हां मुझे फर्क पड़ता है…

 

कुछ महीने पहले बीबीसी पढ़ते हुए एक स्टोरी पर नजर गई जो ईरानी महिलाओं पर थी। ईरान में महिलाओं को शादी से पहले वर्जिनिटी प्रमाण पत्र बनवाना पड़ता है जिससे ये साबित हो सके कि उन्होंने किसी के साथ सेक्स नहीं किया है। हालांकि वहां पर इसका विरोध भी हो रहा है। अफगानिस्तान में तालिबान शासन आने के बाद महिलाओं की स्थिति तो जगजाहिर है। जिंदगी को आम तरीके से जीने की कोशिश के बावजूद देश-दुनिया में होने वाली ऐसी तमाम घटनाएं बेचैन कर देती हैं, आखिर महिलाओं के साथ ही ऐसा क्यों। आमतौर पर ऐसी चीजों को लोग सामान्य मानते हैं और ऐसा सोचने वालों में महिलाएं भी शामिल होती हैं।

तमाम लड़कियों की तरह मुझे भी घर, परिवार समाज में भेदभाव का सामना करना पड़ा। मेरी बुआ की पांच बेटियां और एक एक बेटा है। दादी अक्सर दुखी मन से कहा करतीं, बेटी क्या बुसा बोरी (भूसे की बोरी) हैं। ये उस पहाड़ी समाज की स्थिति है जहां महिलाएं ही अधिकतर काम करती हैं घर, खेती से लेकर जंगल तक के। मैं चार भाइयों में अकेली बहन हूं, लोग अक्सर कहा करते हैं वाह तुम तो बहुत खुशकिस्मत हो हालांकि इसका तर्क मुझे आज तक समझ नहीं आया। मैंने अपने पूरे बचपन में घरेलू हिंसा, लड़ाई-झगड़े का माहौल देखा जो कि बहुत ही बुरा था।

पहाड़ों में पुरुष अगर काबिल नहीं हो तो चल जाता है लेकिन महिलाओं का सभी कामों में, खास कर खेती में पारंगत होना बहुत जरूरी है। गांव भर में दो-चार पुरुष ऐसे होते ही हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी कभी कुछ काम नहीं किया, तब भी उनकी जिंदगी किसी तरह गुजर ही जाती है। लेकिन इस तरह की महिलाओं के लिए जीवन बहुत ही दुखद होता है, जिसमें मेरी मां भी शामिल हैं।

मैंने देखा लड़के बड़े होने पर भी खेतों में खेलने जाते लेकिन लड़कियों की खेलने की उम्र बहुत ही सीमित सी होती है। मुझे बचपने की याद है, हम खाली समय में खेतों में खेला करते। जैसे-जैसे हम बड़े होते गए लड़के तो खेतों में तब भी खेला करते, लेकिन लड़कियां अब खेलों से गायब होने लगीं। मेरी सहेलियों पर काम का बोझ बढ़ने लगा। पहले शौक से छोटे घीड़े में घास काट कर ले लातीं फिर धीरे-धीरे घीड़ा बड़ा होने लगा, बंटे, गागर का आकार भी बढ़ने लगा। मैं भी सहेलियों के साथ खेतों जंगलों में जाती। फिर धीरे-धीरे वे अपने ससुरालों को जानें लगी। सहेलियों के ससुराल जाने के बाद मैंने हम उम्र भाभियों से दोस्ती करनी शुरू कर दी।

शिवरात्रि के पहले दिन हमारे यहां कई जगहों पर मेला लगता है। बचपन में पुजार गांव जाया करते जो कि बिल्कुल बगल का गांव था। फिर कुछ बड़े होने पर देवल मेला जाने का मन करता। अपने चार भाई तो हैं ही, अपने अगल बगल के ढेर सारे कजन भाई ऐसे भी वक्त में सबसे ज्यादा प्रकट होते। वे सब हमें देवल मेले में जाने के लिए मना किया करते। दरअसल देवल मेले में ज्यादा भीड़ और धक्का मुक्की होती। कई बार लड़के, लड़कियों के स्तनों को भी छूकर निकल जाते। लेकिन ये भाई लोग खुद भी उसी मेले में जाने के लिए लालायित रहते। जाहिर है लड़कियों को छेड़ने वाले लड़के भी हम में से किसी ना किसी के भाई हुआ करते हैं। लेकिन उन्हें कभी कोई मना नहीं करता मेला जाने के लिए।

हम लड़कियां भी कहां कम थीं, छुप-छुपाकर जैसे-तैसे देवल मेले जाया करती। ऐसा करने के लिए कई बार डांट और मार भी खानी पड़ती। भाइयों की भी घर में अलग ही सत्ता होती है। कई बार मांओं या पिताओं को भी जिन बातों से ऐतराज नहीं होता, भाई लोग उन मामलों में भी अपनी वीटो पावर इस्तेमाल कर लेते हैं।

मेरे मंझले भइया खूब घूमा-फिरा करते, घर में टिकना उन्हें कभी आया ही नहीं। मुझे लगता वाह ये कितना अच्छा है, मैं भी उसी तरह रहना चाहती थी। लेकिन मुझे वो कई बार टोकते कि कम घूमा कर। कुछ साल मैं दो बड़े भाइयों और दादी के साथ देहरादून में पढ़ाई के लिए रही। स्कूल से घर आने के रास्ते में  सहपाठी लड़को के साथ दिख जाने पर कई बार मार भी खाई। मैं घर से स्कूल और स्कूल से घर का रास्ता तय करती, बस इतना ही जान पाई मैं देहरादून के बारे में। भइया लोग बेइंतहा पाबंदियों में रखते। दादी भी खौफ में रहतीं कि लड़की है कुछ हो ना जाए। भइया लोग ग्रेजुएशन करने गए थे जाहिर है उनकी खुद की उम्र भी कम ही थी। वो उस वक्त मुझे लेकर अतिरिक्त जिम्मेदारी की भावना से भरे हुए थे। लड़की की जिम्मेदारी का मतलब होता है उसे संभाल कर रखना। ये जिम्मेदारी कैसे निभाई जाती है, ये बात कोई भी लड़की बता सकती है।

अतिरिक्त पाबंदी के चलते मेरा लड़कों की तरफ आकर्षण बढ़ा। हम लोग देहरादून से घर साल में एक बार आया करते गर्मियों की छुट्टियों में। अक्सर सोचती, मैं बड़ी हो जाऊंगी तो अकेले यात्रा करूंगी और अगल-बगल बैठने वाले लड़कों से दोस्ती और बातें किया करूंगी। हालांकि जब से अकेले यात्रा करनी शुरू की तब से ऐसे ख्याल नहीं आये।

लड़की होने के नाते मुझे अगर किसी चीज से वंचित रखा जाता या किसी भी तरह का भेदभाव होता तो मुझे वो समझ आ जाता, मुझे एहसास होता कि ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन कई बार लड़कियों को लगता कि भाई हैं, ठीक ही कह रहे हैं, लड़कियों को नाक नहीं कटानी चाहिए, अगर कुछ हो गया तो जैसी तमाम-तमाम बातें।

छुटपन से ही मेरा मन होता था कि मैं खूब पढ़ाई करूं और किसी बड़े से शहर में जाकर स्वतंत्र रूप से रहूं। लेकिन ऐसा होगा, मेरे लिए यह सोच पाना भी बहुत मुश्किल था। खासकर बड़े भाइयों के सख्त रवैये के बाद ये और मुश्किल लगता। लंबगांव डिग्री कॉलेज में मेरे एक शिक्षक थे, जिन्होंने बीए के दौरान मुझे पढ़ाया और लगातार प्रेरित करते रहे कि मैं आगे की पढ़ाई किसी शहर में जाकर करूं। ऐसा उन्होंने कई महीनों तक किया और मुझे सिलेबस के इतर की किताबों पढ़ने की भी सलाह देते रहे। एक दिन जब मुझे समझ में आया कि यह मुमकिन है, तो फिर मैंने वही बात घर में पिता से दोहरानी शुरू कर दी और लगभग दो ढाई साल तक मैं लगभग घर वालों से इस ख्वाइश का जिक्र करती रही। आखिरकार मुझे इसकी अनुमति मिल गई।

साल 2012 में, मैं जब पढ़ाई के लिए माखनलाल यूनिवर्सिटी, नोएडा आई तो यह मेरे लिए किसी बड़े सपने का सच होने जैसा था। पहली बार साउथ दिल्ली की चौड़ी-चौड़ी सड़कों से गुजरते हुए मैं खुद को एक अलग ही दुनिया में महसूस कर रही थी। अब मैं घर से दूर आजाद महसूस कर रही थी। लेकिन शुरुआती दिनों में साथ में डायरी लेकर घूमा करती जिसमें पीजी का पता और कुछ जरूरी नंबर रहते। रात होने से पहले मैं पीजी में आ जाया करती क्योंकि मुझे रात में बाहर निकलने से डर लगा करता।

बाद के दिनों में मैं मंडी हाउस में नाटक देखने जाने लगी और मुझे अकेले ही जाना पड़ता। नोएडा सेक्टर 15 मेट्रो स्टेशन आते-आते कभी 9.30 या कभी 10 बज जाया करते। मेट्रो स्टेशन से मुझे ऑटो से पीजी जाना होता, उस वक्त तक महिला यात्रियों की संख्या काफी कम हो जाती। जैसे ही कोई महिला दिखती तभी मैं सुरक्षित महसूस करती।

लेकिन घूमने और नाटक देखने का शौक कुछ ऐसा हुआ कि डर लगने के बावजूद मैं ऐसा करती। एक दोस्त था जो घूमने जा तो सकता पर वो जॉब भी करता था। लड़कियां अक्सर अपने एक-एक मिनट का हिसाब घर वालों को दिया करतीं या घर वाले उन से लिया करते, तो उनके लिए भी जाना मुश्किल था। एक और दोस्त था, जो था तो मूल रूप से उत्तराखंड का, लेकिन दिल्ली में पला बढ़ा था। जब मैंने कहा साथ में घूमने के लिए तो उसका जवाब भी कुछ अजीब ही था.. देख तू है लड़की, ये दिल्ली बहुत खतरनाक जगह है, मैं तेरे साथ नहीं घूमूंगा कहीं।

मैं उन दिनों एक लॉन्ग डिस्टेन्स रिलेशनशिप में थी। उस दौरान के प्रेमी ने अपने कुछ दोस्तों से मेरी भी दोस्ती करवाई जो कि दिल्ली में पत्रकारिता के ही एक दूसरे संस्थान में पढ़ते थे। वहां लड़को के साथ दोस्ती और सामान्य तौर पर रहने की शुरुआत हुई। उसके पहले जितने लड़के मिले थे सब एक अलग तरह की दूरी या नजदीकी बनाते थे। पहली बार लड़कों के साथ दोस्ती इतनी सामान्य लगी।

मेरे मामले में एक बात यह अच्छी थी बाहर निकलने के बाद मेरे घर वालों ने मुझ पर भरोसा किया और मुझसे कभी भी मिनट-मिनट की हिसाब नहीं लिया। हालांकि इस स्थिति की भी कुछ अलग तरह की मुश्किलें थीं, जिनका जिक्र फिर कभी किया जा सकता है।

बहुत शिद्दत से नौकरी की शुरुआत कर मुझे फिर से मुझे पढ़ाई करने का मन हुआ तो एमफिल करने वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय चली गई। वहां गर्ल्स हॉस्टल 10 बजे बंद हुआ करता है। हालांकि कई अन्य संस्थानों के मुकाबले ये बेहतर था, लेकिन हमारा भी मन होता कि ब्वाइज हॉस्टल की तरह गर्ल्स हॉस्टल भी रात भर खुले रहें।

हमारे सामने जेएनयू और हैदराबाद यूनिवर्सिटी के उदाहरण था। कई बार इस पर बातचीत होती कि वर्धा कैंपस छोटा है और सुरक्षित भी। इसे भी रात भर खुला रखा जाना चाहिए। कई बार मन होता रात में लाइब्रेरी में बैठने या कबीर हिल जाने का। लेकिन 10 बजे के बाद यह संभव नहीं था। कई बार एमफिल और पीएचडी करने वाली लड़कियां ही समय ना बढ़ाने के खिलाफ तर्क देतीं, नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए। अगर कुछ हो गया तो किसी ने कुछ कर लिया तो। मुझे ये समझ नहीं आता, कुछ कर लिया क्या होता है। ज्यादा से ज्यादा कोई सेक्स कर लेगा, उससे ज्यादा क्या।

खैर पितृसत्तात्मक प्रैक्टिस इतनी गहरी है कि हमारे गांवों में महिलाएं पानी की गागर सिर पर लाती हैं और पुरुष कंधे पर। मैंने जब पहली बार सिर पर गागर लाने की कोशिश की तो मैं चल नहीं पाई। मैंने फिर पानी की गागर कंधे पर रखी। ये मेरे लिए वाकई बहुत ही आरामदायक तरीका था पानी ढ़ोने का। उसके बाद से आज तक मैं कंधे पर ही पानी लाती हूं। शुरू-शुरू में लोग हैरान होते या मजाक बनाते कि लड़की होकर कंधे पर पानी ला रही है, लेकिन कुछ दिनों बाद सब स्वीकार्य हो गया। लेकिन नए लोग जब मुझे इस तरह से देखते है तो वो अभी भी हैरान होते हैं।

मैं कई बार बैग को भी कंधे पर उठाकर चल देती हूं क्योंकि ऐसे सामान ढ़ोना आसान होता है। मेरे पार्टनर जो कि बिहार से हैं, यह देखना उनके लिए यह नया था। प्रेम के शुरुआती दिनों में वो अक्सर मेरी इस आदत पर बहस कर लेते। वो कहा करते, कुछ भी करती हो- कैसे भी रहती हो, कंधे पर सामान क्यों उठाया लोग क्या कहेंगे आदि-आदि। तब मैं समझ नहीं पाती थी इसमें गुस्सा करने वाली क्या बात है। फिर कोरोना का दौर आया, उन दिनों मैं मुनिरका में रहा करती। एक दिन मेरे पार्टनर बंगाल से बस की यात्रा कर दिल्ली आए। उस दिन दिल्ली में खूब बारिश हो रही थी, मुनिरका की गलियों में नाले की तरह पानी बह रहा था और एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रखना पड़ रहा था। उस दिन भी मैंने अपने पार्टनर का भारी सा बैग कंधे पर रखा और किसी तरह बच-बचाकर कमरे में पहुंचे। उस दिन बैग को खींचकर ले जाना नामुमकिन था, उस दिन के बाद उन्होंने कभी इस चीज के लिए नहीं टोका।

तब मुझे उनका इस तरह से नाराज होना नहीं समझ आता था। कुछ महीने पहले मेरी शादी हुई और ससुराल गई तो मुझे समझ में आया कि यह दो समाजों का फर्क था।

हम लोगों ने पहले कोर्ट मैरिज की और उसके बाद सामाजिक विवाह। हम लोगों ने तय किया था किसी तरह का कर्मकांड या पूजा पाठ नहीं करेंगे। हमारे परिवार इसके लिए सहमत थे। इसमें हम दोनों के पिताओं की अहम भूमिका थी। ऋषिकेश में शादी हुई जिसमें हम लोगों ने एक दूसरे को माला पहनानी थी और उसके बाद खाने का कार्यक्रम था। मेरी सास और ननद सिंदूर लेकर स्टेज के सामने अड़ गईं उनका गुस्सा मेरे लिए बड़ा अजीब था। वो जबरदस्ती सिंदूर लगवाना चाह रहे थे और ऐसा तब हुआ जब कि पहले से पूरा मामला स्पष्ट था कि ये सब नहीं करना है।

मेरे रिश्तेदार भी हैरान थे मैं सिंदूर क्यों नहीं लगवा रही। सब आकर समझाने लगे। हालांकि मेरा परिवार हमारे फैसले के साथ था। मेरी सास ने मेरी बड़ी भाभी से कहा कि वे हमें मनाएं, तो भाभी का कहना था जब वो नहीं चाहते तो जबरदस्ती क्यों करना चाहते हैं। इस तरह सिंदूर नहीं करने के लिए लिए भी छोटा -मोटा हंगामा हो गया।

मेरे पिता के अचानक चले जाने के बाद माहौल अजीब था, हम सब दुखी थे, इसके बाजवूद शादी हो रही थी। ये अलग ही तरह की स्थिति थी मेरे लिए। मेरा नया जीवन शुरू हो रहा था मैं कुछ उत्साहित भी थी लेकिन ये बड़ी अजीब शुरुआत थी। पार्टनर के घर वाले गुस्से में तुरंत खाना खाकर होटल चले गए। इस तरह मेरे पार्टनर वेडिंग हॉल में अकेले रह गए और इधर मेरे घर वाले और कुछ गिने -चुने रिश्तेदार थे। हमारी शादी और रिसेप्शन में एक हफ्ते का फासला था। विदाई के वक्त मैंने कुर्ता और जींस पहन ली और जैसे हमेशा रहती हूं वैसे ही रही, कोई अतिरिक्त मेकअप नहीं किया। हरिद्वार से ट्रेन देर रात की थी, सभी लोग हरिद्वार घूमने चले गए। हम दोनों स्टेशन के बाहर रह गए। एक नए सदस्ये को सम्मान देना तो दूर सभी लोग मुझसे दूर-दूर थे। कोई ठीक से बात नहीं कर रहा था मुझसे। मुझे लगने लगा अब तो वक्त ससुराल में बेहद बुरा बीतने वाला था।

मेरे बड़े भइया ने मुझे कुछ दिन पहले कहा था तेरा समाज शादी के बाद शुरू होगा। तूने अभी देखा ही क्या है। और ये बात मैं अभी महसूस कर रही थी। मुझे लगता था शादी के बाद मेरे जीवन में कोई बदलाव नहीं आने वाला लेकिन आ चुका था। सचमुच शादी लड़कियों के जीवन को बदलकर कर रख देती है। हालांकि मैं वर्किंग हूं और मुझे ससुराल में ज्यादा रहना नहीं होगा और इन चीजों का भी सामना नहीं पड़ेगा। तो एक तरह से यह स्थिति मेरे लिए ठीक है।

ससुराल जाने वाली ट्रेन रात में काफी लेट से आई, तो सब लोग ट्रेन में चढ़ते ही सीधे  सो गए। सुबह उठकर पिछले दिन के मुकाबले माहौल थोड़ा ठीक लगा, लोग थोड़ा बहुत बात कर ही रहे थे। मुझे खाना-पीना सब पूछा गया।

रात में आरा स्टेशन उतरना था और वहीं से कुछ घंटे की दूरी पर ससुराल है। फिर ट्रेन में ही नई चीजों के लिए बहस शुरू हो गई जैसे घूंघट करना। पार्टनर के घर वाले उन पर दबाव बनाने लगे कि वो मुझे घूंघट के लिए कहें। उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। उनके भाई-बहन कहने लगे कि तुमने हमारे पिता की नाक कटवा दी है। जबकि पिता हमारे फैसले के साथ थे और उन्हें अपनी नाक जैसी कोई चिंता नहीं थी।

मुझे लगा मैं ही बेवकूफ हूं जो लग रहा था सब सामान्य हो गया। एक लंबे समय तक जिस चीज को लोग मानते आए हैं वो परंपरा एक झटके में कैसे टूट सकती है। फिर से बहस और झगड़ा, हालांकि मैं इससे दूर थी। लेकिन मैं बहुत अजीब महसूस कर रही थी। लोग मुझे अजीब नजरों से देख रहे थे, इन सबके लिए मैं जिम्मेदार थी। अब मुझे लगने लगा बचपन से लेकर अब तक जो महसूस करती आई हूं लड़की होने की वजह से वो कुछ भी नहीं था। अब यहां मेरा कोई नहीं था पार्टनर के सिवा। मेरे दिमाग में घरेलू-हिंसा की घटनाएं घूमने लगीं। खासकर मैं दूसरे राज्य में जा रही थी जहां कोई भी परिचित नहीं था। ट्रेन से उतरने पर मेरे साथी की अपने परिवार के लोगों से बहस हुई। बहन ने रिसेप्शन में आने से इनकार कर दिया। पिता ने किसी तरह से बेटी को मनाया तो उन्होंने कहा कि मैं सिर्फ आपके लिए आऊंगी इन लोगो से मुझे कोई मतलब नहीं है।

हम लोग जब ट्रेन से उतर रहे थे तो किसी ने कहा कि औरतें और सामान गाड़ी में ना छूट जाएं। महिलाएं क्या सामान हैं जो स्टेशन आने पर खुद से उतरने का ध्यान नहीं रख सकतीं। और भूलना ही हो तो कोई पुरुष भी भूल सकता है।

आरा से टैक्सी बुक की गई थी। टैक्सी में मेरी सास ने आकर मुझे कहा सिर पर दुपट्टा रख लो। मैंने मना किया, वो कहती रहीं कि रख लो उतनी ही बार मैंने मना कर दिया। उस वक्त मेरा मन हुआ कि मैं उस टैक्सी से उतर जाऊं।

मेरे अगल-बगल मेरी जेठानी और देवरानी बैठी थीं। देवरानी ने सिर पर साड़ी का पल्लू रख हुआ था। जेठानी सामान्य तरीके से बैठी थीं, जब सास ने मुझे इस तरह से कहा तो उन्होंने भी सिर पर पल्लू रख दिया। मैं उन्हें बार-बार समझाना चाह रही थी ये नॉर्मल नहीं है, शायद उन्हें लगा हो जो मैं कर रही हूं वही नॉर्मल नहीं है।

हम देर रात घर पहुंचे। मैं लोवर-टी शर्ट पहनकर सो गई। सुबह हुई तो इस पर भी पेशी हुई। मुझे कहा गया कि यहां ये कपड़े नहीं चलेंगे। साड़ी नहीं तो कम से कम सूट पहननी होगी। ये मेरे लिए नई लड़ाई थी। इस बार जब सास समझाकर थक गईं तो मुझे समझाने की जिम्मेदारी ससुर दी गई। अभी तक हमारे सभी फैसलों में वे साथ थे और हमारा सपोर्ट भी किया। लेकिन अब वो भी शायद थक या हार गए थे। उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि सूट पहन लो और दुपट्टा सिर पर रख लो। मैंने फिर से माथा पीट लिया कैसा समाज है ये सिर ढकने को लेकर इतना आग्रह। मैंने कहा कि मैं सूट पहन लूंगी लेकिन सिर नहीं ढकूंगी। हमारे पहाड़ी समाज में इस तरह से नहीं है तो मेरे लिए ये चीज बिल्कुल नई थी, इसलिए यह सब मुझे और ज्यादा असहनीय लगा।

इतना ही नहीं इस एक हफ्ते में मैं घर से बाहर भी नहीं निकली। यहां महिलाएं सामान्य तौर पर घर से बाहर नहीं निकलती हैं। घूमना टहलना तो दूर की बात। सामान भी लाना हो तो घर के पुरुषों से मंगाया जाता है या बच्चों से। पहले दिन तो मुझे लगा मैं यहां एक हफ्ता नहीं निकाल पाऊंगी। लोग आ आकर देखते और नसीहतें देकर चले जाते और मैं लोगों से मिलने से खौफ खाने लगी। मैं लोगों को इग्नोर भी करने लगी।

रिसेप्शन में हमारे कुछ दोस्त आए। इतने दिन बाद अपने साथ के लोगों से मिलकर मुझे अच्छा लगा। मैंने उनसे वे सारे अनुभव और परेशानियां शेयर की। उनमें से कुछ ने ये निष्कर्ष निकाला मैं ओवर रिएक्ट कर रही हूं। मेरे पार्टनर जो कि अब तक मुझे सपोर्ट कर रहे थे, रिसेप्शन के दिन उन्होंने भी मुझसे बहस कर ली। उनका कहना था कि मैं ओवर रिएक्ट कर रहीं हूं, लोगों को सम्मान भी नहीं दे रही हूं। मुझे अजीब लगा अचानक ये बदलाव कैसे हुआ। हालांकि मुझे अंदेशा था कि दोस्तों के आने के बाद इस तरह से क्यों हुआ, बाद में ये बात स्पष्ट भी हो गई। हमारे उन प्रगतिशील दोस्तों को लग रहा था कि मेरी प्रतिक्रिया अतिवादी है। मैं जिन परिस्थितियों का सामना कर रही थी, मेरे लिए वो सब झेलना मुश्किल था। खास कर घर से बाहर नहीं निकलना और घूंघट देखना मेरे लिए नया था।

अधिकांश मित्र ऐसे ही समाज से थे तो उनके लिए ये अच्छा भले ना रहा हो लेकिन सामान्य जरूर था। हालांकि दूसरों के मामले में विश्लेषण करना और निष्कर्ष निकालना आसान होता है और उन परिस्थितियों से गुजरना मुश्किल।

उन सब में सकारात्मक पक्ष यह रहा कि ससुराल की ही कुछ महिलाएं मेरे पक्ष में थीं। उनका कहना था अगर किसी लड़की ने ये सब देखा-जिया ना हो तो कैसे स्वीकार कर ले। कुछ टीएनजर लड़कियां भी मुझसे प्रभावित थीं। मेरे लिए यहां दोनों ही सबक थे, परंपरावादी स्त्रियों और प्रगतिशील मित्रों की समझदारी के अलग-अलग नमूने।

हालांकि धीरे-धीरे चीजें मेरे लिए थोड़ा सामान्य हुईं। मैंने देवरानी-जेठानी से पूछा आप लोगों को ऐसे रहना खराब नहीं लगता। वो हंसकर रह जातीं, कहती हमको आदत हो गई है और यहां तो सब ऐसे ही रहते हैं। लेकिन मुझे लगता है कुछ तो लगता ही होगा उनको, कुछ नहीं तो इतना तो सोचती होंगी काश लड़की ना होतीं तो ऐसा ना होता। मैं भी बचपन में इस तरह से सोचती थी काश मैं लड़का होती तो इस तरह की चीजों का सामना नहीं करना पड़ता।

रिसेप्शन के बाद हमारे दो और मित्र हमसे मिलने आए, जो कि मेरे ससुराल के पास के कॉलेज में पढ़ाते हैं। उनकी कोई मित्र हैं जो कि जेएनयू से पढ़ी हैं और बिहार के ही किसी कॉलेज में पढ़ाती हैं। वो सिंदूर, चूड़ी जैसे प्रतीकों से दूर थीं। लेकिन उनके सहयोगियों ने उन्हें सिंदूर लगाने, कंगन पहनने के लिए मजबूर किया। इस तरह की कई कहानियां सुनीं, किसी के मकान मालिक तो किसी के सहकर्मी ने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर किया। वहां पर मुझे लगा ये तो बड़ा भयावह है। दिल्ली जैसे बड़े शहर कुछ मामलों में स्पेस तो देते हैं।

इस बीच मैंने अपने पार्टनर से शिकायत की तुमने तो नहीं बताया था यहां इस तरह की स्थितियां हैं। मैंने तमाम दोस्तों को फोन घुमाए और उनसे भी यही शिकायत की। दोस्तों का कहना था इसमें कहने जैसा कभी कुछ लगा ही नहीं, यहां ऐसा होता है और हमारे लिए यह सामान्य है। पार्टनर का कहना था कि मेरी बहुत कोशिश के बाद भी अगर ऐसा है तो क्या किया जा सकता है, वक्त के साथ चीजें बेहतर हो जाएंगी। ये तब हुआ जब मैं अपेक्षाकृत प्रगतिशील परिवार में थी। दोस्तों ने बताया कुछ परिवारों में स्थितियां और खराब हैं।

अब जब मैं लिख रहीं तो मुझे एक दो बार मन किया कि फिर से ससुराल जाना प्लान किया जा सकता है। हालांकि मैं वहां लंबे समय नहीं रहना चाहूंगी।

मैंने रिसेप्शन के दौरान की घटनाओं पर कई बार तसल्ली से सोचा, क्या मैंने वाकई ओवररिएक्ट किया था। लेकिन मुझे हर बार यही जबाव मिला, नहीं मैं सही थी। क्योंकि मुझे या हम में से किसी को भी अगर यह लगता है कि उस तरह की परिस्थितियों में मैं गलत थी, तो हमें अफगानिस्तान, ईरान या अन्य समाजों की आलोचना करने का नैतिक साहस कहां से मिलेगा।

 

 

 

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