ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस कवितायें और कहानियां लिखती हैं . नोएडा में रहती हैं . संपर्क: rituparna_rommel@yahoo.co.in
जय और दिल की इस कहानी में शायद आपको कुछ नया नहीं लगे क्योंकि पहले भी कितनी ही बार इस फ़साने का ज़िक्र बातों में आया ही करता है… लेकिन नामालूम सी कोई कशिश ज़रूर है इस अफ़साने में कि हर बार उतनी ही शिद्दत से इसे दोहराती हूँ… इस बार सोचा कि बेतरतीब यादों को सिलसिलेवार वर्कों में टाँक दूँ… और फिर से उन वक्तों को जी लूँ जब ज़िन्दगी इतनी उलझी इतनी बिखरी नहीं थी.
-पहला सफा-
पहली नज़र में प्यार जैसा इस किस्से में कुछ नहीं है. जय से पारिवारिक रिश्ते थे. घर में आना -जाना , मिलना जुलना एकदम सामान्य सा ही था. यह सन छियासी के शुरूआती महीनों की बात रही होगी … 16 साल की उम्र में भी दिल का बचपना या कहें कि खिलंदड़ापन बरक़रार था. बी एस सी फर्स्ट इयर के प्रैक्टिकल सर पर थे और हरबेरियम फाइल नदारद… क्या किया जाये… जंगली फूल-पौधों का कुछ तो जुगाड़ करना होगा. क्या करूँ… ? अरे हाँ ! जय के घर के सामने एक बड़ा सा खाली मैदान है, जहाँ बहुत सारे जंगली पौधे , ख़त-पतवार उग आये हैं. वहीँ से कुछ तो मिल ही जाएँगे . दिल ने साइकिल उठाई और सीधे जय के घर. आंटी से अपनी परेशानी बताई और उन्होंने परेशान दिल की मदद करने के लिए जय को बुलाया, जो शायद अपने कमरे में बैठा कुछ पढ़ रहा था. ‘ अच्छा हुआ जो माँ साथ नहीं हैं’ , दिल ने मन ही मन सोचा वरना अभी एक लेक्चर सुनने को मिल जाता. पढ़ने-लिखने में दिल ठीक-ठाक थी, दिमाग भी तेज़ था लेकिन थी एक नंबर की आलसी. जब तक बात सर पर ना आ पड़े तब तक सुध नहीं लेती थी . उधर जय एकदम सिन्सीयर … अच्छा बच्चा… जिसे पढ़ने के सिवाय कोई दूसरा काम नहीं था. और दिल को ऐसे पढ़ाकू बच्चों को लेकर अक्सर माँ के उलाहने सुनने पड़ते थे. खैर, आंटी के कहने पर जय दिल के साथ सामने वाले मैदान में फूल-पत्तियाँ तुड़वाने चला गया और दिल को याद है कि इस ‘ फूल-पत्ती तोड़ो अभियान’ के दरम्यान दिल ने अपनी आदतनुसार बकबक करके जय को खूब पकाया. बेचारा जय… चुपचाप दिल की बेफिजूल सी बातें सुनता और गाहे-बगाहे हाँ-हूँ करता रहा. लेकिन उस दिन जय से मन ही मन दिल ने दोस्ती का एक रिश्ता बुन लिया था. अब जब भी जय अंकल के साथ घर आता तो दिल को अच्छा लगता. जय कम बोलता था. एम एस सी फिजिक्स का स्टूडेंट था, लेकिन साहित्य में उसकी रूचि, उसके शब्दों में संजीदगी , परिष्कृत भाषा दिल को भाती थी. दिल के मन में जय की एक खास जगह बन रही थी जिसका आभास दिल को भी नहीं था.
– दूसरा सफा –
दिसम्बर की कड़कड़ाती सर्दियाँ थीं. रात से बारिश हो रही थी. ऐसे में कॉलेज जाने का मन किसका होता भला लेकिन मनोधीर सर की क्लास मिस नहीं की जा सकती. बहुत इम्पोर्टेन्ट टॉपिक पर है. खैर , देखा जाएगा. अगर सीमा आती है तो चली जाऊँगी वरना आरामसे घर बैठूंगी. दिल सोच ही रही थी कि सीमा जी हाज़िर.
कॉलेज पहुँचे तो मालूम हुआ कि एम डी सर अभी नहीं आए हैं. क्लास-रूम में तीन- चार लड़कियाँ ही थीं . बाहर बारिश अभी भी हो रही थी और अन्दर सभी की कुल्फी जमी जा रही थी. मन ही मन सीमा पर गुस्सा भी आ रहा था लेकिन सीनियर थी तो बरदाश्त करना ही था . गाने – वाने गाते हुए समय बिताया जा रहा था लेकिन उफ़्फ़ यह सर्दी तो… लगता है हड्डियाँ कीर्तन कर रही हैं. तभी दिल ने क्लास के सामने से जय को जाते हुए देखा. कुछ सोचा और सबसे कहा ,” चाय- समोसा कौन-कौन खाएगा… ?” सभी तैयार ! पर्स टटोले गए. हम्म्म्म ! पैसे तो है लेकिन कैंटीन जाकर लाएगा कौन ? सवाल मुश्किल था . आज का समय होता तो यह बात किसी के दिमाग में आती भी नहीं लेकिन वो दूरदर्शन का ज़माना था और वो भी ताज़ा-ताज़ा ही रंगीन हुआ था . उस दौर में सीनियर लडकियाँ ही कॉलेज कैंटीन के दर्शन करने की कूवत रखती थीं . लेकिन इस मुश्किल को दिलेरी से हल करते हुए दिल ने बेबाकी से कहा, ” मेरे अंकल के बेटे हैं यहीं … तुम लोग कहो तो उनसे कहूँ ? ” इस पर किसको ऐतराज़ था भला . दिल और सीमा बाहर निकलीं तब तक जय अपने एक और दोस्त के साथ ज़रा दूर निकल गया था. भीगते-भागते दोनों जय तक पहुँचीं और कैंटीन से चाय समोसे लाने की फरमाइश कर दी . ” पैसे यह रहे…!” , दिल ने कहा. ” समोसे चाय ले आने दो, पैसे तभी दे देना” . जय ने हौले से मुस्कुराते हुए कहा. “ठीक है .” दिल बस इतना भर कह पाई और वापिस क्लास की तरफ मुड़ गई.
थोड़ी देर बाद जय अपने साथी के साथ क्लास में था. हाथ में चाय और समोसे . लड़कियाँ खुश. अब बारी थी पैसे देने की. महीने का आखिर था. ज़्यादातर की पॉकेट – मनी आखिरी साँसे गिन रही थी . वैसे भी पॉकेट- मनी के नाम पर जो भी मिलता था उसका अधिकतर हिस्सा तो सुशीला कॉलेज के पास फ्रूट चाट बेचने वाले मामाजी को हस्बेमामूल दे दिया जाता था . खैर , तमाम खंगाली के बाद जो भी बरामद हुआ सब जय के हाथों में रख दिया गया .
” कहाँ बैठ कर आई हो तुम लोग ! ”
” मतलब ? ”
” मतलब यह कि इतनी चिल्लर कहाँ से बटोरी ! ” जय के चेहरे पर एक शरारत भरी मुस्कराहट थी.
अल्लाह ! इस लड़के को कोई बताता क्यों नहीं कि उसकी मुस्कराहट दिल के दिल में उतरने लगी है धीमे- धीमे .
–तीसरा सफा-
जय की मेहनत और प्रतिभा रंग लाई और पढ़ाई ख़त्म करते न करते उसे नेवी में चुन लिया गया . बम्बई में ट्रेनिंग के बाद पहलीपोस्टिंग मिली उड़ीसा में. उस दौरान , फ़ोन-वोन तो नहीं हाँ कभी-कभार पापा के नाम जय के ख़त ज़रूर आते थे लेकिन उनमें दिल के बारे में अलग से ज़िक्र होता हो, ऐसा नहीं था.
एक दिन सुबह-सुबह दरवाज़े की घंटी बजी. दिल अपने कमरे में थी . सर्दियों में दिल की सुबह ज़रा देर से होती थी . घंटी फिर बजी. माँ दरवाज़ा क्यों नहीं खोल रहीं ? हो सकता है , छत पर कपड़े सुखाने गईं हो . दिल बिस्तर से उठी और दरवाज़ा खोला. दरवाज़े पर जय . चेहरे पर दिल के दिल में उतरने वाली वही पहचानी खिली सी मुस्कराहट. अचरज और ख़ुशी का अजीब सा आलम था उसे देखकर . दिल ने जय को अन्दर आने को कहा और खुद सीधे गुसलखाने में . माँ के आने से पहले मुँह-हाथ धोकर फ्रेश हो जाना चाहिए वरना बेभाव की पड़ेगी . यह जय भी ना…. इतनी सुबह ही आ गया . एकदम औचक. लेकिन यह भी तो सच था कि जय के यही सरप्राइज दिल को भाते थे.
सर्दियों की शामें कितनी खूबसूरत होती हैं और कितनी रूमानी ! घर जाने की उतावली में सूरज बादलों की कूची से अनगिनत रंगों को आसमान में बिखेर देता है . ऐसी ही शामों की खुशबू दिल के अंतस में महकती है इन दिनों .उन्हीं दिनों की बात है . पापा के एक पुराने मित्र सपत्नीक अमेरिका से आये हुए हैं . रात के खाने पर आमंत्रित हैं . उसी शाम जय भी घर आया . पापा को अचानक किसी काम से बाहर जाना पड़ा और अब मेहमानों की ज़िम्मेदारी दिल के जिम्मे . माँ रसोई में व्यस्त थीं. पापा की कुछ कविताओं की हाल में ही दूरदर्शन के लिए रिकॉर्डिंग हुई थी . उनमें से कुछ कविताएँ दिल ने रिकॉर्ड कर रखी थी . उन अंकल की फरमाइश पर कैसेट प्लेयर में उन्हीं कविताओं का कैसेट था . पापा का स्वर और सूफियाना मिज़ाज के उनके गीत मानों दिल की आत्मा को मथते हैं और एक अनकही सी बैचैनी आँखों के रास्ते धाराधार बहती है . यही हुआ उस दिन भी . आँसुओं से भीगे चेहरे को छुपाती दिल कमरे से बाहर निकल आई . खुद को सँभालने की कोशिश में थी कि दो मज़बूत बाजुओं ने उसे घेर लिया . दिलासा देते हाथ उसके बालों को धीमे-धीमे सहला रहे थे और जय के कंधे से लगी दिल बस रोये जा रही थी. निशब्द !
पहला स्पर्श ! एक अनछुए अहसास ने मन के आँगन को हरसिंगार के फूलों से भर दिया था . रातें अब रूपहली थी और दिन नवेले.
– चौथा सफा –
तेरह जनवरी का दिन यानी लोहड़ी . बरसों पहले का यह दिन दिल की यादों में आज भी गहरे बसा है . कुछ दिन से जय की तबीयत ठीक नहीं थी . पाँव में चोट थी . चलने में दिक्कत थी . लोहड़ी से दो दिन पहले की बात है . आँगन में मीठी – मीठी सर्दियों की धूप . जय आँखे बंद किए अपने ख्यालों में ही था कि तभी दिल की आवाज़ सुनाई दी . जब तक जय संभलता दिल सामने . माँ से उसकी बातें बदस्तूर जारी . ‘ यह लड़की इतनी बातें कहाँ से बटोरती है ! ‘ जय सोच ही रहा था कि दिल अब उससे मुखातिब थी . ” कल अंकल आए थे . उन्हीं ने बताया कि आपके पैर में चोट है . अब कैसे हैं ? ” जय मुस्कुरा दिया , ” ठीक हूँ . एक- दो दिन में पट्टी खुल जाएगी तब मिलता हूँ .”
लोहड़ी की उस सुबह छुटकी स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी . दिल ने एक कागज पर कुछ लिखकर उसे दिया . ” स्कूल जाते समय इसे जय को देती जाना प्लीज़ ! ” दिल की बात को छुटकी किसी हाल में नहीं टाल सकती सो जय के घर पहुँचकर उसे दरयाफ्त किया गया और आंटी और भैया की मौजूदगी में वही पुर्जा उसने जय को थमा दिया ” दी ने आपके लिए दिया है. आप शाम को आएंगे ? ” जय भला क्या कहता बस मुस्कुराकर हाँ में सर हिला दिया .
स्कूल से लौटकर छुटकी ने जय का सन्देशा दिल को दिया और इंतज़ार की घड़ियाँ शुरू ! ‘ यह वक़्त इतना धीमे क्यों बीतता है ! शाम मानों दिल के सब्र को तौल रही हो और समय ज्यों ठहर ही गया हो .
शाम आई और धीमे – धीमे रात में तब्दील हो गई . जय कहकर आया क्यों नहीं . कहीं दिल का उसे यूँ आने को कहलवा देना जय को बुरा तो नहीं लगा .
तमाम ख्यालों से घिरी वो रात बड़ी उदास थी . लेकिन साहिर ने कीट्स को दोहराते हुए यूँ ही नहीं कहा था कि हर गहरी और मुश्किल रात के बाद सुबह बेतरह खुशनुमा होती है . आने वाला दिन भी दिल के लिए कई शीरीं और प्यारी स्मृतियों की सौगात लेकर आने वाला था .
– पाँचवां सफा –
आज इतवार है . हर बार की तरह आज भी पापा अपने दो तीन मित्रों के साथ डाइनिंग टेबल के इर्द-गिर्द बैठे टी वी पर ‘महाभारत’ देख रहे हैं . माँ चाय नाश्ते के इंतजाम में लगी हुई हैं .
रात की खलिश ज़हन में अभी भी घुमड़ रही है . ज़ाहिर सी बात है कि दिल का मूड उखड़ा हुआ है . देर तक अपने कमरे में बंद दिल किसी उधेड़बुन में उलझी है . ‘ दोपहर बाद दीया के घर ही चली जाती हूँ . शायद उस से बात करके चित्त ज़रा सहज हो. ‘ दिल ने सोचा , खुद को सहेजा और फिर रोज़मर्रा के कामकाज में व्यस्त हो गई . वक़्त अपनी रफ़्तार से बीत रहा था . तीन बजे के आसपास का समय होगा दिल छत पर थी . हाथों में कोई पत्रिका थी और ज़हन में जय के ख्याल कि अचानक छुटकी की आवाज आई ,” ओ दी ! नीचे आओ , जय भैया आएँ हैं .” दिल को लगा छुटकी खिंचाई कर रही है लेकिन जाकर देखने में कोई हर्ज़ नहीं. नीचे जनाब बाकायदा कमरे में बैठे थे . चेहरे पर वही ‘ किलर स्माइल ‘. दिल के दिल को चुराने की जय की यह अदा कमाल है . थोड़ी देर इधर-उधर की बातें करने के बाद दिल ने कहा ,” मझे दीया के घर जाना है . आप मुझे वहां तक छोड़ देंगे ? मैं बस दो मिनिट में तैयार होकर आती हूँ .” जय असमंजस में . ” हाँ कहूँ कि ना . यह लड़की उलझा देती है . जहाँ कह रही है वहाँ ले जाना ही होगा और कोई उपाय नहीं .” जय अपनी सोच में ही था कि माथे पर नन्हीं सी काली बिंदी और गुलाबी शलवार कुर्ते में दिल सामने . “चलिए! ” अजीब थी दिल भी . दीन दुनिया से बेखबर अपनी ही रौ में रहती . ज़रा ना सोचा कि जय के साथ यूँ स्कूटर पर पीछे बैठकर जाएगी तो आसपास वाले क्या सोचेंगे या किसी अनजान लड़के को उसके साथ देखकर दीया के माँ- पापा क्या कहेंगे . निपट बावरी लड़की है यह दिल भी !
दीया को दिल के आने की खबर थी लेकिन उसके साथ जय का होना बेचारी दीया के लिए भी किसी झटके से कम नहीं था . जय को ड्राइंगरूम में बैठा छोड़ दिल दीया के कमरे में थी .
” इसे क्यों साथ ले आई ? ”
” क्यों ? तूने ही तो कहा था कि अब उसके मन में क्या है जान लेना चाहिए . तो चल , कहीं बाहर चलते हैं . कॉफ़ी-वॉफी पीएँगे . मैं तो नहीं कह पाऊँगी तू ही उससे इस बारे में बात कर लेना . ”
” ठीक ! लेकिन अम्मी को क्या बोलूँ कि कौन है यह ? ”
” अरे ! इसमें क्या ? कह दे कि दिल के अंकल का बेटा है . ” दिल ने सुझाया .
” अम्मी , मैं दिल के साथ जा रही हूँ . कुछ किताबें लेनी है . जय हमें मार्केट तक छोड़ देगा .”
जबतक अम्मी की हाँ या ना होती दिल और दीया दोनों घर से बाहर .
जय ड्राईवर की सीट पर उसके पीछे थी दिल और फिर बैठी दीया . ” कहाँ चलना है ?” जय ने कहा . ” ऐसा करते हैं कि नवीन मार्किट चलते हैं . वहीँ कुछ खा – पी कर , किताबें लेकर वापिस आ जायेंगे .” यह दीया थी .
स्कूटर अब नवीन मार्केट की सड़कों पर था . दीया के कहने के मुताबिक वहां के नामचीन साउथ इंडियन रेस्तरां में कॉफ़ी पीने के इरादे से तीनों पहुँचे तो देखा कि रेस्तरां खचाखच भरा . ” ओह ! आज इतवार है . आज तो यहाँ भीड़ रहती ही है . चलो कोई नहीं यहाँ पास में ही एक चाट वाले की दुकान है. चल वहीँ चाट खाते है .” दीया का प्लान टू रेडी था . ” यह लड़की भी ना जब देखो बस खाने की सूझती है इसे . गोलगप्पे खाते खाते जय से क्या खाक बात करेगी मेरे बारे में . दिल मन ही मन कुढ़ रही थी . खाने-पीने का सेशन ख़त्म हुआ . दीया को अब याद आया कि अम्मी से किताबें लेने की बात कह कर आई है . किताबें लिए बिना घर पहुँची तो अम्मी के हज़ार सवाल होंगे . ” यार, अभी किताबें भी लेनी हैं . तू चलेगी ? ”
” नहीं . तू जा . मुझे जय घर छोड़ देगा .” दिल ने दीया को टरका दिया .
अब स्कूटर पर दो ही जन थे . ” चलो, तुम्हें एक बढ़िया जगह कॉफ़ी पिलाऊँ .” हम्म्म ! तो जय भी उसके साथ समय बिताना चाहता है .” दिल खुश . लेकिन स्कूटर या बाइक पर पीछे बैठी लड़की की बाहें या तो लड़के की पीठ को घेरे होतीं हैं या उसके काँधे पर टिकी होती हैं . फिल्मों-विल्मों में कुछ ऐसा ही होता है ना . अब ऐसे ही जय को छुए दिल तो जय ना जाने क्या सोचे उसके बारे में . थोडा वक़्त यूँ ही उहापोह में बीता . अब दिल तो आखिर दिल सो कह ही दिया , ” जय , मैं आपके कंधे पर हाथ रख लूँ ?”
जय के सामीप्य के अहसास ने मानों दिल की आकांक्षाओं को नयी परवाज़ दे दी हो . ” दीया की सारी आशंकाएँ – शंकाएँ गलत . जय मुझे चाहता है . यही सच है . बस्स ! ”
जय के साथ बीता हर एक लम्हा गुलाबी था . आज के इस दिलफरेब दिन के लिए जय को शुक्रिया कहना तो बनता ही था . घर के रास्ते में दिल ने जय को एक गिफ़्ट शॉप पर रुकने को कहा और जब लौटी तो उसके हाथ में जय के लिए एक छोटा सा पैकेट था . आज की इस प्यारी शाम के लिए उस नई रोमांटिक फिल्म के गानों के कैसेट से बेहतर जय को दिल और क्या दे सकती थी भला ! जय अब जब भी यह कैसेट सुनेगा दिल की याद उसे पक्का आएगी .
कल की शाम कितनी बैचैन थी लेकिन आज देखो दिन इन्द्रधनुषी रंगों की छटा से लबरेज़ है . यह पहले नेह का राग-रंग है.
और उस रात दिल ने बंद पलकों में संजोए स्वप्नों के फलक पर चाहत और उमंगों की कलम से एक नई इबारत लिखी थी.
– छठा सफा-
चौदह तारीख को जय से हुई मुलाक़ात पूरे चाँद की धवल रात सी दिल के ज़हन में बसी है . उस एक मुलाक़ात के बाद दिल ने जय के साथ आने वाले अनदेखे दिनों को ना जाने कितनी ही बार जिया . घर की छत पर दीया के साथ जय की अनगिन बातें बुनीं . अल्हड़पने के दिन थे वो . आँखों में रूपहले सपने संजोने के दिन . अपनी ही जुगत से सोचने के मासूम दिन . उन्हीं दिनों की बात है ! हुआ यूँ कि, दीया ने दिल को सुझाया कि दिल को लेकर जय की सोच को भी जान लिया जाये . इस सारी कवायद के लिए उन्नीस तारीख़ तय की गई . जय को एक दिन पहले ही संदेशा भेज दिया गया . जगह वही . नवीन मार्किट का दक्षिण सागर रेस्तरां .सुबह से ही दिल के मन में धुकुर सी थी . जय को पसंद हूँ मैं ? हाँ कहेगा वह ? खुद बात करना ठीक भी होगा ? दीया ने भी किस पचड़े में फंसा दिया ! लेकिन जय की दिल की बात जानने की उत्सुकता दिल को भी तो है . थोड़ी हिम्मत करनी होगी !
उन्नीस तारीख़ ! तीन बजे ! उस वक़्त भीड़ भाड़ ज़रा कम रहती है .बात आराम से हो जाएगी . रेस्तरां के बाहर दिल और दीया . जय को आने में कुछ देर थी .
” दीया , वो हाँ कहेगा ना ? !!! ”
” परेशान क्यों हो रही है ? मुझे तो लगता है उसकी हाँ ही है .” दीया ने दिल को दिलासा दिया .
” अच्छा ऐसा कर तू ही बात कर लेना लेकिन मेरे सामने नहीं . वह खुलकर नहीं कह पाएगा . मैं बहाने से चली जाऊँगी फिर तू उससे पूछकर मुझे बताना . ”
“ठीक !”
तभी जय आता दिखाई दिया . वही दिलफरेब मुस्कराहट . ” बाहर खड़ी हो तुम दोनों ? चलो , भीतर बैठते हैं !”
” अल्लाह , यह बस हाँ कह दे .” दिल अपनी ही सोचों में गुम थी .
” क्या लोगी ? क्या सोच रही हो ? ” जय पूछ रहा था .
” कुछ नहीं !” दिल ने धीमे से कहा . दिल ने इडली और जय और दीया ने दोसा मँगवाया .
” हुम्म ! बोलो , क्या बात है ? यहाँ क्यों बुलाया ? कुछ खास बात ? ” जय ने खाते- खाते पूछा .
” कुछ खास नहीं , बस यूँ ही ! दीया को आपसे कुछ बात करनी है ” दिल की आवाज़ में झिझक और हकबकाहट को छुपाने का प्रयास स्पष्ट था .
दीया ने दिल को इशारे से वहां से जाने को कहा . ” अभी आई मैं .” कहकर दिल चली तो गई लेकिन मन में क़यामत की उथल-पुथल.
अब तक तो बात हो गई होगी . दिल मेज के पास पहुँची . दीया ने हल्के से ‘ ना ‘ में सिर हिलाया . मतलब जय का इनकार . सपनों का शीराज़ा टूटने की आवाज़ नहीं होती बस उसकी किरचें अंतस को चीरती जाती हैं . गहरे तक ! यही हुआ था उस लम्हे .
” तुम दोनों बैठो . मुझे जाना है . अम्मी को जल्दी ही लौटने को कहकर आई हूँ . ” कहकर दीया चली गई .
“जय , कहीं और चलते हैं . ” दिल बड़ी मुश्किल से आँसू रोक रही थी .”मुझे आपसे बात करनी है .”
सूकून ! नाम के मुताबिक ही जगह भी है . लेकिन पाँच दिनों में ही इस जगह का माहौल कितना बदला सा लग रहा है . दिल में अजीब सी बेचैनी है . आँखें में खारापन .
” देखो दिल , ग़लत मत समझना .मैंने अभी सेटल होने के लिए सोचा नहीं . शादी वगैरह की जिम्मेदारी के लिए अभी मुझे वक़्त चाहिए. ” कॉफ़ी पीते हुए जय कह रहा था . दिल की बची हुई उम्मीदों को ध्वस्त करते हुए जय के शब्द मानों दिल के कानों तक पहुँच ही नहीं रहे .
” जय ,प्लीज़ ! मैं आप पर शादी के लिए कोई दबाव नहीं बना रही . मैं आपको पसंद नहीं हूँ या फिर कोई और बात है तो प्लीज़ आप मुझे बताएँ… मैं बस आप के साथ रहना चाहती हूँ . आप चाहे तो मैं यूँ ही आपके साथ रह लूँगी लेकिन मुझे अपने साथ रहने दीजिये ना प्लीज़ ! ” दिल ने रूँधी आवाज़ में कहे जा रही थी . किसी तरह … बस किसी तरह जय उसकी बात मान जाए . खुदाया !
” दिल ऐसी कोई बात नहीं . तुम अच्छी लड़की हो . मुझे पसंद भी हो लेकिन प्रॉब्लम मेरी है . मैं शादी के लिए अभी तैयार नहीं हूँ . वक़्त चाहिए मुझे . हो सकता है दो तीन साल बाद मुझे लगे कि शादी करनी चाहिए तो मैं इस बारे में ज़रूर सोचूँगा .”
” तब मेरे बारे ही सोचेंगे आप ? मुझसे ही शादी करेंगे ना ? !!! ” दिल का मन में उम्मीद की हल्की सी रोशनी उमगी .
” हाँ , बिल्कुल ! और वैसे भी सभी उगते सूरज को ही सलाम करते हैं . तीन साल में स्थितियाँ बदलेंगी थोड़ी .” वही दिलफरेब मुस्कराहट अब दिल को राहत सी दे रही थी .
तीन साल …!
घर आई तो मन बुझा सा था . बीते वाकये को रात को फिर से जीते हुए दिल की आँखें फिर पनीली थीं . रात बेहद बोझिल थी . नींद ना जाने कहाँ गुम थी . तीन साल का अरसा . दिमाग बस वही अटका था. मालूम नहीं कि जय अब उससे मिलना भी चाहेगा भी या नहीं .क्या करूँ कि जय मान जाए . दीया कहती है कि जय को मैं पसँद हूँ . फिर उसने मना क्यों किया . नहीं , उसने मना थोड़ी किया है बस तीन साल का वक़्त ही तो माँगा है. दिमाग में ऊहापोह जारी थी .
अगला दिन बेहद मुश्किल था . दिल जितना कल की बातों को परे धकेलने की कोशिश करती रह रहकर वहीँ बातें ज़हन में घुमड़ रही थीं. खुल कर रो भी नहीं सकती . माँ पूछेंगी तो दिल के पास कोई जवाब नहीं होगा . शाम को दिल दीया के घर गई लेकिन वहाँ भी कुछ राहत नही . कितनी छटपटाहट … कितनी बेचैनी … कितनी पीड़ा … मन को समझाने की सारी कोशिशें बेकार … बस एक ही बात पर सोच अटकी थी कि जय ने आखिर ऐसा किया क्यों ? शायद दिल ने जिसे जय की चाहत समझा वह सिर्फ जय की शाइस्तगी थी. लेकिन दिल के साथ जय का वक़्त बिताना … यूँ गाहे बगाहे घर आकर दिल से बतियाना … क्या सचमुच जय की चाहत दिल का ख्याल भर ही थी . मालूम नहीं ! उन्नीस जनवरी के बाद जय से बस एक बार ही मिलना हुआ . छब्बीस जनवरी को दोपहर बाद जय घर आया था . दिल से जय की ज्यादा बात नहीं हुई . बस , माँ को उसने बताया कि अगले हफ़्ते वह वापिस जा रहा है .उस शाम दिल छत पर खूब रोई .
निराशा इतनी कि कभी शादी ना करने का फैसला ... और कभी सब कुछ छोड़ छाड़ कर नन बनने का इरादा . लेकिन खुद को संभालना होगा . सो दिल ने दिल्ली के एक इंस्टिट्यूट में पत्रकारिता का कोर्स ज्वाइन कर लिया . एक साल इसमें बीत जाएगा और फिर दो साल ही तो बचेंगे . दिल खुद को दिलासा देती . एक दिन बातों बातों में दीया ने उसे बताया कि उसने जय को देखा है . जय दिल से मिलने नहीं आया ? पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ . छुट्टियों में जय घर आता दिल से ज़रूर मिलता . जय बदल रहा है ? !!!
वक़्त बड़ी तेज़ी से बीतता है . नया परिवेश … नया माहौल … नए दोस्त ! ज़्यादातर उड़ीसा के भुवनेश्वर शहर के बाशिंदे . यह संजोग था ?!!! जय की पोस्टिंग भी तो उड़ीसा में भुवनेश्वर के पास चिल्का में ही है . दिल दोस्तों से उनके शहर की खूब बातें करती. उड़िया के नए नए शब्द सीखती . आखिर शादी के बाद उसे उड़ीसा ही रहना है . उनसे मिलने आएगी वहाँ . अब बॉयफ्रेंड गर्लफ्रेंड तुम्हीं सब को मुबारक . दिल का दिल तो पहले से ही जय के पास है . दिल दोस्तों से कहा करती .
उन्नीस सौ बयानवें का साल . जय से मिले दो साल हो गए . इस बीच कोई खबर नहीं . कोई राब्ता नहीं उससे . दिल की याद आती होगी उसे ? दिल अकेले में जय के बारे में सोचती . एक ही साल बाक़ी है . जय आएगा ?!!!
फ़रवरी की जाती सर्दियाँ . दिन का तीसरा पहर . दिल माँ के साथ सब्ज़ियाँ छिलवा रही है . छुटकी का स्कूल से आना. गुस्से से बस्ता पटकना . ” माँ , अंकल ने हमें जय भैया की शादी में क्यों नहीं बुलाया ? अनुभूति बता रही थी कि आठ तारीख़ को जय भैया की शादी थी . हमें नहीं बुलाया ?
माँ चुप ! दिल आँसू आँसू !! छुटकी हैरान !!!
फिर लोकल अखबार में छपे छोटे से नोट से छुटकी की बात की तस्दीक !
दिल टूट गई थी .
तीन बरस का इंतज़ार कभी कभी एक ज़िन्दगी लम्बे इंतज़ार में तब्दील हो जाता है . बिखरे वक्तों के वर्कों को सहेजने के लिए कभी कभी सदियाँ भी कम होती हैं . उन्नीस जनवरी उन्नीस सौ नब्बे को दिल को इसका ज़रा इल्म ना था …..