छाया कोरेगाँवकर की कविताएं

कविता- छाया कोरेगाँवकर
अनुवाद- हेमलता महिश्वर

 

‘वह’ मुक्त ‘वह’ मुख़्तार –
‘वह’ सावित्री सत्यवान की,
साक्षात यम का आह्वान करनेवाली;

‘वह’ सावित्री ज्योतिबा की,
स्त्रियों के अस्तित्व को
अस्मिता की धुरी देनेवाली;

‘वह’ अभिमन्यु
गर्भ में ही युद्ध की
नाल समेट लेनेवाली;

उसके स्वातंत्र्य की बकवास
करनेवाले लड़वैयों को ही
स्वतंत्र होना होगा
‘पुरुष’ नामक
अनाम नशे से।

2.

कितना अच्छा हुआ
तू ज्योतिबा हुआ
इस सावित्री का
रटा-घोटा दिए धूलाक्षर
अंगुलियों के आदी हो जाने तक;
चुस्त कर दी पीठ पर धुरी
उसके पारंपरिक कुबड़ पर
स्नेहिल हाथ फिराकर;
साक्षरता का प्रमाणपत्र देते हुए
कितनी स्वाभाविकता से कहा,
“कुमकुम का कोई सत नहीं होता
गोदना ही मात्र तेरा है
चिता तक तो मैं साथ हूँ तेरे
मरना तुझ अकेले को ही होता है।”

3.

बचकाने दॉंव अधूरे ही रह गए
सो रानी अब रोती नहीं।
लगाती है पुनः नया दॉंव।
भगा देती है शिकारी कुत्ते
सिंदूर की आड़ से।
सिंदूर के सुरक्षित परकोटे में
रानी घुमती रहती है
नाच री घूमां!

अब रानी का दम घुटता है
रानी पोंछती है पुरानी पट्टी
उकेरती है नए सिरे से
स सावित्री का
स समता का
स स्वतंत्रता का
स सम्मान का
स संविधान का

राजा सावधान!
उसका प्रेम सघनतर होने लगा
और ताज के बदले
रानी पुनः शरणागत!

घूमां’ एक लोक नृत्य है जिसमें स्त्रियाँ घूम-घूमकर नाचती हैं।

4.

उसने कहा,
मैं तुम्हें हाथ दूँ
उसके पहले निकाल दो अपनी
कलाई से टचकी चूड़ियाँ;
हरी चूड़ियों की सनातन छनछन
मिटाए बग़ैर
मैं तुम्हें सुना न सकूँगा
शुद्ध मानवता के गीत.
मुक्त होने दो
सती-सावित्री के चमकदार रेशमी मिथकों में लिपटा
तुम्हारा आदिम स्त्रीत्व…
होने दो जाज्वल्यमान अपने भीतर
संस्कृति की कालिख से ढँका दीया …
और प्रकाशित होने दो उस उज्ज्वल प्रकाश में
तुम्हारे मेरे रिश्ते से परे जानेवाली
मानवता की पगडंडी

5.

शरीर के किस बिंदु से
आरंभ होता है स्त्री का स्त्रीत्व?
ठीक कौन-से ग्रंथ में समाया है
विशुद्ध वात्सल्य के विराट प्रवाह में …

कैसे कलंकित की जाती है उसकी समूची मानवता
यौन शुचिता के कागछुअन से

इतना घटिया फिर भी चीवट
स्त्रीत्व का मान बिंदु
किसने चिपकाया उसके मासूम मस्तक पर?

तब फिर रोपना तो पड़ेगा ही
स्त्रीत्व निरोधक रसायन
जन्मते ही आकार लेनेवाली
गर्भाशय में उसकी नन्हीं को!

6.

क्यों बढ़ा रही हूँ गुंथन मैं
तेरे- मेरे अंतस का?
और पूर रही हूँ अंगांग में
युगोंयुग की थकन
तुझमें बिला गई ‘मैं’ की करते तलाश

संभोग के अटल विराम के पश्चात्
पोछी जाती है त्वचा से
गहरे स्पर्श की महक पूर्णता के साथ

मेरी स्पर्शोत्सुक देह अब
देखती है होकर मुक्त
सीमित पारम्परिक बंधनों से-
उकेरकर देखती है स्वनिर्मित
ज़मीन के फलक पर
लिंगभेद के बरक्स नई बारहखड़ी

 

7.

एकांत की दीवार में चिनकर स्वयं को
मैं देखती हूँ रहस्य
मेरे भीतर की आदिम स्त्री का

छुड़ाती हूँ
‘उस’की जटिल गुँथन सनातन;

वृक्ष की जड़ पसरती है जैसे
शिलाखंड फोड़ती नमी की दिशा में
वैसी ही ‘उस’ की यात्रा
रिश्तों से रिश्तों की ओर

बढ़ती उम्र के साथ संपृक्त जीवन की
कोठरियाँ अनजाने खुलती चली जाती हैं
मॉं-बहन-प्रेमिका-सखी नामक
‘उस’ की सर्जक अंगुलियों की अथक यात्रा
तृषार्त,
एक सघन संवेद्य स्पर्श के लिए।

8.

पिंजरे के भीतर लगाया है वृक्ष
इसलिए दिया नहीं जा सकता
वचन, कली की सुरक्षा का
नोंच ली जाती हैं कलियाँ
गर्भ के गर्भ में ही अंकुरित होने के पूर्व
यहॉं तो खैरलांजी हत्याकांड से
निर्मित की जाती है दहशत
स्त्री के अवध्य गर्भागार में ही
विज्ञान-युग में कली खिलने हेतु
सुरक्षा-कवच का
होगा ही आविष्कार, ऐसा भी नहीं;
कदाचित तथागत को भी
आँखें खोलकर तलाश करना होगा
नगर-नगर में
बची-खुची ईसा गौतमी का …
अब सावित्री की बेटियों को
समयपूर्व ही होना होगा होशियार
धुलाक्षर उकेरने के पहले ही
हाथों में शस्त्र होने चाहिए
स्त्री के सतत् अस्तित्व के लिए

9.

बदलते नहीं उल्लेख वर्ष वर्षों तक
डायरी के हों या
जीवन के पन्ने

शिशु की स्मृति मात्र से उमड़ उठते
मॉं के वात्सल्य कुंभ
वैसी ही बेचैनी लगती है शब्दों को
डायरी के पन्नों में बह जाने की

तेरी चुप्पी के
काले कठोर पहाड़ को भेदते
क्षीण होती है
संपूर्ण स्त्रीत्व की मात्रा

तेरा बर्फीला अस्तित्व
हिमखंडी आत्म पर
लेता है ओढ़
शब्दों की आश्वस्त रजाई

एक ही छत के नीचे रहकर
आँच तक न लगी तुम्हें
घर में अखंड जलते
अग्निकुण्ड की;

मैं सहजता के साथ
घर के दरवाज़े की तरह
ओंठ भी बंद कर लेती हूँ
देहरी तेरे घर की जो आई हूँ
लांघकर

10

एक-दूसरे के कदमों से
क़दम मिलाकर
संग-साथ चलते हुए भी
राह विभाजित हो गई
एक अटल मोड़ में

श्वासोच्छ्वास मिलाकर
जीने के अद्वैत का
कोहरा विलीन हुआ
समांतर हुए हम एकमेक से

वैसे अब
रह भी नहीं गए छोटे
संसार नामक
बचकाने खेल में रमने लायक

सिंदूर पुँछ जाने पर भी
हरा ही रहता है गोदना
ऐसे ही, सारे रिश्तों के
विलीन हो जाने पर भी
तेरे मेरे में बची हुई
‘मैत्री’ बहुत है मेरे लिए
मंज़िल तक
पहुँचने को

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ISSN 2394-093X
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