अर्चना वर्मा प्रसिद्ध कथाकार और स्त्रीवादी विचारक हैं. संपर्क : जे-901, हाई-बर्ड, निहो स्कॉटिश गार्डेन, अहिंसा खण्ड-2, इन्दिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद – 201014, इनसे इनके ई मेल आइ डी mamushu46@gmail.com पर भी संपर्क किया जा सकता है.
( ‘अन्या से अनन्या’ (प्रभा खेतान) ‘एक कहानी यह भी’ (मन्नू भण्डारी)
‘लगता नहीं है दिल मेरा’ (कृष्णा अग्नहोत्री) ‘जो कहा नहीं गया’ (कुसुम
अंसल)’हादसे’ (रमणिका गुप्ता) ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’ (मैत्रेयी पुष्पा), तथा
अनुवादों में आँधेरे आलो (बेबी हालदार -बंगाली), ‘रसीदी टिकट’ (अमृता
प्रीतम-पंजाबी), ‘नंगे पाँवों का सफ़र’ (दिलीपकौर टिवाणा-पंजाबी),
‘खानाबदोश’ (अजीत कौर- पंजाबी), ‘कहती हूँ सुनो’ (हंसा वाडकर-मराठी)
‘स्मृतिचित्र’ (लक्ष्मी -मराठी) ‘नटी विनोदिनी’ (विनोदिनी–बंगाली), ‘आमार
जीबोन’ (राशुन्दरी देवी-बंगाली) आदि स्त्री – आत्मकथाओं के आलोक में
अर्चना वर्मा का यह आलेख महान पुरुषों’ की महानता ग्रंथि और उसके लिए
उन्हें प्राप्त सामाजिक -सांस्कृतिक सुविधा और समर्थन तथा स्त्री -आत्मकथाओ
के लिए सामाजिक -सांस्कृतिक अवरोध की व्याख्या करता है . दो किश्तों में प्रकाश्य )
किसी सुदूर भविष्य की कल्पना में डूब कर वे तीनो पुरुषसुलभ परिहास और कविजनोचित कौतुक से सोचते थे कि एक दिन जब वे इतने बड़े कवि बन चुकेंगे, और जब उनकी जीवनी लिखी जाएगी, और कोई प्रेमी पाठक या शोधार्थी सामग्री की खोजबीन और जोड़-बटोर के लिये निकल ही पड़ेगा, उस दिन कहीं उसे
निराश न होना पड़े, तो जीवनी को दिलचस्प और पठनीय बनाने का दायित्त्व भावी साहित्यिक इतिहास के प्रति उनका कर्तव्य है। इसे वे ‘बायोग्राफ़िकल पॉइण्ट ऑफ़ व्यू’ से जीना कहते थे और एक दूसरे का मूल्यांकन भी इन शब्दों में करते थे कि तुम तो कसम खाकर अपनी बायोग्राफ़ी चौपट करने पर तुले हो या फिर अमुक या तमुक आजकल अपनी बायोग्राफ़ी की तरक्की मेँ जोर-शोर से जुटा है, फलाने या ढिमाके की तुलना मेँ तुम तो रहे वही बिल्कुल लद्धड़ इत्यादि। पता नहीं कुछ कर गुजरने के बाद या बिना कुछ किये धरे ही।
वे तब युवा रहे होंगे। उस सुदूर भविष्य (अब अतीत) तक जाकर वे प्रतिष्ठित और स्थापित हुए भी लेकिन जीवनी उनमें से अभी तक किसी की नहीं लिखी गयी। जीवन को सचमुच उन्होंने बायोग्राफ़िकल पॉइण्ट ऑफ़ व्यू से जिया कि नहीं, जीवनी को दिलचस्प और पठनीय बनाने लायक कुछ किया कि नहीं, जीवनी व आत्मकथा के अभाव में कौन जाने, लेकिन ‘दिलचस्प’ ओर ‘पठनीय’ के बारे में बेखटके कहा जा सकता है कि उसका मतलब व्यक्तिगत-सामाजिक-रचनात्मक जीवन में ऐसा उत्पात जो अगर मारधाड़ से भरपूर नहीं भी तो कम से कम सनसनीखेज-हैरतअंगेज साबित होता हो और जहाँ सनसनी और हैरत हो वहाँ स्त्री न हो, कम से कम पुरुष की जीवनी या आत्मकथा में ऐसा कैसे संभव है?
कल्पना कीजिये, हमारे उल्लिखित अनाम पात्रों की तरह एक स्त्री जीवन के साथ प्रयोग करते हुए जीना तय करती है। एक दिलचस्प और पठनीय जीवनी के लिये अपने जीवन में कुछ तथ्यों/सत्यों/यथार्थों को निष्पन्न करते हुए अनुभव-सामग्री संचित करना चाहती है।क्या और कैसा होगा वह संचय? पुरुष के जीवन को जो उत्पात, सनसनी और हैरत पठनीय और दिलचस्प बनाते हैं, स्त्री के जीवन मेँ वह सनसनीखेज-हैरतअंगेज उत्पात बलात्कार या छलात्कार जैसा कोई हादसा बनकर आते हैँ या फिर निषिद्ध फल का स्वाद वर्जित वर्षा में स्नान जैसी कोई पवित्र आत्मोपलब्धि जो अपनी गोपनता में पवित्र है लेकिन जो व्यक्त होते ही पारिवारिक सामाजिक दायरों में गर्हित, निन्दनीय और दण्डित अतः हादसे की ही तरह सांघातिक हो उठेगी। स्त्री के सन्दर्भ मेँ समाज के दमनशील नियामक विमर्शों और आचरण-संहिताओं के दबाव में स्त्री का जीवन हादसे के बिना भी हादसे की निरन्तर आशंका के कारण एक अनवरत दुर्घटना और सतत संघात है। भय और आशंका की जारी मनःस्थिति में जीवन के साथ प्रयोग करते हुए जीने का अर्थ जीवन में संघात को स्वयं निमंत्रण देना या कम से कम उसका खतरा मोल लेना ही हो सकता है लेकिन इससे मुँह मोड़ लेने का अर्थ भी अनुभव से, अवसर से वंचित रह जाना होगा जो अपने आप मेँ एक छोटा मोटा हादसा ही है। स्त्री का जीवन कुछ अपवादस्वरूप इलाकों को छोड़कर संघातों का अनन्त वास्तविक या संभावित सिलसिला है। वह निमंत्रण का मोहताज नहीं, अनिमंत्रित ही हर समय आशंका, आभास या आघात बनकर मौजूद है। और अवसर से, अनुभव से वंचित रह जाना सुरक्षाकवच है जिसे पहनकर वह वंचित तो ज़रूर रह जाती है, सुरक्षित फिर भी रह पाती है या नहीं, इसकि कोई गारण्टी नहीं।लेकिन अपनी आत्मकथाओं में स्त्री एक सुखद आश्चयर्य की तरह निडर उपस्थित नज़र आती है, कथानक मेँ अपने भय और आशंका को अभिव्यक्त करने के बावजूद निडर, निषेधों और वर्जनाओं के उल्लंघन का बयान करने की बहादुरी से लैस।
कथानक के स्तर पर स्त्री अपनी आत्मकथा में प्रायः संघात के असर में टूटती, जूझती,निकलती या डूबती दिखाई देती है। संघात की वजहें निजी पारिवारिक सम्बन्धों से लेकर सामाजिक राजनीतिक पैमाने की प्रायोजित हिंसा और मानवाधिकार हनन के मामलों तक प्रसरित हैं। घरेलू हिंसा, बलात्कार, छलात्कार, अगम्यागमन, युद्ध, बाल-यौन-शोषण जैसे हादसों के बीच स्त्री की देह को हिंसा और रक्तपात का प्राथमिक दुर्घटनास्थल कहा गया है। स्त्री की यौन-शुचिता की संस्कृति वाले समाज में अपने घावों पर लज्जित मौन की विवशता ऊपर से! जबरन आ पड़े हादसों के मामले में तो शायद फिर भी कहीं किसी करुणा और सहानुभूति की गुंजाइश हो, अपनी आकांक्षा के अनुगमन में चल निकलना तो अनिवार्य दण्डनीयता के औचित्य का उद्घोाष है।
स्त्रीजीवन के यथार्थ की इस पृष्ठभूमि के बाद आरंभिक प्रसंग में निहित सवाल सीधे शब्दों में यूँ पूछा जा सकता है कि आत्मकथा की लेखन-सामग्री जी चुकने के बाद संचित होती है या कि आत्मकथा की सामग्री संचित करने की प्रक्रिया में जिया जाता है? बात दर-अस्ल उतनी हास्यास्पद नहीं जितनी हमारे उल्लिखित अनाम पात्रों के परिहासप्रिय मन्तव्य में रही होगी या अभी आपको सुनने पर पहली बार में लग रही होगी। इसका अर्थ सजग भाव से, सचेत निर्णयों के साथ इस तरह जीना है कि मानो जीने की प्रक्रिया मेँ जीवन लिखा जा रहा हो, जीवन को यूँ देखना है कि उसका अर्थ महज़ बीतते हुए एक दिन शेष हो जाना नहीं, बल्कि मानो प्रतिक्षण के आचरण से जीवन का सृजन किया जा रहा हो। स्त्री के जीवन अपने आपे को इस तरह सिरजने की संभावना है या नहीं? अगर है तो कितनी दूर तक जाती है?जो आत्मकथाएँ हमारे पास हैँ वे इस संभावना का कोई साक्ष्य देती हैँ या नहीं? स्त्री का आत्म-सृजन जीने की प्रक्रिया मेँ सजग सचेत निर्णय द्वारा घटित होता है याकि आत्मकथा लेखन की प्रक्रिया में अतीत के पुनर्संयोजन द्वारा संभव किया जाता है?
जीने की प्रक्रिया मेँ अनुभव का संचय और आत्मबोध का विकास आत्मकथा का निरन्तर सृजन करता रहता है, फिर भले ही वह दर्ज की जाए या नहीं। यह एक अपनी कहानी हर एक के पास है, लिखित हो या मौखिक या फिर अव्यक्त। शायद इसी सहजता की वजह से विमर्शों की राजनीति में साहित्यिक औजार की तरह आत्मकथा नितान्त अपनी विधा की तरह स्वयं चुन गयी है। इतिहास में जिनके अस्तित्व का कोई निशान मौजूद नहीं वे अपने अस्तित्व को दर्ज करके अपने इतिहास का सूत्रपात करते हैं। शायद इसी राजनीति की वजह से विधा के तौर पर आत्मकथा विमर्शों में इतनी चर्चा और शोध का विषय है, भले ही जितनी चर्चा और शोध है उतनी मात्रा मेँ आत्मकथा-साहित्य हिन्दी में मौजूद न हो। विशेषतः स्त्री की आत्मकथाएँ गिनती में खासी कम है और इस गिनती बढ़ने की रफ़्तार भी बहुत धीमी है। वही गिनीचुनी आत्मकथाएँ बार बार गिनाईं और दोहराई जाती रहती हैं। इस आलेख की निष्पत्तियों के आधार समय समय पर पढ़ी गयी आत्मकथाओं में ‘अन्या से अनन्या’ (प्रभा खेतान) ‘एक कहानी यह भी’ (मन्नू भण्डारी) ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ (कृष्णा अग्नहोत्री) ‘जो कहा नहीं गया’ (कुसुम अंसल)’हादसे’ (रमणिका गुप्ता) ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’ (मैत्रेयी पुष्पा), तथा अनुवादों में आँधेरे आलो (बेबी हालदार -बंगाली), ‘रसीदी टिकट’ (अमृता प्रीतम-पंजाबी), ‘नंगे पाँवों का सफ़र’ (दिलीपकौर टिवाणा-पंजाबी), ‘खानाबदोश’ (अजीत कौर- पंजाबी), ‘कहती हूँ सुनो’ (हंसा वाडकर-मराठी) ‘स्मृतिचित्र’ (लक्ष्मी -मराठी) ‘नटी विनोदिनी’ (विनोदिनी–बंगाली), ‘आमार जीबोन’ (राशुन्दरी देवी-बंगाली)के विहंगम संदर्भों में हैं।
आत्मकथा भी प्रथमतः और अन्ततः एक कथा ही है। उसे ‘आत्म’ कथा बनाने वाला तथ्य केवल लेखक का यह दावा है कि वह उसकी अपनी, अपने जीवन की सच्ची कथा है। कथा यानी व्यतिक्रम। ढर्रा-रोज़मर्रा में ऐसा कोई उलटफेर या ऐसा कुछ अप्रत्याशित जो उसे दैनन्दिन का विलोम बनाए।आत्म की दैनंदिनी उसकी कथा है और वह कथा अपने व्यतिक्रमों से कहने-सुनने-लिखने-छपाने या छिपाने लायक बनती है। उसका आत्मकथा होना मानो लेखक या लेखिका का अपने पाठक के साथ एक अनुबन्ध है कि वह जो कहेगा या कहेगी, सच-सच और सिर्फ़ सच कहेगा या कहेगी। इस अनुबन्ध के अलावा उसके सच का और कोई साक्ष्य नहीं।जहाँ दैनन्दिनी में व्यतिक्रम की अधिकतम संभाव्य परिभाषा किसी न किसी किस्म का सांघातिक अनुभव हो वहाँ ‘सच और सिर्फ़ सच’ का अनुबन्ध सबसे पहले सन्दिग्ध हो उठता है। आत्मकथा अकेले की कथा नहीं होती। वहाँ उल्लिखित और चित्रित हर तथ्य व घटना में अन्य अनेक शामिल होते हैँ। उन तथ्यों का सत्य उनमें से किसी के लिये असुविधाजनक और बाधक भी साबित होगा। संघात निजत्व को चकनाचूर कर देनेवाला ऐसा विकराल अनुभव है जो निजी स्तर पर भाषा तथा वृत्तान्त को असंभव बना देता है, कहने की असंभवता के कारण तो वह ‘अकथनीय’ है ही, स्त्री की समूची ज़िन्दग़ी को यौनशुचिता की तराजू पर तोलने वाले समाज की संस्कृति के नियामक विमर्शों के दबाव में भी वह अकथनीय है। कोई स्त्री अगर सच कहने का फैसला कर ही बैठी हो तो ख़तरा केवल उसके अपने आपे तक के लिये नहीं होता। उसके सच को सन्दिग्ध/दण्डनीय/निरस्तित्व बनाना पितृसत्ता की आसान रणनीति है। तसलीमा नसरीन ने अपनी आत्मकथाओं के जो नतीजे भुगते हैँ वे साहित्यजगत की स्त्री-आबादी में जल्दी भुलाए नहीं जा सकते।लेकिन यह भी सच है कि तथ्य और गल्प का मसला आत्मकथा के सिलसिले मेँ इतनी आसानी से हल नहीं हो सकता। किसी भी एक तथ्यात्मक घटना में संलग्न अनेक व्यक्तियों के पास उसी एक तथ्य के अलग अलग सत्य हो सकते हैँ क्योँकि घटना के भीतर अपनी अपनी जगह के अनुसार संलग्नता के भी अलग अलग परिप्रेक्ष्य हो जाया करते हैं। एक के परिप्रेक्ष्य से दूसरे को सरासर झूठा सिद्ध किया जा सकता है। आत्मकथा की लेखिका की मंशा से उसका परिप्रेक्ष्य तय होता है। मैले कपड़ों की सार्वजनिक धुलाई का धोबीघाट या अपनी दुनिया की रंगचुंग साज सँवार – निजी कहानी की सार्वजनिक सुनवाई का एक परिप्रेक्ष्य अपने पक्ष की सफा़ई और दूसरे पर दोषारोपण है। “भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैँ” कहकर प्रसाद ने इसी विडम्बना की ओर संकेत किया था। अपने कुँए या किले या पिंजरे से खुद को बाहर निकालने की ज़रूरत के सिलसिले में दूसरों को और अपने आप को एक दूसरे की पारस्परिकता में समझना; दृष्टिकोण/ व्यवहार /गन्तव्य को बदलना और उस बदलाव की व्याख्या का सामाजिक दायित्त्व निभाना एक बिल्कुल ही दूसरे किस्म का परिप्रेक्ष्य है। एक निश्चित वास्तविक स्त्री-व्यक्ति के जीवन का बयान होने के कारण उसके भौतिक परिणाम भी होते हैं और बदले हुए व्यवहार का अर्थ अगर प्रतिरोध, विद्रोह, या ध्वंस हो तो ये भौतिक परिणाम भी उसी अनुपात मेँ पारिवारिक-सामाजिक प्रतिशोध या दण्ड या सम्बल-सहयोग-समर्थन का रूप ले सकते हैं। व्यक्तिगत होते हुए भी आत्मकथा यूँ सामाजिक जीवन और परिवर्तन का दस्तावेज होती है और कई बार कारक भी।
आत्मकथा साहित्य से अधिक इतिहास की एक किस्म है और इतिहास की धारा मेँ लेखक की निजी जगह के परिप्रेक्ष्य से सामाजिक प्रवृत्तियों का दस्तावेज कही जा सकती है। सत्य एक अतिशय आत्मपरक और व्याख्याबहुल मामला है। निजी ज़िन्दग़ी के बयान मेँ तथ्यपरकता की कोई वस्तुगत कसौटी संभव नहीं। घटनाओं का तटस्थ बयान नहीं किया जा सकता इसलिये तथ्यात्मक तौर पर सर्वथा सही प्रतीत होने वाली आत्मकथाओँ के भीतर भी कथा के तत्त्व होते हैं।सम्बद्ध व्यक्तियों के रहते तक उनके वैकल्पिक तथ्य निरूपण की वास्तविकता को विवादग्रस्त बना सकते हैं लेकिन अंतिम निर्णय फिर भी संभव नहीं। यह एक के मुकाबले दूसरे के बयान के वज़न का मामला है और दोनो ही एक दूसरे को सन्दिग्ध कर सकते हैं। जाँच के लिये दुर्लभ संयोगवश कथाकार दम्पत्ति राजेन्द्र यादव (मुड़ मुड़ के देखता हूँ) और मन्नू भण्डारी (एक कहानी यह भी) की आत्मकथाएँ उदाहरणार्थ मौजूद हैं। दोनो किताबों के प्रकाशन के बाद पत्र-पत्रिकाओं में वाद-विवाद और पत्रों-साक्षात्कारों का वह सिलसिला मौजूद है जो दोनो के बीच एक ही सम्बन्ध के अलग अलग चित्रों में अपनी अपनी स्मृति/समझ/मूल्य/मूल्यवत्ता के अनुसार अलग अलग तथ्यों को चुनता, रेखांकित करता या बलाघात का विषय बनाता है। एक के पक्ष से दूसरे को सच्चा या झूठा साबित करके न्यायाधीश के पद पर बैठने का लोभ अगर न हो तो दोनो में जीवन की अलग अलग दृष्टियाँ, मूल्य और संवेदनाओं के बीच इतनी लम्बी चौड़ी दरार–लगभग खाई– और संवाद-संप्रेषण का पूर्ण अभाव देखा जा सकता है कि मुद्दा मेरे जैसे पाठक के लिये कौन सच्चा कौन झूठा का नहीं, इस विस्मय का हो जाता है कि इसके बावजूद स्वेच्छा से पैंतीस वर्ष का साथ कैसे दोनो ने निभाया और अलगाव के बाद भी दोस्ती और निर्भरता को कायम रखा। भावना के मसले तर्क की सीमाओँ में सुलझते नहीं दिखते, तर्क और विवेक का दावा रखने वाले लेखक जीवों के बीच भी नहीं।
सम्बद्धताओं के दायरे के बाहर आत्मकथा भी केवल कथा ही है और सच तो यह है कि केवल कथा को भी आत्मकथा की तरह पढ़ने की प्रवृत्ति/मंशा/लालसा पाठक में दिखाई देती है। इसलिये आत्मकथा का सत्य उसकी तथ्यपरकता के बाहर खोजना अधिक उचित है। वृत्तान्त की सत्यता का अर्थ शब्दशः यथातथ्यता नहीं, बल्कि लेखक/लेखिका द्वारा स्वेच्छा से कुछ तथ्यों का त्याग; स्मृति की भूल से या जानते बूझते हुए अतीत/तथ्य का विरूपण भी लेखक/लेखिका के बारे में कुछ न कुछ उद्घाटित करता है। आत्मकथा का सत्य उसकी तथ्यपरकता से कहीं अधिक उसकी संवेदना मेँ रहता है और उसकी पढ़न्त में पाठक की संवेदना के प्रत्युत्तर से सत्यापित होता है। उसकी विश्वखसनीयता लेखक और पाठक के अनुबन्ध का फल है। इसलिये उसका गल्प भी उसके सत्य का ही विस्तार माना जा सकता है।
वह आत्म दरअसल क्या है जिसकी कथा कही जानी है? क्या वह स्त्री/पुरुष के सन्दर्भ में अलग अलग है? अगर हाँ, तो उसका निरूपण क्या उनकी आत्मकथाओं के आकार प्रकार को भी अलग अलग बनत देता है?
आत्मकथा का अर्थ वह कथा जिस का लेखक, प्रवक्ता और चरित्र एक ही व्यक्ति है और वही एक तीनो भूमिकाएँ एक साथ निभाता है। लेखक प्रवक्ता के माध्यम से चरित्र की कहानी सुनाता है।इस प्रक्रिया में उसकी स्वयंता विभक्त हो जाती है। वह एक होकर भी अभिन्न नहीं रहता, स्रष्टा, भोक्ता और वक्ता में बँट जाता है। इस अर्थ मेँ आत्मकथा स्वयंलिखित जीवनी है। जिस आत्म की जीवनी लिखी जा रही है वह भाषाजगत में प्रविष्ट होने के बाद ‘मैँ’, ‘तुम’, ‘वह,’ ‘वे’ के दायरे में अपनी स्वयंता को अर्जित करते हुए खुद को ‘मैं’ की तरह पहचानता है और पहचान के क्षण से ‘आत्म’ या ‘स्वयम् होना शुरू करता है। इस तरह अर्जित अहम् अपने अतीत का फल है, बूँद बूँद कर संचित अधिगम (learning) के स्मृतिपुंज का जमा-घटा-गुणा-भाग। अब तक का जिया गया जीवन संचित अतीत है और व्यवहार जगत में उसका अर्थ स्मृति-संचय है। स्मृति और कल्पना का गठबन्धन इस संचय को यथावत नहीं रहने देता। घटित होने के क्षण से लेकर लिखे जाने के क्षण तक में तथ्यों का स्वयंघटित संयोजन-पुनर्योजन और अचेतन की अबूझ तर्कातीत प्रक्रिया द्वारा उनका बिम्बों/आद्यबिम्बों/मिथकों/स्वप्नों में कायाकल्प, अपनी संस्कृति में उपलब्ध और सामूहिक अवचेतन में उपस्थित वृत्तान्तों/महावृत्तान्तों के साथ संश्ले्ष-विश्ले्ष इस स्मृति-संचय को एक जटिल तथा संचित होते हुए भी प्रवहमान प्रक्रिया बनाते हैं। इसीलिये कहते हैं कि स्मृति का अर्थ घटित हो चुकी कल्पना है और कल्पना का अर्थ अभी घटित होने को बाकी स्मृति है।
स्मृति यानी एक क्षण, एक दृश्यि, एक तथ्य जो एक विजड़न का विषय बनाया जाकर विस्मृति के सागर में डूबने से बचा लिया गया है, आत्मकथा के सन्दर्भ में वह कथा का रूपाकार है, कथा की जीवनशैली जो दिमाग़ में लगातार चलती रहती है और कहने के साथ बदलती भी रहती है। इस वृत्तान्त मेँ इतने बहुत से परस्पर विरोधी हितों की टकराहट के शामिल रहते हुए असंभव है कि जीवन कभी जैसा का तैसा पूरी तरह से स्वीकार्य होगा। इस अधूरेपन, इस खलिश, इस अस्वीकृति, इस टकराहट में आत्मकथा के लेखन की ज़रुरत की तड़प और छटपटाहट का उत्स है, स्त्री की आत्मकथा मेँ और भी अधिक।
उपलब्ध आत्मकथाओं के साक्ष्य पर ‘आत्म’ के अर्जन और निरूपण की दो स्थितियाँ दिखाई देती हैं। पहली स्थिति में निश्चित प्रवृत्तियों, रुचियों-रूझानों, अरुचियों-निषेधों से सम्पन्न पहले से मौजूद ‘आत्म’ जिसे केवल शब्दों में निरूपित किया जाना है और दूसरी जिसमें निरन्तर रचित होती हुई कथा की प्रक्रिया में निरन्तर रचित होता हुआ आत्म अभिव्यक्ति पाता है। आत्म की तलाश में कथा कही जाती है।पहली तरह की आत्मकथाओं में पहले से मौजूद ‘आत्म’ समाज के नियामक विमर्शों के, मूल्यों और सत्यों की सनातन अवधारणाओं के दबाव में निर्मित, परम्परागत कायदे कानूनों के साथ समंजित या फिर असमंजस के बावजूद समर्पित आत्म है। दूसरी तरह की आत्मकथाओं में क्रमशः आत्माविष्कार, आत्म-साक्षात्कार व आत्मोपलब्धि की कहानियाँ भी हैं तो दूसरी ओर आत्म का असमंजस, बेचैनी, छटपटाहट, ध्वंस, दण्ड, अन्ततः सामंजस्य अथवा अन्तिम अस्वीकार के साथ मानसिक विक्षेप, हत्या, आत्म-हत्या जैसी परिणतियों की कहानियाँ भी।
(संवेद से साभार )