महिला मताधिकार के राजनीतिक संदेश

 
संजीव चंदन
 
अन्य देशों की तुलना में भारतीय महिलाएं इस मामले में
थोड़ी सुविधाजनक स्थिति में रही हैं कि उन्हें आजादी के बाद से ही
पुरुषों के साथ समान मताधिकार और चुनाव में खड़े होने का अधिकार प्राप्त हो गया
था। यही नहीं, देश में
जब 1935 में सीमित मताधिकार का प्रावधान हुआ, तो पुरुषों के समान ही यह
अधिकार स्त्रियों को भी हासिल हुआ था। दुनिया के दूसरे देशों की तरह उन्हें इसके
लिए लंबा संघर्ष भी नहीं करने पड़ा, जबकि मेरी वोल्स्टन क्राफ्ट के
नेतृत्व में 1792 में स्त्रियों के लिए मताधिकार की पहली बार उठी मांग के बाद से
पश्चिमी देशों में इसके लिए महिलाओं ने सतत संघर्ष किया और इसे हासिल करने में
उन्हें सफलता बीसवीं शताब्दी में ही जाकर मिली। कई देशों में आज भी महिलाएं इस
अधिकार से वंचित हैं।
देश के पहले चुनाव में मतदान करतीं महिलायें
ऐसा भी नहीं है कि समान मताधिकार भारतीय महिलाओं को थाली में
सजा कर दिया जाने वाला उपहार था। जब भारत के लिए नया संविधान बनने के पूर्व
ब्रिटिश भारत के तत्कालीन सचिव इएस मांटेग्यु 1917 में यहां दौरे पर आए तो 1 दिसंबर 1917 को पांच महिलाओं का एक
प्रतिनिधिमंडल उनसे तत्कालीन मद्रास में मिला और महिलाओं के लिए मताधिकार की मांग
रखी। मांटेग्यु-चेम्सफोर्ड के सुझावों में हालांकि मताधिकार को और विस्तृत करने का
सुझाव भी शामिल था लेकिन इसमें महिलाओं का कोई उल्लेख नहीं था। 1918 में कांग्रेस और मुसलिम लीग ने
भी महिलाओं के मताधिकार का समर्थन किया। 1919 में जब ‘द गवर्नमेंट आॅफ इंडिया बिल’ पेश हुआ तो एनी बेसेंट, सरोजनी नायडू और हिराबाई ने
महिलाओं के राजनीतिक अधिकार के पक्ष में अपने तथ्य रखे लेकिन इस मसले को चुनी गई
सरकारों के ऊपर छोड़ दिया गया।
त्रावणकोर और मद्रास ने क्रमश: 1920 और 1921 में सीमित मताधिकार (पढ़ी-लिखी) महिलाओं
को दिए, जिसके
बाद दूसरे राज्यों में भी यह सिलसिला शुरूहुआ। 1931-32 में लॉर्ड लोथियन समिति ने
महिलाओं के मताधिकार के लिए जो दो आधार बनाए, उनमें एक बेहद भेदमूलक था। एक
तो किसी भी भाषा में पढ़-लिख सकने वाली महिलाओं को ही मताधिकार प्रस्तावित किया गया, इसके अलावा उन्हें किसी की
पत्नी होना भी अनिवार्य कर दिया गया, यानी विधवाएं या किसी कारण से
विवाह न करने वाली महिलाएं इस श्रेणी से बाहर रखी गर्इं।
महिलाओं को प्राप्त राजनीतिक
अधिकार
का असर
सोलहवीं लोकसभा के चुनावों में खूब दिखा। इस बार जहां चुनाव आयोग ने मतदाता जागरण
के संदेशों में महिला मतदाताओं को लक्षित कर अपने अभियान चलाए, वहीं लगभग सभी राजनीतिक
पार्टियों ने महिलाओं की सुरक्षा सहित उनके मुद््दों को अपने चुनाव प्रचार में
अहमियत दी। आयोग ने महिला ब्रांड अम्बेस्डरों के जरिये महिला मतदाताओं की अधिकतम
भागीदारी का अभियान चलाया। 2014 के लोकसभा चुनावों के पूर्व दिल्ली के निर्भया प्रकरण ने
महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान को राजनीति के केंद्र में ला दिया।
दिल्ली के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय का बड़ा कारण
महिलाओं की सुरक्षा के सवाल पर पैदा आक्रोश था, वहीं यही आक्रोश आम आदमी पार्टी
के उभार के दो प्रमुख कारकों में से एक था। एक, भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान, और दूसरे निर्भया बलात्कार कांड
के खिलाफ चले आंदोलन में सक्रियता ने आम आदमी पार्टी के प्रति चमत्कारिक गोलबंदी
कराई। दिल्ली में महिलाओं के मुद्दे से तख्त बदलते देख राजनीतिक पार्टियों ने
आगामी चुनावों में महिलाओं की भूमिका का अनुमान लगा लिया। अन्यथा कोई कारण नहीं है
कि पिछली लोकसभा के दौरान महिला आरक्षण विधेयक को पारित न होने देने में कभी
प्रत्यक्ष कभी परोक्ष रूप से लगी रही पार्टियों को महिलाओं की सुरक्षा, सम्मान और बराबरी के मुद्दे
जरूरी लगने लगे।
पहला आमचुनाव
चुनाव जैसे-जैसे मतदान के विभिन्न चरणों से गुजरने लगा, वैसे-वैसे अलग-अलग कारणों से
चर्चा के केंद्र में महिलाओं की उपस्थिति अनिवार्य होती गई। हालांकि इस क्रम में
यह भी हुआ कि पितृसत्तात्मक समाज के चरित्र के अनुरूप विरोधाभास और आक्रामकता बढ़ती
गई। मुलायम सिंह ने बलात्कारियों के प्रति नरमी भरे बयान दे डाले, हालांकि उनकी पार्टी इस बयान पर
बगलें झांकती दिखी। धीरे-धीरे नेताओं के ‘अवैध’ रिश्ते खंगाले जाने लगे।
नरेंद्र मोदी तो पहले से ही एक लड़की के पीछे पूरे सरकारी तंत्र के साथ जासूसी
प्रकरण में घिरे थे, उनकी
पार्टी को दिग्विजय सिंह और एक विवाहित महिला पत्रकार के रिश्ते में कीचड़ उछालू
आनंद आने लगा। अभी वे जश्न मना ही रहे थे कि खबर आई कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल
बिहारी वाजपेयी के ऐसे ही ‘स्नेह
संबंध’ में बंधी
एक विवाहित महिला ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
हद तो तब हो गई जब समाजवादी पार्टी के कई नेता मायावती पर
फिकरे कसने लगे। सोशल मीडिया में इन नेताओं के प्रशंसकों ने सारी सीमाएं लांघ दीं, ट्रिक-फोटोग्राफी के जरिए और
अपनी महिला-विरोधी टिप्पणियों। इस तरह पितृसत्तात्मक समाज के सारे अंतर्विरोध
सामने आते गए, महिलाओं
की सुरक्षा को लेकर वादों की झड़ी और उनके अस्तित्व के प्रति मर्दाना नकार एक साथ
प्रकट हुए।
अंतर्विरोध सिर्फ वक्तव्यों और बयानबाजियों में नहीं है, एक दूसरे से बढ़-चढ़ कर महिलाओं
की हितैषी होने का दम भरने वाली पार्टियों के टिकट वितरण में भी है। 2009 में जहां महिला उम्मीदवारों की
संख्या 6.89 फीसद थी, वहीं 2014 में उसमें कोई गुणात्मक फर्क
नहीं आया है। चार चरणों तक आए आंकड़ों के अनुसार 7.83 फीसदमहिला उम्मीदवार ही चुनाव मैदान में थीं। इस आंकड़े में निर्दलीय महिला
उम्मीदवार और अपने पति या पिता की विरासत संभालने के लिए या उसका हवाला देकर चुनाव
मैदान में उतरीं उम्मीदवार भी शामिल हैं। इस चुनाव में स्त्रियों की प्राथमिकताओं
और उनकी राजनीतिक पसंद जानने के लिए इन पंक्तियों के लेखक ने बिहार के अलग-अलग
संसदीय क्षेत्रों की अलग-अलग जाति-वर्ग की महिला मतदाताओं से चुनाव के पूर्व और
चुनाव के बाद बातचीत की।

बिहार उन राज्यों में है जो 1920 के दशक में महिलाओं को दूसरे प्रदेशों के
द्वारा दिए जाने वाले मताधिकार के प्रति अड़ियल रुख अपनाता रहा था और 1929 में कई राज्यों के द्वारा पहल
किए जाने के बाद बिहार विधानसभा ने इसे पारित किया था। वहीं हाल के दिनों में
महिला अधिकारों के लिए बिहार सबसे अव्वल पहल लेता हुआ दिख रहा है। 2005 में देश में यह पहला राज्य बना, जिसने स्थानीय निकायों में
महिलाओं के लिए पचास फीसद आरक्षण दिया। लड़कियों को स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित
करने के मकसद से उन्हें साइकिल दिए जाने के कार्यक्रम को बिहार के मुख्यमंत्री
अपने शासन की क्रांतिकारी पहल बताते हैं। इस बदलाव के माहौल में बिहार की महिला
मतदाताओं का मन जानना काफी महत्त्वपूर्ण रहा। देश के दूसरे हिस्सों की महिला
मतदाताओं का रुझान भी कमोबेश इससे समझा जा सकता है, अलबत्ता स्थानीय परिवेश और
स्थानीय प्राथमिकताओं के अनुरूप हो सकता है यह रुझान बदले हुए स्वरूप में हो।

हालिया चुनावों में मतदान करती महिलायें
मतदान के आखिरी चरण की ओर बढ़ते हुए आंकड़े बता रहे हैं कि बिहार में महिलाओं ने मतदान में
बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है, कुछ चरणों में तो उनकी भागीदारी पुरुषों की तुलना में काफी बेहतर
रही। विभिन्न संसदीय क्षेत्रों की महिला मतदाताओं से मिलते हुए चुनावी लहर, चुनावी मुद््दों और
मतदान के समीकरणों के कई ऐसे सच सामने आते दिखे, जो चुनावी सर्वेक्षणों या टीवी चैनलों
के कैमरों से ओझल रहते हैं। हालांकि सात मई को एक अजीब घटना भी घटी। उजियारपुर के
एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी पर गोली चला दी, महज इसलिए कि उसने पति की पसंदीदा
पार्टी के बजाय किसी और दल के उम्मीदवार को वोट दिया था।
सूबे की राजधानी के एक प्रतिष्ठित
कॉलेज में
पहली मुलाकात में लड़कियों ने एकबारगी
कहा कि उन्होंने नरेंद्र मोदी की खातिर वोट दिया है, यानी उनकी पार्टी के उम्मीदवार को।
ठीक वैसे ही हाजीपुर, जहां सात मई को मतदान हुआ, के एक दलित युवा मतदाता ने कहा कि
मोदी एक बेहतर प्रधानमंत्री हो सकते हैं। लड़कियों से जब जाति और आरक्षण पर उनकी
राय पूछी गई तो स्पष्ट विभाजन रेखा दिखी। गुजरात के दंगों और उनके मद्देनदर
मुख्यमंत्री के उत्तरदायित्व पर भी मतांतर सामने आए और जल्द ही साफ हो गया कि उन
लड़कियों ने वोट देते समय अपनी जाति और धार्मिक पहचान को ध्यान में रखा था। ऐसा
नहीं होता तो नीतीश कुमार की सरकार के द्वारा किए गए विकास-कार्य कुर्मी-कोयरी और
महादलित लड़कियों के अलावा दूसरी लड़कियों को भी उल्लेखनीय लगते।  कॉलेज में जब इन जातियों की लड़कियां मिलीं तो उन्होंने बताया कि
सत्रह अप्रैल को उन्होंने तीर-छाप (जद-यू) को वोट दिया है और उन्होंने उसका कारण
बताया नीतीश सरकार के द्वारा लड़कियों की बेहतरी, उनकी शिक्षा के लिए उठाए गए कदम या
विभिन्न नौकरियों में लड़कियों के लिए आरक्षण का प्रावधान। संसद में तैंतीस
महिला-आरक्षण की लड़ाई लड़तीं वृंदा करात या कविता कृष्णन को वे नहीं जानतीं, मगर उन्हें यह पता
है कि स्थानीय निकायों में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण देने वाला बिहार पहला
राज्य बना है, जिसे संभव किया है नीतीश कुमार ने।
 जल्द ही धर्म और जाति के पूर्वग्रहों से परे बताई जाती रही लहर या एक नेता की लोकप्रियता का मिथ टूट गया, जो संभव हो पाया धैर्यपूर्वक
उन लड़कियों से बातचीत करने पर। यह सब आंकड़ों और कथित वस्तुनिष्ठ प्रश्नों से संभव
नहीं था। ठीक वैसे ही हाजीपुर में दलित युवा के साथ उसके परिवार और जाति-बंधुओं के
पास पहुंचते ही, उसकी व्याख्या बदल गई। हालांकि सात मई को उसने राजग और लोक जनशक्ति
पार्टी के नेता रामविलास पासवान के  पक्ष में वोट दिया,लेकिन उसने स्पष्ट
कर दिया कि अगर पासवान राजग में न होते तो भी वह उन्हें ही वोट देता, यानी नरेंद्र मोदी
के प्रति दिखते उसके आकर्षण की हकीकत एक झटके में ही सामने आ गई। दरअसल, युवाओं और महिलाओं
के मत किसी अलग एजेंडे से संचालित नहीं दिखे, जिसके दावे किए जा रहे हैं। महिला
मतों की पहचान की इस कवायद से आए तथ्य चुनावी सर्वेक्षकों के लिए भी विचारणीय हैं, जो आंकड़ों और कथित
वस्तुनिष्ठ सवालों से ‘लहर’ तय करते हैं।
                                                 महिला
मतों का निर्धारण

यह जरूर है कि महिलाओं की सुरक्षा सभी लडकियों , महिलाओं के लिए अहम
मुद्दा है , चाहे वह जे डी वीमेंस कालेज की लडकियां हों या मसौढी और हाजीपुर की
महिलायें. लेकिन जब सुरक्षा और महिलाओं के सम्मान के वैसे मामले सामने आते है,
जहां उनके प्रिय नेताओं पर सवाल उठते हैं, वे पुरुषों की तरह ही बचाव के तर्क के
साथ उपस्थित होती हैं.  जे डी वीमेंस कालेज
में एम ए अंग्रेजी  की छात्रा और मोदी की
भक्त कंचन युवा लडकी की जासूसी के मामले में मोदी की सरकार  के इस कृत्य का लचर बचाव करती हैं, जिससे उसकी
ही साथी समरीन असहमत होती है.
इससे  अलग कोई दृश्य मसौढी के ‘घोरअउआं’ गांव की खास जाति की महिला मतदाताओं के मतों का नहीं
है, जिन्होंने 17 मई को पाटलीपुत्र संसदीय क्षेत्र के लिए मतदान किया. उनकी ही
जाति के अभियुक्तों ने उस गांव में होली के दिन एक मंदबुद्धि दलित लडकी से सामूहिक
बलात्कार किया. इस गांव में वर्चस्व वाली इस जाति की महिलाओं ने इस आधार पर वोट
नहीं किया कि पीडिता के पक्ष में कौन सी पार्टी
या कौन से नेता सामने नहीं आये और कौन से आये. जबकि नेताओं का व्यवहार अपने
मतदाताओं के जातीय पह्चान से ही तय हए . भाकपा माले और उसके महिला संगठन ‘एपवा’ ने
दवाब बनाया, प्रदर्शन किये तो  बलात्कारी पकडे गये थे . पीडिता से  मिलने माले के उम्मीदवार रामेश्वर प्रसाद के
अलावा  सिर्फ लालू यादव और उनकी बेटी  तथा राजद उम्मीदवार मीसा भारती ही उसके घर जा
पाये तथा  महिलाओं की सुरक्षा का आक्रामक प्रचार करने वाले नरेंद्र मोदी की पार्टी के
उम्मीदवार रामकृपाल यादव शायद  यह समझ नहीं
पाये   कि वे एन डी ए में शामिल  रामविलास पासवान की जाति की पीडित लड्की से जाकर
मिलें या गांव के दूसरे दबंगों का वोट हासिल करने के लिए अनुपस्थित रहें. यही हाल
क्षेत्र के वर्तमान सांसद रंजन यादव की रही, उनकी पार्टी के आधार वोट बैंक
‘कुर्मी’ जाति से ताल्लुक रखते हैं पकडे गये आरोपी. यदि महिला की सुरक्षा जातीय पहचान पर हावी होती तो इस
गांव की महिलाओं के वोट आरोपियों के खिलाफ सक्रिय माले के उम्मीदवार को जाने चाहिए
थे या मीसा भारती को , जो खुद भी महिला हैं, और चलकर पीडिता के घर पहुंची थीं.
हाजीपुर में हथीसारगंज में पासवान जाति की महिलायें अपने घरों में और इलाके में शौचालय न होने की
समस्या से जूझ रही हैं, इनके घरों में बिजली भी नहीं है. उनकी ही जाति के नगर
पार्षद ने जब तक इलाके में कुछ  चापानल
नहीं लगवाये थे , तब तक पानी भी उनके लिए बडी समस्या था , लेकिन पिछ्ले 35 सालों
में पिछला 5 साल छोडकर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे स्वजातीय रामविलास पासवान
के लिए उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता जताई. 2009 में पासवानों के लग़भग 66 हजार वोट कट
गये थे, जिसके कारण पासवान 37 हजार मतों से हार गये थे. आस –पास में जंगलों के
अभाव और अपने दैनिक कर्म की समस्या से जूझ रही हथीसारगंज की महिलाओं के लिए उनकी
दैनंदिन की पीडा के ऊपर अपने घरों के मर्दों की तरह जातीय अस्मिता का सवाल हावी हो
गया है. भागलपुर और पटना सिटी की महिलाओं के लिए भी सुरक्षा अहम मसला जरूर है,
लेकिन उनके जेंडर पहचान से ज्यादा धार्मिक पहचान के आधार पर . 1992 के दंगों को याद करते
हुए शिक्षिका बिल्किस बानो बताती हैं कि कैसे पटना सिटी के उनके इलाके ‘नून का
चौराहा’ के बच्चे , जो उनकी आंखों के
सामने बडे हुए थे अपने पडोसी मुसलमानों के लिए कातिल हो गये थे. वे
कहती हैं, ‘ तब हमारी लैंगिक पहचान से ज्यादा धार्मिक पहचान असुरक्षा के कारण बने
थे. किसी भी दंगे में महिलाओं पर बलात्कार उसकी लैगिक पहचान से ज्याद उसके धार्मिक
पह्चान के कारण अंजाम दिये जाते हैं.’
 
 

( संजीव चंदन स्त्रीकाल के संपादक हैं . इनसे 08130284314 पर संपर्क किया जा सकता  है .)

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