मेरे भीतर की स्‍त्री

मेरे भीतर की स्‍त्री

मेरे भीतर का संसार , हमारी अंदरूनी दुनियां का हाहाकार , सालों से दबायी  आवाजों का हलाहल और अनकहे शब्‍दों का भयावह कोलाहल जैसे खुद से अनवरत लड़ाई चल रही हो जिसमें एक तरफ थी मैं और दूसरी तरफ मेरे अपने यानी पितृसत्‍तानुमा प्रतिपक्ष के बेतुके सवाल , तर्को वनाम कुतर्को के बीच एकपक्षीय हमले और उनमें उलझती प्रतिकार करती स्‍त्री को बाहर निकलने का कोई रास्‍ता ही नही सूझता था । जब समूची पितृसत्‍ता की पारिवारिक संरचना द्वारा प्रदत्‍त अमोघ हथियारों से निहत्‍थी स्‍त्री बेधी जाए और आर्थिक मोर्चे पर असहाय स्‍त्री पितृसत्‍ता के वर्चस्‍व तले दोयम दर्जे की साबित कर दी जाए , ऐसे एकपक्षीय माहौल में स्‍त्री अपने भीतर के स्‍पेस को लगातार सुदीर्घ करती जाती है । पितृसत्‍ता द्वारा चली साजिशों और उसे धर्म , परंपराओं की परिपाटी में जबरन बांधने के ऐसे बेतुके हथकंडों से उसे घेरने की चालें चली जाएं कि वह देखते ही देखते मूक असहाय सी बेपनाह सन्‍नाटों में खुद को घिरा पाती है जिसके चारों तरफ दीवारें ही दीवारें हों और वह एक ऐसे अलक्षित कटघरे में कैद कर दी गयी हो जिसे उसके सिवाए कोई और नजर ही न आए तब बेबस औरत चुप रहने के सिवाए करे तो क्‍या करे  ।

ऐसी शाब्दिक या मानसिक हिंसा के सैकड़ों सवाल उसके कंठ तक आते हैं मगर जिसे गरल समझ अंदर ही अंदर गुटकने के लिए मजबूर है वह । आखिर किस मुंह से वह अपनी उस वेदना , उस घुटन को शब्‍द दे जिसके बोलने भर से पितृसत्‍ता की चूलें हिल जाएं । धीरे धीरे वह अपने भीतर रचती जाती है एकांत का विशाल आकाश , जहां मंडराते हैं चुप्प्‍िायों के धूसर धूमिल बादल , जहां कभी कभार नजर आते हैं क्षणिक इंद्रधनुषी रंगों का सौंदर्य । उस सपाट सूने आसमान में पूरी निधड़ता से दौड़ती हांफती वह अपने एकांत में रचती रहती अपने अधूरे सपनों को । उधेड़ते बुनते सपनों के उसके संसार में भूले भटके भी सेंध नही मार सकता कोई । यूं ही सालों से बूंद बूंद भरते हैं दुख के बादल जो अनायास उमड़ते घुमड़़ते शेार मचाते हुए अंततोगत्‍वा वेग से फट पड़ते हैं और ऐसे ही तबाही मच जाती है समूची पारिवारिक समाज व्‍यवस्‍था की चूलें हिल जाती हैं , दरक जाती है सहन करने वाली धरती और टूट जाते हैं पहाड़ । चारों तरफ प्रलय के प्रचंड तांडव देखकर बाकी औरतें डरी सहमी चुप रहने में ही अपनी भलाई समझने लगतीं । आखिर कौन इतना बवंडर झेल पाएगा । इतना दबाव , ऐसी तबाही जिसके खौफ से वे बौखला जाती हैं और पहन लेती हैं चुप्‍पी का ताला । बूंद बूंद इकट्ठा आंसू बादल बनकर छलक पड़ते हैं धरा पर , अपने ही असहनीय बोझ से आक्रांत बादल अक्‍सर बरसकर दिलों को राहत पहुंचाने में लगे रहते ।

अपने भीतर की स्‍त्री केा टटोलने बैठूं तो बचपन के कुछ वाकये हू ब हू स्‍मृति में टंके रहते – इसे कोएड में मत पढ़ाना । वहां के लड़के कमेंट करते हैं जिसे मैं बर्दाशत नही कर सकता । ‘ भाई की हां में हां मिलाते चाचाजी कहने लगते – हां, बस इतना पढ़ा दो जिससे अच्‍छा लड़का मिल जाए। मन मारकर चुप साथ लेती मगर डॉक्‍टर बनने का सपना चकनाचूर हो गया। हालात बद से बदतर होते गए कि अचानक एक अंधेरी काली रात पिताजी की निर्मम हत्‍या कर दी गयी और आधी रात को मां पिता को लेकर चिरगांव आई ताकि किसी अच्‍छे डॉक्‍टर से इलाज हो सके मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। एक किशोर बच्‍ची के हाथ खाली, दिमाग शून्‍य और परिस्थितियां इतनी प्रतिकूल कि वह अपने पांव तले की जमीन ही बचा ले, यही बहुत था यानी किसी तरह बीए एमए कर ले, यही बहुत बड़ी बात थी। वह नया आकाश रचना चाहती थी मगर कैसे ?

 

मां सब बच्‍चों संग गांव छोड़कर कस्‍बे चिरगांव में रहने आ गयीं जहां रहकर भाई डॉक्‍टरी पढ़ने इलाहाबाद निकल गए और अपने अधूरे सपनों संग मैं वहीं रह गयी । वह लडकी अपने सपनों को नया मोड़ देकर कुछ लीक से हटकर ऐसी दुनियां रच डालना चाहती है जो अलहदा हो पर कैसे, नही पता। 16 , नही समझ पाती । साल की लड़की की सोच तो साफ है कि उसे खूब पढ़कर उड़ान भरने लायक ताकत संजोनी है और वह तभी होगा जब वह बीए एमए प्रथम श्रेणी में पास करे । सपने

हम जैसा सोचते है या जैसी योजनाएं बनाते हैं , कुदरत उन्‍हें जस का तस कहां रहने देता ? सच तो ये है कि जीवन किसी के हांके कभी नही चलता । डकैती के दौरान पिताजी की निर्मम हत्‍या ने समूचे परिवार को तहस नहस कर दिया और अंतरतम के नाजुक तंतु क्षत विक्षत हो गए। पिताजी की यादों का रेला उमड़कर आता और फिर देर तक छत पर अकेले बैठे बैठे काले बादलों के बीच पिताजी को तलाशा करती , उम्र लगभग 13 साल । पिता की तस्‍वीर के साथ संवाद करती वो लड़की। कैसी तो विकलता थी जो छूटती ही नही थी। कैसे विकट हालात थे कि एक हाथ में पिताजी की तस्‍वीरें तो दूसरे में किताबें जिनके जरिए अपने सपने रोपकर मुकम्‍मल फसल तैयार जो करनी थी।

10 वीं बोर्ड के पेपर्स ऐसे ही दे दिए , न वैसा जोश , न वैसी मुकम्‍मल तैयारी मगर नतीजा देखकर भैया को ताज्‍जुब हुआ। एडमिट कार्ड से रोलनंबर देखकर ही वे मेरे प्रथम श्रेणी से पास होने पर यकीन कर पाए मगर इस नतीजे ने मुझे इतना आत्‍मविश्‍वास जरूर दिया कि जब ऐसे चलताऊ ढंग से पढ़ने से फर्स्‍ट आ सकती है सो अब कायदे से पढ़ेंगे और जिंदगी को नया आयाम देंगे मगर अफसोस कि हमारे चिरगांव में तब गर्ल्‍स इंटर कॉलेज था नही सो आगे की पढ़ाई व्‍यक्तिगत छात्रा के रूप में ही करनी पड़ी 1 एक ग्रन्थि खुलती तो ऐन मौके पर दूसरी तैयार हो जाती। अपनी रचनात्‍मक यात्रा की शुरूआती बीज तो 10 वीं के बाद शुरू हो गए थे जब भाई संग हमने एक साथ दैनिक जागरण झांसी के अखबार के बालमंडल पेज पर चंद तुकांत देशभक्त्‍ि! पूर्ण कविताएं लिख भेजी जो छपी तो लिखकर छपने की ललक भी बढी और हौसला भी।

कुछ लोगों ने मेरे घर पर शिकायत कर डाली कि भले घर की लड़कियों का नाम अखबार में नही आना चाहिए एवं उनकी शादी करवा देनी चाहिए। तब शादी के प्रसंग पर मुझे स्‍टैंड लेना पड़ा- जब तक अपने पैरों खड़ी न हो जाऊं, शादी नही करवाएंगे, चाहे जो हो जाए। संयोग सुंदर बन गया कि मेरी सहपाठी कविता ने एक अखबार की कतरन दिखाई और इस तरह शुरू हो गया मेरा जेएनयू जाने का सिलसिला। सचमुच , ये मेरे जीवन के सुंदरतम पल है , खूब संजाकर रखने लायक जहां जीने का भरपूर आजादी थी , मनचाहा कुछ भी करने की या अपनी मर्जी से जीने का अनूठा सुख , दोस्‍तों संग झेलम लॉन में चलती गप्‍पें व ठहाकों के असंख्‍य दौर । जीवन रस के अनगिनत रंध्र एक साथ खुल गए हों जैसे और

ठहाकों के असंख्‍य दौर चलते झेलम लॉन में और इतने लोकतांत्रिक परिवेश में जीवन जीने की कला सीखी। वरिष्‍ठ आलोचक मैनेजर पांडेय, कविवर केदारनाथ सिंह एवं प्रोफेसर नामवरसिंह से सीखा, समझा गुना साहित्‍य का क ख ग। जब भी नामवरसिंह जैसे गुरू से कुछ पूछने जाती, वे तत्‍काल कुछ किताबें बता देते- तुम्‍हें नेट का पैसा मिलता है, जाओ और ये सारी किताबें खरीदकर पढ़ो।

पिता से यतकिंचित मिली मुझे संवेदनशीलता , उदारता , सरलता या सहजता मगर व्‍यावहारिकता में चतुर , चालबाज दुनियां से निबटने में कुशल बेहद कर्मठ मेरी खुदमुख्‍तार और जीवटता की धनी मेरी मां को वक्‍त ने खूब बार बार पटखनी दी , ऐसी निर्मम जानलेवा मार दी कि धीरे धीरे उनके भीतर से संवेदनशीलता का क्षरण होता गया। अपने कलेजे के टुकड़े की सड़क दुर्घटना में दारूण मैात के हादसे ने उन्‍हें तोड़कर रख दिया। फिर एक के बाद दूसरे असहनीय हादसों से उनकी संघर्षशीलता , यातनाएं , हताशाएं ओर दुखों से अनवरत लड़ते देख मेरा मन अफसोस से भर जाता मगर फिर भी उन हालातों में उन्‍होंने हमें कभी कोई कमी का अहसास नही होने दिया , मां के सिर पर जिम्‍मेदारियों का बोझ बढ़ता ही जा रहा था , मगर अपने कर्त्‍तव्‍य निर्वहन में कभी पीठ नही दिखाई। धूप भरे आकाश तले तमाम वंचनाओं या अवमानना झेलती रहीं वे मगर अपनी इस अनवरत लड़ाई में कभी हार नही मानतीं वे , न ही कभी दयनीयता का भाव ही उनमें नजर आता मगर इन दुर्भाग्‍यपूर्ण निर्मम वज्रपातों ने उन्‍हें निर्मोही जरूर बना दिया। आज जीवन उन्‍हें निरर्थक -निस्‍सार लगने लगा क्‍योंकि वक्‍त ने पूरी क्रूरता से कई बार जानलेवा मानसिक प्रहार खूब किए हैं उन पर। अनवरत तकलीफें झेलने के बावजूद वे आज भी आस्तिक हैं ,भक्तिभाव से पूरी एकाग्रता से गीता पाठ करतीं , रामायण बांचती और आसपास के मंदिरों में चल रहे प्रवचनों को दत्‍तचित्‍त से सुनती। वे धीरे धीरे निरासक्‍त या निर्मोही जरूर होती जा रहीं , वापस अपनी पुरानी कस्‍बाई दुनियां की तरफ मुड़ जातीं , जहां पुरा – मुहल्‍ले की दर्जनों औरतें उनके पास किसी न किसी सलाह मशवरे के लिए आती जाती रहतीं । शायद उन्‍हीं के बीच वे चैन से रहने लायक ऊर्जा बटोर पातीं हों , मगर हां , कभी भी मेरी उदासी , निराशा या हताशा के क्षणों में वे फोन पर दो पंक्तियां जरूर दुहरा देतीं- ‘ लक्ष्‍य न ओझल होने पाए /कदम मिलाकर चल/ सफलता तेरे कदम चूमेगी /आज नही तो कल।

किताबों से इतर पढने का शौक 10 वीं से ही तेजी से बढने लगा था । उस दौर की नंदन , चंपक , चंदामामा और पराग की रूपहली सुनहरी दुनियां खूब आकृष्‍ट करने लगी। गर्मियों की छुटिटयों में यह पुस्‍तक प्रेम परवान चढता फिर आसानी से यह नशा नही उतरता। कभी जासूसी रहस्‍य भरे उपन्‍यासों की मायावी दुनियां में गोते लगाते हुए अतल समुंदर की गहराइयों में उतर जाती तो कभी बादलों संग आसमान की उंचाई तक पहुंच कल्‍पना लोक की सैर पर ऐसे निकलती फिर लौटकर आने की सुधि बुधि बिसार देती। पुस्‍तक प्रेम का यह सफर क्रमश: सामाजिक राजनैतिक उपन्‍यासों की दुनियां से होकर सामाजिक उपन्‍यासों और फिर नितांत कल्‍पना में रची बसी दुनियां की मायावी सैर भी बेहद लुभावनी लगती। बचपन से उभरता उमडता यह स्‍वत:स्‍फूर्त प्रेम ही धीरे धीरे मुझे साहित्‍य की दुनियां की तरफ खींच लाया।

विश्‍वविद्यालय परिसर में पुस्‍तकालय में बिखरी अनगिनत विषयों पर केन्द्रित सामग्री और ढेर सारी साहित्यिक किताबों को आंखों ही आंखेां में पीती रहती। फिर मंत्रमुग्‍ध तन मन से एकाग्रचित्‍त देखकर मन पुलकित और हाथ किन किताबों को पहले पकडें , बेचैन आंखें किन्‍हें जल्‍द पढकर उस अनूठे पठनीयता के सुख को महसूसें , यह याद नही मगर इतना जरूर याद है कि 1985 से 1990 का वो खूबसूरत दौर बखूबी याद है जब जेएनयू , साहित्‍य अकादमी , श्रीराम सेंटर लाइब्रेरी के साथ दिल्‍ली पब्लिक लाइब्रेरी समेत दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के पुस्‍तकालय की खाक छानती फिरी , कदम दर कदम अपने आप आगे बढते रहे , हाथ अपने आप किताबें बटोर लाते और फिर किसी भी जगह बैठक घंटों एकाग्रचित्‍त् पुस्‍तकों की विशाल दुनियां के सैर पर निकल जाती। बेशक पुस्‍तकों के जरिए मैंने सीखा , जीवन के अंधेरे पक्षों का मुकाबला करने के लिए किस तरह के आत्‍मबल को कैसे संचित किया जाए। महापुरूषों की आत्‍म कथाएं या उनके द्वारा रचित किरदार जिंदा होकर जीने की ताकत बख्‍सने लगे।

पुस्‍तकों में निहित ज्ञान का आलोक अदभुत होता है , ये किताबें ही है जो दुख के गहनतम क्षणों में हमारी उंगली पकड हमें आगे चलने को उत्‍प्रेरित करती हैं।

इधर एमए पूरा होते ही शादी की तखती टांगे घर वाले तो उधर अनायास जेएनयू में शोध हेतु विज्ञापन थमाती मेरी दोस्‍त कविता । फिर क्‍या था , लिखित परीक्षा पास करके भाई मुझे लेकर दिल्ली गये इंटरव्यू दिलाने । न जाने ये कौन सी जिद या कैसा जूनून या बेचैनी पसरी थी कि मेरे सपने मेरा हाथ थामे मुझे दिल्ली ले गए । भीतर धड़कते सपनों के भ्रूण को बस एक मौके की तलाश थी और जेएनयू में एडमीशन के बाद मेरी नयी यात्रा शुरू हुईं जहां प्रतियोगी परीक्षाओं को पास करने का दवाब था तो जेआरएफ पास करना सबसे जरूरी बात ताकि घर से पैसे न मंगवाने पड़ें । आज सालों बाद पीछे मुडकर देखती हूं तो ये कितनी मामूली सी घटना लगती है पर ‘ चिरगांव से नई दिल्‍ली का सफर पहली बार कोई लडकी झांसी से आयी है , नामवर सिंह जी के कहने पर मैं खुशी से बौरा गयी थी ।

क्रमश: मेरे भीतर की दुनियां बड़ी , विशाल व सुदीर्घ होती जा रही थी । जेआरएफ क्‍वालिफाई करते ही मेरा ये अलक्षित सपना खूब तेजी से नजर आने लगा था जहां से नील गगन की ऊंचाइयां मुझे लुभाने लगी थी , जहां से हिमालय के पर्वतों को लांघकर कैसे दुर्गम रास्‍तों पर चल पड़ने के लिए खुद को तैयार कर पाती थी । स्‍त्री के इस अलक्ष्‍िात संसार में सपनों के इतने रंग , इतने विविध रूप आकार लेने लगे थे जो हर पल अपना नया चेहरा दिखाने लगते कि इसे पा लिया है तो अब इसे भी पा लो । उसी चांद तारे से झिलमिलाते आसमान में खिलने लगे थे प्रेम के अंकुर यानी जिजीविषा या जीवंतता से भरी लड़की युवावस्‍था की रंगीनियत में खोयी अपने आसपास के माहौल में जादुई बातों के भंवर में डूबी रहती । तब का झेलम लान हमारे सहपाठियों संग लंबी बहसों का अड्डा था , अंतहीन लंबे तर्क , अस्त्तित्‍ववाद , मार्क्‍सवाद व अन्‍य वादों पर तीखी बहसों ने मेरी दृष्टि को संवर्धित किया । ज्ञान पिपासु मन जिज्ञासु होता गया और इस तरह साहित्‍य की गहन अध्‍येता बनती गयी । यही वह दौर था जब धीरे धीरे जीवन में चांद खूबसूरत लगने लगा था । रातें बेहद मनोरम और दोस्‍तों संग जेएनयू का परिवेश बेहद आकर्षक । वहां की पहाडियां , टीले और वहां के हास्‍टल , लाइब्रेरी आदि का संग साथ मेरे भीतर के खालीपन को संतृप्‍त करता था ।

तब ये जमीन अंतहीन नजर आती बल्कि पूरी दुनियां का ओर छोर ही पकड में नही आता था । दिल्‍ली की सडकें नापते हुए अंदरूनी सपने बडे होने लगे तो मन का समंदर खूब फैन उगलता नित नए सिरे से अपना विस्‍तार तलाशने लगता । इस तरह का जीना , दोस्‍तों संग लंबे सफर पर निकल जाना धरती से आसमान उतार लेना जैसा लगता था  मगर यह सब कब तक चलता ? धीरे धीरे नौकरी और शादी के बाद की रूटीन जिंदगी में कुछ साल गुजारने के बाद वह विशालकाय दुनियां सीमित , संकरी और इकहरी नजर आने लगी । घर के आसपास रहतीं औरतेां में से ज्‍यादातर अपने विघटित सपनों व बुझे मन के साथ समझौतापरस्‍त जीवन जीने के गुर सिखाने लगतीं । वे कभी बच्‍चों का हवाला देकर खुद को समझातीं या परिवार संस्‍था को बचाए बनाए रखने पर जोर देती , फिर चाहे ऐसा करते हुए उन्‍हें खुद के सपनों की तिलांजलि ही क्‍यों न देनी पड़े मगर वे इसकी आदी हो चुकी थीं । उनका मन या तो रिक्त हो चुका था या उजाड़ सो वहां सपनों के घोंसले भला कैसे बनते  ? उनके विचारों , सोच या जीवन शैली में इसके अलावा विकल्‍प जैसा कोई शब्‍द ही नही बचा था । हर रात उनके सपने रौंदे जाते मगर सुबह होते ही वे अपने मन के आकाश पर अपने बनाए निजी कोने में विचरती और उसे सार्वजनिक न होने की ठान लेतीं ।

सोचो तो जरा , इस दुनियां में भला कौन होगा जिसे किसी से कभी प्रेम हुआ ही न हो  ? कैसे नही होगा  ? मगर खुद की आवाज को सालों से जबरन दबाए वे इस अहसास को परे धकेलती और धीरे धीरे इसकी आदी होतीं चलीं जातीं । अंदरूनी एकांत को जीते हुए खुद को जब कभी आइने में निहारतीं जहां उन्‍हें अपनों की याद आती मगर पितृसत्‍ता का खौफ उन पर इस कदर तारी रहता कि वे सपने तक देखना भूल चुकी थीं । अपने सपनों को खोकर उनकी आंखें सूनी नजर आतीं ।

 

आधी दुनिया की औरतें निबड एकांत में किसके साथ करेंगी बातें, किसका हाथ थामे निकल पाएंगी सुदूर दुनिया में अपने सपनों का जीने, न, ऐसी कोई उम्‍मीद नही दिखती फिर वे बच्‍चों की उंगली थाम उनके सपनों में रंग भरने लगतीं। कुछ सालों तक यह सपने जिंदा रहते पर बड़े होते ही बच्‍चे उनके सपने छोड़कर अपने सपनों को जीने लगते, तो वे अकेली पड़ जातीं और अपने पुराने राग अनुराग पर चढ़ी धूल को झाड़ना चाहती मगर बुझे मन से फिर से नेह का दीया नही जल पाता।

मगर बुझे मन से फिर से नेह का दीया नही जल पाता । अफसोस कि तब तक बहुत देर हो चुकी होती है । हममें से ज्‍यादातर औरतें ऐसी भी हैं जो अपने जिद व जुनून को ताक पर रखकर दी गयी जिंदगी जीने की आदी होती जातीं मगर खुद से एकालाप करती स्‍त्री जब तक खुद को किसी कला , संगीत या मन की सपनीली सुनहरी खिडकी से नही जोड लेती जहां वह अपने जीने लायक आसमान को देखकर चांद की एक झलक के लिए बौरा जाए , तब तक जीना बोझ जैसा लगेगा ।

मैं हर रोज अपनी खिडकी खोलकर बाहर का खुला आसमान देखती हूं , सपनेां में हर रोज कोई चिडियां आती है

हर रोज कोई चिडि़यां कानों में आकर मधुर राग घोलते हुए पूरी ताकत से कहना चाहती है, मुट्ठी में भर लो शानदार लम्‍हे, क्‍यों कि यह भी किसी न किसी रोज सिमटने वाली है। ये लम्‍हे कंठ में पुकार लिए वह चिडि़यां फिर किसी और को दस्‍तक देने कहीं और निकल जाएगी। पर मैं अपने सुख दुख को शब्‍द देने के लिए लपककर पकड़ लेती हूं कलम, उतरते हैं शब्‍द दर शब्‍द पन्‍नों पर और रचती जाती हूं एक समानांतर दुनिया जिसकी तलाश में निकल पड़ती हूं रोज, आकाश, नदी, उपवन, जंगल और कंटीली खुरदुरी राहों पर। पकड़ती हूं खुद को, अछोर समंदर के पानी में हाथ डालकर थाह लेती हूं अपने वजूद की, और भीतर बसे अथाह पानी से भिगो देती हूं सूखी जमीन को। बादलों पर सवार होकर निकल पड़ती हूं घाटियों तक अविराम यात्रा पर, करती हूं असीम आकाश से खत्‍म न होने वाली ढेर सारी बातें, और खुद को पानी बनाकर भर जाती हूं खुशी से जिसकी महक से आप्‍लावित रहता है मेरा मन संसार।

तो यही है मेरे अंदर की स्‍त्री जो चाहती है कि वह बार बार निश्‍छल प्रेम में पड़े , निष्‍कंप लौ के जरिए अपने आसपास के अज्ञान के अंधेरे संसार को रॉशन करे , गढे एक निस्‍वार्थ दुनियां जहां हर स्त्री पुरूष समकक्ष हो ,  लोकतांत्रिक चेतना से लैस हो , समान अधि‍कारों की दुनियां में विचरती रहूं ,  छल कपट से परे मासूम प्रेम के जादू में डूबी रहूं और इस धरा पर मानवता की खूबसूरत मिसाल कायम करूं । अपने जीने को नया अर्थ दे सकूं , एक नयी मुहिम चला सकूं जहां सर्वधर्म समभाव व विश्‍वबंधुत्‍व की धुनें गूंजतीं हों । जहां पितृसत्‍ता जैसी किसी भी एकाधिकारवादी सत्‍ता का वर्चस्‍व न हो बल्कि स्‍त्री होने का गर्व , स्‍वाभिमान व अस्मिता पर गुमान कर सकूं । जहां रोक टोक , प्रभुता या एकाधिकार के मद में चूर पुरूषसत्‍ता दूर दूर तक नजर न आए , जहां स्‍त्री होने के प्रति मान सम्‍मान हो या अपने को बेहतर मनुष्‍य होने की तरफ कदम दर कदम बढा सकूं ।

तब यह मायवी बादलों से भरा रंगीन आसमान कितना स्‍वच्‍छ , कितना निर्मल कितना भव्‍य लगेगा । तब तो विविधता से भरे भांति भांति के जीव जंतुओं से भरा जंगल लुभावना नजर आएगा और अपने भीतर की विराट दुनियां को समाए मन का समंदर कितनी सारी विषमताओं के बावजूद मोहक लगेगा । नवसृजन के आलोक में नवल रागों से अनुराग के निश्‍छल स्‍नेह की अजस्र धारा में भींगते युगल , सपनों की दुनियां को साकार करते स्‍त्री पुरूष व बच्‍चे । वाकई , अपने जिद और जुनून के जरिए हासिल होती है मनचाही मंजिल और ये मंजिल बेहद खूबसूरत होगी , एक भरी पूरी दुनियां , भेदभाव से परे , प्रेम से नवसृजन की तरफ कदम बढाते हुए हम अंदरूनी खूबसूरती के नए वितान को बुनने में कामयाब होंगे ।

यही सपना है मेरा

और यह है मेरे भीतर बैठी स्‍त्री की आवाज

क्रमशः जारी

रजनी गुप्‍त

 

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ISSN 2394-093X
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