पड़ताल करने का अवसर मिला था. कई कारणों से नारीवादी साहित्य आन्दोलन में दलित –
शोषित तथा हाशिए के स्तर का प्रतिनिधित्व बहुत अल्प रहा है. ऐसी स्थिति में दलित
साहित्य आन्दोलन के अन्तर्गत स्त्री विमर्श का यह जो प्रवाह निर्मित हुआ है वह
अपनी आरंभिक स्थिति से ही उल्लेखनीय संभावनाएं प्रकट करता दिखाई देता है. भारतीय
दलित स्त्री लेखन को देखें तो कुछ बातें स्पष्ट रूप से सामने आती हैं. उसमें से
मुख्य यह कि जाति और जेंडर के विमर्श के साथ साथ सामाजिक, सांस्कृतिक, अर्थनीतिक व
राजनीतिक संकुल मुद्दों को ध्यान में रखकर यह विमर्श हाशिये के प्रदेश से आमूलचूल
परिवर्तन की बात ला रहा है. दलित स्त्री के सामने बहुस्तरीय मुश्किलें रही हैं.
जातिवादी पितृसत्तात्मक संरचना ने उसे न तो स्वावलंबन की सुविधाएं दीं और न उस
दिशा में आगे बढ़ने के लिए जरूरी शिक्षा पाने का अवसर दिया. फिर भी आर्थिक पिछड़ेपन
के बावजूद अपनी संघर्शीलता, आन्दोलन सामर्थ्य और दूरदर्शिता के कारण दलित
स्त्रियों ने अनेक क्षेत्रों में सफलता हासिल की है. यह बताने की जरूरत नहीं कि
दलित स्त्री ही सबसे ज्यादा हिंसा, यौनशोषण और आर्थिक शोषण का शिकार बनती रही है.
घरसे लेकर बाहर तक सभी जगह निशाने पर रहती हैं. सिर पर मैला उठाने से लेकर
जमींदारों के खेत, धनपतियों के कारखानें में कमरतोड़ परिश्रम करती वह मुक्ति की अवधारणा
के पाखंड और वास्तविकता को भली भांति पहचानती हैं.
करने से समतामूलक समाज का निर्माण संभव नहीं. व्यापक एकता, सशक्त संगठन,
दीर्घकालीन रणनीति और बहुयामी संघर्ष से ही कुछ मार्ग निकल सकता है. इसलिए इस
विमर्श की क्षितिजे मानव मुक्ति के अन्य आंदोलनों के साथ संवाद रचती फैलती हैं. दलित
स्त्री लेखन ने अन्य मुक्ति आंदोलनों के साथ खुद को जोड़कर मुक्ति की अवधारणा का तो
विस्तार बढ़ाया ही है, परिवर्तन के लिए चल रहे समग्र संघर्ष को भी बहुमुखी और सघन
बनाया है. इस प्रक्रिया का लक्ष्य पारंपरिक सत्ता-संरचना के स्वरूप और अंतर्वस्तु
के बदलाव का है. इस दौरान यह पूरा साहित्य प्रवाह प्रचलित रूढ़ मानदंडों और
मान्यताओं से अलग मौलिक भूमि पर रहकर अनिष्ट यथार्थ की अनेक स्तरीय मीमांसा के लिए
प्रतिबद्ध दिखाई देता है. हाशिये के समुदायों, समाजों के यथार्थ की पड़ताल कर
मुक्ति के उपायों की ओर गति करता है. भारतीय भाषाओं में में जो दलित नारी लेखन हो
रहा है वह और दलित, आदिवासी तथा अन्य तमाम उत्पीड़ित और दमित समुदायों की नारी के
प्रश्नों को साथ लेकर समग्र जेंडर के बारे में संघर्ष दर्शाता है. इसलिए मध्य
वर्गीय व उच्च वर्गीय स्त्री समस्याएँ भी उसकी मीमांसा के दायरे में आ जाती हैं.
और मानवता के संकट समान प्रश्न भी उसकी चिंता के केंद्र में रहते हैं. मानव मुक्ति के व्यापक दर्शन की
संभावनाओं की थाह लेने का प्रयत्न इस लेखन में दिखाई देता है.
उसमें से कुछ कविताएँ यहाँ पर साझा कर रहे हैं. उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में इन
रचनाओं के भावविश्व और अंतर्वस्तु को देखा जा सकता हैं :
(तेलुगु कविता)
जाजुला गौरी
धकेल दिया मुझे
बना दिया मुझे पंचमा
कर्म के सिद्धांत ने मुझे
निरंतर मुझे
उसकी आज्ञा मानकर
जहाँ काली मजदूरी के बदले में
दिया जाता हो
उन्होंने तराजू में तौलकर
पंचम वर्ण चिपका कर
निरंतर बेगारी करवा कर
मेरे लहू की
शूद्रता ने भी किया
और मेरा पंचम भाई कहता है कि
मेरी बची-कुची हड्डियों का
वह कर देगा चूरा
एकता का मंत्र बहुत दिनों से
मेरा पीछा कर रहा है
इस पीडा को अब
समय आ गया है
मेरे लिए मेरी जगह ढूँढ़ने का
ठगी गई हूँ
मानवता विहीन मानवजात के
कुचली गई हूँ कल, आज और
आने वाले कल के बीच
अब मैं जैसी हूँ
वैसी ही खुद रक्षण करूँगी
( अनुवाद-सहयोग : जाजुला गौरी )
(उड़िया कविता)
प्रतिभा
भोई
अपने संकल्प के साथ
एक निर्भ्रान्त जीवन
शुरू किया
तब कहीं कोई एक कोने से
आग सुलग उठी
जब मैंने सिर उठाकर
सीना तानकर खड़े होकर
गाँव के रस्तों पर चलना शुरू किया
तब कहीं कोई कोने में
धधकता हुआ बारूद
जब मैंने मुँह खोलकर
जरा सी उँची आवाज़ में
शब्द का उच्चारण किया तो
कहीं किसी कोने में
वज्राघात हुआ
दूसरे ने मेरी पीठ पर
जवाब में मैंने भी हाथ उठाया तो
कहीं किसी कोने में
किसी की छाती में
क्रोध का अग्नि सुलगने लगा
याद रहे,
मैं अछूत हूँ
इसका मतलब यह नहीं कि
मेरे हृदय में कई सदियों से छुपा हुआ
होने का अहसास भी मर गया है
या फिर मैं हो गई हूँ
बिलकुल प्रतिक्रिया शून्य
(* अनुवाद–सहयोग : बासुदेव सुनानी )
भगाणा की पीडिताओं के संघर्ष में स्त्रियां |
पूरा समूह
मुझे फेँक गया
कूड़े करकट मेँ
मुंह बंद
और हाथ-पांव भी बंधे हुए
गोबर के कीचड़ मेँ पड़ी हूं
लथपथ
मुझसे टकराने वाले ने
पीछे मुड़कर देखा
मेरे हाथ मेँ झाडू
और गांव के बीचोबीच
मुझ पर अत्याचार टूट पड़ा
मेरे भीतर प्रश्न
मंडराने लगा
लोग तो ठीक
सामने मंदिर मेँ बैठे
भगवान ने भी
मुझे क्योँ न बचायी ?
क्या उसके भी आड़े आया होगा
मेरा अछूतपन ?
इसीलिए तो
दीवार की दरारों से
अनुकंपा का हाथ
आगे बढ़ाने की बजाए
उसकी पत्थर की आंखे
हो गई थी एकदम
अंगारे-सी लाल
और देख रही थी मेरे सामने !
चरनजोत कौर ‘जोत’
वह स्त्री
जीवन के आखरी पडाव पर है
बूढ़ापे की लकड़ी से
कुछ टटोलती
ढ़ूंढ़ रही है कुछ
वह स्त्री
जिन्दगी की सांझ ढलते ही
दो टुकडे रोटी के लिए
धुंधली आँखों से
उजाले को ढूँढ़ रही है
पत्थर जैसे हाथ से
लोगों के जूठे बरतन साफ करने की
पीड़ा सहन करती
मुरझाए चहरे वाली
वटवृक्ष सी टेढ़ी मेढ़ी
अवमानना पाती आ रही
तिरस्कृत
अकेली अकेली बुदबुदाती बातें करती
वह दूसरी कोई नहीं
मेरे गाँव की दलित स्त्री है
(तेलुगु कविता)
जूपाका सुभद्रा
सूरज की जलती धूप में
जब पानी भरने निकलती हूँ
जरा खडे रहकर
मुझे मेरे संघर्ष की बात कहने दो
मुँह अंधेरे जागती हूँ
और जाती हूँ जमींदार के घर
आंगन साफ करूँ और कूड़ा उठाऊँ
ढोर को पीने का पानी
टंकी में भरूँ
बाड़े से गोबर और गंदगी हटाऊँ
और सबकुछ सिर पर उठाकर
फेंक आऊँ दूर
मेरे अपने घर तो काम करने का
वक्त ही न मिले
मजदूरी के बदले में
मिलता बासी खाना
ठूंठे जैसा झाडू और छाज पकड़
मेरी कच्ची-पक्की झोंपड़ी बुहारू
तभी दहलीज पर ढल पडूँ
पटेल मेरे पीछे पड़ा है
ऊँची साँस, जैसे तैसे कर
धूल में बिखरे अन्न को इकट्ठा करूँ
उसे झाड़झपट कूटने लगूँ
फिर भी एक मुट्ठी भी
इंग्लिश अनुवाद के आधार पर)
( कन्नड़ कविता )
युगोँ से ठुकराये गए मनुष्यो की
एषणाओँ को पुकारना है
देना चाहती हैँ वे आवाज
लेकिन उन्हेँ याद नहीँ रहा है नाम
न जाने कितने ही शोष
न जाने कितने ही जन्मोँ से !
रक्त की प्रत्येक बूंद
बह निकलती है आंसूओँ के साथ
फिर भी होता नहीँ उनका शमन
पांव मेँ सुप्त पड़े तेजवंत तोखार की
हेषाओँ को
दौड़ पड़ना है… ज्वाल की जलगति से
आगे बढ़ जाना है
उन्हेँ धंसती हुई बाढ़ की तरह
पर खो गया है वह गांव
हैँ
कहां जाए?
अंतरपट का हरेक
तार
कोराकट्ट
विदीर्ण
होता जाए
गात्र को
चीरती निकलती व्याकुल तृषा
तृषा तृषा
बरसती धुआंधार
युगोँ से
ठुकराये गए मनुष्योँ के
दोनोँ तट
पर
तृषा बहती
जाती है
साहित्य पर सेमिनार
जलते प्रश्न
जैसे
हैं
आग में
पहला प्रश्न :
घर घर में
!
दूसरा प्रश्न :
लम्बे बाल
बॉयकट
तीसरा प्रश्न :
रसोईघर
ऐसी क्षुल्लक चीजों पर
चौथा, पाँचवाँ
प्रश्न पर हो गए सांसद
!
चाहिए
है, आपको पता है ?
चलाएँ
जन,
कोमरेड !
जारी रखें
में
लेकर आए हैं ?
ने घेर लिया है
जैसी सुविधाएँ.’
!’
इंग्लिश अनुवाद के आधार पर )
भूमंडलीकरण के इस दौर में
( डॉ. जयदीप सारंगी के इंग्लिश अनुवाद के आधार पर )
फारूक शाह |