संबंधों के सैलाब की त्रासदी: कहानी संग्रह ‘एक और सैलाब’  मेहरुन्निसा परवेज़ (2)

एक और सैलाब’ कहानी संग्रह की कहानियाँ पारिवारिक सम्बन्धों के सैलाब में स्त्री के बह जाने की त्रासदी और उसके बाद खुद को समेटने के जद्दोजहद की मार्मिक अभिव्यंजना है| सम्बन्ध जो पितृसत्तात्मक समाज द्वारा बनाएँ जाते हैं और स्त्री द्वारा निभाएं जाते हैं| स्त्री जो परिवार में बेटी, बहन,पत्नी, माँ आदि संबधों के आधार पर अपनी भूमिका निभाया करती है जहाँ उसका अपना ‘अस्तित्व’ समाज में विस्मृत कर दिया जाता है| मेहरुन्निसा जी ने स्त्री जीवन के यथार्थ बोध और जीवन मूल्यों को कथानक में पिरोकर बड़ी ही सहजता से उनकी स्थितियों को गहराई से अभिव्यक्त किया है| भारतीय नारी की दयनीय दशा के कारणों को उनकी सजग लेखनी विमर्शों के नये आयाम प्रस्तुत करतीं हैं| पितृसत्तात्मक समाज में विवाह संस्था और परिवार स्त्री के लिए सर्वाधिक सुरक्षित स्थान माने जाते हैं लेकिन इनके भीतर झाँका जाए तो बहुत भयानक यथार्थ का सामना करना पड़ता है| घर परिवारों में बच्चियों ,स्त्रियों माताओं के साथ जो भेदभाव व अत्याचार होते हैं,उन्हें परिवार की ‘लोक मर्यादा’ और ‘इज्ज़त’ के नाम पर घर में ही दबाने के प्रयास होतें है| मेहरुन्निसा जी की कहानियां इन दबी कुचली स्त्रियों की आवाज़ हैं,जहाँ सम्बन्धों के नाम पर उनका शोषण होता है यथार्थ में उनकी भूमिकाओं का महिमामंडन कर यथास्थिति में हाशिये पर ही धकेला जाता है|( आगे भाग 2)

‘अपने-अपने दायरे’ तथा ‘चमड़े की खोल’ दोनों कहानियाँ मुख्यत: एक बेटी की नजर से परिवार में माँ की मानसिक शारीरिक,और सामाजिक स्थितियों का अंकन करती हैं | एक मां के दर्द को बयां  करने के साथ साथ पितृसत्ता में विवाह के बाद घर की बेटी कैसे एक झटके में पराई हो जाती है उसका भी मार्मिक अंकन किया है| माया के पिता अब घर के मामले में कोई रुचि नहीं लेते और अब उनकी आदतें भी बिगड़ गई है सुनकर माया का मन कड़वा हो गया कान बहरे हो जाते हैं| कहीं से न्योता आता तो अकेले ही चले जाते माताजी को बताना तक जरूरी नहीं समझते कहीं समाज में माँ उनकी शिकायत न कर दे| कोई सहेली घर में आती तो जोरजोर से चिल्ला चिल्ला कर बात करते चपरासी को जोर जोर से डाँटते, वह माँ को ही सुना रहे होते,पति द्वारा दी गई उनकी मानसिक और आर्थिक प्रताड़नाओं ने माँ को बिलकुल ही चुप कर दिया था ,सारा पैसा घर के बाहर ही अय्याशी में खर्च कर देते| मां की साड़ी फट जाती है पर नहीं लाकर देते और आया के लिए हर तीसरे चौथे दिन एक नई साड़ियां मां का स्वर रुक गया… ‘तब मां ने अपने कान के बुंदे बेच कर बेटी को तो भारी साड़ियां और ब्लाउज दिए ताकि मायके से गई बेटी खाली हाथ न जाए’। जबकि पितृसत्ता में मातृत्व को सर्वाधिक महिमामंडित किया जाता है,दोनों कहानियाँ पुरुष के वर्चस्व तले माँ की निरीह सहाय दशा को एक बेटी के दृष्टिकोण से अभिव्यंजित करती हैं जो अन्यत्र दुर्लभ है-| अब माँ का रूप सौन्दर्य और देह आयु के साथ ढलता गया तो अब पिता के पास माँ के देह  की सुविधा नहीं थी तो उन्होंने माँ को दरकिनार कर अपनी आवश्यकताएं बाहर पूरी करनी आरंभ कर दी |उदाहरणों के माध्यम से माँ की दयनीय स्थिति का मार्मिक वर्णन करते हुए मेहरुन्निसा जी लिखती हैं-‘माँ अब ऐसी हो गई है जैसे चलती फिरती पुतली, घड़ी की सुई की तरह जैसे मालूम है कि एक ही रफ्तार से चलकर 12:00 तक पहुंचना है| सफेदी पुती लगी माँ का चेहरा माया को वैसे ही लगा जैसे नदी के किनारे का पत्थर जो लगातार पानी के थपेड़े खाकर ऐसा धुला-पुछा हो गया हो कि अब उस पर पानी के थपेड़ों का कोई असर नहीं होता। |पितृसत्ता के अनुकूल बनने की प्रक्रिया में हमारी माएँ कब शारीरिक और मानसिक रूप से बेडौल,कमज़ोर थकी लगने लगती हैं पर शांत स्वभाव में अपना कर्तव्य निभाती रहती हैं कि भीतरी हलचल, दुख,कष्ट नजर ही नहीं आता| भारतीय स्त्री की विडंबना है,शांति बनाए रखने की पुरजोर कोशिश में पत्नियों का जीवन घड़ी की सुई के साथ शुरू हो जाता है और बटन दर बटन दबाने से जैसे प्रक्रिया शुरू हो जाती है स्टेप बाई स्टेप काम आदतन होते चले जाते हैं| ‘माया को माँ की स्थिति पर दया आ गई एक समय बाद तथाकथित महान माँकी अवस्था दयनीय ही हो जाया करती है| इसी तरह चमड़े के खोल’ में मायके जाने पर बेटी को लेन-देन के रीति-रिवाजों पर बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा उठाती है जो रोजमर्रा की छोटी मोटी बात लगती है मायके जाने पर सारे रीति रिवाज निभाना,उस पर अगर उसके पास खर्चा ना हो तो क्या करें ‘जाने कैसे कसाई बापू जो एक जोड़ा कपड़ा देते हुए भी छाती तड़कती है। माधुरीदेव से कहती है ‘विदेशों में अच्छा रहता है कोई किसी से बंधा नहीं रहता अपने यहां मायके जाने का सिस्टम को पूरा है बंद कर देना चाहिए है’  मां को देख उसका मन भर आया कितनी दुबली लग रही थी मानो हड्डियों के ढांचे पर चढ़ा दिया गया ‌।‘राकेश के पैदा होने से पहले ही मां को दमे की बीमारी हो गई थी बाबू जी नयी मां के साथ गांव में रहने लगे...बेटा जानबूझकर न लौटने वाला आदमी हमेशा चूक जाता है क्या वह उस दिन भी ऐसे ही चूक जाएंगे लगता है मां अपने आप प्रश्न करके कुछ  खोज रही थी।…’ माँ कोई भी हो एक समय के बाद उसका सम्पूर्ण अस्तित्व ही पत्थर-सा हो जाता है बस हांड़-मांस हाथ बचते हैं जो कार्य करते रहते हैं, उसका श्रम कहीं नहीं रुकता वो तो मौत के बाद ही रुकता है| आज 30 साल के कठिन वैवाहिक जीवन के बाद भी माँ अकेली ठूँठ से खड़ी थी लेकिन बावजूद इसके मायके में आई बेटी को खली हाथ नजाने देगी माँ ‘चिंता मत करना मैं अपनी खुद चमड़े के लिए कपड़े बनाकर अपने बच्चों को पहना सकते हो’… एकाएक उसे लगा शादी के बाद भी वह बाबूजी पर भार है… बाबूजी के बीच कपड़े की दीवार है’|  बेटियाँ अपने बचपन को पुन:जीने मायके आती है,ससुराल के अपने तमाम दुःख जिम्मेदारियाँ, क्लेश भूल कर, चैन के कुछ पल बिताना चाहती है लेकिन रीति-रिवाजों की गठरी बेटी के प्रति पिता के कठोर बना चुकी होती है तिसपर जिस घर में माँ का आदर न हो बेटी के सम्मान की रक्षा की कल्पना कैसे की जा सकती है|

बंद कमरों की सिसकियाँ  माँ बनना दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत अनुभूति है लेकिन जो स्त्री  मातृत्व नहीं प्राप्त कर पातीं वे पितृसत्ता समाज में अयोग्य ठहराई जाती हैं, उसके साथ हर तरह की हिंसा अपने आप जायज़ हो जाती है, माँ न बन पाना एक अपराध या अभिशाप बन जाता है समाज या परिवार ये जानने या समझने की कोशिश ही नहीं करता कि इस अवस्था के पीछे पत्नी ज़िम्मेदार है या पति, पितृसत्ता में जकड़े परिवार, समाज एकस्वर में स्त्री पर ही लांछन लगाते हैं | उन्हें कहीं से भी नैतिक सहयोग नहीं मिलता, हर जगह उसी को दोषी ठहराया जाता है| मोना का दर्द माँ न बन पाने से ज्यादा समाज के व्यवहार से उभर आता है औरतों के बीच जाती तो ऐसे सलाम करती जैसे कोई विदा कह रही हो और इसके आगे उनके पास बैठने या बात करने की हिम्मत नहीं होती… मिस्टर राय के यहां झूले में बच्चे के पास शगुन करने गए तो सास ने टोक दिया अरे तुम नहीं शगुन बच्चों की मां करती हैं उसकी छोटी छोटी आंखें सिकुड़ कर रह गई मन के भीतर कोई बड़ी जोर से मत नहीं चला रहा था कितनी चोट लगी थी इस घटना से और बांझपन का बोझ पहली बार उसके मन को दबाने लगा था’  बिना बच्चों के उसे अपना  जीवन निरर्थक लगने लगा,पति-पत्नी  दोनों ने अपनी दुनिया भी सीमित कर ली थी आज शंकर की मृत्य पर जब गिने चुने लोग आये तो उसे एहसास हुआ ‘जब हम किसी के दुख-सुख में नहीं जाते तो लोग क्यों आएंगे’  क्योंकि सम्बन्ध वही पनपते हैं जब बाल-बच्चे हो जीवन में आगे लेन-देन का रिश्ते निभाए| 20 साल बीत गए और वह ठूँठ की तरह खड़ी की खड़ी रह गई कोई कोंपल नहीं फूटी कोई फूल नहीं खिला| उसने शंकर से कहा भी कि दूसरी शादी कर लो लेकिन वह कहता ना मुझे ऐसा बच्चा नहीं चाहिए जो हमें अलग कर दे।लेकिन गाहे-बगाहे उसे सुनना पड़ता ‘मोना किस लिए यह पैसा जोड़ती हो…मोना मैंने बीमा करवा लिया है मेरे मरने के बाद कोई तो सहारा चाहिए… पहली बार उसे लगा अकेली है बिल्कुल अकेली। एक दृश्य के माध्यम से मोना के अनंत दुःख को मेहरुन्निसा जी बताती है – जब दूकान पर एक पर्स अपनी इच्छा से न खरीद सकी, ‘जीवन भर हर चीज को तो हर चीज से शोकेस में रखे ललचाती रहेगी।  उसके जीने की लालसा ख़त्म हो ची थी लेकिन इश्वर ने शंकर को अपने पास बुला लिया वो जड़वत हो गई एक आंसू न गिरा पाई सब जैसे बर्फ हो गया, बीमा के कागज़  देखकर रोते हुए पछाड़ खाकर गिर पड़ी|

माँ बनना दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत अनुभूति है लेकिन जो स्त्री  मातृत्व नहीं प्राप्त कर पातीं वे पितृसत्ता समाज में अयोग्य ठहराई जाती हैं, उसके साथ हर तरह की हिंसा अपने आप जायज़ हो जाती है, माँ न बन पाना एक अपराध या अभिशाप बन जाता है समाज या परिवार ये जानने या समझने की कोशिश ही नहीं करता कि इस अवस्था के पीछे पत्नी ज़िम्मेदार है या पति, पितृसत्ता में जकड़े परिवार, समाज एकस्वर में स्त्री पर ही लांछन लगाते हैं |

‘उसका घर कहानी एकसाथ वृद्ध जीवन और विकलांगता के दर्द को उभारती है जिसने बच्चों की तरक्की के लिए दिन रात मेहनत की, किसी का एहसान नहीं लिया लेकिन आज उसके साथ कोई नहीं की | पत्नी भी साथ नहीं दे रही क्योंकि विकलांग होने के बाद वह कमाने लायक नहीं रहा इसलिए ‘हमेशा गमछे से आंख का पानी पोंछता है जो निरंतर चलता ही रहता है, खटिया कितना ढीली हो गई है। चादर से भी प्याज की दुर्गंध उठ रही है, बिना खोल के तकिए पर तेल  का निशान बन गया है और उससे अजीब महक उठती है| 3 बार हुक़्क़ा  भर चुकी हूं कितना पियोगे की तो जान बाकी नही उतना हुक्का पी जाते हो हैं।कल्लो उसकी पत्नी कह रही है। कह उठता है –अब इससे डरना पड़ता है धर्मपत्नी ना हो साली हवलदार हो गए पर छोटी बहू के लड़के को देखकर उसका कलेजा दरकने लगता है,उसे ह्रदय से लगाना चाहता है लेकिन बहु के हिलने वह डर से कांप जाता है और थरथर कांपते टांगों को संभालते, बुझते मन से लौट जाता है| ‘उसका घर’ इस तथ्य को भी उजागर करता है कि आर्थिक पक्ष कैसे आपके संबंधो को कमजोर बनाता है बेटे-बेटी और पत्नी भी आज पिता से इस प्रकार व्यवहार कर रहें हैं जैसे वो कोई पराया है इसलिए बोझ भी बड़ा लगा रहा है|

‘छोटे मन की कच्ची धूप’ एक ऐसी माँ की विडंबना जो बच्चों को बता ही नहीं पा रही कि उनके पिता अब कभी नहीं आयेंगे! पति की तो लाश भी दो दिन बाद मिली जो एक पेड़ से लटकी  हुई, फूल गई थी दुर्गन्ध के कारण उसका ही जी ख़राब हो रहा था वहीँ अंतिम संस्कार कर दिया गया |‘मौत पीछे के रास्ते से चुपचाप निकल गई और कुछ भी ना कर पाए केवल खड़ी रह गई  थी, खुद पति को हवाई जहाज में बैठाकर आई थी,…हवाई जहाज बमुश्किल 15- 20 मील में दूर जाकर टकरा गया।‘वह ऐसा साहस जुटा नहीं पाती वह बच्चों को समझाने के लिए साहस लाती, और पहले वह खुद रोने लगती है वह अपने मन को जितना बांधती है उतना ही बिखरता है और इस बिखरने और समेटने में उसके हाथ से वह क्षण भी खो जाता मे।जिसे वह कई दिनों के प्रयत्नों के बाद तैयार करती’  वह कई बार सोचती घर को किराए पर उठाकर शिमला चली जाए भाई के कितने पत्र आ चुके थे पर बच्चों का ध्यान करके विचार छोड़ देती कहीं बच्चों के मन में यह बात करना कर जाए कि वे असहाय से दूसरों के घर जी रहे हैं|कहानी नायिका की मानसिक स्थिति नायिका की भांति स्थिर नहीं बिखरी हुई-सी है आप कुछ सिरा खोजने की कोशिश में यही तक पहुँच पातें है कि पति की मृत्य के बाद एक स्त्री के लिए जीवन जीना आसन नहीं|

‘वीराने’ कहानी भी ‘छोटे मन की कच्ची धूप’  कहानी की तरह पति की मृत्यु के बाद अकेली स्त्री की मन:स्थिति को व्यक्त करती है लेकिन इसमें अधिक कसावट है | माँ और बेटी के  छोटे छोटे मार्मिक संवाद आपको विचलित करतें है| जीवन के ‘वीराने’ जिन्हें वे अकेले भोग रहीं हैं, एकदूसरे से अपना दुःख कहते नहीं बनता| ‘क्या इस जनम में तुम्हें कभी भूख लगेगी बेटी…

मम्मी तुम समझती नहीं तुम थक जाती होगी…आज स्कर्ट नहीं पहनूंगी नहीं बेटी वहां सब साड़ी बांधकर आएंगे…क्या मैं विधवा ऐसी-सी साड़ी पहन सकती हूं… मम्मी ऐसा ना कहा करो इससे मुझे आभास होता है कि डैड नहीं रहे, वरना वह तो मेरे पास ही बैठे रहते हैं मम्मी…’ एक ऐसीबेटी जिसके पिता नहीं रहे,और प्रेमी जिसने उसकी मांग भरी लेकिन विवाह की सामाजिक मोहर नहीं लगी,वो भी दुनिया छोड़ चूका है ,लेकिन वो अपनी माँ के जीवन का शून्य भरने की अथाह कोशिश कर रही है |अशोक की मौत के बाद वह माँ को बत ही नहीं प् रही कि मम्मी की तरह वह भी विधवा हो गई है उसकी मम्मी कई बार शादी को कह चुकी है, ‘मम्मी को समझा ही  नहीं सकटी कि एक बार मन की मृत्यु हो जाने पर मुझे दोबारा नहीं जिया जा सकता| लेकिन जब माँ ने उसकी डायरी पढ़ ली तो माँ जड़ होकर वैसे ही बैठी रह गई | 

आदम और हव्वा   कहानी भी एक ऐसी स्त्री की कथा है जो विधवा होकर नए जीवनसाथी के सपने देखने लगती है लेकिन भूल जाती है कि सभ्यता के इस युग में भी पुरुष सिर्फ आदम है जिसे हव्वा की ही तलाश रहती है लेकिन फल चखने का भुगतान केवल स्त्री को चुकाना पड़ता है| पुरुष को सिर्फ स्त्री देह की लालसा होती है, मगर मन! वह उसकी उन सुखद स्मृतियों को सिर्फ कुरेद नहीं रहा बल्कि उखाड़ फेंकना चाहता है,जो संभव ही नहीं उर्मी कैसे झूठ बोल देती कि पति जीवित रहते तो उनके साथ आज से अधिक खुश होती महिम इस उत्तर के लिए तैयार नहीं था, उसे लगता था कि उर्मी विधवा से शादी की बात कर मानो कोई महान कार्य करने जा रहा है और उर्मी को अब अपना अतीत का जिक्र भी नहीं करना चाहिए | ‘मैं बासी चीजें नहीं खाता महिम ने  तरकारी की प्लेट सरका दी, तूने खा लिया, हां!  मेरी बीवी बनोगी तो इंतजार करना पड़ेगा, लो आधी रोटी खाओ और माहीम ने जबरदस्ती आधी रोटी का कौर उसके मुंह में ठूंस दिया।वह अकबका-सी गई|’ यानी उसे स्पष्ट कर गया कि अभी यह शादी नहीं हो सकतीऔर उर्मी बीच रास्ते में स्तब्ध खड़ी रह गई इंतज़ार के लिए जो कभी पूरा होने वाला नहीं |

चुटकी भर समर्पण  यह एक बेटी,बहन,पत्नी ,प्रेमिका और माँ न बन पाने के दर्द  से जूझती स्त्री की विडंबना पूर्ण कथा है| पाखी जिसने अपने उस प्रेमी से,जो किसी का पति है उम्मीद लगा ली लेकिन ‘इस चुटकी भर समर्पण ने उसे क्या दिया उसकी जिन्दगी के दोने पलड़े खाली ही रहे’ ..देर से भटकता उसका मन जैसे डाल पर वापस लौट आया जैसे पंछी भटक कर वापस घोंसलें में वापस लौट आता है माना डाल सूखी है, लेकिन उस पर घोंसला तो है जिस पर थक हार कर लौटा तो जा सकता है’| मनीष को कबूतर की तरह उन्मुक्त उड़ान चाहिए थीऔर भूख लगने पर दाना लेकिन पाखी उसे तो विश्वास,रिश्ते,प्यार और सुरक्षा? वो समझ ही न पाई जो अपनी गृहस्थी के किस्से जबतब छेड़ा करता ,लेकिन ‘सेक्स की तलाश में जो लोग घर से बाहर निकलते हैं उन्हें कभी सामने वाले पर विश्वास नहीं होता, जो लोग पेट भर खाने के आदी हो, उन्हें नहीं पता होता है कि दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जो मुट्ठी भर भीख  में पाए भोजन को ही खा कर तृप्त हो जाते हैं’  उसे न घर में प्यार-सम्मान मिला न ही बाहर विश्वास और सुरक्षा|

संबंधो की आधारशिला माने जाने वाली ‘विवाह संस्था’ स्त्रियों के लिए कितनी निराधार और खोखली हो सकती है इन कहानियों में बखूबी व्यक्त गया है| वैवाहिक संबंधो के नाम पर स्त्रियों के त्याग,समर्पण के बाद भी कैसे उनका उसका वजूद गुमनाम ही रहता है,विवाह संस्था के सभी लाभ पुरुष ही को मिलतें हैं और स्त्री खुद को ठगा-सा महसूस करती है| अगर पत्नी को अपनी पसंद का पति ना भी मिले तो वह हर तरह से जिंदगी को निभाती है,चाहे खुशी-खुशी अथवा इस दुख में, लेकिन जरा उम्र ढलने पर या दैहिक आवश्यकताएं पूर्ण न होने पर पति बाहर जाने में तनिक भी नहीं झिझकता तिस पर घरों की महिलायें ही शिक्षा देने लगती हैं कि तुझ ही में कमी है तभी आदमी बाहर मुँह मारता है|

एक बेटी अपने मायके आकर सोचती है कि कुछ दुःख साझा करेगी, लेकिन परम्परा और आधुनिकता की जिस टकराहट को हम भी अनुभव करतें है पाखी भी जान जाती है कि उसकी व्यथा कौन सुनेगा ? उसकी व्यथा का समाधान उसे ही संभालना ओगा उसका हल किसी मास्टर के पास नहीं |कहानी का आरम्भ वीभत्स और डरावना है लेकिन एक ऐसा कटु यथार्थ भी है जो हमें विचलित कर जाता है | ऑपरेशन टेबल पर पड़े-पड़े वह देख चुकी थी, पेट से निकले खून के लोथड़े दाई बाहर डाल रही थी जिसे बड़ी ही तेजी और बेरहमी से कुत्ते खा रहे थे अस्पताल के अहाते में अपने आप पले कुत्ते पीढ़ियों से थे जो औरत के खून के इंतजार में थे औरत के खून की गंध इनके नसों में समा गई थी’ अपने आप पले,पीढ़ियों से,औरत के खून के इंतज़ार में… इस प्रतीक को समझ पाना कठिन नहीं ,तिथि उसकी छोटी बहन भी एक शादी शुदा प्रोफेसर से धोखा खा चुकी थी ,भाई के जिस लड़की से सम्बन्ध थे वो जानता है इस बात के लिए माँ पिताजी कभी तैयार न होगे, बहन की शादी नहीं हो रही पाखी को भी जहाँ चाहा खूंटे से बाँध दिया अब हाल-चाल पूछने की भी हिम्मत नहीं होती उनके पास बच्चों के दर्द तकलीफ जानने समझने की इच्छा शक्ति नहीं है कैलाश कहता है– ‘इन लोगों ने हम लोगों के लिए क्या किया जो आज ब्याज समेत मांगते हैं बस सारी जिंदगी अपना रोना रोते रहे मां बाबूजी के खिलाफ और बाबूजी मां के खिलाफ | और पाखी का दर्द पिघलता नहीं जब्त-सा होकर रह जाता है|

संबंधो की आधारशिला माने जाने वाली ‘विवाह संस्था’ स्त्रियों के लिए कितनी निराधार और खोखली हो सकती है इन कहानियों में बखूबी व्यक्त गया है| वैवाहिक संबंधो के नाम पर स्त्रियों के त्याग,समर्पण के बाद भी कैसे उनका उसका वजूद गुमनाम ही रहता है,विवाह संस्था के सभी लाभ पुरुष ही को मिलतें हैं और स्त्री खुद को ठगा-सा महसूस करती है| अगर पत्नी को अपनी पसंद का पति ना भी मिले तो वह हर तरह से जिंदगी को निभाती है,चाहे खुशी-खुशी अथवा इस दुख में, लेकिन जरा उम्र ढलने पर या दैहिक आवश्यकताएं पूर्ण न होने पर पति बाहर जाने में तनिक भी नहीं झिझकता तिस पर घरों की महिलायें ही शिक्षा देने लगती हैं कि तुझ ही में कमी है तभी आदमी बाहर मुँह मारता है| और स्त्री बाहर निकले तो भी उसका हश्र पाखी जैसा होता है जिसके दोनों पल्ले खाली रह जाते हैं| पुरुष के लिए छोड़ना और पकड़ना दोनों आसान है जबकि औरतों के लिए स्वतंत्र सोच और भाव के साथ न संबंध बनाना आसान है,न ही संबंधों को छोड़ना| और विधवा और अकेली औरत के संघर्षों को भी मेहरुन्निसा जी बड़े ही सहजता से यथार्थवादी ढंग से कथानक में पिरोया है | मेहरुन्निसा परवेज़ जी का कहानी संग्रह ‘एक और सैलाब’ मुझे ई-पुस्तकालय पर मिला, जिसकी अधिकतर कहानियां परिवार और समाज में पुरुष के वर्चस्व के साथ-साथ पुरुष के ना होने पर समाज में स्त्री की जो दयनीय स्थिति हो जाती है उनका अत्यंत मार्मिक अंकन करती है। हमारे समाज में जहां लड़कियां ‘बेल’ की तरह तेजी से बढ़ती हैं तो उनका भविष्य या तो वे जमीन पर पड़ी रहे और पैरों तले कुचलती रहें अथवा किसी का सहारा लेकर ही ऊपर चढ़े लेकिन यह आश्रय हर किसी को सर्व सुलभ और संभव नहीं हो पाता यही कारण है कि पति एकमात्र सहारा, जिस पर उसका जीवन आश्रित होता है यदि छूट जाए, मर जाए जब छोड़ जाए तो समाज में उसका जीवन यापन करना अत्यंत न हो जाता है क्योंकि घर की दहलीज से कभी उसने बाहर कदम रखा नहीं , रखने ही नहीं दिया , जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के काबिल उसे नहीं बनाया गया। गरीबी में तीज त्यौहार उदासी का सबब कैसे बनते हैं ‘त्यौहार’ कहानी में इसे बखूबी बताया गया है, कहानी पढ़ने के दौरान प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ कहानी आदर्शवादी प्रतीत होगी जबकि ‘त्योहारों का यथार्थ’ गरीबों को समाज में नंगा करने आता है जैसा कि शानों की मां कहती है। संग्रह की दो महत्वपूर्ण कहानियां अपने-अपने दायरे तथा चमड़े का खोल एक बेटी के माध्यम से परिवार और समाज में मां की स्थिति को प्रकट करती हैं जहां मांग के प्रति किसी को सहानुभूति नहीं है, जो बहुत कम देखने को मिलता है। बांझ का कलंक ढोती स्त्री सामाजिक बहिष्कार पर भी मेहरून्निसा मैं अपनी पैनी दृष्टि रखती है, बंद कमरों की सिसकियां तथा चुटकी भर समर्पण कहानी हमारे समाज में पितृसत्ता का कच्चा चिट्ठा खोलते हैं तो तीसरा पेच कहानी समलैंगिक संबंधों की ओर इंगित करते हुए,कहीं ना कहीं पुरुष होने भर की अनिवार्यता के पीछे एक स्त्री के ही दर्द को दर्शाती हैं, क्योंकि पुरुष अपनी आवश्यकताएं पूरी कर रहा है लेकिन स्त्री???। एक और सैलाब, त्यौहार , छोटे मन की कच्ची धूप, आदम और हव्वा,तथा वीराने कहानियां पति की मृत्यु के बाद स्त्री के जीवन में आने वाली कठिनाइयों को बहुत ही सहजता से यथार्थ ढंग से हमारे सामने रखती हैं।संबंधो में प्यार, विश्वास,और सुरक्षा की खोज की बेहतरीन कड़ी है एक और सैलाब कहानी संग्रह की कहानियां| अबैदुल्लाह अलीम का एक शेर है-‘अगर हों कच्चे घरोंदों में आदमी आबाद …तो एक अब्र भी सैलाब के बराबर है’| लेकिन पितृसत्तात्मक समाज की विवाह संस्था में ‘घर’ की मज़बूत संकल्पना के बावजूद, जाने स्त्री क्यों अपने आंसू पी जाती है|

भाग (1) https://streekaal.com/2025/06/13/sanbandho-ke-sailaab-rakshageeta/

तस्वीरें गूगल से साभार

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ISSN 2394-093X
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