निवेदिता पेशे से पत्रकार हैं. सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों में भी सक्रिय रहती हैं. हाल के दिनों में वाणी प्रकाशन से एक कविता संग्रह ‘ जख्म जितने थे’ के साथ इन्होंने अपनी साहित्यिक उपस्थिति भी दर्ज कराई है.निवेदिता से niveditashakeel@gamail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.
( तहलका में यौन शोषण के मामले के विपरीत इंडिया टी वी की एंकर तनु शर्मा की आत्महत्या के प्रयास के मामले में मीडिया की खौफनाक चुप्पी हमसब ने देखी. आज भी आप गूगल करें तो आपको भड़ास, फर्स्ट पोस्ट और बी बी सी जैसे कुछ पोर्टल / ब्लॉग को छोड़ कर किसी मीडिया के द्वारा इसकी खबर की इंट्री नहीं मिलती है. भड़ास ने इसे मुहीम की तरह चलाया. इस आलेख में तनु शर्मा की आत्महत्या के प्रयास के सन्दर्भ से मीडिया सहित दूसरे क्षेत्रों में कामकाजी महिलाओं की कठिनाइयों की चर्चा कर रही हैं वरिष्ठ पत्रकार और स्त्रीकाल के सम्पादन मंडल की सदस्य निवेदिता. )
बाजार केंद्रित मीडिया के लिए इंडिया टीवी की युवा महिला एंकर तनु शर्मा की आत्म हत्या की कोशिश कोई मायने नहीं रखती . यह वह मीडिया है , जो दूसरों के जख्मों पर हाथ रखती है पर अपने भीतर पड़े मवाद को छुपाये फिरती है। पिछले तीस सालों से पत्रकारिता करते हुए मैंने पत्रकारिता के मूल्यों को इस तरह गिरते नहीं देखा। मेरे जैसे पत्रकार के लिए ये अवसाद के क्षण हैं। हम कैसी पत्रकारिता करना चाहते हैं, हम कैसी दुनिया बनाना चाहते हैं !
तनु की घटना अकेली घटना नहीं है। तहलका के प्रकरण से अभी हम उबरे भी नहीं हैं कि एक और हादसे ने पत्रकारिता को शर्मसार किया है। क्या हमारा समाज इस बात का इंतजार कर रहा है कि लड़कियां मौत के अंधेरे में घकेल दी जाएं, फिर हम शोक मनाएं। मैं कहना चाहती हूं दुनिया की तमाम लड़कियों से-इन अंधेरों से लड़ो…तुम हो तो पत्रकारिता के मूल्य बचे रहेंगे , तुम हो तो दुनिया के होने के मायने बने रहेंगे। अभी बहुत सारे जुल्मों का हिसाब बाकी हैं।
मैं यह बात पूरे यकीन के साथ कह सकती हूं कि कोई लड़ाई बेकार नहीं जाती। ये मेरे अनुभव हैं। मैं लगभग दो सालों तक एक मीडिया हाउस के खिलाफ लड़ती रही। यह लड़ाई सम्मान और बराबरी के अधिकार की लड़ाई थी। यह जरुरी नहीं है कि महिलाओं पर होने वाली हर हिंसा यौन हिंसा ही हो। और कई तरह के प्रसंग हैं , जहां वह हिंसा का सामना करती है। उसके हंसने,बोलने, कपड़े पहनने, उसके चरित्र जैसे तमाम प्रसंगों को लेकर उसे हर रोज कई तरह के अशोभनीय स्थितियों का सामना करना पड़ता है।
बिहार से निकलने वाले एक प्रमुख दैनिक अखबार में काम करने वाली महिला पत्रकार को अपनी नौकरी इसलिए गंवानी पड़ी क्योंकि उसने इस तरह की बातों का सख्त विरोध किया। एक न्यूज एजेंसी में काम करने वाली महिला पत्रकार ने ऐसे अशोभनीय दृष्यों का वर्षो सामना किया, जब उनके कुछ सहकर्मी सिर्फ अंडरवीयर पहन कर काम करते थे। दिन में भी शराब का दौर चलता था। बिहार के एक अंग्रजी अखबार में काम करने वाली महिला पत्रकार को रोज किसी सेक्सी और कम कपड़े पहने किसी महिला अदाकारा की तस्वीर निकाल कर अखबार में लगाना होता था। जब उसने इस तरह के काम नहीं देने का अनुरोध किया तो उससे कहा गया कि यह उसके काम का हिस्सा है उसे करना ही होगा। ऐसे हजारों मामले हैं जिसपर खुल कर बातें नहीं होती, क्योंकि हम अपने ही घर में फैले अंधेरे का समाना नहीं करना चहते।
निःसंदेह ऐसी घटनाओं ने देश के मीडिया को कठघरे में खड़ा किया है। ये सवाल उठने लगे हैं कि क्या महिला पत्रकार यहां भी सुरक्षित नहीं है ,दरअसल इन तमाम घटनाओं को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व लैंगिक परिप्रेक्ष्य मंम देखना होगा। यह भी देखना होगा कि मीडिया का चरित्र पिछले ढ़ाई दशकों में कितना बदला है!
बॉलीवुड की तरह इसमें भी मटमैली पूंजी का वर्चस्व बढ़ा है। सत्ता, ताकत व पूंजी के इस खेल में मीडिया नाक तक डूबी है। जब पूंजी मटमैली हो तो जाहिर है उसे बनाये रखने के लिए गुनाह होंगे ही। सत्ता प्रतिष्ठान में सीधे हस्तक्षेप की महत्वाकांक्षा भी बढ़ी है। मीडिया खुद बाजार का हिस्सा है और बाजार की ताकत को बनाये रखने के लिए वह सबकुछ करता है। बाजार ने स्त्री को सिर्फ देह माना है। बाजार केन्द्रित मीडिया भी स्त्री की देह को ही भुनाती है। वह चाहे मनोरंजन के नाम पर हो या खबर परोसने के नाम पर। यह सब वह पूरी आक्रमकता से करता है। टी.वी चैनेलों पर दिखाए जाने वाले लगभग सभी हिन्दी धारावाहिकों की कथा वस्तु के मुख्य स्वर विघटन, अविश्वास , परिवार- विभाजन, विवाहेत्तर संबंध के इर्द-गिर्द ही घूमता रहते हैं । यह दुर्भाग्य है कि मीडिया में जनपक्षीय खबरों को उतनी तरजीह नहीं मिलती जितनी वैसी खबरों को जिससे बाजार बनता है। जो लोग बगैर किसी समझौता के संस्थान में टिके रहते हैं उनपर ऐसा मानसिक दबाव बनाया जाता है कि उसे आत्महत्या का रास्ता अपनाना पड़ता है। कारपोरेट घरानों के हाथों बिकी हुई मीडिया ने तनु से वह सब करने का दबाव बनाया, जो किसी भी लड़की के लिए अपमानजनक है।
सवाल बनाता है कि तनु के साथ हुए इस हादसे के लिए कौन जिम्मेवार है, इस मुश्किल दौर में आखिर आदमी किस पर भरोसा करे ! क्या ये मान लिया जाय की इस नपुंसक समय में मनुष्य बने रहना मुमकिन नहीं है। यह कैसा दंभ है जब एक स्त्री के शरीर और मन पर हमला करने वाला इन्सान पूरे गुरुर के साथ वहीं बना रहता है और एक पत्रकार को अपने को बचाने के लिए आत्महत्या का सहारा लेना पड़ता है। क्या अब भी हम रजत शर्मा जैसे पत्रकारों की वकालत करेंगे, रजत शर्मा और तेजपाल जैसे गुनहगार बचे रहेंगे तो पत्रकारिता में और अंधेरा बढ़ेगा, पत्रकारिता लहुलूहान होगी।
तनु का मामला अकेला मामला नहीं है। ऐसी कई लड़कियाँ न्याय के अभाव में या तो दम तोड़ देती हैं या हथियार डाल देती हैं। क्या हुआ तरुण तेजपाल के मामले में, इस बात की चितां किसे है कि इन संस्थानों से लड़ने वाली ये लड़किया कितनी अकेली पड़ गयी हैं। कानून की पकड़ ढ़ीली है। उन तमाम यौन अपराधियों के लिए कानून को और पुख्ता व धारदार होना होगा। वह मामला चाहे किसी न्यायधीश से जुड़ा हो या किसी राजनेता से। ये सारे आचरण इस बात का सबूत है कि हम स्त्री को उसकी यौनिकता से बाहर नहीं देखते। जस्टीस गांगुली ने अपने इंटर्न के साथ जो कुछ किया या नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह एक महिला की निजता में दखल दिया, उसकी जासूसी करायी, क्या इसके लिए इन दोनों को सजा नहीं होनी चाहिए. ये घटनाएं कहती हैं किहमारे समाज को कानून को नये सिरे से परिभाषित किए जाने की जरुरत है। निर्भया मामले के बाद वर्मा कमिटी की सिफारिशों में एक हद तक महिलाओं के उपर हो रही हिंसा को नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश की गयी, पर सरकार ने उसे भी पूरी तरह नहीं अपनाया है। यह समय की मांग है कि कानून अपने पुराने खोल से बाहर निकले । अगर ऐसा नहीं हुआ तो मुक्त, निष्पक्ष व निर्भीक न्यायपालिका की परिकल्पना बेमानी होगी ।
रही बात पत्रकारिता की , उसके और बुरे दिन आने वाले हैं। बुरे वक्त से लड़ रही महिलाओं के लिए अब काम के दरवाजे बंद होने वाले हैं। यह उन लोगों के लिए सुनहरा मौका है ,जो स्त्री को घर की दीवारों में ही दफन करना चाहते हैं। दुनिया के आंकड़े बताते हैं कि कामकाजी महिलाओं के लिए काम के अवसर लगातार कम हो रहे हैं। हमारे देश की कामकाजी महिलाओं की तादाद में लगातार गिरावट है। महिलाओं के उपर हो रही हिंसा का ग्राफ यह बताता है कि हर तीन मिनट में एक महिला किसी न किसी तरह की हिंसा की शिकार है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक हर 20 मिनट पर एक महिला के साथ बलात्कार होता है। सिर्फ दिल्ली के आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक साल के भीतर कुल 66 प्रतिशत महिलाएं कम से कम दो से पांच बार यौन हिंसा की शिकार हुई हैं। ऐसे बुरे समय से लड़ने के लिए उन लोगों को सामने आना होगा जो चाहते हैं, कि पत्रकारिता बची रहे। जो इस दागदार दुनिया में भी मूल्यों के साथ जीना चाहते हैं।
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