ज़ैतून के साये

ज़ैतून के साये

  • नासिरा शर्मा

मैं एक पुरानी इमारत ज़रूर हूँ, मगर मेरे सीने पर ख़त-ए-कूफ़ी के अक्षरों का उभार आज भी ज़िन्दा है। मेरा सर वह तारीख़ी गुम्बद है जिसने ज़माने की धूप-छाँव के बाद भी अपना रंग व रोग़न खोया नहीं है। मेरी पेशानी पर यह झिलमिलाता सोने का पंजा देख रहे हो जो आज भी सूरज से आँख मिलाने का हौसला रखता है, जिसके ईमान की गर्मी दिलों में नूर की कंदीलें रौशन करती है, जिसका दीन इन्सान को इन्सान से मुहब्बत करना सिखाता है और जिसकी आवाज़ का पैग़ाम सूरज के निकलने से पहले चारों दिशाओं के बन्द दरवाज़े खोलता है, तुम उसे एक वीराना समझ बैठे हो? मैं एक पुरानी तारीख़ी इमारत ज़रूर हूँ, मगर खँडहर हरगिज़ नहीं। तौफीक़ की आँखों में फैली धूप में तड़पती यह सुनहरी इबारत साफ़ नज़र आ रही थी, जिसे पढ़ना इस्रायली कमांडर के लिए कोई मुश्किल काम नहीं था।

“मैं दोस्ती का हाथ तुम्हारी तरफ़ बढ़ाता हूँ हमें तुम्हारे अगले मंसूबों का खुलासा चाहिए…इसे हमारा मुहायदा समझो दोस्ती की कसौटी जो आगे फल-फूल सकती है…याद रखो दोस्त! हमसे चालाकी नहीं चलेगी। मत भूलो कि तुम निहत्थे हो और हमारी हिरासत में हो।” एक गहरी नज़र इस्रायली कमांडर ने तौफीक़ के चेहरे पर डाली और सिगार का आख़िरी कश खींचकर उसका लाल सिरा ऐश-ट्रे में रगड़ते हुए अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाया जो चन्द सेकंड बाद हवा में झूलता हुआ वापस उसकी पैंट की जेब में चला गया।

“कमांडर! तुम इस तारीख़ी इमारत के अँधेरे तहख़ानों में उतरना चाहते हो? तुम्हारे हाथ में पकड़ा यह जिज्ञासा से भरा चिराग़ चाहे कितना ही रौशन क्यों न हो मगर मेरे अँधियारे तहख़ानों में उजियारा नहीं भर सकता है। इन पेचदार गलियारों की अपनी एक तारीख़ है जो ग़म की रौशनाई और कशमकश के क़लम से लिखी गई है। इस किताबत को तुम्हारी आँखें कभी नहीं पढ़ सकती हैं, जिसे गुज़रते वक़्त ने अपने हाथों से इस इमारत की दीवारों पर लिखा है, जिसके हर लफ़्ज़ में धधकते ज्वालामुखी सोये पड़े हैं।” तौफीक़ की गर्दन उसी तरह तनी रही, जबड़े कसे रहे और होंठ एक-दूसरे पर जमे रहे।

“तुम कमांडर को ख़त्म करने आए थे मगर कमांडर के जाल में फँस अपने साथियों के साथ-साथ हैलिकॉप्टर से भी हाथ धो बैठे…” कमांडर ने वहशी क़हक़हा लगाया।

“कमांडर! तुम मुझ पर कटाक्षों के जितने तीर चाहो फेंककर अपना तरकश ख़ाली क्यों न कर डालो मगर मैं तुम्हारे उकसाने के बावजूद अपनी ज़बान नहीं खोलूँगा। चाहे मेरे दिल व दिमाग़ में उठता ग़म व गुस्से का यह असीमित समुंदर मुझे पीना ही क्यों न पड़ जाए। याद रखो, मेरी यह ख़ामोशी निहत्थी नहीं है, इसमें तलव की धार की तेज़ी है जो तुम्हारे सब को चाक-चाक कर तुम्हें दीवाना बना देगी।” तौफीक़ की आँखों की धूप उसके चेहरे पर चमकने लगी।

“यदि तुम कामयाब हो जाते तो हमेशा की तरह तुम्हारे इस गुरिल्ला हमले का जवाब तुम्हारी पूरी बस्ती उजाड़कर दिया जाता, मगर…देखो न, मैं बच गया …इसका इनाम तुम्हें यक़ीनन मिलेगा मैं बहादुरों और हौसलामंदों की बड़ी क़दर करता हूँ। इसलिए तुम्हारी जान बख़्शता हूँ, मगर एक शर्त के साथ कि अब तुम हमारे लिए काम करोगे और अपने संगठन के सारे भेद खोलोगे जिसके एवज़ में हम तुम्हें बाहिफाज़त सरहद पार पहुँचाने का क़ौल देते हैं।” कमांडर के मुस्कराते चेहरे पर एक ख़तरनाक संजीदगी छा गई।

“कमांडर! तुम्हें शायद पता नहीं है कि हमने दुनिया में झंडे गाड़े हैं, इसलिए हमारे उस आब-व-ताब को मत ललकारो वरना मौत की बाज़ी हम ही जीतेंगे। जिन्होंने पैदा होते ही सर पर कफ़न बाँध लिया हो, वह ज़िन्दगी की बख़्शिश क़बूल नहीं करते हैं बल्कि सर का नज़राना पेश करते हैं।” तौफीक़ की बड़ी-बड़ी शरबती आँखों में खिड़की से दिखते ज़ैतून के दरख़्तों का अक्स झूम उठा।

“तुम शायद थके हुए हो। आराम करना चाहते हो। तुम्हें मैं एक बात बताना चाहता हूँ कि एक फ़ौजी की ज़िन्दगी में उसका दाहिना हाथ कितना अहम मुक़ाम रखता है और अफ़सोस…तुम्हारा दाहिना हाथ कंधे से उखड़ा है और कलाई की हड्डी टूट चुकी है। इलाज न होने पर तुम ज़िन्दगी-भर झूलते हाथ के मालिक बन जाओगे अपनी ज़िन्दगी को बनाना और सँवारना अब तुम्हारे हाथों में है। वैसे तुम इस हक़ीक़त से आगाह होगे कि लँगड़े घोड़ों को गोली मार दी जाती है, क्योंकि वे फ़ौज के लिए नाकारा साबित होते हैं।” कमांडर धीरे-धीरे मुस्कराता हुआ तौफीक़ की तरफ़ बढ़ा और उसके शानों को हल्के से थपथपाया।

“मेरे ये दोनों कंधे उस तारीख़ी इमारत के दो छोटे गुम्बद हैं, जिनके अन्दर से ऊपर जाने वाली सीढ़ी बरसात की रात की तरह स्याह है, जिन पर चढ़ने का हौसला तुममें नहीं है। तुम शायद भूल गए हो कि मेरा वजूद वक़्त की तपिश से पिघलकर पहले से ज़्यादा मज़बूत हो गया है, जिसकी बुनियाद फिलिस्तीन की धरती में गहरी धँस गई है, जिसको उखाड़ना तुम इस्रायलियों के बस की बात नहीं है।” तौफीक़ की पुतलियों में झूमते दरख़्तों की शाख़ पर बैठे परिंदे चहचहा उठे।

“तुम जवान हो, समझदार हो। अच्छी तरह से जानते हो कि फिलिस्तीन नाम का कोई मुल्क दुनिया के नक़्शे पर बाक़ी नहीं बचा है, फिर उस धोखे में पड़े तुम अपनी जान गँवाने पर क्यों तुले हुए हो? आख़िर तुम यह सब किसके लिए कर रहे हो? अपने गुरिल्ला संगठन के अध्यक्ष के लिए, जिसके पास वापस लौटने का रास्ता भी नहीं बचा है, लेकिन तुम क्यों बन्द गली के सफ़र पर निकल पड़े हो? एक इनसान की ख़्वाहिश कभी भी पूरे समाज की भलाई की बराबरी नहीं कर सकती है। कट रहे हो मर रहे हो…आख़िर किसके लिए? फिलिस्तीन सिर्फ़ एक नाम है हवा में तैरता हुआ, जिसका ज़मीन पर अब कहीं कोई वजूद बाक़ी नहीं बचा है।” नर्मी से समझाते हुए कमांडर अन्त में ज़ोर से क़हक़हा मारकर हँस पड़ा।

“फिलिस्तीन को कौन मिटा सकता है कमांडर! फिलिस्तीन अज़ीम ताक़तों का फेंका सियासी सिक्का नहीं है, बल्कि धरती का वह जला आबला है, जो ठंडा होकर “केनानियों” की जन्मभूमि में ढला था। जेरूसलम दुनिया की सबसे पुरानी बस्ती “अमन का घर” तीनों मज़हबों की पैदाइश की जगह दरहक़ीक़त सभ्यता का दिल है। तुम! अज़ीम ताक़त के मुनादीगो! उधार माँगी वक़्ती बारूदी ताक़त से क्या तारीख़ बदल डालोगे? शताब्दियों से पड़े ख़तों खुतबों पर नया नाम खोद दोगे?” तौफीक़ की आँखों में झूमते ज़ैतून के दरख़्तों पर चहचहाते परिंदे कमांडर के ख़ौफ़नाक क़हक़हों के शोर से पंख फड़फड़ाकर उड़ गए और तौफीक़ की आँखों की इबारत का सोना झिलमिला उठा।

“आज नहीं तो कल तुम्हें मुँह खोलना पड़ेगा चाहे दोस्ती से और चाहे दुश्मनी से इसका चुनाव तुम पर छोड़ता हूँ, क्योंकि तुम अपने अध्यक्ष का दाहिना न सही बायाँ हाथ तो हो, यह राज़ तो हम पर खुल चुका है। कल सुबह तक तुम्हें सोचने का मौक़ा देता हूँ।” कमांडर के चेहरे पर फ़ैसले की सख़्ती उभर आई।

“फक़त कल सुबह तक क्यों?बल्कि कल की तरह कई हज़ार सुबह भी कमांडर, तुम इन्तज़ार करो तो भी मेरे हर इंकार पर मेरी एक हज़ार जानें कुर्बान!” तौफीक़ की आँखों में झूमते दरख़्त पक्की ज़ैतूनों को धरती पर गिराने लगे।

“मुझे पूरा यक़ीन है कि तुम एक समझदार नौजवान की तरह वक़्त की नज़ाकत को समझकर मुख़बरी करना मंजूर कर लोगे। बहरहाल कल के फ़ैसले के लिए मेरी नेक ख़्वाहिशात तुम्हारे साथ हैं। अब तुम्हें आराम की ज़रूरत है।” कमांडर की भवों के हिलते ही संतरी आगे बढ़े। मशीनगन थामे फ़ौजी तौफीक़ के दोनों तरफ़ आकर खड़े हो गए। तौफीक़ की आँखों में फैले सवालों के जंगल में डूबते सूरज ने आग-सी लगा दी थी। तौफीक़ उसी सूरज को गर्दन पर उठाए कमरे से बाहर निकला।

अधेड़ उम्र का इस्रायली कमांडर तौफीक़ के जाते ही गहरी सोच में डूब गया। चेहरे पर फैली संजीदगी ने उसे उम्र से ज़्यादा बूढ़ा बना दिया। थोड़ी देर वह दीवार पर लगे नक़्शे को घूरता रहा, फिर आगे बढ़कर उसने दराज़ खोला और एक रेखाचित्र मेज़ पर फैला दिया, फिर सोचती आवाज़ में सामने बैठे अफ़सरों से बोला, “कुछ दिनों के लिए हमें अपने दूसरे ठिकाने पर चला जाना चाहिए यह छावनी ख़तरे की नज़र हो चुकी है आज से ही कूच करना शुरू कर दो, हिफाज़त का सवाल अहम है।” कहता हुआ कमांडर पेंसिल से काग़ज़ पर निशान लगाने लगा।

मशीनगन की छाँव में जब तौफीक़ चलता हुआ कमरे से बाहर निकलकर खुले में आया तो सूरज डूब रहा था। उसकी विदा होती किरणें दरख़्तों के सायों को धरती पर लम्बाई में फैला रही थीं। रास्ता कच्ची-पक्की ज़ैतूनों से भरा हुआ था। बहुत सँभालकर क़दम रखने पर भी ज़ैतून उसके जूतों के नीचे दब-दबकर अजीब आवाज़ें पैदा कर रही थीं। उनकी इस तरह फटने की आवाज़ को सुन-सुनकर उसे बड़ी तकलीफ़ पहुँच रही थी। एकाएक उसका दिल बच्चों की तरह मचल उठा कि वह भागकर जाए और ज़मीन पर बिखरी ज़ैतूनों को बीन-बीनकर अपने मुँह में डाल ले। उनसे अपनी क़मीज़ का दामन और जेबें भर ले, मगर उसने अपनी इस ख़्वाहिश को रोका। भले ही यह उसकी अपनी धरती है, मगर फिलहाल तो वह इस्रायली सरहद के दायरे में है और वह अपने वतन का शहरी न होकर यहाँ एक क़ैदी है। अपने ही इलाक़े में बस एक क़ैदी।

तौफीक़ ज़ैतूनों को देखता हुआ रास्ता तय कर रहा था। तभी अपने चेहरे पर आकर लगे कंकर की चोट से वह चौंक पड़ा—एक-दो-तीन-चार। उसने अचकचाकर अपना चेहरा बचाव के लिए इधर-उधर घुमाया। क़हक़हों को सुनकर उसने नज़रें उठाई, बैरेक के सामने खड़े चन्द फ़ौजी ज़ैतूनें खाकर उनकी गुठली उसके मुँह पर थूक रहे थे। एक घिनौनी चिपचिपाहट चेहरे से गुज़रती हुई उसके सारे वजूद में सोज़िश की तरह फैल गई, जैसे तेल के कुएँ में पलीता लग गया हो। उनके क़हक़हे उसके कानों के पर्दे फाड़ने लगे। जैसे कह रहे हों, “देखा हमारा निशाना! अचूक है। तभी हम दुश्मन के शहरों को वीरानी में और उनके चेहरों को कूड़ेदान में बदल डालते हैं।”

तौफीक़ के वजूद में बैठा अरबी घोड़ा एकाएक हिनहिनाकर खड़ा हो गया। इससे पहले कि फ़ौजी कुछ समझते तौफ़ीक़ अपनी जगह से उछला और पलक झपकते ही एक सिपाही की गर्दन की नस बाएँ हाथ से दबाकर उसे गिरा दिया। फ़िज़ा हवाई फ़ायरों से गूँज उठी। उनके आपस में गुत्थमगुत्था होने से पहले सन्तरियों ने तौफीक़ को घेर लिया। उस फ़ौजी ने तौफीक़ का दाहिना हाथ मरोड़ दिया। दर्द का सोता उबल पड़ा। सामने से सिपाही भागकर आए और फ़ौजियों को आगे बढ़ने से रोकने लगे। अपने को सीधा खड़ा रखने की कोशिश में तौफीक़ की जान निकल गई। सारा बदन पसीने से नहा गया।

“यह शोर कैसा था?” कमांडर ने कमरे से निकलते हुए पूछा।

“नये क़ैदी से…” एक फ़ौजी ने इत्तला दी।

“उस नये क़ैदी को किसी तरह की तकलीफ़ न दी जाए कल सुबह तक वह हमारा मेहमान है।” बीच में ही कमांडर ने रोबदार आवाज़ में सबको ख़बरदार किया और कुछ दूर पर खड़े हैलिकॉप्टर की तरफ़ बढ़ा।

हैलिकॉप्टर के पंखे घूमने लगे। धूल का गुबार उठा। अपने सर के ऊपर से गुज़रते हैलिकॉप्टर को तौफीक़ ने देखा। कमांडर ने पहले अपना अँगूठा उसे दिखाया फिर दो उँगलियाँ अमन का निशान बनाकर दिखाईं। हैलिकॉप्टर पेड़ों से ऊपर उठता दूर आसमान की ऊँचाइयों में पेंगें लेने लगा।

तौफीक़ को पैदल चलते हुए लगभग बीस मिनट गुज़र चुके थे। उसके अन्दर दौड़ता घोड़ा थककर सुस्त पड़ने लगा। झुटपुटा फैल चुका था, जिसमें धीरे-धीरे ज़ैतून के दरख़्त ग़ायब होने लगे और इसी पल-पल बढ़ते अँधेरे में कहीं उसके वजूद का घोड़ा भी गुम हो गया था। अब वह सिर्फ़ तौफीक़ था। ज़ख़्मों से चूर थका-हारा एक फ़ौजी क़ैदी।

“बेचारा फिलिस्तीनी! पहली बार आज हमारा मेहमान बना और हम उसे पैदल चलाकर ले जा रहे हैं। फ़ौजी ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है! न अपनों की ख़ातिर मुदारात कर सकें, न उनसे प्यार के दो मीठे बोल ही बोल सकें, सिवाय गोले-बारूद के।” एक सिपाही ने बड़े उदास लहजे से कहा और तौफ़ीक़ के चेहरे पर बहते पसीने को देखने लगा।

“सो तो है। कमांडर का हुक्म है इसलिए मेहमानदारी तो करनी पड़ेगी, चाहे हमारे पास कुछ हो या न हो।” उसी नाटकीय ढंग से दूसरी आवाज़ उभरी।

“इनसान के पास दिल होना चाहिए, दिल!” तीसरे ने सीने पर हाथ मारते हुए जज्बाती लहजे में कहा।

“चल भाई, आगे चल!” कहते हुए दो सिपाहियों ने उसे पीछे से धक्का दिया।

“आ जा मेरे शेर…यह रहा तेरा कटघरा छोटा है तो क्या यहाँ गुर्राने की पूरी आज़ादी होगी…” पहले से अन्दर पहुँचे सिपाही की हँसी गूँजी।

“यह तो जन्नत है जन्नत, मेरे यार! थोड़ी देर बाद ही हूरें शराब और शबाब का जाम लेकर आती होंगी। गुस्सा थूक देना और उनकी उड़ेली आबे-हयात को गटागट पी जाना, फिर देखना जलवा, यह कोठरी महल बन जाएगी और दीवारें हुक्म की गुलाम…फिर तुम्हारा कोई बाल भी बाँका नहीं कर पाएगा प्यारे!” लम्बे क़द के सिपाही ने सलाख़दार दरवाज़े में ताला लगाते हुए कहा।

“घबराना नहीं मेरे लाल…अभी तुम्हारा बाप भी आता होगा।” मज़ाकिया अन्दाज़ में कहा गया।

वह क्या आएगा?…अरे, माँग रहा होगा रहम और पैसे की भीख दुनिया से बड़ा मर्दे-मुजाहिद बना फिरता है!” कहक़हों में गंदी गालियाँ उलझकर रह गई बूटों की दूर होती आवाज़ के साथ। एक सन्नाटा तौफीक़ के चारों ओर पसरकर बैठ गया।

“यह सब कैसे हो गया?” सोच-सोचकर तौफीक़ का सर दर्द से फटने लगा। जब भी उसका कोई साथी पकड़ा जाता तो वह बड़े विश्वास से कहता, “मैं कभी इनके चंगुल में फँसने वाला नहीं हूँ। क़ैद का मतलब है, ज़िन्दा मौत यानी लड़ाई ख़त्म। बस, बैठे रहो हाथ पर हाथ रखकर क़ैदख़ाने में…लेनिन क्या कभी जेल गया था? एक इंक़लाबी को हमेशा चौकन्ना रहना चाहिए वरना…”

“यह कैसे मुमकिन है, वह भी गुरिल्ला लड़ाई में, कि आदमी कभी पकड़ा ही न जाए? कभी-कभी एक क़ैदी आने वाले इंक़लाब का नारा बनकर पूरे समाज की ताकत बन जाता है, जो एक सिपाही अपनी जान की कुर्बानी के बाद भी नहीं बन पाता है।” कामरेड असद कहता।

“देखो भाई! मुझे ज़िन्दगी एक मिली है, उसे मैं बैठकर नहीं गुज़ार सकता हूँ—हरकत करना ही मेरी ज़िन्दगी है और मेरी यह जद्दोजहद ही आज के समाज का नारा है।” ऊँचा क़हक़हा लगाता तौफीक। अपनी आवाज़ की प्रतिध्वनि सुनकर उस पर उदासी छा गई।

सुबह अँधेरे वे तीनों निकले थे। एक मास की लगातार कोशिशों से वह इस हमले में कामयाब हो पाए थे, मगर पल-भर में सबकुछ हो गया। जब उसे होश आया तो अपने को बड़ी-सी चट्टान पर औंधा पड़ा पाया। जैसे ही उसने घबराकर अपना सर ऊपर उठाया, टिड्डी दल की तरह इस्रायली फ़ौजी उसकी तरफ लपके। सामने उसके दोनों साथी मुर्दा पड़े थे। हैलिकॉप्टर में आग लग चुकी थी। उसने तेज़ी से हाथ जेब में डाला ताकि कैप्सूल निगल ले, मगर हाथ मुँह तक पहुँचा ही नहीं और किसी फ़ौजी ने उसके कंधे पर भरपूर बन्दूक़ का कुंदा दे मारा। कैप्सूल छिटककर दूर जा गिरी और उसका हाथ कुंदे की लगातार मार से भुर्ता बना दिया गया। वह बेहोश हो गया था। जब होश में आया तो उसकी जेबों की ज़बानें बाहर निकली हुई थीं। उसका परिचय-पत्र, नन्हा-सा चाकू, कमर पर बँधी पिस्टल और चुइंगम का पैकेट ग़ायब था।

रात आधी से ज़्यादा गुज़र चुकी थी। तौफीक़ की आँखों में नींद का कोसों पता नहीं था। नाउम्मीदी की गहरी खाई में वह एकाएक डूबने लगा था। उसे यक़ीन-सा होने लगा था कि जैसे वह इस क़ैदख़ाने से कभी आज़ाद नहीं हो पाएगा।

“अब यह मिट्टी ही मेरा बिछौना है। इस ज़मीन पर मैं घुटनों के बल चला हूँ और इसी मिट्टी को छुप-छुपकर खाने की आदत पर माँ के हाथों मार भी खाई है और इसी सरज़मीन को विदेशी हाथों से छुड़ाने के लिए मैंने हाथ में हथियार भी उठाया था। मेरे संग जाने कितने और हाथ भी उठे थे और वे उठे हाथ लगातार कट-कटकर गिरते गए। जैसे पानी की नहीं, बल्कि हाथों की बारिश हो रही हो जिससे नदी-नाले नहीं भरे, बल्कि मादरे-वतन के-सीने पर अपने बेटों के कटे अंगों से बने टीले और पहाड बनाए हैं।” सोचते-सोचते तौफीक़ ने अपना दाहिना हाथ सहलाया—दर्द की तेज़ल में दौड़ रही थी। उसने धीरे-धीरे ज़मीन पर फैले अपने जिस्म को समेटा। बड़ी मुश्किल से करवट ली और औंधा ज़मीन पर लेट गया। अपना चेहरा फ़र्श पर टिकाया फिर घुटने इस तरह से पेट की तरफ़ मोड़े जैसे नन्हा सा बच्चा माँ के सीने से लिपटकर सोना चाह रहा हो।

ऐसे ही किसी डरावनी रात के सन्नाटे में उसका जन्म हुआ था। उसके रोने की आवाज़ से फ़िज़ा पर तनी दहशत की चादर फट गई थी। माँ की दर्दभरी चीख़ों से मुर्दा पड़े गाँव में ज़िन्दगी फिर ख़ून से तर आँचल निचोड़कर उठ खड़ी हुई थी। माँ पूरे दिनों से थीं। उन दिनों गाँव में मर्द नहीं रहते थे; वे मोर्चा सँभालते थे, औरतें घर और बच्चों को…मर्दों का बदला औरतों और बच्चों से चुकाने की इस रस्म में पहले गाँव के सारे नई उम्र के लड़के गोली से भून दिए गए, फिर ऊपर से फेंके बमों से घर, खेत-खलिहान, कुएँ, तालाब सब तबाह कर दिए गए थे। जो चंद औरतें बच गई थीं, वे झुटपुटे को किसी काम से जंगल की तरफ़ निकल गई थीं। उनमें माँ और दोनों बड़ी बहनें भी थीं। जब वे लौटीं तो गाँव के क़रीब पहुँचकर अपनी आँखों के सामने गिरते गोलों और दम तोड़ते गाँव को देखकर माँ के बदन में ऐसी दहशत समाई कि उनके काँपते वजूद ने वहीं खुले आसमान के नीचे बिना किसी इन्तज़ाम के तौफीक़ के जन्म दिया था। दुश्मनों के न चाहने पर भी उस दिन गाँव में एक लड़के का जन्म हुआ था।

“मुझे कमांडर ज़िन्दगी की भीख देकर ख़रीदना चाहता है। वह क्या जाने कि जिसका जन्म ही दायरों और बन्दिशों के बाहर खुले आसमान के नीचे हुआ हो, और जिसने जुल्म की छाँव में ही आँखें खोली हों, वह आज़ादी का मतलब अच्छी तरह समझ सकता है। उसे कोई बंधन बाँध नहीं सकता, न कोई लालच उसे ख़रीद सकता है।” तौफीक़ के दिल पर छाए काले बादल छँटने लगे। अँधेरे तहख़ानों में रोशनी के दीये जल उठे।

जब कभी बाबा मोर्चे से थके-हारे लौटते, उस वक़्त घर की रौनक़ देखते बनती थी। माँ खुशमज़ा, ख़ुशबूदार खाना बनातीं, सारे भाई-बहन रंगीन फूलदार कपड़े पहनकर जश्न मनाने के अन्दाज़ से अन्दर-बाहर भागते होते। शाम ढलते घर के हाते में इकलौते ज़ैतून के पेड़ के नीचे बैठकर बाबा तराने गाते और मद्धिम सुरों में दो तारे छेड़ते। हम भाई-बहन उनके साथ कभी-कभी कोरस में गाते और कभी वह नये तरानों को हमें सिखाते जो वह मोर्चे पर सुनकर-सीखकर गाकर आते थे। माँ पूरी गरिमा और संतोष से भरी सबके चाय के गिलास ख़ाली होने से पहले भरतीं और खाने की चीज़ें आगे बढ़ाती जाती थीं। हम दीवाने मौत और खुशी, रोने और गाने के हर मौक़े पर इंक़लाबी गाना गाते थे। यह ख़याल मुझे आज आ रहा है कि अरसे बाद मिलने पर खुशी की जगह हम शहादत की धुनें बजाते थे; शायद इसलिए कि हो सकता है, यह हमारी आख़िरी मुलाक़ात हो। अपना अलविदाई मर्सिया हम खुद पढ़ लें। बाबा के चले जाने के बाद माँ एकदम बदल जातीं। सारे दिन काम में मसरूफ़ रहतीं। आराम उन्हें रात गए नसीब होता था। तब हम तीनों भाई-बहन तारों की छाँव में एक-दूसरे से लिपटे माँ के पास घुसे होते और उस वक़्त वह अपने बचपन की बातें सुनातीं। तौफीक़ को लगा कि वह माँ की कमर में हाथ डाले, अपना बायाँ पैर उनके पेट पर रखे उनके बग़ल और छाती की खुशबू सूँघता उनकी आवाज़ में डूबता जा रहा है…

“जब दारयासीन गाँव तबाह हुआ तो मरने वालों में दो सौ चालीस लोग थे, जिन्हें उँगली पर गिना जा सकता था। वह पहला हमला था इस्रायलियों का हम पर …पूरे गाँव की तबाही देखकर खुद यहूदियों ने दाँतों तले उँगली दबा ली थी कि इस क़त्लेआम और नाज़ियों द्वारा यहूदियों के क़त्लेआम में कोई फ़र्क़ नहीं रह गया है। तारीख़ यदि अपने को यूँ दोहराती रहेगी तो इस तरह की तबाहियाँ कभी ख़त्म नहीं होंगी। उस वक़्त मैं दस साल की थी, यह बात मैं 1948 की बता रही हूँ। तब से आज तक हमने आठ-नौ जगहें और ठिकाने बदले हैं। कितनी बार ख़मों में रहे, कितनी बार इस्रायली फ़ौजों की निगरानी में बन्दियों की तरह वर्षों गुज़ारे। बस, समझो ख़ानाबदोश न होकर भी हमने घर कंधों पर रखकर चलना सीख लिया था।”

“मगर माँ, आख़िर हम कब तक यूँ फिरते रहेंगे?” राबिया घबराकर पूछ बैठती।

“यह हमारी नहीं फिलिस्तीन की तक़दीर है। जो धरती अट्ठारह बार विदेशी हुकूमतों को झेलकर भी अपनी पहचान को न खोने की क़सम खा बैठी हो, उसका मुक़द्दर तो बस जद्दोजहद करना रह गया है। कल और आज के कशमकश में बुनियादी फ़र्क़ यह है कि पहले फिलिस्तीनियों को देशनिकाला नहीं मिलता था बल्कि विदेशी हममें घुल जाते थे और आज विदेशी हुकूमत के साथ फिलिस्तीनियों से उनकी अपनी धरती से उनका हक़ भी ळीना जा रहा है “बस, यही बदलाव आया है इस लड़ाई में, जो हम शताब्दियों से लड़ते आए हैं।” माँ ठण्डी साँस भरकर कहतीं।

“माँ, तुम्हें यह सब किसने बताया?” तौफीक बीच में घबराकर उठ बैठता और पलकें झपका-झपकाकर माँ को ताकता।

“बेटे! जिस बदनसीब मुल्क में मदरसे बन्द हो जाएँ, किताबें ग़ायब हो जाएँ, वहाँ माँ-बाप ही बच्चों के मक़तब और उस्ताद होते हैं ये बातें मैंने अपनी माँ से सुनीं और तुम अपनी माँ से सुन रहे हो ये हादसे तो हमारे सीनों पर लिखी तारीखें हैं जो एक ज़बान से दूसरी ज़बान तक अपना सफर तय करती हुई एक-दूसरे के सीनों में दफ़न हो जाती हैं” कौन जाने ये तारीख़ी सनदें, ये तारीख़ी यादें हमारे वजूद में कब तक फैलती जाएँगी” कौन जाने?” माँ तौफीक़ का माथा चूमकर कहतीं।

“आगे बताओ न!” बेचैनी से तौफीक़ कहता। उसे महसूस होता जैसे माँ की बातें उसके अन्दर कई रास्तों को बना रही हैं। इन राहों से बने डेल्टा के बीच वह उलझकर खड़ा रह जाता और उसे लगता कि आगे सब अँधेरा है। जहाँ उसे जाना है वहाँ सबकुछ स्याही में डूबा हुआ है।

“जब जेरूसलम को बाँटा गया, उस वक्त विदेशी यहूदी तिहाई हिस्से पर क़ाबिज़ हो गए। उस वक़्त उस दीवार से लिपटकर केवल यहूदी पछतावे के आँसू नहीं बहाते थे बल्कि जाने कितनी फिलिस्तीनी औरतें रोतीं—उनके घर, उनकी ज़मीन, उनकी यादें दीवार के दूसरी तरफ़ छूट गई थीं फिर बेचैन दिलों ने दीवार में छेद करने शुरू कर दिए नई खींची सरहद पर खड़ी वह दीवार छलनी हो गई और उसी से झाँकती प्यासी आँखें घंटों अपने घरों और इबादतगाह को ताकती रहतीं तुम्हारी नानी आँसू पोंछते-पोंछते जिनकी आँखें ज़ख़्मों से चूर हो गई थीं, मगर बेनूर आँखें लिए वह दीवार से सटी बैठी रहतीं जैसे…” माँ की आवाज़ भारी होते-होते उनके गले में फँस जाती।

डरकर तौफीक़ अपनी आँखों पर हाथ रख लेता। तौफीक़ अकसर बीच में ही सो जाता था और सारी रात सपने में जेरूसलम, दार, यासीन, पश्चिमी तट और गाज़ा पर घूमता रहता, फिर मशीनगन की आवाज़ से डरकर चीख़ पड़ता और काँपता हुआ माँ के सीने से लिपटकर फफक उठता।

वह बीज जो माँ ने उसके कोमल मन की धरती पर बोया था, वह अब बड़ी भारी कैक्टस की झाड़ में बदल गया था, जिसमें सिर्फ़ प्रतिशोध के काँटे ही काँटे उगे थे। उनके बीच जब कभी सुर्ख़ फूल खिलता था तो तौफीक़ का मन आशा से भर उठता था कि एक दिन वह अपने वतन को आज़ाद करा लेगा फिर किसी एक दिन गिरते बम, उड़ती-ढहती इमारतें, उजड़ती बस्ती उसके आशा के लाल फूल को मुरझाकर गिरा देतीं और उसे लगता कि वह कभी भी फिलिस्तीन की सीमा को दोबारा निर्धारित नहीं कर पाएगा टुकड़े-टुकड़े हुए फिलिस्तीन को कभी नहीं जोड़ पाएगा अपने खेत कभी नहीं जोत पाएगा। ख़ानाबदोश भटके फिलिस्तीनियों को कभी जमा नहीं कर पाएगा और अपने आने वाले कल में जब बरसों बाद उदास बेघर नस्लें अपनी सोच में सिर्फ़ फिलिस्तीन को देख पाएँगी और उसके बाद की आने वाली नस्लें सिर्फ़ इतिहास की किताबों में फिलिस्तीन के बारे में जान पाएँगी जहाँ न ज़ैतून की महक होगी न मिट्टी की गंध, वहाँ सिर्फ़ काग़ज़ की फड़फड़ाहट पर काले अक्षर और रंगीन रेखाओं से फिलिस्तीन का मुर्दा नक़्शा होगा। उसके अन्दर कँटीली झाड़ी में अटकी सिर्फ़ तार-तार उसकी आत्मा होगी—“तौफीक़ ने ठंडी साँस भरी और बाएँ हाथ पर अपने बदन का बोझ डालकर वह उठने लगा।

पौ फट चुकी थी। कोठरी के मुख्खे से फ्रीकी रोशनी की पतली लकीर अँधेरे को चीरने लगी थी। तौफीक़ ने हाथ मुँह पर फेरा। दाढ़ी बढ़ गई थी। उसने ज़ोरदार जम्हाई के साथ पैरों को झटका और दीवार से पीठ लगाकर बैठ गया। थोड़ी देर बाद धूप का नन्हा-सा चकत्ता उसके हाथ पर आकर ठहर गया। पहले वह इस नन्हे से उगे सूरज की गोलाई को ताकता रहा फिर सर झुकाकर उसे चूम लिया। जाने कब तक वह सिज़दे में गिरा रहता, यदि दरवाज़ा खुलने के साथ भारी आवाज़ उसे चौंका न देती।

“बाहर निकलो!”

तौफीक़ दीवार का सहारा लेकर खड़ा हो गया, फिर लड़खड़ाता हुआ-सा आगे बढ़ा। उसका बदन पत्थर की ऊबड़-खाबड़ ठंडी ज़मीन पर लेटने से अकड़ गया था।

“तुम अरब तो बड़े जंगजू मशहूर हो, लड़ते-लड़ते स्पेन तक पहुँच गए थे; मगर यहाँ एक रात में ही कमर के सारे टाँके ढीले हो गए!” फ़ौजी ने उसकी कमर पर धौल जमाई।

“दोग़ला है!” क़हक़हा गूँजा।

यह जुमला सोटे की तरह तौफीक़ की पीठ पर पड़ा। अन्दर बैठा घोड़ा हिनहिनाकर खड़ा हो गया। ख़ून ग़र्दिश में आ गया। कान की लवें गर्म हो गईं। गालों से भाप उठने लगी। दिल चाहा कि अपनी वहशी टापों से दुश्मन का सीना कुचलकर रख दे।

“बैठो!” कमरे में घुसते ही भर्रायी आवाज़ गूँजी।

तौफीक़ किसी अड़ियल घोड़े की तरह अड़ा रहा। कान में सिर्फ़ एक झनझनाहट गूँज रही थी और आँखें जैसे ख़ून का कटोरा बन गई थीं। कुछ देर पहले कही गई बात उस पर लगातार कोड़े बरसा रही थी।

“कम सुनता है क्या?” वही आवाज़ उभरी।

“बैठ जाओ।” कहते हुए लम्बे क़द के अफ़सर ने तौफीक़ के शानों को नीचे दबाया। पीछे से फ़ौजियों ने धक्का दिया। तौफीक़ स्टूल पर बैठ गया। चट-चट करके उसके पैर की हड्डियाँ बोल उठीं।

“हाँ, तो तुमने क्या फ़ैसला किया है?” सवाल उभरा।

“फ़ैसला हमारा वही पुराना है। मरो तो शहीद कहलाओ और मारो तो ग़ाज़ी।” तौफीक़ की आँखों में दिखती पत्थर की दीवार उसके सर पर बँधे चारख़ाने के रूमाल की तरह ख़ून में तैर रही थी। होंठ एक-दूसरे पर जमे थे, जैसे सबकुछ ठहर गया हो।

“क्या सचमुच तुमने मरने की ठान ली है?” सामने बैठा हुआ आदमी चिंघाड़ा। “अगर हम चाहें तो तुम्हारी यह ख़ामोशी पल-भर में गुब्बारे की तरह फट जाएगी और तुम्हारी वह आख़िरी चीख़ हमारे ज़ख़्म पर मरहम का काम करेगी।” लाल मुँह वाले अफ़सर ने अपनी ख़ामोशी तोड़ी।

“कोशिश करके देखो।” तौफीक़ का वजूद चुनौती में ढल गया।

“हम भूले नहीं हैं अपने ऊपर हुए जुल्म को, जिसमें सिर्फ़ हिटलर के नहीं, बल्कि तुम अरबों के हाथ भी रँगे हुए हैं। जब हम ज़िन्दा जलाए जा रहे थे। हमारी राख से ज़मीनें ज़रख़ेज़ बन रही थीं। हमारे अर्क़ से साबुन और चमड़े से जूते बनाए जा रहे थे। हमारी नई नस्लों को गैस के चैम्बर में बन्द कर दिया जाता था। उस वक्त तुम्हारी यह दुनिया कहाँ थी? जब हम इधर-उधर पनाह की तलाश में अपने ही ख़ून से नहाए भाग रहे थे, उस वक़्त ये हमदर्द लोग कहाँ थे जो आज फिलिस्तीन से हमदर्दी दिखा रहे हैं? क्या इनसानियत का पैमाना हर इनसान के लिए अलग होता है? अब हम यहूदी हुकूमत की मोहर को न सिर्फ़ अरबों बल्कि दुनिया के सारे ज़ालिमों के दिलों पर ठोंकेंगे कि अब हम “यहूदी सरग़र्दान” नहीं रह गए हैं जिस पर आज तुम सितम तोड़ सको। अब दर-ब-दर की ठोकरें खाने वाली क़ौम का भी अपना मुल्क है जिसका नाम इस्रायल है…।” ताँबे की रंगत वाला अफ़सर नफ़रत से तौफीक़ को देखते हुए बोला।

“अपनी धरती को छोड़कर जगह-जगह बसने वाले तरह-तरह का नमक चखने वाले दुष्ट व्यापारी! तुम किस धरती के हक़दार बनने का ख़्वाब देख रहे हो? भूल गए कि स्पेन में हमने तुम्हें जुल्म के चंगुल से आज़ाद कराया था?” तौफीक़ के अन्दर उठता तर्क का तूफ़ान उसके हलक में फँसने लगा।

“पहली आसमानी किताब “तौरेत” मूसा पर नाज़िल हुई थी। उसमें लिखा है कि ख़ुदा ज़मीन देने के लिए वचनबद्ध है और तुम उस हुक्म के ख़िलाफ़ बन्दूक़ उठाते हो? हम क्यों मिस्र में बसें? हम क्यों कीनिया जाएँ? हमारा मज़हब, हमारी इबादतगाह जेरूसलम में है, जहाँ हमने सत्तर साल हुकूमत की है और अब तुम कहते हो कि पुरानी तौरीद जल गई और यह नई तौरीद लिखी गई है, जिसमें हमने वह सब अपने से लिख दिया है जो हम चाहते हैं। यह मत भूलो कि यहूदी और मुसलमान एक ही आईने के दो रुख़ हैं— झिलमिलाता शफ़्फ़ाफ़ रुख वह यहूदी है जो अपने को पहचानता है और दुनिया उसे पहचानती है और तुम मुसलमान अरब आईने का वह अंधा हिस्सा हो जो याकूती रंग के बावजूद अपने को न देख पाता है और न पहचान पाता है। तुम हम यहूदियों का विस्तार होकर भी एक भटकी क़ौम हो जो तेरह सौ साल से फिलिस्तीन पर अपनी सल्तनत जमाए हुए थी।” वह ताँबे की मूर्ति गुस्से में तमतमा उठी।

“ आज तुम्हें हज़ारों साल बाद अपने पूर्वजों का घर याद आ रहा है, नमकहरामो! तुम कैसे साबित करोगे कि तुम ख़ालिस अरब यहूदी हो? क्या भूल गए कि तुम मूसा के साथ उनके मुरीद बनकर हमारी धरती पर आए थे! ख़ैर, पुरानी बहस छोड़ो। आज तक जिस धरती का नमक बरसों से खाते आए हो वह क्यों नहीं तुम्हारा वतन बन पाया? माना तुम्हारा ग़म बहुत बड़ा है, मगर हमारे ग़म से बड़ा नहीं है। यदि सदियाँ गुज़र जाने के बाद नस्लें अपने पूर्वजों के घर आज तुम्हारी तरह ढूँढ़ने और उन स्थानों पर जाकर बसने की ज़िद कर बैठें तो जानते हो, क्या होगा? उस वक़्त यह धरती सिर्फ़ उदास नस्लों का मरघट बनेगी।” तौफीक़ के ख़ूनी कटोरे छलक पड़ने को बेचैन हो उठे।

“तुम ज़ाहिलों के पास आज एक भी नाम ऐसा नहीं है जो पूरी सदी पर छा सके। आइंसटाइन…दूसरा नाम जिसने दुनिया को एक नया फ़लसफ़ा दिया कार्लमार्क्स। काले सोने के ठेकेदारो! तुम्हारे पास दूसरी दौलत भी इतनी नहीं है जो हमारी तरह तुम अज़ीम ताक़तों को नाकों चने चबवा सको। अगर आज हम महाशक्ति के बैंकों से अपना धन निकाल लें तो उनकी अर्थव्यवस्था चरमरा जाएं तुम क्या हो, सिर्फ़ अय्याश! जुआरी लड़ाकू ने अपना सबकुछ अज़ीम ताक़तों के सुपुर्द कर देने वाले अहमको। मध्यपूर्व के फैले विस्तार में हमारा नन्हा-सा वजूद देखो, कल क्या गुल खिलाता है। देखते जाना समुद्री लुटेरो! देखते जाना” लाल मुँह वाले अफ़सर ने नफ़रत से एक-एक शब्द चबाकर कहा।

“विलायती ख़यालों के समुंदर पर किश्ती खेने वाले विलायती यहूदियो! तुम हम सबको मौत के घाट उतारकर भी किनारे नहीं पहुँच पाओगे, बल्कि जिस गलत धारा पर तुम सवार हो वह तुम्हें हमारे बहे खून में डुबो देगी—फिलिस्तीन तो एक ऐसा चौराहा था जिसका महत्त्व स्वेज़ नहर के खुलने से पहले भी विलायती समझता था, क्योंकि उसे हिंदुस्तान को क़ब्ज़े में करना था। तेल तो आज निकला है। जब तेल नहीं था उस वक्त से बाहरी ताक़तें हमें ग़ुलाम बनाने के लिए बेचैन थीं। क्या तारीख़ भी नहीं जानते तुम? क्या यह भी नहीं समझते कि हमारे दिनों और वर्षों को किस तरह तबाह किया जा रहा है, ताकि हमारा उज्ज्वल अतीत ख़ूनी वर्तमान में डूब जाए? हमें तुम ही तो फूट डलवाकर बिखेर रहे हो? सदी और सरहदों पर छा जाने वाले दिमाग़ों को नस्ल के दायरे में मत बाँधो…उससे तुम्हारे गुनाह सवाब में नहीं बदल पाएँगे सुनो यहूदी कंजूस! अपना घर दूसरों की ज़मीन पर बनाओगे तो वे अपना हक़ माँगेंगे और तुम नाहक़ बेघर होने का ग़म झेलोगे। ताक़त के ज़ोर पर कही बात ज़रूरी नहीं तथ्यपूर्ण भी हो और सच्ची भी।” तौफीक़ के ख़ामोश चेहरे पर उसकी बोलती आँखें बिजली की तरह तड़पने लगीं।

सामने का दरवाज़ा खुला। एक लम्बा-चौड़ा अफसर दाखिल हुआ। सबसे सलाम-दुआ करके वह एक तरफ़ सोफ़े में धँस गया। उसके पीछे ही क़हवे की सेनी उठाए फ़ौजी दाख़िल हुआ और सैल्यूट के बाद उसने सेनी सबके आगे बढ़ाई।

“कुछ बताया?” नए आए अफसर ने पूछा।

“नहीं।” ताँबे के चेहरे वाले ने नफ़रत से कहा।

“हमारा दोस्ती का मुहायदा सुबह दस बजे तक था। अब ग्यारह बज रहे हैं। “ घड़ी देखते हुए नए आए अफ़सर ने कहा।

“नम्बर पाँच?” लाल मुँह वाले ने पूछा।

“अभी नहीं।” नए अफ़सर ने क़हवे की ख़ाली प्याली रखते हुए कहा।

“तुम्हारा अगला मंसूबा क्या है?” नए आए अफ़सर ने खड़े होकर तौफीक़ से पूछा।

“तुम लोगों की तबाही।” तौफीक़ के ख़ामोश कसे होंठ आपस में बिंध गए।

“तुम्हारा अध्यक्ष कहाँ है?” लहजा इस बार सख़्त हो गया।

“एक जगह हो तो बताऊँ” जब पूरी क़ौम बिखर गई हो तो उसका अध्यक्ष क्या एक जगह रह सकता है?” तौफीक़ की आँखों में चट्टानों की सख़्ती उभर आई थी।

“बताओ!…” कहकर एक ज़न्नाटेदार चाँटा तौफीक़ के मुँह पर पड़ा।

ख़ून की पतली लकीर होंठों के कोने से निकलकर क़मीज़ पर टपकने लगी।

“अच्छी तरह ख़ातिर करके इसकी लाश को सरहद पर टाँग देना, ताकि चील-कौओं की दावत के साथ दूसरे बेवाकिफ भी अपने अंजाम को जान सकें।” कहता हुआ अफ़सर तौफ़ीक़ को घूरने लगा।

“तुममें से कोई भी शख़्स इस तारीख़ी इमारत के अँधेरे तहखानों में उतर नहीं सकता है…यह जगह इस्रायलियों के बीच वर्जित है। इन राहदारियों में सिर्फ़ फिलिस्तीनी सफ़र कर सकते हैं, जिनकी मंज़िल आज़ादी है, जिनकी पहचान फिलिस्तीन है।” सामने दीवार पर टँगी राइफलों का क्रॉसचिह्न तौफीक़ की पुतलियों पर अंकित हो गया।

कल दोपहर से तौफीक़ की हर दो घंटे बाद पेशी होती और पूछताछ का भयंकर अज़दहा मुँह खोलकर उसके सामने बैठ जाता था। अपने तेज़ नुकीले दाँतों से उसकी ख़ामोशी को तोड़ने की नाकाम कोशिश में वह तौफीक़ की मांसपेशियों के चिथड़े-चिथड़े कर देता था और तौफीक़ अपने को मज़बूती से पकड़े रहने की कोशिश में मर-मरकर जीता और हर बार सोचता…

ये लोग मुझे मौत से क्या डराएँगे जिसने दस साल की उम्र में अपने बाप को फाँसी पर चढ़ते देखा हो। जिनके मुँह से उबलते ख़ून को ज़मीन पर लोटती अपनी माँ और बहन के चेहरे पर टपकता देखा हो। उसी दिन से मेरे अन्दर गुस्से का उफनता समुंदर हिलोरें ले रहा है। जैसे मैं एक ताक़तवर अरबी घोड़े में बदल गया हूँ जो एक दिन अपनी वहशी टापों से दुश्मन का सीना कुचल देगा। अपने मज़बूत दाँतों से दुश्मनों की गर्दन चबा जाएगा तब से अब तक पूरे बीस साल से मैं एक दीवाने वहशी घोड़े की तरह दौड़ रहा हूँ हर बार थककर शाम को लौटते हुए महसूस होता था कि मैं मंजिल से बहुत दूर हूँ, मगर हर सुबह सूरज की पहली किरण फिर क़ासिद की तरह मेरा दरवाज़ा खटखटाकर पैग़ाम दे जाती कि…

“उठो! माँ को आज़ाद कराओ उसका जिस्म दुश्मन अपनी ज़ंजीरों में बाँध रहे हैं।” और मैं सबकुछ भूलकर सरपट मैदाने जंग की तरफ भागता।

“कल सुबह का सूरज मुझे क्या पैग़ाम देगा?मौत का? मौत से अब क्या डरना?” सोचता हुआ वह आगे बढ़ा और कोठरी के मुख्खे के नीचे जाकर खड़ा हो गया। बाहर गूँजता शोर धीरे-धीरे करके कम हो रहा था, शायद आधे से ज़्यादा सिपाही कूच कर गए थे।

“काश! यह मुख्खा थोड़ा बड़ा होता।” सोचता हुआ थका-थका-सा तौफ़ीक़ चबूतरे पर बैठ गया।

राबिया और समीरा उसकी बड़ी बहनें थीं और रूया सबसे छोटी। बाबा के फाँसी चढ़ने के ठीक तीन मास बाद पैदा हुई थी। तीनों के चेहरे तौफीक के सामने एक-एक करके कौंध गए। जब समीरा के सामने के दाँत टूटे थे तो वह अपना चेहरा आईने में देख-देखकर ख़ूब रोती थी। बड़ी मुश्किल से उसे यकीन आया था कि दाँत दोबारा निकल आएँगे। समीरा का ख़याल आते ही उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैल गई। अपनी पीठ पर पड़ते दनादन घूँसों का ख़याल आया जो हर बार खेल में हारने के बाद समीरा उसे मारती थी कि तौफीक ने बेईमानी की है।

तौफीक़ के चेहरे की मुस्कराहट ग़ायब हो गई। पीठ पर पड़ते घूँसों का दर्द तपकन बनकर सीने में फैल गया, जहाँ रूया का चेहरा खिल उठा था दो साल की रूया, सफ़ेद चेहरा और सुनहरे बालों वाली रूया! एकाएक हमेशा के लिए आँखें बन्द करके माँ की गोद में सो गई थी। बमबारी में पार्क में खेलते-दौड़ते बच्चे एकाएक ठहर गए थे। उनमें रूया भी थी। उसके दोनों पैर झुलस गए थे। वह बाबा की दूसरी तस्वीर थी। माँ उसकी लाश दफ़नाने के बाद एकदम से टूटकर बिखर गई थीं, जैसे बाबा उनसे इस बार सचमुच हमेशा के लिए बिछुड़ गए हों—

तौफीक़ की आँखों में बस्ती का आँगन फैल गया, जहाँ गलियाँ थीं, घर थे, दीवारें थीं, छत और ज़मीन थी। जहाँ दरख़्तों के झुंड थे। जहाँ पकी अंजीरों को तोड़कर खाने का मुकाबला होता था। जहाँ खेल-कूद, मार-पीट के साथ “मिल्ली” और “कुट्टी” होती। यही सबकुछ बोलता था, चहकता था, मगर कोई सुस्त बैठकर इस तरह गुज़री बातों को सोचता नहीं था,बल्कि सब ज़िन्दगी के बहाव में बह रहे थे।

मौत किसी वक़्त भी आ सकती है। उसकी अचानक आमद का ख़ौफ़ ज़िन्दगी से ज़्यादा मोहब्बत करना सिखाता है, तभी हर लमहे उमंगों से भरपूर सब एक-दूसरे के दुख-सुख में डूबे एक-दूसरे के लिए हँसते-मुस्कराते थे। उनके लिए अपना-पराया कुछ नहीं रह गया था। अभी तौफीक़ जाने कब तक सोच में डूबा रहता, यदि संतरी ने उसे पुकारकर जँगले से उसकी तरफ रोटी उछालकर न फेंकी होती।

कल की रोटी भी पड़ी सूख रही है। वह क्यों इनका दिया अनाज खाए? उसे तो यहाँ से निकल भागना चाहिए सुबह से पहले इनकी पहुँच से दूर। तौफीक ने चारों तरफ़ नज़रें घुमाईं, जैसे अन्दाज़ा कर रहा हो कि कैसे भागा जा सकता है।

घुड़म-घड़ाम…घड़…हवाई जहाज़ शोर करते गुज़र गए। बम के गिरते गोलों से धूल और बारूद के कण मुख्खे से अन्दर कोठरी में आने लगे। तौफीक़ के अपनी आज़ादी की तलाश में पत्थर टटोलते हाथ एकाएक जम गए। वह ठिठका-सा रह गया, फिर खुशी के मारे उसका दिल ज़ोरों से धड़कने लगा। उसके हमवतन आख़िर आ ही गए—दूसरे ही लमहे वह उचका और मुख्खे में अपना मुँह डालकर बाहर झाँकने की कोशिश करने लगा। मगर वही मुट्ठी भर आसमान, दो शाख़ जो धूल के गुबार में धुँधला गई थीं।

जहाज़ गुज़र चुके थे। छावनी बर्बाद हो चुकी थी। अब सिर्फ़ सन्नाटा था। जैसे भी सहमकर ठिठक गई हो।

मैं कैसे बच गया? ताज्जुब और खुशी से तौफीक ने अपने चारों तरफ ताका, जैसे यकीन नहीं आ रहा हो…।

“मुझे सुबह गोली से उड़ाने वाले थे। खुद उड़ गए सबके सब तौफीक उठा और मुख्खे की तरफ बढ़ा। उसका सीना इस वक्त नए हौसलों से चौड़ा हो गया था। उसके चेहरे पर नई उमंग का रंग बिखर गया था।

“यह क्या?” एकाएक उसकी नज़र छत पर टिक गई। पता ही न चला कब कोठरी का कोना बम के किसी टुकड़े से उड़ गया था। ऊपर दिखते छेद से नीला आसमान और ज़ैतून की शाखे झाँक रही थीं। धूल बैठ गई थी, मगर बारूद की गंध अभी बाकी थी।

“आह! नीला आसमान!” तौफीक का दिल खुशी के मारे धड़कने लगा।

छत का छेद इतना बड़ा था कि वह उससे आसानी से बाहर निकल सकता था, मगर वहाँ तक पहुँचे कैसे? पैर टिकाने में पत्थर की दीवार ने घुटने और उँगलियों को छीलकर रख दिया था। अभी वह हिम्मत नहीं हारा था। उसे पूरी उम्मीद थी कि वह यहाँ से निकल भागेगा। खुशी से वह उछला और कोठरी के कोने में रखे मटके की तरफ बढ़ा अन्दर झाँका पानी ऊपर तक भरा था।

“इसका पानी बाहर निकालकर अगर मैं मटके को घसीटकर सुराख़ के नीचे रख दूँ तो छत तक पहुँच सकता हूँ।” चमकती आँखों से तौफीक ने सोचा और बर्तन अन्दर डालकर पानी निकालने लगा। तभी उसकी नज़र मटके के नीचे जाकर टिक गई।

“नहीं!” मायूसी से डूबी आवाज़ निकली, मटका पत्थर की थाल में गोलाई से जड़ा हुआ था। तौफीक ने लम्बी साँस खींची और नज़रें छत पर गाड़ दीं।

सूरज धीरे-धीरे ऊपर आ रहा था। छत के छेद से फूटती रोशनी कोठरी में उजाला भरने लगी। वह मुख्खे में मुँह डालकर चिल्लाया :

“फिलिस्तीन ज़िन्दाबाद…।”

वह पूरे दम से चीख़ा मगर…? सिर्फ़ हवा साँप की तरह रेंगकर मुख्खे के बिल में घुसी और उसके लफ्ज़ निगल गई। उसने मुँह नीचे किया। गूँ-गूँ…गाँ जैसी गरगराहट के अलावा उसके गले से कोई आवाज़ नहीं निकली। उसने सारी ताक़त जमा करके पुकारा, “मदद…मदद…!”

“क्या वह गूँगा हो गया है?क्या उसकी बोलने की ताक़त जाती रही? हो सकता है, वह गूँगा नहीं बहरा हो गया हो? क्या हो रहा है उसे?” तौफ़ीक़ पसीने से सराबोर हो गया। इतना तन्हा, इतना कमज़ोर, इतना बेचारा उसने अपने को पहले कभी महसूस नहीं किया था। उदासी के गहरे भँवर में डूबने से पहले फिर एक बार वहशत से चीख़ा। मगर बाहर हवा का चलना और उसके अन्दर बढ़ता ख़ामोश सन्नाटा साँय-साँय करता हुआ उसकी चेतना पर छाने लगा।

“मेरे साथी मुझे ढूँढ़ने आएँगे। माना यह हिस्सा छावनी से बहुत दूर है, तो भी वे मुझे ढूँढ़ लेंगे…कोई न कोई आएगा ज़रूर।” नीले धुले आसमान को धीरे-धीरे अँधेरे में घुलते देखकर तौफीक़ ने अपने को दिलासा दिया।

इस कोठरी में तौफीक़ का आज सातवाँ दिन है। भूख से उसकी अन्तड़ियाँ खुद अपने को खाने लगी थीं। कोठरी में रखे घड़े का पानी काफ़ी कम हो गया था। सूखी रोटियों के ढेर पर बारूदी गोले ने गिरकर मलबे का ढेर बना दिया था, वरना तौफीक सारा मान-सम्मान छोड़कर ज़िन्दा रहने के लिए ज़रूर वह सूखी रोटी चबाकर कुछ दिन अपनी आज़ादी की उम्मीद का दीया जलाए रखता। आख़िर दुश्मनों से घिरकर जब “तक़इया” की इजाज़त दीन देता है तो फिर मजबूरी में दुश्मन की रोटी तो खा ही सकता था और अब यह ताक़तवर बदन भी तो पिछले सात दिन में घुल-घुलकर तौफीक़ को पानी के बलबूते पर सँभाले हुए है। मगर यह सब कब तक चलेगा?

एक दिन तेज़ हवा ने बचे दरख़्तों की किसी एक शाख़ से पक्की काली ज़ैतून को उड़ाकर मुख्खे की ढाल पर रख दिया था। रोशनी में चमकती काली ज़ैतून तौफीक़ को दुनिया की सबसे बड़ी नियामत लगी थी। वह अपनी सारी ताक़त बटोरकर उठा और इससे पहले कि उसका हाथ मुख्खे तक पहुँचता, हवा के दूसरे झोंके ने उसे झटके से बाहर की तरफ़ गिरा दिया। तौफीक़ दिल मसोसकर रह गया। पपड़ी पड़े होंठों पर सूखी ज़बान फेरता हुआ वह वहीं चबूतरे पर बैठ गया। थोड़ी देर तक हारा-सा बैठा रहने के बाद वह चबूतरे पर लेट गया और पत्थर की दीवारों को ताकता रहा।

आजकल मुझे खाने के सिवा कुछ भी याद नहीं आता…। आख़िर मुझे होता क्या जा रहा है? सोता हूँ तो, जागता हूँ तो माँ के हाथों से बने पकवान…।

माँ का ख़याल आते ही उसे अपना घर याद आने लगा। ख़बर सुनते ही वह भागा-भागा गया था। आधा शहर ऊँची-ऊँची इमारतों के साथ ढह गया था। वह कैसी काली रात थी। बारिश की बूँदों ने मलबे को धो डाला था। एम्बुलेंस, फ्रायर ब्रिगेड और रेडक्रॉस की भागती गाड़ियों की हैडलाइट में मलबों पर थरथराती बूँदें चमक उठती थीं। फ्रायर ब्रिगेड स्टोर की आग पर काबू पा चुकी थी। मलबे पर चलते हुए सड़क नाम की चीज़ टूटी खिड़कियों, दरवाज़ों, दीवारों, सामानों के ढेर में कहीं गुम हो गई थी। इसी मलबे के ढेर पर चलकर उसे अपना घर ढूँढ़ना था।

अभी थोड़ी ही दूर चला था कि पैरों के नीचे कुछ नर्म-सी चीज़ आ दबी। सारे बदन में झुरझुरी-सी दौड़ गई। माथे पर पसीना छलक आया। किसी मृत देह का कोई अंग…यह उसी का मोहल्ला है होगा कोई जान-पहचान वाला या साथी-संगी एक लम्बी साँस लेकर उसने टॉर्च रौशन की। उसके जूते के नीचे रबर की बहुत बड़ी-सी गुड़िया थी। ठीक रूया जैसी सुनहरे घुँघराले बाल उसने झुककर गुड़िया उठा ली।

पानी से भीगी गुड़िया मुस्करा रही थी। जाने किस जज़्बे के तहत उसने गुड़िया को सीने से लगाकर ज़ोर से भींच लिया। फिर उसके गालों और बालों पर बेतहाशा प्यार करने लगा।

उसका घर क़रीब आ चुका था। उसने बहन का लाया उपहार जेब में टटोला। डिबिया मौजूद थी। बड़ी मुश्किलों से कई जगह कई दुकानें देखकर वह इस बार उसकी फ़रमाइश पूरी कर पाया था। नाजुक ज़ंजीर में क़ैद परिंदा उड़ने को बेचैन था। बहन की सफ़ेद गर्दन पर लटकता यह परिंदा उसे हमेशा अपने फ़र्ज़ की याद दिलाएगा। मगर वह गर्दन सबकुछ आगे का सबकुछ टूटते सितारों में बदलने लगा।

तौफीक़ का घर सामने साबुत खड़ा था।

एक बार गाँव तबाह हुआ तो मैं पैदा हुआ, मगर हमारे खेत हमसे छिन गए। दोबारा जब हमारा आधा शहर उजड़ा तो मेरा ख़ानदान मुझसे बिछुड़ गया और आज जब दुश्मनों की छावनी पूरी की पूरी उजड़ गई तो मैं अपनी ही धरती पर बन्दी बना अपनों से दूर पड़ा हूँ क्या यहाँ से मैं कभी आज़ाद हो पाऊँगा? मुझे यहाँ कोई लेने आएगा? इन अँधेरी सुरंगों का सफ़र कब ख़त्म होगा? हम फिलिस्तीनी कब गुफ़ाओं से निकलकर इनसानों की तरह धरती को जोतेंगे, बोएँगे, फ़सलें उगाएँगे?

इससे तो कहीं अच्छा था कि मैं उसी यहूदी अफ़सर के हुक्म से गोलियों से बींध दिया जाता। कम-से-कम उस मौत में कोई मक़सद तो होता इस तरह से बेमतलब एड़ियाँ तो न रगड़ता—भूख, ख़ौफ़, तन्हाई, ख़ालीपन कैसे बाँझ दिन गुज़र रहे हैं! तौफीक़ के अन्दर सुस्त पड़ा घोड़ा एकाएक उछलकर खड़ा हो गया। उसकी नसों में दौड़ता ख़ून पछाड़ें खाने लगा। तौफीक़ ने दरवाज़े को पूरी ताक़त से झँझोड़ा। उस पर दीवानगी-सी छा गई थी। उसने सलाखों पर सर दे मारा, मगर बेसूद सामने पत्थर की दीवार मुँह खोले खड़ी थी। उसके अन्दर तड़पते-उफनते तूफ़ान से बेपरवाह। तैश में आकर वह कोठरी की दीवार पर अपनी बँधी मुट्ठी मारने लगा।

मजबूरी…बेबसी उसके वजूद पर छा गई। साँसों के गर्म अलाव ने आँखों से सोते बहा दिए। आँखों पर रखी हथेली का ख़ून खारे पानी में मिलकर चेहरे से टपक-टपककर क़मीज़ में जज़्ब होने लगा।

अभी सूरज ऊपर नहीं आया था कि आसमान गड़गड़ाहटों से भर गया। एक के बाद एक जहाज़ गुज़रने लगे। तौफीक ने झट अपनी कमीज़ उतारी और मुख्खे से बाहर हाथ निकालकर हिलानी शुरू कर दी। उम्मीद की लहर उसके सारे बदन में थरथराती दौड़ रही थी…सारे जहाज़ गुज़र गए। उसका हाथ ढीला पड़ने लगा। आँखों के सामने तारे टूटने लगे। नामुराद, नाउम्मीद वह चकराता-सा चबूतरे पर बैठ गया।

“मेरा अतीत आज फिर मुझे आवाज़ दे रहा है। अपनी स्याह बाँहें फैलाकर मेरे वजूद को अपनी आग़ोश में भरना चाहता है, जो भविष्य की तरफ भागना चाहता है, जहाँ आज़ादी की चाँदी बरस रही है जहाँ ज़िन्दगी का कोलाहल बिखर रहा है मुझे इतनी जल्दी मौत की आरामगाह नहीं चाहिए बल्कि एक ऐसा सूरज चाहिए जो मुझे रोशनी से नहलाए ताकि मेरे अँधियारे तहखानों की तारीख़ी इबारत का सोना फिर से झिलमिला उठे, मगर इस क़ैदख़ाने में सूरज की किरणें भी नहीं पहुँच पाती हैं, ऊपर से यह बन्दिशों का घेरा जो जीते-जी मेरा मक़बरा बन गया है।”

उसके हलक में काँटे-से चुभने लगे। बदन में ठंडी-सी सनसनाहट। थकन उसकी रग-रग में टपक रही थी। बड़ी मुश्किलों से उठकर किसी तरह वह मटके तक पहुँचा, बर्तन अन्दर डाला, तल में पानी की बूँद भी नहीं बची थी। बर्तन ख़ाली मटके से टकराता, आवाज़ करता उसके हाथ से छूट गया और उसका सर घड़े के उभार पर टिक गया।

तौफीक़ के अन्दर का मौसम बदल रहा था। वजूद के अन्दर छिटकी धूप का लावा ठंडा पड़ते-पड़ते सख़्त चट्टानों में बदलने लगा था, जहाँ बहाव और टकराव की जगह ठहराव ने अपना डेरा जमा लिया था। हर नया दिन पुराने दिन को निगलता हुआ तेज़ी से उसके बचे सालों को दुगुनी रफ्तार से खाए जा रहा था।

“यह मैं हूँ?” सूखे डंठल जैसे कमज़ोर हाथ को देखकर तौफ़ीक़ जैसे अपने से पूछता, फिर वीरान आँखों से पत्थर की नंगी दीवारों को ताकने लगता।

वह मैं था?-हाँ, वह मैं ही तो था ताक़त और जोश से भरा आबशार, जिसे कोई भी हादसा न रोक सकता था, न बाँध सकता था। वह जवान होता लड़का मैं ही तो था, जो रोटी कमाने के लिए इस्रायल जाने लगा था और एक दिन थकन से चूर जब वह सरहद पार न कर सका और वहीं रास्ते में पड़ गया तो इस जुर्म में सीमा सुरक्षा पुलिस के जूतों और लातों की ठोकरों से उसे फुटबाल में बदल दिया गया था। थकन कहीं भाग गई थी और वह लुढ़कता हुआ अँधेरी रात को पार करता घर पहुँचा था फिर उस लड़के की माँ ने उसका बाहर निकलना बन्द कर दिया था। भुखमरी, ग़रीबी, बेकारी, महँगाई…कैसे बुरे दिन थे, तो भी वह लड़का मुरझाकर टूटा तो नहीं था?

उस वक़्त फिलिस्तीन की ज़मीन पर रहकर भी हमें वोट डालने का हक़ नहीं था, न सरकारी सम्मेलनों में बैठने और बोलने का हक़ था। जिनके पास इल्म था, उन्हें कुछ लिखने के जुर्म में जेल काटनी पड़ती या फिर इस्रायल को स्वीकार न करने के दंड में जलावतन का दर्द सहना पड़ता फिर एक दिन इन सारी लड़ाइयों और कशमकश से घबराकर ख़ामोशी से यह तय पाया कि फिलिस्तीन की धरती से बाहर निकलकर जंग करने में ज़्यादा जान है…बेरूत, लेबनान सब आग में जल उठे और महसूस हुआ कि जो वतन से निकला वह कहीं का न रहा।

मेरा ख़ून अब उबलता क्यों नहीं है? ये पुरानी यादें भी रगों में अंगारे नहीं भर पाती हैं…मेरे अन्दर की जलती आग राख में क्यों बदल रही है? यह क़सूर मेरा है या इस चहारदीवारी का है? मेरे वजूद का घोड़ा हिनहिनाना, टापें मारना, दौड़ना क्यों भूल गया है? इस तरह से मुँह डाले सुस्त क्यों पड़ा है काश! मैं इस अपाहिज घोड़े को गोली से उड़ा सकता!

मशीनगन की लगातार तग-तगतग तौफीक़ का पीछा कर रही थी। वह भागता हुआ ढाल की तरफ़ लपका। माँ का दिया आटे का थैला उसने कसके बग़ल में दबा लिया और ढलान पर अंगूरों की बेलों के नीचे रेंग गया तो भी एक गोली उसके बाज़ू को छीलती हुई निकल गई। ख़ून की पतली धार दर्द से फूटकर थैले को भिगोने लगी। दूसरे हाथ में थैला लेकर वह बाज़ार की तरफ़ लपका। परचूनिया उसकी यह हालत देखकर चीख़ा…

तौफ़ीक़ चौंककर उठ बैठा। उसके कानों में अब भी आवाज़ें गूँज रही थीं, दिल धड़क रहा था। हलक में काँटे चुभ रहे थे और ज़बान सूखकर तालू से जा लगी थी। कमज़ोरी के मारे उसका बुरा हाल था।

कोठरी से बाहर रात पत्थरों पर पसर गई थी। तौफीक़ के अन्दर छाया अँधेरा गहराने लगा था। एक घुटन उसके अन्दर घुमड़ने लगी थी।

“मैं आज किसी से बातें करना चाहता हूँ। अपना दिल ख़ाली करना चाहता हूँ। मगर बातें किससे और कैसे करूँ?पत्थर की ये बेजुबान दीवारें मुझे दिलासा भी नहीं दे सकती हैं, न मेरे टूटते वजूद का सहारा बन सकती हैं यह मुख्खा—अँधेरे की आँख—इस पर आज तक कोई परिन्दा आकर नहीं बैठा है—मेरा रिश्ता हर जानदार से टूट चुका है और हर बेजान चीज़ मेरी साथी बन चुकी है।

“जब मैं जंग के मैदान में मौजूद था तो सबका था, आज उस बहाव से छिटक गया तो कोई मेरा हमदम, कोई मेरा दोस्त न रहा। मुझे सब भूल गए अपने भी, पराए भी—सच है, अब मुझे मौत के अलावा किसी का बुलावा नहीं आएगा, कोई मुझे आवाज़ नहीं देगा कोई मुझे लेने नहीं आएगा।”

रात ख़ामोश क़दमों से पत्थरों पर पैर जमाती सुबह की तरफ़ बढ़ रही थी। ऐसे वीराने में, दिन, तारीख़, महीने, साल को कौन गिनता है? यहाँ कुदरत का पहिया ख़ामोशी से इन्हें निगलता घूमता रहता है। बस, घूमता रहता है

इस बीच कितनी बार सूरज उगा, कितनी बार डूबा, तौफीक़ को कुछ याद नहीं—हाँ—काल-कोठरी ने भूली-बिसरी बहुत-सी बातों को फिर से दोहराया जिन्हें न वह भूल चुका था, बल्कि यह सबकुछ उसकी ज़िन्दगी में होते हुए हादसों तले दब गए थे। मगर आज उसे फिर याद आकर ज़िन्दगी का एक नया नज़रिया समझा रहे थे।

“कल जब इस्रायली फैलाव और अरब राष्ट्र एकता का बुख़ार दिमाग़ों से उतर जाएगा उस समय क्या बचेगा?सिर्फ़ लोग बचेंगे मगर कहाँ के लोग? कौन-सी सरहद? सरहदें तो आदिकाल से तलवार की झंकार के साथ अपना रुख बदलती आई हैं, मगर ज़मीन पर रहने वाले लोग तो वही पुराने रहते हैं जिनकी पैदाइश का स्रोत एक है, जो एक ही तरह से गढ़े जाते हैं फिर यह रोज़ नई बनती सरहदें धर्मयुद्ध क्या सचमुच पुराने को मिटाकर नया कुछ आता है और हर इंक़लाब अपने ही बच्चों को निगलने लगता है?…

“एक इस्रायली जो तेलअबीब में यहूदी माँ-बाप से पैदा हुआ हो और पोलैंड का पनाहगीर हो“एक लड़का जो अरब माँ-बाप से गाज़ा में पैदा हुआ हो और ज़ाफ़ा का पनाहगीर हो—“क्या इनका कुछ भी नहीं पीछे छूटता? इस्रायल का वजूद मिट गया तो फिर यह विदेशी यहूदी दोबारा लौटकर कहाँ जाएँगे? तब क्या फिर किसी और सरज़मीन पर टैंकों के दहाने अंगारे उगलेंगे, लाशों का अम्बार लगेगा और सरहदों का नया दायरा नापा जाएगा?…

“फिलिस्तीन मोर्चा संगठनों का अभिन्न शाख़ों में बँट जाना, फिर आपसी विचारों के बिखराव में अपनों से टूटकर मुखालिफ देशों से मिलकर अपने ही उद्देश्य के ख़िलाफ़ अपने लोगों के विरोध में खड़ा हो जाना, यह किस बात की तरफ इशारा करता है?

“मान लो, कल हमारा प्यारा फिलिस्तीन हमें वापस मिल जाए और सारी दुनिया में बिखरे ख़ानाबदोश फिलिस्तीनी अपने वतन की तरफ़ लौट आएँ तो क्या उस नई नस्ल की याद का हिस्सा लेबनान, ट्यूनिस, जॉर्डन, बेरूत नहीं रहेंगे, जहाँ वह पैदा हुए, पले-बढ़े और जवान हुए? दूसरी तरफ़ अरब भाईचारे के बावजूद इस चोट को सहते आए कि वह फिलिस्तीनी पनाहगीर हैं। क्या वह अपने वतन फिलिस्तीन की अजनबी धरती से जुड़ सकेंगे, जिससे वह बरसों दूर रहे और पहली बार उस सरज़मीन पर क़दम रखेंगे? दिल और दिमाग़ के बीच होती जंग उन्हें बार-बार यह समझाएगी कि सरहदों की भी अपनी ज़बान होती है। क्या इनसान की पहचान अहसास और फ़िक्र न होकर सिर्फ़ सरहदों का गुज़रनामा-भर होती है?”

तौफीक़ के दिमाग़ की खिड़की खुल गई थी जिससे सरहदों का उलझा जाल उसे ज़िन्दा सवालों पर बिखरा नज़र आ रहा था। पूरी दुनिया निगाहों में इस तरह से खुलकर घूम रही थी,जैसे जमशेद का “जामे जहाँनुमा” उसके हाथों में आ गया हो और वह उस प्याले में झाँककर दुनिया की असलियत का नज़ारा देख रहा हो।

नीम बेहोशी में तौफीक़ की आँखों के सामने एक पुराना शहर फैला हुआ है। चलती ट्रेन रुकती है और वह उस गाड़ी से उतरता है। बड़े-बड़े बूढ़े दरख़्तों के साये में रेल की पटरी तन्हा ख़ामोश रह जाती है। वह पटरी पर बिखरे पत्थरों को फिर दरख़्तों के साये में बढ़ते अँधेरे को फैलता देखता है। माहौल का जादू उसे अपनी बाँहों में भींचने लगता है। वह एक अजनबी की तरह क़दम आगे बढ़ाता है।

दूर मीनारों से फूटती रोशनी गुम्बद पर सुनहरा रंग फैला रही है। वह सहरज़दा-सा उस तरफ़ खिंचता चला जाता है। सामने पुराना बाज़ार फैला है जहाँ अजीब शक्ल के बर्तन, मूर्तियाँ और मोटी-मोटी किताबें भरी हैं। एक दुकान में दाख़िल होकर जब वह किताब उठाता है और उसे खोलता है तभी ख़त-ए-कूफ़ी की लिखावट से भरा वह ख़स्ता काग़ज़ उसके हाथों के छुलते ही नन्हे-नन्हे टुकड़ों में बदल जाता है। वह घबराकर किताब वापस रखता है। काग़ज़ की बोसीदा महक उसके नथुनों में सनसनाने लगती है।

गलियाँ कच्चे मकानों से भिंची अपने में दुबकी-सहमी-सी खड़ी थीं। वह उनके अन्दर दाख़िल होता है। सोचता है कि ईसा भी “जुलजुता” तक अपनी सलीब पर लटकने के लिए इसी किसी घर से निकालकर ले जाया गया होगा। यहीं आसमान के नीचे उसका शिकवा गूँजा होगा कि खुदा, क्या तू भी मुझे भूल गया? यहीं इसी धरती पर सुकरात ने ज़हर का प्याला पीकर अल्फ़ाज़ का दरिया बहाया था और हल्लाज़ ने रूह की किस गहराई में डूबकर “अनलहक़” का नारा लगाया था।

सामने ऊँची मीनारें इस तंग गली से भी नज़र आ रही थीं। मुझे वहीं पहुँचना है। तौफीक घुमावदार गलियों की भूलभूलैया में खो गया। इसी कूफ़ा की ज़मीन पर हुसैन पानी से भरी दज़ला और फरात नदियों के बावजूद क्यों प्यासे शहीद हुए? इन सबकी निगाहें कौन से वक़्त पर किस नुक्ते पर टिकी थीं? हक़ की लड़ाइयाँ लड़कर उन्होंने कौन-सी क़दरें और मर्यादाएँ हमें दी हैं?

अब तंग गली खुले मैदान में आकर ख़त्म हो गई, जहाँ मिट्टी, मिट्टी को खा रही थी और उससे वक़्त की महक का पुरानापन फूट रहा था। गिरती ढहती बादामी भूसा हुई इबादतगाहों के बीच धूल के गुबार के परे नई ऊँची इबादतगाहों की नई तराश नज़र आने लगी। ख़स्ता इमारतों के बीच घूमते हुए तौफीक़ को याद आया कि इसी सरज़मीन पर तौरेत, बाइबिल, क़ुरान—तीन आसमानी किताबें नाज़िल हुई थीं, तीन फ्रिक्र, तीन मज़हब, तीन समाजी बदलाव…बड़े-बड़े धर्मयुद्ध का फैलता दायरा…। फिर साम्यवाद व साम्राज्यवाद की रस्साकशी वक़्त ने हमेशा इनसान से उसके जीने की क़ीमत माँगी है। किसी ने अदा की और किसी ने कर्ज़ा छोड़कर अपनी आँखें मूँद लीं।

नई इबादतगाहों की काशीकारी और फ़ानूस से जगमगाती मेहराब के नीचे आकर तौफीक़ रुक गया। शीशेकारी और ग़चबरी की नक़्क़ाशी और जाली के गुलबूटे पर उसकी नज़र ठहर गई।

“क्या मेरा वक़्त भी मुझसे मेरे जीने की क़ीमत माँग रहा है?” तौफीक़ नींद से चौंककर उठ बैठा। आँखें फाड़-फाड़कर चारों तरफ देखा, पुराना शहर ग़ायब था। नई इमारतें ग़ायब थीं,बस सामने पत्थर की दीवारें थीं।

बूँदाबाँदी शुरू हो गई थी। बड़ी-बड़ी बूँदें धरती पर पहुँचने से पहले ही हवा के डोले पर सवार होकर दरख्तों की शाख़ों से लिपटकर झूम उठती थीं।

तौफीक़ के अहसास की दुनिया अभी मरी नहीं थी। उसके कान अपने चारों तरफ़ छाए माहौल की मुख़्तलिफ़ आवाज़ों के सुर व ताल को पकड़ने की क्षमता रखे थे। इस वक़्त बिना देखे ही उसे सबकुछ नज़र आ रहा था कि हवाएँ पक्की ज़ैतूनों को धरती ज़ैतून के स्वाद की याद से पर गिरा रही हैं। टप…टप…टप…तालू से लगी सूखी ज़बान नर्म-सी पड़ने लगी थी।

“खुदा तुझे इतनी तौफीक़ दे कि तू हमारी खोई मंज़िल को पा सके इसी उम्मीद पर मैंने तेरा नाम तौफीक़ रखा है।”

माँ की आवाज़ के साथ सीना कूटती, बैन करती औरतें काले कपड़ों और सफेद स्कार्फ़ के साथ दिल की सुरंग से होकर गुज़र जाती हैं। महसूस होता है कि ज़ैतून के साए उस पर चारों तरफ़ से झुक आए हैं। शाख़ों के डोलने में माँ के हाथों का लम्स है। एक गर्मीभरी महक के गुबार में तौफीक़ डूबने लगा। गिरती ज़ैतूनें उसके मुर्दा होते बदन को ढाँक रही हैं। मौत की आगवानी में…तौफीक़ के माथे पर मौत का पसीना छलक आया। आँखें दुलकने लगीं। हाथ-पैर ढीले पड़ने लगे।

“क्या इस गुनाहगार सरज़मीन को फिर किसी नये पैग़म्बर की आमद का इन्तज़ार है?”

बाहर तूफ़ान का झक्कड़ तेज़ हो गया था। बौछारें छत के सुराख़ से तौफीक़ तक पहुँच रही थीं। उसके बालों, दाढ़ी और भवों पर बिखरी नन्ही-नन्ही बूँदें अलमास की तरह झिलमिला रही थीं।

आसमान से गिरती बारिश की लड़ियों को चीरती आवाज़ वक़्त के रथ पर सवार शताब्दियों का सफ़रतय करती किसी पैग़ाम की तरह चहारसू के दरवाज़े खोलती है। मुक़द्दस क़िबले के आगे झुके सिजदे ने अँधियारे तहखाने में नूर की कन्दील रौशन कर दी। ख़त-ए-कूफ़ी के सुनहरे अक्षरों के फैलते हाले से रूह का परिंदा, अमन की फ़ाख़्ता की तरह चोंच में ज़ैतून की शाख़ पकड़े मुख्खे से इस तरह उड़ा जैसे नोह* को खुश्की का पता चल जाए।

  • इस्लामी रिवायत के मुताबिक़ ख़ुदा के हुक्म से पैग़म्बर नोह ने साल का पौधा लगाया था, फिर उस पेड़ से तीन सौ गज लम्बी, पचास गन्न चौड़ी और तीस गज गहरी तीन मंज़िला किश्ती बनाई थी। जब दुनिया पानी के तूफ़ान में घिर गई थी, उस वक्त हज़रत नोह अपने परिवार के साथ उस किश्ती में सवार हो गए और बच गए। उनके परिवार में इनसान, जानवर और परिन्दे शामिल थे। उस वक्त फाख्ता ने उन्हें खुश्की का पता बताया था। अरब विश्वास है कि आत्मा परिन्दे में बदल जाती है। दूसरे मध्यपूर्वी देशों में जैतून न केवल जीवनदायिनी स्रोत है बल्कि फिलिस्तीन के संघर्ष व राष्ट्रीयता का निशान भी है। फ़ाख़्ता की चोंच में जैतून की शाख़—यह चित्र इस देश के लिए बहुत पवित्र है।

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ISSN 2394-093X
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