उदय प्रकाश अपनी भाषा में लिखते हुए दुनिया के बडे लेखकों में शुमार हैं . इनसे उनके मोबाइल न 9810711981 पर सम्पर्क किया जा सकता है.
( उदय प्रकाश हम सबके प्रिय कथाकार रहे हैं, जिनकी कहानियों का प्रभाव हमारी पीढी के कई लेखकों पर देखा जा सकता है – सफल , असफल प्रभाव. नब्बे के बाद के संश्लिष्ट सामाजिक -सांस्कृतिक परिवेश के कुशल कथाकार , जिनके यहाँ यथार्थ के विद्रूप और जीवन की त्रासदियों के प्रति गहरी संवेदना , साथ -साथ अभिव्यक्त होते हैं . उदय प्रकाश जितने महान कथाकार हैं , उतने ही संवेदनशील और बड़े कवि भी . इनकी ‘ तिब्बत’ कविता मेरी प्रिय कविताओं में से एक है . स्त्रीकाल के पाठकों के लिए उनकी छः कविताएं : औरतें और अरुंधती श्रृंखला की पांच कवितायें./ संजीव चन्दन
उदय
प्रकाश की कवितायेँ पढ़ते हुए आप गहरे और गहरे उतरते जायेंगे। जैसे किसी
ने माथे पर एक ठंडी हथेली रख दी हो । एक ऐसी तड़प जो आग पैदा करती हो।
जहां स्त्री नहीं जलती पूरी कायनात जलते हुए अक्षर में बदल जाती है। जलते
हुए अक्षर को पढ़ते हुए एहसास सुलगने लगते हैं. निवेदिता )
औरतें
वह औरत पर्स से खुदरा नोट निकाल कर कंडक्टर से अपने घर
जाने का टिकट ले रही है
उसके साथ अभी ज़रा देर पहले बलात्कार हुआ है
उसी बस में एक दूसरी औरत अपनी जैसी ही लाचार उम्र की दो-तीन औरतों के साथ
प्रोमोशन और महंगाई भत्ते के बारे में
बातें कर रही है
उसके दफ़्तर में आज उसके अधिकारी ने फिर मीमो भेजा है
वह औरत जो सुहागन बने रहने के लिए रखे हुए है करवा चौथ का निर्जल व्रत
वह पति या सास के हाथों मार दिये जाने से डरी हुई
सोती सोती अचानक चिल्लाती है
एक और औरत बालकनी में आधीरात खड़ी हुई इंतज़ार करती है
अपनी जैसी ही असुरक्षित और बेबस किसी दूसरी औरत के घर से लौटने वाले
अपने शराबी पति का
संदेह, असुरक्षा और डर से घिरी एक औरत अपने पिटने से पहले
बहुत महीन आवाज़ में पूछती है पति से –
कहां खर्च हो गये आपके पर्स में से तनख्वाह के आधे से
ज़्यादा रुपये ?
एक औरत अपने बच्चे को नहलाते हुए यों ही रोने लगती है फूट-फूट कर
और चूमती है उसे पागल जैसी बार-बार
उसके भविष्य में अपने लिए कोई गुफ़ा या शरण खोज़ती हुई
एक औरत के हाथ जल गये हैं तवे में
एक के ऊपर तेल गिर गया है कड़ाही में खौलता हुआ
अस्पताल में हज़ार प्रतिशत जली हुई औरत का कोयला दर्ज कराता है
अपना मृत्यु-पूर्व बयान कि उसे नहीं जलाया किसी ने
उसके अलावा बाक़ी हर कोई है निर्दोष
ग़लती से उसके ही हाथों फूट गयी थी किस्मत
और फट गया था स्टोव
रामकृष्ण अडिग की कलाकृति |
एक औरत नाक से बहता ख़ून पोंछती हुई बोलती है
कसम खाती हूं, मेरे अतीत में कहीं नहीं था कोई प्यार
वहां था एक पवित्र, शताब्दियों लंबा, आग जैसा धधकता सन्नाटा
जिसमें सिंक-पक रही थी सिर्फ़ आपकी खातिर मेरी देह
एक औरत का चेहरा संगमरमर जैसा सफ़े़द है
उसने किसी से कह डाला है अपना दुख या उससे खो गया है कोई ज़ेवर
एक सीलिंग की कड़ी में बांध रही है अपना दुपट्टा
उसके प्रेमी ने सार्वजनिक कर दिये हैं उसके फोटो और प्रेमपत्र
एक औरत फोन पकड़ कर रोती है
एक अपने आप से बोलती है और किसी हिस्टीरिया में बाहर सड़क पर निकल जाती है
कुछ औरतें बिना बाल काढ़े, बिना किन्हीं कपड़ों के
बस अड्डे या रेल्वे प्लेटफ़ार्म पर खड़ी हैं यह पूछती हुई कि
उन्हें किस गाड़ी में बैठना है और जाना कहां है इस संसार में
एक औरत हार कर कहती है -तुम जो जी आये, कर लो मेरे साथ
बस मुझे किसी तरह जी लेने दो
एक पायी गयी है मरी हुई बिल्कुल तड़के शहर के किसी पार्क में
और उसके शव के पास रो रहा है उसका डेढ़ साल का बेटा
उसके झोले में मिलती है दूध की एक खाली बोतल, प्लास्टिक का छोटा-सा गिलास
और एक लाल-हरी गेंद, जिसे हिलाने से आज भी आती है
घुनघुने जैसी आवाज़
एक औरत तेज़ाब से जल गयी है
खुश है कि बच गयी है उसकी दायीं आंख
एक औरत तंदूर में जलती हुई अपनी उंगलियां धीरे से हिलाती है
जानने के लिए कि बाहर कितना अंधेरा है
एक पोंछा लगा रही है
एक बर्तन मांज रही है
एक कपड़े पछींट रही है
एक बच्चे को बोरे में सुला कर सड़क पर रोड़े बिछा रही है
एक फ़र्श धो रही है और देख रही है राष्ट्रीय चैनल पर फ़ैशन परेड
एक पढ़ रही है न्यूज़ कि संसद में बढ़ाई जायेगी उनकी भी तादाद
एक औरत का कलेजा जो छिटक कर बोरे से बाहर गिर गया है
कहता है – ‘मुझे फेंक कर किसी नाले में जल्दी घर लौट आना,
बच्चों को स्कूल जाने के लिए जगाना है
नाश्ता उन्हें ज़रूर दे देना,
आटा तो मैं गूंथ आई थी
राजधानी के पुलिस थाने के गेट पर एक-दूसरे को छूती हुईं
ज़मीन पर बैठी हैं दो औरतें बिल्कुल चुपचाप
लेकिन समूचे ब्रह्मांड में गूंजता है उनका हाहाकार
हज़ारों-लाखों छुपती हैं गर्भ के अंधेरे में
इस दुनिया में जन्म लेने से इनकार करती हुईं
लेकिन वहां भी खोज़ लेती हैं उन्हें भेदिया ध्वनि-तरंगें
वहां भी,
भ्रूण में उतरती है
हत्यारी तलवार ।
( (‘रात में हारमोनियम’, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली: 1998 , में प्रकाशित )
अरुंधति: एक असमाप्त कविता के शुरूआती ड्राफ़्ट्
(यह कविता इसी तरह लिखी जा रही है, अलग-अलग समय और मूड्स में। यह किसी सूची में शामिल होने के लिए नहीं, अपने समय की चिंता का हिस्सा बनने के लिए लिखी जा रही है। जीवन की अनिश्चितताओं और बिखरावों के बीच। यह किसी भाषा विशेष की अभिव्यक्ति या उसकी कला-परंपरा का अंग नहीं है। यकीन मानिए, अगर कोई अन्य भाषा मैं इतनी जानता कि उसमें कविता लिख सकूं, तो उसी भाषा में लिखता। कहते हैं, हर कविता सबसे पहले अपने लिए प्राथमिक शर्त की तरह ‘सहानुभूति’ की मांग करती है, तो यह भी करेगी..आप सब दोस्तों से, जो इस ब्लाग में आते रहे हैं। बार-बार हौसला बढा़ते हुए। बस इतनी इज़ाज़त दें कि इन कड़ियों को आपका यह लेखक निरंतरता में नहीं बल्कि ऐसी ही अनियतकालिकता के साथ लिखता रहे।)
(एक)
जेठ की रात में
छप्पर के टूटे खपड़ैलों से दिखता था आकाश
अपनी खाट पर डेढ़ साल से सोई मां की मुरझाई सफेद-जर्द उंगली उठी थी
एक सबसे धुंधले, टिमटिमाते, मद्धिम लाल तारे की ओर
‘वह देखो अरुंधति !’
मां की श्वासनली में कैंसर था और वह मर गई थी इसके बाद
उसकी उंगली उठी रह गई थी आकाश की ओर
रामकृष्ण अडिग की कलाकृति |
कल रात मैंने
फिर देखा अरुंधति को
वैशाली के अपने फ्लैट की छत से
पूरब का अकेला लाल तारा
अपनी असहायता की आभा में
हमारी उम्मीद की तरह कभी-कभी बुझता
और फिर जलता हरबार
साठ की उम्र में भी
मैं मां की उंगलियां भूल नहीं पाता ।
(दो)
उसका चेहरा
हमारे आंसुओं की बाढ़ में
बार-बार उतराता है
उसके अनगिन खरोंचों में से
हमारे अनगिन घावों का लहू रिसता है
हमारे हिस्से की यातना ने
वर्षों से उसकी नींद छीन रखी है
हमारे बच्चों के लिए लोरियां खोजने
वह जिस जंगल की ओर गई है
वहां से जानवरों की आवाज आ रही हैं
उधर गोलियां चल रही हैं
उसकी बहुत बारीक और नाजुक
कांपती आवाज़ में हमारी भाषा नयी सदी की नयी लिपि
और व्याकरण सीखती है
सोन की रेत में वह पैरों के चिन्ह छोड़ गई है
नर्मदा की धार में उसका चेहरा
चुपचाप झिलमिलाता हुआ बहता है
(तीन)
लुटियन के टीले से कभी नहीं दिखती अरुंधति
वहां अक्सर दिखता है पृथ्वी के निकट आता हुआ
अमंगलकारी रक्ताभ मंगल
या अंतरिक्ष में अपनी कक्षा से भटका कोई
गिरता हुआ टोही खुफि़या उपग्रह
रोहतक या मथुरा से देखो तो सूर्योदय के ठीक पहले
राजधानी के ऊपर हर रोज़ उगता है किसी गुंबद-सा
कोहरे का रहस्यपूर्ण रंगीन छाता
वर्णक्रम के सारे रंगों को किसी डरावनी आशंका में बदलता
संसद या केंद्रीय सचिवालय के आकाश में
नक्षत्र नहीं दिखते आजमा लो
न सात हल-नागर, न शुकवा, न धुरु, न गुरु
वहां तो चंद्रमा भी अपनी गहरी कलंकित झाइयों के साथ
किसी पीलिया के बीमार-सा उगता है महीने में कुछ गिनी-चुनी रात
नत्रजन, गंधक और कार्बन में बमुश्किल किसी तरह अपनी सांस खींचता
कभी-कभी आधीरात टीवी चैनल ज़रूर दिखाते हैं
टूटती उल्काओं की आतिशबाजी
किंग खान और माही के करिश्मों के बाद
दिल्ली से नहीं दिखता आकाश
यहां से नहीं दिखता हमारा गांव-देश, हमारे खाने की थाली,
हमारे कपड़े, हमारी बकरियां और बच्चे
दिल्ली से तो दादरी के खेत और निठारी की तंदूर तक नहीं दिखते
यहां के स्काइस्क्रैपर्स की चोटी पर खड़े होकर
गैलीलियो की दूरबीन से भी
लगभग असंभव है
अरुंधति की मद्धिम लाल
टिमटिमाती रोशनी को देख पाना।
(चार)
नोआखाली के समय मेरा जन्म नहीं हुआ था
मुझे नहीं पता चंपारण में निलहे बंधुआ मज़दूरों को
इंडिगो कंपनियों के गोरे मालिकों और उनके देशी मुसाहिबों ने
किस कैद में रखा
महीने में कितने रोज़ भूखा सुलाया
कितना सताया कितनी यातना दी
उन तारीखों के जो विद्वान आज हवाले देते फिरते हैं मेलों-त्यौहारों नें
उनके चेहरे संदिग्ध हैं
उनकी खुशहाली मशहूरियत और ताकत के तमाम किस्से आम हैं
मैं जब पैदा हुआ उसके पांच साल पहले से
प्राथमिक पाठशाला में पढ़ाया जाता था कि मुल्क आजा़द है
कि इंसाफ़ की डगर पे बच्चो दिखाओ चल के
कि दे दी हमें आजा़दी बिना खडग बिना ढाल
मैंने रामलीलाओं से बाहर कभी खडग असलियत में नहीं देखे न ढाल
साबरमती आज नक्शे में किस जगह है इसे जानते हुए डर लगता है
रही आजा़दी तो मेरे समय में तो गुआंतानामो है अबुग़रेब है
जालियांवाला बाग नहीं जाफना है
चौरीचौरा नहीं अयोध्या और अमदाबाद है
और यहां से वहां तक फैली हुई तीन तरह की खामोशियां हैं
एक वह जिसके हाथ खून में लथ-पथ हैं
दूसरी वह जिसे अपनी मृत्यु का इंतज़ार है
तीसरी वह जो कुछ सोचते हुए
आकाश के उस नक्षत्र को देख रही है जहां से
कई लाख करोड़ प्रकाश वर्षों को पार करती हुई आ रही है कोई आवाज़
इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि किसी नदी या नक्षत्र
पवन या पहाड़ पेड़ या पखेरू पीर या फ़कीर की
भाषा क्या है ?
(पांच)
वहां एक पहाड़ी नदी चुपचाप रेंगती हुई पानी बना रही थी
पानी चुपचाप बहता हुआ बहुत तरह के जीवन बना रहा था
तोते पेड़ों में हरा रंग भर रहे थे
हरा आंख की रोशनी बनता हुआ दसों दिशाओं में दृश्य बनाता जा रहा था
पत्तियां धूप को थोड़ी-सी छांह में बदल कर अपने बच्चे को सुलाती
किसी मां की हथेलियां बन रहे थे
कुछ झींगुर सप्तक के बाद के आठवे-नौवें-दसवें सुरों की खोज के बाद
रेत और मिट्टी की सतह और सरई और सागवन की काठ और पत्तियों पर उन्हें
चींटियों और दीमकों की मदद से
भविष्य के किसी गायक के लिए लिपिबद्ध कर रहे थे
पेड़ों की सांस से जन्म लेती हुई हवा
नींद, तितलियां, ओस और स्वप्न बनाने के बाद
घास बना रही थी
घास पंगडंडियां और बांस बना रही थी
बांस उंगलियों के साथ टोकरियां, छप्पर और चटाइयां बुन रहे थे
टोकरियां हाट,
छप्पर परिवार
और चटाइयां कुटुंब बनाती जा रहीं थीं
ठीक इन्हीं पलों में आकाश के सुदूर उत्तर-पूरब से अरुंधति की टिमटिमाती मद्धिम अकेली रोशनी
राजधानी में किसी निर्वासित कवि को अंतरिक्ष के परदे पर कविता लिखते देख रही थी
उसी राजधानी में जहां कंपनियां मुनाफे, अखबार झूठ, बैंकें सूद, लुटेरे अंधेरा
और तमाम चैनल अफीम और विज्ञापन बना रहे थे
जहां सरकार लगातार बंदूकें बना रही थी
यह वह पल था जब संसार की सभी अनगिन शताब्दियों के मुहानों पर
किसी पहाड़ की तलहटी पर बैठे सारे प्राचीन गड़रिये
पृथ्वी और भेड़ों के लिए विलुप्त भाषाओं में प्रार्थनाएं कर रहे थे
और अरुंधति किसी कठफोड़वा की मदद से उन्हें यहां-वहां बिखरे
पत्थरों पर अज्ञात कूट लिपि में लिख रही थी
लोकतंत्र के बाहर छूट गए उस जंगल में
यहां-वहां बिखरे तमाम पत्थर बुद्ध के असंख्य सिर बना रहे थे
जिनमें से कुछ में कभी-कभी आश्चर्य और उम्मीद बनाती हुई
अपने आप दाढ़ियां और मुस्कानें आ जाती थीं
( वागर्थ में प्रकाशित )