमारी प्रकृति चाहिए।

 

डॉ सुजीत नरवरे  प्रोजेक्ट साइंटिस्ट बीएनएचएस  का काम ग्रेट इंडियन बस्टर्ड और लेसर फ्लोरिकन या  खरमोर पर है विलुप्त होती  श्रेणी की  ये दोनों प्रजातियां देश में जहाँ भी पायी जाती हैं सुजीत नरवाडे  ने वहां काम किया है, खासतौर पर दक्कन पठार के तहत पश्चिमी महाराष्ट्र, मराठवाड़ा और कर्नाटक के कुछ  हिस्सों  और थार रेगिस्तान में। इस विषय पर उनके शोधपत्र और उनकी किताबें भी हैं जिसमें उन्होंने तमाम अन्य पक्षों के साथ उनके विलुप्त होने के कारणों पर भी लिखा है।  सुजीत नरवाडे विंडमिल्स के पंखे से ज्यादा पावर लाईन नेटवर्क को ग्रेट इंडियन बस्टर्ड और लेसर फ्लोरिकन जैसे बड़े क्षेत्र में रहने वाली, लो फ्लाइंग पक्षियों के लिए जानलेवा मानते हैं, उनका विजन इस प्रकार से होता है कि वो अपने आगे आने वाले पावर लाइन को नहीं देख पाते और टकरा जाते हैं।  दूसरा कारण हैबिटैट लॉस को, दक्कन से ग्रेट इंडियन बस्टर्ड लगभग विलुप्त हो चुके हैं और इसकी सबसे बड़ी वजह ग्रासलैंड को ग्रीन एनर्जी के नाम पर डिस्टर्ब कर दिया जाना और उनका सिकुड़ते जाना मानते हैं। भारत में जंगलों को श्रेणीबद्ध किया गया है लेकिन ग्रासलैंड को वेस्टलैंड  माना जाता है जबकि दक्कन का पूरा इलाका ग्रासलैंड ही हुआ करता था, ये  हजारों साल पुराने सिस्टम हैं।  लेकिन विंड टरबाईन के  कारण वनस्पति हटाए जाने, निर्माण कार्य और बड़े हेवी उपकरणों और वाहनों के गुजरने से ग्रासलैंड की टॉप सॉइल ख़त्म हो जाती है जिससे घास बदल जाती है और पूरी वनस्पति बदल  जाती है और अंत में जिससे वन्य  जीवों और पक्षियों का अधिवास ख़त्म होता है। आत्मकुर के वन्यजीव डीएफओ एलन चोंग के मुताबिक द ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के आंध्र प्रदेश  से गायब हो जाने की संभावना है,आंध्र प्रदेश में एक ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को अंतिम बार कुरनूल जिले में लगभग 10 वर्ग किमी के एक छोटे से पैच रोलापाडु वन्यजीव अभयारण्य के बाहर देखा गया था। पिछले तीन वर्षों में, रोलापाडु और उसके आसपास इंडियन बस्टर्ड को एक दो बार देखा गया है। और इस साल यानी 2022 में इस पक्षी को एक बार भी नहीं देखा गया है।  2021 की  IUCN की रिपोर्ट के अनुसार इंडियन बस्टर्ड की आबादी पिछले कई वर्षों से घट रही है। वर्तमान में, इस प्रजाति की आबादी 50 से 249 के बीच है। जबकि कर्नाटक के सिरुगुप्पा के रेंज वन अधिकारी एन. मंजूनाथ के अनुसार, इस साल 15 मार्च को आखिरी बार ग्रेट इंडियन बस्टर्ड देखा गया था।

 

 

केंद्र सरकार द्वारा 14 वें (सीओपी) सम्मेलन  के दौरान संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन को प्रस्तुत किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि भारत ने एक दशक में  31 प्रतिशत, या 5.65 मिलियन हेक्टेयर घास के मैदान खो दिया, जिसका असर ग्रेट इंडियन बस्टर्ड जैसे पक्षियों के दक्कन से गायब होने और गुजरात, राजस्थान में भी कम होते जाने के रूप में हुआ है। आंध्र  प्रदेश में ही 90  में 30-40 ग्रेट इंडियन बस्टर्ड हुआ करते थे अब शायद इक्का -दुक्का रह गए हैं और जिसकी वजह हैबिटैट लॉस है।  वाइल्ड लाइफ हिस्ट्री ऑफ इंडिया के थार मरुभूमि पर आधारित आंकड़ों के मुताबिक पावर लाईन से हर साल देश में लगभग 1 लाख 18 हजार तक पक्षी मरते हैं।

 

भारत में विंडमिल्स पावर लाइनों के साथ ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के टकराव के साक्ष्य हैं भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा  किए गए सर्वेक्षण में  थार में,एक वर्ष में 7 बार दोहराई गई  80 किमी पावर लाईन्स के दायरे में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड समेत पक्षियों की लगभग 30 प्रजातियों के 289 शव मिले अध्ययन में 8 शव/ 10 किमी उच्च तनाव और 6 शव / 10 किमी निम्न तनाव पावर लाइन्स के पास मिली। और सर्वेक्षण से पहले विघटित हो जाने वाले शवों का मृत्यु दर अनुपात

अनुमानतः 5 पक्षी/ किलोमीटर /माह और 1 लाख पक्षी प्रति वर्ष 4200 वर्ग किमी क्षेत्र के भीतर है।

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड  के संदर्भ में, 4 मृत्यु दर दर्ज की गई (2 सर्वेक्षण के दौरान और 2 सर्वेक्षण से इतर) सब उच्च तनाव संचरण लाइनों के कारण – कुछ उनमें से पवन टर्बाइनों से जुड़े हैं। 150 किमी हाई टेंशन लाइन द्वारा प्रतिच्छेदित बस्टर्ड अधिआवास में  लगभग 18 ग्रेट इंडियन बस्टर्ड

के प्रति वर्ष मरने की संभावना होती है थार में लगभग 128 ± 19 व्यष्टि। यह उच्च मृत्यु दर (कम से कम 15% सालाना अकेले बिजली लाइनों के कारण) इस प्रजाति के अस्तित्त्व के लिए खतरनाक है।

भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) ने पांच ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को पायलट आधार पर टैग किया था, जिनमें दो की मौत बिजली लाइन से टकरा कर हो गई, एक ग्रेट इंडियन बस्टर्ड की मौत नलिया और अब्दासा तहसील के बीच पश्चिमी तटीय घास के मैदान में सुजलॉन के टरबाइन से जुड़े 33kv पावर-लाइन से टकराने से हुई थी। बस्टर्ड अपने अधिवास में लंबे समय तक जीवित रहने वाले पक्षी हैं लेकिन बिजली लाइनों के कारण अत्यधिक मृत्यु दर उनकी आबादी को अस्थिर और यहां तक ​​कि विलुप्त कर सकती है।

यूके के एक्सेटर विश्वविद्यालय के पीएच.डी.शोधकर्ता सिद्धार्थ दाभी जो कच्छ में विंडमिल्स का पर्यावरण और आजीविका पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं, जो अगले सात -आठ महीने में पूरा होगा। सिद्धार्थ कहते हैं, कच्छ  एक शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्र है, कच्छ गुजरात के कुल शुष्क क्षेत्रफल का 73%  है। कच्छ जिले में मिट्टी की गुणवत्ता बहुत खराब है और 51% क्षेत्र खारे रेगिस्तान से आच्छादित है लेकिन शुष्क क्षेत्र होने के बावजूद; कच्छ जैव विविधता की एक विस्तृत श्रृंखला के साथ संपन्न है जैसे रेगिस्तान, आर्द्रभूमि, ऊपरी भूमि, मिट्टी के फ्लैट, झाड़ियां, घास के मैदान, दलदली वनस्पति, खारे किनारे, खारे घास के मैदान, आदि जो वनस्पतियों और जीवों की एक विस्तृत विविधता का घर हैं। अपनी शुष्कता के कारण, कच्छ में बबूल सेनेगल, बबूल नीलोटिका, बबूल ल्यूकोफोलिया, ज़िज़ीफस एसपी, सल्वाडोरा एसपी, यूफोरबिया एसपी, बालनाइट्स एसपी, आदि जैसे झाड़ीदार वनस्पतियों के साथ घास के मैदानों से आच्छादित एक विशाल क्षेत्र है।  झाड़ीदार वनस्पति वाले ये घास के मैदान कच्छ के लोगों के लिए आजीविका के मुख्य स्रोत के रूप में पशुचारण और पशुधन के तौर पर  बहुत महत्वपूर्ण रहे हैं। इसके अलावा इन घास के मैदानों में स्तनधारियों और एविफ़ुना की एक विस्तृत श्रृंखला भी है; जिनमें से कई अब खतरे में हैं।

बन्नी सिद्धार्थ कहते हैं एक विंडमिल लगाने  में एक से डेढ़ हेक्टेयर  जमीन लगता है और कहीं भी एक विंड मिल नहीं लगाया जाता एक साथ कम कम 30 से 50 विंडमिल लगते हैं तो इससे जमीन खपत का अंदाजा लगाया जा सकता है साथ ही इस जमीन पर उगी वनस्पति और जीवों पर इसके असर का भी।  हैं पूरा तटीय कच्छ मिल्स विंडमिल्स से भरा हुआ है अब्रासा से लेकर सूजरबारी रिवर क्रीक तक और कच्छ का सेंट्रल रिज भी पाकिस्तान के नज़दीक तक, 30 से ज्यादा कम्पनियाँ विंडमिल्स लगा  रही हैं आप समझ  सकते हैं इसमें कितनी जमीन का इस्तेमाल होगा और किस स्तर तक ट्रांसमीशन लाइन बिछेगा।  जबकि कच्छ में पशुओं की संख्या मनुष्य से तीन गुना ज्यादा है भेड़ -बकरियां गाय और भैस, और वन्य जीवों की संख्या इससे अलग है। पालतू पशु कच्छ के लोगों की आजीविका का आधार हैं, सवाल है इन पशुओं के चरागाह तो विंडमिल्स के कारण बरबाद हो जाएगा  ही लोगों  आजीविका भी। सरकार इसे वेस्ट लैंड कह रही  जबकि कच्छ दुनिया में अपनी तरह का अकेला इकोसिस्टम है, जहाँ के कटीले जंगलों कई दशक में तैयार हुए हैं और रण में  उगी एक घास का भी बहुत ज्यादा पर्यावरणीय महत्त्व है और भारत सरकार के मुताबिक कच्छ के कंटीले वृक्षों वाले वन देश के आखिरी ऐसे बचे हुए वन हैं।

बन्नी सिद्धार्थ

 

इसके अलावा  बन्नी सिद्धार्थ एक महत्वपूर्ण बात ये भी बताते हैं कि  कच्छ और राजस्थान भारत में प्रवासी पक्षियों का प्रवेश बिंदु हैं लेकिन एंट्री पर ही विंडमिल्स इनका प्रवेश रोक सकती है। वो ये भी कहते हैं अपने शोध के पूरा होने पर वह निश्चित आंकड़ें बता पाएंगे लेकिन ये प्रभाव तुरन्त नज़र आनेवाले में से बेशक नहीं हैं, लम्बी अवधि में इसके दुष्प्रभाव स्पष्ट होंगे, इसलिए ऐसे शोध और अध्ययन की बहुत जरूरत है जो कि हो नही रहा।

 

हमने एस रितेश पोकर से भी बात की, रितेश पिछले आठ साल से सहजीवन संगठन से जुड़े हैं और इसके मार्फ़त मालदारियों, चरवाहों उनकी आजीविका, उनके कामकाज और ग्रासलैंड पर काम करते हैं। सहजीवन ने सेंटर फॉर पस्चरलिज्म शुरू किया है।  सहजीवन  प्रत्यक्ष रूप से विंडमिल्स पर काम नहीं करता लेकिन ग्रासलैंड पर काम करने के कारण इन्हें जहां विंडमिल्स लगे वहां के लोगों की  शिकायतें मालूम चलती है।  खेती के इलाकों और गांव के पास विंडमिल्स स्थापना के कारण लोगों को  तरह की परेशानी है। कच्छ के बन्नी ग्रासलैंड में सहजीवन ने बननी ब्रीडर असोसिएशन के साथ मिलकर एक रिसर्च सेंटर स्थापित किया है, रितेश पोकर इस स्टेशन को निर्देशित करते हैं।  रितेश सांगनारा गांव के बारे  बताते हैं कि शुरू में यहाँ 2 विंडमिल सरपंच  मंजूरी  लगवाई थी, उससे कोई  समस्या नहीं हुई लोगों को लेकिन अब वहां 100 टर्बाइन लगने वाले हैं।  गांववालों ने इसका विरोध किया  खिलाफ एनजीटी में गए क्योंकि इनके कारण उनके गांव  के साथ  जंगल ख़त्म  जाएगा, एक टरबाइन  लगने का मतलब 2 किलोमीटर जमीन का जंगल साफ़  हो जाना जबकि कटीले वृक्षों और झाड़ियों का यह  जंगल दशकों में तैयार हुआ है। इससे प्राकृतिक वाटर चैनल भी डिस्टर्ब होगा। लोग हमारे पास और भी शिकायत लेकर आ रहे हैं जैसे जिन जीव  वनस्पतियों  विलुप्त  खतरा है उनकी चिंता इसमें कुछ औषधीय पेड़ हैं जैसे गूगल जिससे दवाइयां और परफ्यूम  तैयार होता है, यह चिंकारा समेत कई विलुप्तप्राय वन्यजीवों का भी अधिवास है। मामले की  गंभीरता से इससे भी समझी जा सकती है कि गांववाले अलग-अलग  संगठनों के साथ मिलकर इसे बचाने की  रहे हैं।  एक सबसे बड़ा खतरा मोरों के बिजली के तारों से टकरा कर मरना है जिनके मरने की  संख्या  लगातार बढ़ती जा रही  है। इसकी तस्दीक तुषार पाटिल  जो डीसीएफ पच्छिमी कच्छ हैं की बात से होती है वो कहते हैं, पिछले तीन साल में  पवन चक्की से सम्बद्ध बिजली ट्रांसमीशन लाइन, टकराने और बिजली झटका लगने से 60 मोरों  हुई है जिसके कारण  यहाँ के आहार शृंखला और खेती प्रभावित हुई है।  मोर खेत के कीड़ों मकोड़ों समेत चूहों को भी खाते हैं इनकी घटती संख्या  कारन खेती में कीड़ें और चूहों  होनेवाला नुकसान बढ़ गया है।  इसके आलावा टर्बाइनों  आवाज और पंखों के आरपीएम के कारण मधुमक्खी यहाँ आती नहीं है या टकरा कर मर जाती हैं। इससे प्राकृतिक परागण प्रभावित हो रहा है  किसानों को बाहर से मधुमखियों  लाकर खेतों और पेड़ों पर छोड़ना पड़ताहै  है।

एस रितेश पोकर

 

डॉ पंकज जोशी भी सहजीवन के साथ जुड़े हैं जो प्लांट साइंस में पीएचडी और इकोलॉजिस्ट हैं और कच्छ, भुज में लम्बे समय से काम  कर रहे हैं। पंकज जोशी प्रत्यक्ष  विन्डविल्स से जुड़े नहीं है लेकिन वनस्पति और जैव विविधता के जिस लोकेशन में वो काम करते हैं वो अन्ततः विंडमिल्स से जुड़ जाता है। डॉ पंकज जोशी  कच्छ के इलाके में खासतौर पर ट्रॉपिकल थ्रोन फारेस्ट के अनोखेपन का जिक्र करते हैं, जो एक भी विंडमिल की स्थापना से प्रभावित होता है क्योंकि सिर्फ जंगल साफ़ करने की बात नहीं है ट्रांसमीशन लाइन, हेवी  गाड़ियों का आना आना और अन्य मानवीय गतिविधिया बढ़ जाती हैं जिससे आहार -शृंखला प्रभावित होती है और जिसका असर अंततः हैबिटैट के  सभी जीव  और वनस्पतियों पर पड़ता है फिर वन्य जीव उस अधिवास से चला जाता है। यहाँ करैकल, भेड़िया, हाइना चीता, पोक्सी चिंकारा मिलते हैं और 150 से ज्यादा प्रवासी पक्षी आते हैं, वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया देहरादून ने विंडमिल्स के संदर्भ में विस्तार से लिखा है,वो कहते हैं हजारों  की संख्या में यहाँ आनेवाले प्रवासी डेमोइसेल क्रेन या  कुरजां के प्रवास बदलाव आ रहा है, ऐसे इलाकों में वो फीडिंग के लिए आ ही नहीं रहे हैं। ग्रासलैंड में बदलाव करने से आखिर यहाँ ग्रेट इंडियन बस्टर्ड हमेशा के लिए चले ही गए। डॉ पंकज जोशी अपनी बात ये कहकर ख़त्म करते हैं सीधे -गोली बन्दूक से ही किसी को नहीं मारा जाता आप किसी का घर तोड़ दें वो खुद  चला जाएगा या ख़त्म हो जायेगा। नाजुक विविधता के तमाम क्षेत्रों में छोटा सा बदलाव भी दूरगामी असर डालता है यहाँ तो बात बड़े बड़े विंड टरबाइन, हाई वोल्टेज ट्रांसमिशन लाइन, भारी उपकरणों  की है, इन सबका असर आनेवाले सालों में स्पष्ट हो जायेगा।

 

 

भविष्य   

 

बहरहाल, दूसरी ओर, बीते साल नवंबर में संपन्न हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में, भारत पर 2050 तक ग्रीनहाउस गैसउत्सर्जन कुल शून्य पर लाने के लिए प्रतिबद्ध होने का काफी दबाव रहा है। उल्लेखनीय है कि एक अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की रिपोर्ट में कहा गया है “सफल वैश्विक स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण के सभी रास्ते भारत से होकर जाते हैं,और ” “भारत का परिवर्तन वैश्विक परिवर्तन है।”

 

इस सन्दर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवंबर में स्कॉटलैंड के ग्लासगो में आयोजित 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (कॉप 26) में बहुत उल्लेखनीय घोषणा भी की जिसे “पंचामृत” कहा गया-

 

*2030 तक गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को  500 गीगावाट (GW) तक किया जायेगा।

*2030 तक भारत अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के  50 प्रतिशत की पूर्ति अक्षय ऊर्जा से करेगा।

* 2030 तक भारत अपने कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन की कमी करेगा

*2030 तक, भारत अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता को 45 प्रतिशत से भी कम कर देगा

*और  साल 2070 तक भारत, कार्बन उत्सर्जन में नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करेगा।

 

लेकिन पुनः पिछले दिनों इसमें भारत के द्वारा बदलाव किया गया है, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भारत क्या करेगा इस सन्दर्भ में भारत ने 2015 की वैश्विक स्तर की अपनी पांच प्रतिबद्धताओं में से दो को अद्यतन किया है जिसमें पहला यह है कि 2005 के स्तर की तुलना में 2030 तक भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 45% तक कम करेगा जबकि 2015 में  33-35% तक उत्सर्जन में  कमी करने की प्रतिबद्धता थी।  दूसरा बदलाव  2030 तक अपनी बिजली का लगभग 50% गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से प्राप्त करना है। 2015 का लक्ष्य 40% था। दूसरी प्रतिबद्धता के साथ ये भी स्पष्ट किया गया है कि इस लक्ष्य को  “प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण और ग्रीन क्लाइमेट फंड सहित कम लागत वाले अंतरराष्ट्रीय वित्त की मदद से” हासिल किया जाएगा।

यहां प्रसंगवश इस बात का जिक्र जरूरी है कि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी केवल पांच प्रतिशत है जबकि विश्व की आबादी का 17 प्रतिशत भारत में रहता है। जाहिर है भारत की ओर से किये गए ये वायदे पर्यावरण और लगातार स्वच्छ और हरित ऊर्जा के लक्ष्यों की ओर बढ़ने के प्रति एक गंभीर और सुचिंतित पहल है।  इस क्रम में  पवन ऊर्जा या विंड एनर्जी भी एक महत्वपूर्ण पक्ष है जो भारत में लागातर स्वच्छ और हरित ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण विकल्प रहा है।  भारत में साल  2022 तक पवन ऊर्जा की संभावित क्षमता  60,000  मेगावाट है और इसके लिए सात राज्यों को अनुकूल पाया गया है।  भारत सरकार  के नवीन और नवीनीकरण ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार, पवन ऊर्जा कुल स्थापित क्षमता के सन्दर्भ में भारत दुनिया में चौथे स्थान पर आता है , वर्तमान में 39.25 GW (31 मार्च 2021 तक) की कुल स्थापित क्षमता के साथ साल 2020-21 के  दौरान पवन ऊर्जा से देश में लगभग 60.149 बिलियन यूनिट का उत्पादन किया गया। जहां आंध्र प्रदेश की कुल क्षमता 44228.60 एम डब्लू  है  जिसमें संस्थापित क्षमता फिलहाल 4096 . 65 एम डब्ल्यू है।

गौरतलब है कि भारत ने 2015 में, अपनी अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन प्रतिबद्धताओं के तहत,  2030 तक अपने  उत्सर्जन तीव्रता में 45% की कटौती करने का वादा किया है और अपनी ऊर्जा का 50% लगभग 350,000 मेगावाट संस्थापित क्षमता से प्राप्त करने का लक्ष्य रखा है।भारत अब इसी  वर्ष नवम्बर में आयोजित होने वाले अगले वैश्विक जलवायु शिखर सम्मेलन, COP27 से पहले अपना अद्यतन नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन  (NDC) संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) में प्रस्तुत करेगा।

भारत सरकार ने लगभग 54,000 मेगावाट के संस्थापित कुल पवन पार्क या पवन-सौर हाइब्रिड पार्क विकसित करने के लिए लगभग 10,800 वर्ग किलोमीटर भूमि की पहचान की है। लेकिन ऐसे पार्कों के लिए प्रस्तावित नीति पर्यावरण, भूमि और समुदायों से संबंधित चिंताओं के बारे में काफी हद तक चुप है लेकिन धीरे धीरे ये सभी सवाल इन परियोजनाओं के केंद्र में आएंगे और अरबों की परियोजनाओं समेत जीरो कार्बन उत्सर्जन प्रतिबद्धता को भी प्रभावित करेंगे ही। बेशक इसका हल  हरित ऊर्जा के नाम पर हरियाली के सवाल को दबाना नहीं बल्कि गांव के आम किसानों से बात करना है जैसे खुद हमें अनंतपुर में कागज पर सब ठीक नज़र आता रहा जब तक हमने गांव गांव जाकर उन किसानों और उनके परिवारों से बात नहीं की जहां या जिनकी जमीनों पर विंड टर्बाइन्स हैं। और जाहिर है उनकी परेशानी और उनके सवाल आने वाले दिनों में हरित ऊर्जा, पवन ऊर्जा के बड़े सवालों में से हैं जिनको हल किये बगैर आगे बढ़ना भारत सरकार के 2070 तक के जीरो कार्बन उत्सर्जन प्रतिबद्धता के लक्ष्य की ओर बढ़ते कदम को पीछे करेगा।

 

 

(यह स्टोरी इन्टरन्यूज के अर्थ जर्नलिज़म नेटवर्क के सहयोग से की गयी है।)

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