झाड़ू

सुशांत सुप्रिय


सुशांत सुप्रिय कथाकार, कवि और अनुवादक हैं. अब तक दो कथा-संग्रह ‘हत्यारे’ (२०१०) तथा ‘हे राम’ (२०१२) और एक काव्य-संग्रह ‘ एक बूँद यह भी ‘ ( 2014) प्रकाशित हो चुके हैं। अनुवाद की एक पुस्तक ‘ विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ ‘ प्रकाशनाधीन है ।संपर्क: 09868511282 / 08512070086

स्मृति की पपड़ी को मत कुरेदो ,
घावों से ख़ून निकल आएगा ।

एक दिन पत्नी ज़िद करने लगी — ” अपने पहले प्यार के बारे में बताइए न । आपके जीवन में मेरे आने से पहले कोई तो रही होगी । स्टूडेंट-लाइफ़ में आपने किसी से तो इश्क़ किया होगा । ”

मैंने मुस्करा कर उसे टालना चाहा ।लेकिन वह अड़ गई — ” आज तो आपको बताना ही होगा । मैं आपके बारे में सब कुछ जानना चाहती हूँ । देखिये, यह आपके जीवन में मेरे आने से पहले की बात है । मैं बिलकुल बुरा नहीं मानूँगी । मेरी ओर से निश्चिंत रहिए । बताइए न, प्लीज़ । ”

यह स्मृति की जमी हुई झील की सतह पर स्केटिंग करने जैसा था । ख़तरा यह था कि न जाने कहाँ बर्फ की सतह पतली रह गई हो । आपने वहाँ पैर रखा नहीं कि सतह चटख़ जाए  और आप उस झील में डूबने लग जाएँ ।

मैंने पत्नी को टालना चाहा ।पर वह नहीं मानी । हार कर मैंने जोख़िम उठाने का निश्चय किया ।

” आज मैं तुम्हें झाड़ू की कहानी सुनाऊँगा ।” मैंने कहा । मेरी स्मृति में कहीं एक सलोनी छवि अटकी थी । अधमिटे अक्षर-सी बची हुई थी कोई अब भी मेरी स्मृति के पन्ने पर । अस्फुट ध्वनि-सी बजती थी कोई अब भी मेरे ब्रह्मांड के निनाद में ।

 मैं झाड़ू की नहीं , आपके पहले प्यार की कहानी सुनना चाहती हूँ । ” पत्नी ने ज़रा खीझकर कहा ।

” सुन सकोगी? ” मैंने पूछा ।
” हाँ, मैं तैयार हूँ ।” जवाब आया ।
” मैं जब भी झाड़ू देखता  हँू , मुझे किसी की याद आ जाती है । ” मैंने कहा ।
” किसकी ?”
” उसकी जो कहती थी– यातनाओं के सैकड़ों-हज़ारों वर्ष ज़िंदा हैं झाड़ू में ।”
कुछ शब्द आपको फिर से पीछे ले जाते हैं । उस अतीत की ओर जो किसी मरी तितली-सी बंद पड़ी होती है बच्चे की किताब के किसी भूले हुए पन्ने में …

जब भी काम वाली बाई नहीं आती, मैं झाड़ू उठा कर सारा घर ख़ुद ही साफ़ कर देता । पत्नी रोकती भी — ” लाइए, मैं झाड़ू मार देती हूँ । आप क्यों तकलीफ़ कर रहे हैं? ” लेकिन मैं नहीं रुकता । हालाँकि बेटा यह देखकर नाक-भौं सिकोड़ता । वह काॅन्वेंट स्कूल में पढ़ता था । एक दिन वह कहने लगा– ” पापा, ये तो गंदा काम
है । मेड्स का काम है । वहाइ डु यू डू दिस डर्टी वर्क? ”

 तब मैंने उसे समझाया — ” बेटा, अपने घर का सारा काम ख़ुद करना आना चाहिए । कोई काम गंदा नहीं होता । अगर एक हफ़्ता मेड नहीं आएगी तो क्या तुम गंदगी में ही पड़े रहोगे? फिर जो काम पसीना बहा कर किया जाता है, जो काम मेहनत से किया जाता है , वह काम कभी डर्टी नहीं होता । “धीरे-धीरे बेटा भी यह बात समझ गया । अब कभी-कभी काम वाली बाई के नहीं आने पर वह भी घर में झाड़ू लगा देता है ।

” … पहेलियाँ मत बुझाइए । अब साफ़-साफ़ बताइए कि किसकी याद आ जाती है आपको झाड़ू देखकर ? ” पत्नी पूछ रही थी ।

 वह काॅलेज में मेरी सहपाठी थी । उसकी माँ लोगों के घरों में झाड़ू-पोंछा मारती थी । उस इलाक़े के एक मास्टर साहब ने उसे मुँहबोली बेटी बना कर पढ़ाया-लिखाया था । उसका नाम कुछ भी हो सकता था — धनिया, झुनिया … । लेकिन असल में उसका नाम कमला था । ” मैंने कहा ।

” तो आपको एक काम वाली बाई की बेटी से इश्क़ हो गया! ” पत्नी ने व्यंग्य से कहा ।
” क्यों? काम वाली बाई की बेटी इंसान नहीं होती ? उससे इश्क़ करना गुनाह है क्या ? ” मैं बोला ।
इस पर पत्नी चुप रही ।
मैंने फिर कहना शुरू किया — ” जितनी मेधावी छात्रा थी वह , उतना ही ख़ूबसूरत उसका व्यक्तित्व था ।”
” फिर क्या हुआ? आपने उसी से शादी क्यों नहीं कर ली ? ” पत्नी ने पूछा । उसके स्वर में थोड़ी जलन थी ।

” हालाँकि वह मेरे साथ पढ़ती थी , हँसती-बोलती थी , लेकिन उसके चेहरे पर उसका दर्द भरा इतिहास हमेशा ज़िंदा रहता था । हमारे बीच जातियों के जंजाल का बार्ब्ड-वायर फ़ेंस मौजूद था । मैं इस कँटीली तार के फ़ेंस को पार करना चाहता था । फ़ेंस के उस पार वह थी । फ़ेंस के इस पार मैं । ” कमला की माँ की झुग्गी जिस जे. जे. क्लस्टर में थी उस जगह को एक बिल्डर ने ख़रीद लिया था । बिल्डर के गुंडे झुग्गी वालों को वहाँ से खदेड़ने के लिए उन्हं  डरा-धमका रहे थे । हालाँकि कमला अपने मुँहबोले पिता मास्टरजी के घर रहती थी लेकिन वह हफ़्ते में एकाध बार अपनी माँ और भाई-बहनों से मिलने के लिए माँ की झुग्गी में ज़रूर जाती थी । ”

 ” कमला के पिता नहीं थे क्या ?” यह पत्नी की आवाज़ थी ।
 ” तुमने खैरलाँजी और मिर्चपुर की घटनाओं के बारे में पढ़ा-सुना है न । कमला के पिता अपने गाँव में उस ज़माने के खैरलाँजी-मिर्चपुर की बलि चढ़ गए । ऊँची जाति वालों के हमले में कमला के चाचा, ताऊ दादा वग़ैरह भी मारे गए थे । तब कमला की माँ किसी तरह जान बचा कर , कमला और उसके दो छोटे भाई-बहनों को लेकर इस शहर में भाग आई थी । ” मैंने कहा ।
” ओह ! ” पत्नी के मुँह से निकला । ” फिर क्या हुआ ? ”
” बिल्डर के गुंडे लगातार झुग्गी वालों को डरा-धमका रहे थे । स्थानीय राजनेता और माफ़िया भी बिल्डर से मिले हुए थे । एक रात कमला अपनी डरी-सहमी माँ और भाई-बहनों से मिलने गई । देर हो जाने की वजह से उस रात वह अपनी माँ की झुग्गी में ही रुक गई । वह रात उसकी अंतिम रात बन गई । ” बाहर पाशविक झुटपुटा ढह रहा था ।

” क्या? ” पत्नी को जैसे झटका लगा ।
” हाँ! बीच रात में बिल्डर के गुंडों ने पूरी झुग्गी बस्ती में जगह-जगह आग लगा दी । झुग्गी वाले नींद में ही जल कर मर गए । उनमें कमला , उसकी माँ और उसके भाई-बहन भी थे । ” मैंने कहा । मेरी आवाज़ रुँध गई थी । गले में कुछ फँस गया था । आँखें नम हो गई थीं ।

पत्नी ने मेरा हाथ पकड़कर मेरा सिर अपनी गोद में रख लिया । मुझ पर झुकते हुए उसने धीरे से पूछा — ” आप बहुत प्यार करते थे उससे ? ”

बाहर अब सलेटी अँधेरा चूरे-सा झरने लगा था । एक थरथराहट समूची शिला-सी बह रही थी मेरी धमनियों में । वह थरथराहट पत्नी के वक्ष में मुँह छिपाए थी ।
” बिल्डर के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं हुई ? ” पत्नी ने पूछा ।
” उसकी एप्रोच ऊपर तक थी । उसके पास रुपया था । कांटैक्ट्स थे । इस घटना को शाॅर्ट-सर्किट की वजह से हुआ हादसा बता कर रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया । कहा गया कि झुग्गी वालों ने पोल पर काँटे डाल कर बिजली के दर्जनों अवैध कनेक्शन ले रखे थे । उन्हीं में स्पार्किंग की वजह से यह दुर्घटना घटी । जानती हो , अब उस जगह पर क्या है ? ” मैंने पत्नी की गोद में से सिर उठा कर कहा ।
” क्या ?”
” वहाँ अब शहर का मशहूर अटलांटिक माॅल है जहाँ सभी मल्टी-नेशनल कम्पनियों की चमचमाती दुकानें हैं । शो-विंडोज़ में सजे-धजे मैनेक्विन्स हैं । एस्केलेटर्स हैं । शीशे वाली लिफ़्ट है । सारे चर्चित बहुराष्ट्रीय ब्रांड हैं । जहाँ रोज़ाना बाज़ार को ख़रीद कर घर ले आने के लिए अपार भीड़ जुटी होती है । वहीं जला कर मार डाली गई थी कमला , उसकी माँ, उसके भाई-बहन और उन जैसे दर्जनों बदक़िस्मत झुग्गी वाले । । ”
” अब आप उधर से गुज़रते हैं तो आपको कैसा लगता है? ”

 ” कहीं पढ़ा था — जगहें अपने-आप में कुछ नहीं होतीं । जगहों की अहमियत उन लोगों से होती है जो एक निश्चित काल-अवधि में वहाँ मौजूद होते हैं ।आपके जीवन में उपस्थित होते हैं । उसे भरा-पूरा बना रहे होते हैं । मैं जब-जब उस माॅल को देखता हूँ , मुझे कमला और दूसरे झुग्गीवालों की दर्दनाक मौत याद आती है । यह माॅल उनकी लाशों पर खड़ा है ।” मैंने कहा । एक पुराना दर्द जैसे ठण्ड के मौसम में फिर से उखड़ आया था ।

” एक बात पूछूँ ? क्या आपके कमला से अंतरंग सम्बन्ध थे? ” यह पत्नी थी । अपने अधिकार-क्षेत्र की सीमा पर मुस्तैद प्रहरी-सी …

और मुझे वह शाम याद आ गई जब काॅलेज के बाद कमला मेरे साथ मेरे किराए के मकान पर आ गई थी ।

सुबह मैं जल्दी-जल्दी काॅलेज के लिए भाग लिया था । सारा कमरा बेतरतीब पड़ा था । मेरा गीला तौलिया सिलवट भरी चादर वाले बिस्तर पर मुचड़ा पड़ा था । कुर्सी पर सुबह उतारे हुए जांघिया और बनियान पड़े हुए थे । ऐश-ट्रे बना दी गई एक कटोरी में ढेर सारी राख जमा थी और जल्दी में आधी पी कर बुझा दी गई एक सिगरेट भी वहीं पड़ी थी । कमरे में सुबह झाड़ू लगाना भूल गया था । फ़र्श गंदा था । मेज़ पर चाय की जूठी प्याली और एक तश्तरी पड़ी थी जिसमें सुबह हड़बड़ी में बनाकर खाए ब्रेड-आॅमलेट के कुछ टुकड़े भी बचे हुए थे । कोने में मकड़ी के जाले थे ।दीवार पर मधुबाला की पोस्टर थी जिस पर ग़र्द की एक परत कपड़े से साफ़ कर दिए जाने की प्रतीक्षा में बूढ़ी हो रही थी । तो यह था मेरा कमरा जहाँ कमला को बुलाने से पहले मैंने इस सब के बारे में सोचा ही नहीं था ।

मैंने जल्दी से कमरे की बेतरतीबी को कुछ ठीक किया । कमला कुछ सकुचाई-सी कुर्सी पर बैठ गई । पलंग के नीचे से झाड़ू निकाल कर मैं फ़र्श बुहारने लगा ।  और तब कमला ने कहा था — ” जानते हो प्रशांत, यातनाओं के सैकड़ों-हज़ारों वर्ष ज़िंदा हैं झाड़ू में ।” उसका आधा चेहरा रोशनी में , आधा अँधेरे में था । उसका कथन बिना प्रश्नवाचक चिह्न का एक सुलगता हुआ सवाल था जिसे अभी हल होना था । सदियों की पीड़ा जैसे उसके चेहरे पर जम गई थी ।

मैं झाड़ू बिस्तर के नीचे रख कर उसके पास चला आया था । कँटीली तारों के फ़ेंस के दूसरी तरफ़ । स्वेच्छा से    हौले से उसका हाथ पकड़ कर मैंने प्यार से कहा था — ” स्मृति की पपड़ी को मत कुरेदो । घावों से ख़ून निकल आएगा ।”

यह कह कर मैंने उसके चेहरे पर गिर आई बालों की लटों को पीछे हटा कर उसका माथा चूम लिया था ।कमला का खिंचा हुआ चेहरा मेरा स्पर्श पा कर धीरे-धीरे नर्म पड़ने लगा था ।फिर उसके चेहरे पर एक सलोनी मुस्कान आ गई थी जिसका मैं दीवाना था । हमारे भीतर इच्छाओं के निशाचर पंछी पंख फैलाने लगे थे । फिर कमरे की ट्यूब-लाइट बुझ गई थी और ज़ीरो वाट का बल्ब जल गया था । एक चाहत भरी फुसफुसाहट उभरी थी । फिर एक मादक हँसी गूँजी थी ।

खिड़की के बाहर एक सलेटी रात रोशनी के बचे-खुचे क़तरे बीन कर ले जा रही थी । लेकिन कमरे के भीतर हमारे अन्तर्मन रोशन थे ।

 धीरे-धीरे हवा कसाव से भर गई । दीवार पर दो छिपकलियाँ आलिंगन-बद्ध पड़ी थीं । मैं अपनी प्रिया के स्नेह-पाश में था ।जैसे सबसे ज़्यादा चमकता हुआ नक्षत्र मेरे आकाश में था । उसके भीतर से सम्मोहक ख़ुशबुएँ फूट रही थीं । ज़ीरो वाट के ताँबई उजाले में मांसल सुख अपने पैर फैला रहा था । मेरी धानी-परी मेरी बाँहों में थी । मेरी मरमेड मेरी निगाहों में थी । ऊपर गेंहुआ शंख-से उसके उत्सुक वक्ष थे जिनकी जामुनी गोलाइयों में अपार गुरुत्वाकर्षण था ।नीचे ठंडी सुराही-सी उसकी कमनीय कमर थी जहाँ पास ही महुआ के फूलों से भरा एक आदिम जंगल महक रहाथा । बीच समुद्र में भटकता जहाज़ एक हरे-भरे द्वीप पर पहुँच गया था ।

एक ऐसा समय होता है जब तन और मन के घाव भरने लगते हैं , जब सपने सच होने लगते हैं , जब सुख अपनी मुट्ठी में होता है और मुँदी आँखें फिर से नहीं खुलना चाहतीं । जब सारी चाहतें ख़ुशबूदार फूलों में बदल जाती हैं और जीभ पर शहद का स्वाद आ जाता है । वह एक ऐसा ही पल था — घनत्व में भारी किंतु फिर भी बेहद हल्का । समय का रथ एक उत्सव की राह पर से गुज़र रहा था ।

अब हम दोनों कँटीली तारों के फ़ेंस के एक ही ओर थे । मन में उजाला लिए । उस रात बिस्तर पर एक-दूसरे से लिपटे हुए हमने ढेर सारी बातें की थीं । सपने सँजोए थे । मुझे क्या पता था कि उन सपनों की तह में मौत थी । मुझे क्या पता था कि मैं फूटने से ठीक पहले एक पारदर्शी बुलबुले को देख रहा था । ठीक दो दिन बाद कमला अतीत बन गई थी ।  इतिहास बन गई थी । मेरी उड़ान का आकाश खो गया था…

 ” बताइए न , क्या आपके कमला से अंतरंग सम्बन्ध थे ? ” पत्नी दूरबीन ले कर मेरे अतीत की दिशा में दूर तक देखना चाह रही थी ।
मैंने अपने पैरों के नीचे स्मृति की जमी हुई झील की पतली परत को चटखते हुए महसूस किया । डूबने का ख़तरा मँडराने लगा था ।
जवाब में मैंने कुछ नहीं कहा । केवल पत्नी का माथा चूम लिया । मैं अपनी पत्नी से भी प्यार करता था । वह मेरे बच्चों की माँ थी ।
पता नहीं , पत्नी ने मेरी इस हरक़त का क्या अर्थ निकाला । शायद वह सब कुछ भाँप गई । स्त्री की छठी इंद्रिय सब जान जाती है । लेकिन वह इतनी बड़ी बात भी झेल गई । बहुत बड़ा कलेजा है उसका । मैं इसके लिए उसे सलाम करता हूँ ।

 इस घटना के बाद हमारे जीवन में केवल एक बदलाव आया । अब काम वाली बाई के नहीं आने पर जब कभी मैं पूरे घर में झाड़ू लगा रहा होता हूँ तो मेरी पत्नी मुझसे झाड़ू ले लेने का प्रयास नहीं करती है ।

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ISSN 2394-093X
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