पटना की भीड़-भाड़ वाली अदालत में एक महत्वपूर्ण केस चल रहा था। पिछले चार बार से इस मुकदमे की सुनवाई होने के बजाय अगली तारीख दे दी जा रही थी। पिछली बार जज साहब उत्तराखंड की वादियों की ठंडी हवा खाने चले गए थे, उसके पूर्व वे बीमार थे। कृति का दिल आज भी अनिष्ट की आशंका से भरा था लेकिन उसकी तमाम आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं और जज साहब आज पधारे थे। कृति कठघरे में खड़ी थी। अदालत में मौजूद हर व्यक्ति, जिनकी आँखों में एक सवाल था, के विपरीत कृति की आँखों में आत्मविश्वास था।
“आप कहना चाहती हैं कि आपकी पहचान गलत दर्ज की गई है?” जज साहब ने पूछा। ‘मी लार्ड’ के स्वर में तनिक रोष था। सिर्फ इस मुकदमे की तारीख होने के कारण ‘मी लार्ड’ को अपना पारिवारिक उत्सव स्थगित कर पटना आना पड़ा था। दरअसल बात यह थी कि विशिष्ट प्रकृति का मुकदमा होने के कारण इसने सुर्खियां बटोर ली। क्षेत्रीय मीडिया भी इस मामले में रुचि लेने लगा। जब इस मुकदमे को एक के बाद एक चार अगली तारीखें दे दी गई तब मीडिया ने इस मामले को उछाल दिया। ‘माय लॉर्डशिप’ इस बार भी बाहर थे पर उन्हें आना पड़ा। एक बार फिर से उन्होंने अपना सवाल दुहराया- “आप कहना चाहती हैं कि आपकी पहचान गलत दर्ज की गई है?”
कृति ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया, “नहीं, मी लॉर्ड। मेरी पहचान को इस समाज ने कभी स्वीकारा ही नहीं।”
पूरा कोर्ट खामोश था और इसी खामोशी में कृति की कहानी शुरू होती है।
……. ……. ……. ……
दरअसल बात यह थी कि विशिष्ट प्रकृति का मुकदमा होने के कारण इसने सुर्खियां बटोर ली। क्षेत्रीय मीडिया भी इस मामले में रुचि लेने लगा। जब इस मुकदमे को एक के बाद एक चार अगली तारीखें दे दी गई तब मीडिया ने इस मामले को उछाल दिया।
फल्गु नदी के तट पर बसा शहर-गया। कहते हैं यह शहर गयासुर नामक राक्षस के शरीर पर बसा है। जलविहीन नदी, वृक्षविहीन पहाड़ और अभक्ष्य भक्षण करती गायें इस शहर की विशिष्ट पहचान है। मिथक इसे माता सीता का शाप बतलाते हैं। इसी गया शहर में जन्मा था कृतिनंदन। जब माँ ने पहली बार उसे गोद में लिया, तो उनकी आँखें खुशी से भर आईं। लेकिन जैसे-जैसे कृतिनंदन बड़ा होने लगा उसके भीतर एक अलग ही दुनिया बसने लगी। वह माँ की साड़ियों से खेलता, चूड़ियाँ पहनकर आईने में खुद को निहारता।
पहले तो सबने इसे बालसुलभ लीला मानकर इस पर ध्यान नहीं दिया।
“सभी बच्चे ऐसा करते हैं। बड़ा होकर ठीक हो जाएगा।” माँ अपने मन को समझाती किंतु 14 वर्ष की अवस्था होने पर भी कृतिनंदन की ये हरकतें जब जारी रही तो माँ की आंखों में चिंता के मोटे-मोटे धागे तैरने लगे। उसने अनब्याही माँ के गर्भ के समान इस राज को छुपाना चाहा किंतु असफल रही। सबसे पहले उसके पिता को इस राज का पता चला। हुआ कुछ यूँ कि एक बार पिता किसी कार्य से बाहर गए थे और शाम को अचानक आ गए। थके-हारे आराम करने के उद्देश्य से जब वह अपने कमरे में घुसे तो देखा कि आईने के सामने कृतिनंदन की माँ सजी-धजी बैठी है। कमरे में किसी और की आहट पाकर आईने में खुद को निहार रही आकृति पीछे मुड़ी। पिता सकते में आ गए। उनकी पत्नी की साड़ी में स्त्री वेशभूषा में उनका इकलौता पुत्र कृतिनंदन बैठा था।
धीरे-धीरे इस बात का पता पड़ोसियों को भी चल गया।
“यह लड़का है या लड़की?” पड़ोसियों ने तानें मारना शुरू कर दिया था। वहीं कुछ पड़ोसी हमदर्दी की आड़ में कृति के विषय में बातें कर-करके उसकी माँ का दिल दुखाते रहते।
“इसे ठीक करना होगा!” इन तानों से परेशान होकर जब कभी पिता का गुस्सा फूट पड़ता तब वह कहते।
लेकिन इन सब झमेलों से दूर कृति अपनी ही दुनिया में मस्त रहती। उसके लिए यह सब ‘सही’ या ‘गलत’ का मामला नहीं था। वह बस खुद को जानना चाहती थी।
कृति को अपनी पहचान को लेकर पहला ज़ख्म तब मिला जब वह लगभग सोलह की हो गयी थी। एक दिन उसकी ही उम्र के लड़कों ने उसका मजाक उड़ाया और उसे बेरहमी से पीटा। कितना रोयी थी वह उस दिन और तब पहली बार उसकी माँ ने उसे समझाया था — “बेटा, दुनिया से लड़कर जीतना मुश्किल है। जो जैसा है, वैसा ही स्वीकार कर लो।”
“जो जैसा है उसे वैसे ही स्वीकार लो। तो फिर दुनिया हमें क्यों नहीं स्वीकार करती?” कृति ने पूछना चाहा था।
जब चाचा को पता चला था कि कृति किन्नर है, तो घर में बवाल मच गया था। चाचा को सबसे बड़ा डर अपनी बेटियों की शादी का था। आए दिन घर में कलह होता रहता। ऐसे ही बहस के दौरान उस दिन उन्होंने साफ-साफ कह दिया-
“अगर लोगों को पता चल गया कि हमारे घर में एक हिजड़ा है, तो मेरी बेटियों की शादी कैसे होगी?”
पिता ने चाचा को शांत करने की कोशिश की, “ये भी हमारा खून है। हम इसे ठुकरा नहीं सकते।”
“खून?” चाचा व्यंग्य से बोले, “हमारी इज्जत का खून कर दिया इसने! कोई हमारे घर में अपना रिश्ता नहीं करेगा। यह जितनी जल्दी घर से निकल जाए, उतना अच्छा होगा!”
कमरे में दरवाजे की ओट में खड़ी कृति यह सब सुन रही थी। उसे यह सुनकर गहरा धक्का लगा।
“क्या मैं सिर्फ एक बदनामी हूँ? क्या मेरा अस्तित्व ही एक अभिशाप है?” कृति पूरी रात जाग कर सोचती रही। मोटी और सांवली होने के कारण उसकी चचेरी बहन शिवानी दीदी की शादी ऐसे ही तय नहीं हो पा रही थी। उनके उम्र का यह तीसरा दशक चल रहा था। उनके लिए कई जगह बात चलायी गयी, पर हर जगह उनका सांवलापन बाधा बन जाता। ऐसे में वह अपनी बड़ी बहन के लिए एक और बाधा नहीं बनना चाहती थी। पौ फटने से पूर्व ही कृति बिना किसी को बताए घर से निकल गई। स्टेशन घर के पास ही था। कृति चुपचाप एक ट्रेन में सवार होकर एक अनजान मंजिल के लिए चल पड़ी।
कृति जिस ट्रेन में बैठी थी वह गया- पटना लोकल ट्रेन थी। ट्रेन खुले घंटा भर बीत चुका था। सुबह होने को आई थी। परिवेश में फैला कुहासा कृति के भीतर घनीभूत होकर पीड़ा रूप में उतर गया था। वह न जाने और कितनी देर अपने विचारों में खोई रहती कि एक बेहद कर्कश आवाज से उसकी विचार श्रृंखला टूटी- “दे न रे बाबा। भगवान तुझे सदा सुखी रखेगा रे।” ताली बजाती कर्कश और फटी आवाज में एक किन्नर उससे पैसे माँग रही थी। “जिनके हिस्से में सुख का एक कतरा तक नसीब नहीं, वे भी सुख का आशीर्वाद लूटा रहीं।” कृति ने सोचते हुए उसे पैसे देने के लिए अपने पर्स को टटोला और विस्मय से भर गई।
“कल शाम तक तो इसमें चंद रुपए ही थे। अब यह पर्स रुपयों से भरा कैसे है?”
तब तक वह किन्नर भी शायद कृति को समझ गई थी। वह बिना पैसे लिए ढेरों आशीर्वाद देकर चली गई।
कृति गया-पटना लोकल ट्रेन से उतरकर स्टेशन के बाहर निकली, मन में अनजाने भविष्य की उथल-पुथल थी। यह पहला अनुभव था जब वह अकेले घर से बाहर इतनी दूर निकली थी। उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। सुबह का धुंधला वातावरण और भीड़ उसे और अकेला कर रहे थे। मन का भय उसके शरीर को कमजोर कर रहा था। स्टेशन के पास एक व्यस्त सड़क पर, जल्दबाजी में रास्ता पार करते वक्त एक रिक्शा उसे टक्कर मार गया। वह सड़क पर गिर पड़ी और उसकी कोहनी और घुटनों से खून बहने लगा। दर्द से कराहती कृति को देखकर भीड़ जमा हो गई, पर कोई आगे नहीं बढ़ा। तभी एक अधेड़ उम्र की किन्नर भीड़ को चीरकर आई। उसने कृति को सहारा देकर उठाया और पास की एक छोटी सी दुकान पर ले जाकर उसका घाव साफ किया। कृति की आँखों में डर और आभार मिश्रित था। उस किन्नर ने कहा, “बेटा, इस शहर में अकेले नहीं चलते, चल मेरे साथ।” वह कृति को उस जगह पर ले गयी जहाँ उसके जैसे और भी कई लोग रहते थे। जहाँ गुरुमाँ, एक बुजुर्ग किन्नर, ने उसका स्वागत किया और उसकी कहानी सुनकर उसे गले लगाकर बोली, “बेटा, दुनिया हमें ताली बजाने और भीख माँगने तक सीमित रखना चाहती है। लेकिन अगर तुम खुद को बदलना चाहती हो, तो तुम्हें अपनी पहचान के लिए लड़ना होगा।”
“क्या मैं सिर्फ एक बदनामी हूँ? क्या मेरा अस्तित्व ही एक अभिशाप है?” कृति पूरी रात जाग कर सोचती रही। मोटी और सांवली होने के कारण उसकी चचेरी बहन शिवानी दीदी की शादी ऐसे ही तय नहीं हो पा रही थी। उनके उम्र का यह तीसरा दशक चल रहा था। उनके लिए कई जगह बात चलायी गयी, पर हर जगह उनका सांवलापन बाधा बन जाता। ऐसे में वह अपनी बड़ी बहन के लिए एक और बाधा नहीं बनना चाहती थी। पौ फटने से पूर्व ही कृति बिना किसी को बताए घर से निकल गई। स्टेशन घर के पास ही था। कृति चुपचाप एक ट्रेन में सवार होकर एक अनजान मंजिल के लिए चल पड़ी।
कृति को यह समझ आ गया था—”सिर्फ समाज की स्वीकृति माँगने से कुछ नहीं होगा, मुझे अपने अस्तित्व को खुद साबित करना होगा।”
किन्नरों के साथ रहते हुए कृति ने अपनी पढ़ाई जारी रखने का फैसला किया और लॉ कॉलेज में नामांकन ले लिया। पर यह आसान नहीं था। यहाँ भी उसकी पहचान ने उसके लिए रास्ते में काँटे बो दिए थे। कॉलेज के पहले दिन जब कृति ने घबराते हुए क्लास में प्रवेश किया, तो सबकी नजरें उसे घूरने लगीं। कानाफूसी शुरू हो गई—कुछ फुसफुसा रहे थे, कुछ हँस रहे थे। कृति के कदम ठिठक गए। तभी सुकेश ने आगे बढ़कर कहा, “क्लास शुरू हो चुकी है, बैठ जाओ।” उसकी आवाज में एक सहज आत्मीयता थी, जिसने कृति को कुछ राहत दी।
धीरे-धीरे, सुकेश और कृति की दोस्ती गहरी होती गई। जब कृति के खिलाफ छात्रों ने प्रिंसिपल से शिकायत की कि ‘किन्नर’ को कॉलेज में पढ़ने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए, तब सुकेश अकेला था जिसने प्रिंसिपल के सामने जाकर कहा, “अगर संविधान में सभी को शिक्षा का अधिकार है, तो इसे इससे वंचित क्यों किया जाए?”
एक दिन जब कृति अकेली बैठी थी, सुकेश ने उससे पूछा, “तुम्हें सबसे ज्यादा डर किस चीज से लगता है?” कृति ने कहा, “खुद से।”
“मैं नहीं चाहता कि तुम खुद से डरती रहो,” सुकेश ने कहा, “तुम जैसी भी हो, अपने लिए गर्व महसूस करो।”
अब कृति के जीवन में केवल कांटे ही नहीं थे। सुकेश उसके जीवन में मखमली मुलायम हरियाली बनकर आया था।
जब ऐसा लगने लगा कि सब कुछ सही चल रहा है तभी वह घटना घट गयी। पढ़ाई के दौरान कृति को पैसों की जरूरत होती थी। वह दिन में कॉलेज जाती और शाम को अपने समुदाय के साथ नाच-गाकर पैसे कमाने निकलती। एक दिन शाम को वह सड़क के किनारे नाच रही थी। अचानक उसकी नजर सुकेश पर पड़ी। वह वहीं खड़ा था और कृति को एकटक देख रहा था।
अब तक सुकेश ने केवल कृति के नृत्य के बारे में सुना था, लेकिन आज पहली बार उसने कृति को किन्नर के वेश में चंद पैसों के लिए नाचते देखा। सुकेश और कृति की आँखें मिलीं। कृति ने उन आँखों में पढ़ लिया—संवेदना का यह अंतिम सिरा भी टूट गया।
तभी एक अधेड़ उम्र का लंपट आदमी उसके पास आया और उसकी कुर्ती में जबरदस्ती ₹100 का नोट ठूँसने लगा। कृति के मन में आया कि वह अपना कलेजा फाड़कर चिल्लाए—”मैं कोई वस्तु नहीं हूँ! मैं भी इंसान हूँ!” लेकिन शब्द उसके आँसुओं में घुट कर रह गए। उस रात वह बहुत रोई।
पर उसने खुद से वादा किया—” दुनिया मुझे इसी रूप में देखना चाहती है लेकिन मैं इसे बदलूँगी।”
लॉ की डिग्री मिलने के बाद, कृति का पहला केस खुद का ही था। सरकार ने उसे अब भी ‘पुरुष’ के रूप में पहचान दी थी, जबकि वह खुद को महिला मानती थी। जब उसने सरकारी दफ्तर में जाकर बदलाव की माँग की, तो अधिकारी हँस पड़े।
“अरे, तुम लोगों के बारे में तो विधाता भी नहीं जानता कि तुम क्या हो!” पान के पिक को पिच्च से थूकते हुए बड़ा बाबू ने कहा था। कृति को ऐसा लगा मानो वह पिक दीवार पर नहीं बल्कि उसकी आत्मा पर थूकी गयी हो।
इस ताने ने कृति को झकझोर दिया। उसने कोर्ट में केस ठोक दिया। अदालत में जब वह पहली बार पहुँची थी, तो लोग उसे देखकर फुसफुसाने लगे थे। कृति को आज भी वह दिन अच्छे से याद है।
वकील साहब ने व्यंग्य किया था, “तो अब किन्नर भी कानून की परिभाषा तय करेंगे?”
लेकिन कृति ने आत्मविश्वास के साथ कहा—
“हमें कानून से बाहर रखना ही असली अन्याय है। अगर इंसान को अपनी जाति और धर्म चुनने का हक है, तो अपनी पहचान चुनने का हक क्यों नहीं?”
पूरे कोर्ट में सन्नाटा छा गया था ।
महीनों की लड़ाई के बाद, अदालत ने फैसला सुनाया—
“कृति को महिला के रूप में सरकारी दस्तावेजों में दर्ज किया जाएगा। साथ ही प्रत्येक सरकारी फॉर्म में एक ‘थर्ड जेंडर’ का कॉलम भी जोड़ा जाए। यह अधिकार सिर्फ कृति का नहीं, बल्कि पूरे ट्रांसजेंडर समुदाय का है कि वह अपनी पहचान किस रूप में रखना चाहते हैं।”
उस दिन कृति ने जीत ही नहीं हासिल की थी, उसने एक नई राह बना दी थी। अब वह सिर्फ एक वकील नहीं थी, वह एक पहचान थी—उन हजारों लोगों की, जिन्हें समाज ने नकार दिया था।
जब वह कोर्ट से बाहर आई, तो पत्रकारों ने पूछा, “आज आपको कैसा लग रहा है?” कृति मुस्कुराई, उसकी आँखों में चमक थी। उसने धीरे से कहा— “आज मैंने खुद को पा लिया है।”
पत्रकार उससे कुछ और भी पूछना चाहते थे लेकिन कृति बड़ी तेजी से उस महिला की ओर लपकी जो कृति के मुकदमे की हर सुनवाई के दौरान कोर्ट के कोने में बैठी रहती थी।
“तुम्हें अंदाजा हो गया था माँ कि मैं घर छोड़कर चली जाऊंगी। सो तुमने मेरे पर्स में अपने प्यार के प्रतीक रुपए रख दिए थे। जैसे तुम्हें पता चल गया था, क्या उसी तरह तुम्हारी अंश, तुम्हारी बेटी को पता नहीं होगा कि यह तुम ही हो।” महिला के पीछे भागती कृति बुदबुदाई।

डॉ अमित रंजन
सहायक आचार्य, हिंदी जय प्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा।
निबंध कौशल(अमेज़न किंडल पर बेस्ट सेलर में शामिल)
प्रकाशन: हिंदुस्तान, प्रभात खबर, दोआबा, साहित्य कुंज, प्रश्न चिह्न, देशबंधु, विश्वगाथा, प्रेरणा अंशु, भारत दर्शन(न्यूजीलैंड से प्रकाशित ई पत्रिका) समेत विविध पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित। चौदह शोध-पत्र प्रकाशित।amitranjanth1989@gmail.com
9798021736