( आज 19 दिसंबर को इला कुमार की कविता पुस्तक ‘ आज पूरे शहर पर ‘ का लोकार्पण हिन्दी भवन , दिल्ली में हो रहा है . इस संग्रह की कुछ कवितायें स्त्रीकाल के पाठकों के लिए )
आज पूरे शहर पर
आज पूरे शहर पर सूर्य का डेरा है
उस डेरे के बीच सड़कें चलायमान
मोटरगाडि़याँ स्वचलित
और लोग ?
वे ठगे से खड़े हैं
स्तंभित
वे मात्र सूर्य को निहारते रहना चाहते हैं
सूर्य उन्हें लगातार निहार रहा है
मैं भी संग-संग
सब कुछ निहारती हूँ
खुशनुमा भोर में
दिसंबर की इस खुशनुमा भोर में
जब सूर्य
कुहरा भेद कर
आलोकित वलयों को रचने
में मशगूल है
अचानक
एक सुंदर दरवाजे
और
गहरी हरी पत्तियों वाले गमलों से सजे घर
के दरवाजे से
टिककर खड़ी स्त्री की
भंगिमा वातावरण में जादू जगा देती है
उधर खड़ी उस आकृति की विस्मित गंध
मुझ तक आ पहुँचती है
उसके आभिजात्यिक परिधान पर कढ़े बूटों
का हर सूत
उसके काले-सुनहरे बालों के सिरों पर
कौंधती हर किरण
मुझमें ताब जगा देती है
मुझ तक वह गंध आ पहुँचती है
कभी मैं उसके करीब जाकर
उसकी सांसों के स्पर्ष तक
पहुँच पाऊँगा क्या ?
कभी भविष्यत् काल में
शताब्दियों से
कुछ वृक्षों की बाहें गोलाई में झुक कर
आकाश की ओर उठी हुईं
मानों
किसी को बाहों में उठा लेने को आतुर हों
किसे ?
शायद किन्हीं निष्पाप शिशुओं
हाँ
अनाम शिशुओं की प्रतीक्षा में रत हैं
वृक्षों की गोल-गोल भरी पूरी बाहें
सौंदर्यित गोलाई के बीच वे डालियाँ
नीचे झुककर ऊपर की ओर औदार्यपूर्वक उठी हुईं
शताब्दियों से
प्रतीक्षित समय
बरस हुए
किन्हीं पंक्तियों के मुखातिब हुए
कहाँ गए
बीच के बरस, महीने और दिन
हिसाब किसके पास है
भारतीय स्त्री
इन बेवजह की बातों पर
ज्यादा ध्यान नहीं दिया करती
उसके पास कई हिसाब-किताब है
पति और बच्चों के सुख
घर का रख-रखाव
सभी बातों के लिए अलग-अलग वक्त नियत है
नहीं है समय तो अपने लिए
कहाँ है वह समय ?
क्या
वाकई आ पाएगा वह प्रतीक्षित समय
अच्छा है
अच्छा है कि मैं अकेली नहीं
मेरे साथ है चेतना के कुहरे में टिमटिमाते नए पुराने कितने ही
अक्स
चौखट के भीतर चुप बैठे माँ पिता की बरसों पुरानी भंगिमा
तिमंजिले की मुंडेर से झाँकते मौसेरे भाई बहनों के चेहरे
चाचा चाची, मामा मामी, मौसी बुआ और ममेरी फुफेरी बहनों
की कथाएँ
अनगिनत किस्से मेरे साथ चलते हैं
जिस कहीं भी मैं गई
विभिन्न वजूदों के कण मेरे आगे पीछे चले
उनके बीच घर के नौकर नौकरानियों की अम्लान छवि
जाड़े की रातों में मालिश के तेल की कटोरी लिए बिस्तर के
बगल में बैठी दाई
शुरूआती कालेजी दिनों की सुबहों में चाय के गर्म कप के
लिए रसोईघर में पंडित से डाँट सुनता छोटा भाई
जाने-अनजाने रस्तों पर ये सभी मेरे साथ चल पड़ते हैं
नव जागरित व्यक्तियों की जमात जब
अपने आसपास के लोगों की उपस्थिति को नकार
विदेसही अकेलेपन का स्वांग भरती है
स्वांग रचते-रचते अभिनेता स्वयं पात्र में परिवर्तित हो जाते हैं
विलायती उच्छिष्ट के दबाव तले पृथ्वी की सतह कंपनों के
आवेश तले थरथराती हुई
नई सदी की दहलीज पर उगे दीमकों की बस्ती के बीच
दिग्भ्रमित
मन दहल जाता है
यह कैसी विरासत
कितना अच्दा है
कि
मैं अकेली नहीं.
अपने बचपन को
अपने बचपन को रख दिया है मैंने
स्मृतियों के ताखे में
वहाँ सुकुन नहीं है
ना ही स्नेहिल बयारें,
लेकिन बचपन तो है
उस समय-खंड में ठिठके कौंध-भरे स्फुरण
बचपन है मेरा
तुर्श -तीता और सन्नाटे भरा
नकार और अंषतः दुत्कार भरा भी
मन की तहों को
अपने नाखून से खरोंचता हुआ
सुनती हूँ लोगों से
(अपने पेट जायों से भी)
कि
कि बड़ा सुंदर होता है बचपन
कैसे सुनहरे दिवस
बेफिक्र लुभावने पल
स्नेहिल बयारों से पूरित
मन-प्राण
सुबहें और षाम
बार-बार झाँकती हूँ
दरारों से अतीत में
बड़े कमरे/खुली छत/एकांत भरा बागीचा
लेकिन नहीं है वहाँ कोई मधु वाक्य
अपनेपन से भरे शब्द नहीं हैं वहाँ
मृदु बयार भी नहीं
जाना चाहती हूँ स्मृतियों की पकड़
थोड़ा और पीछे
पिछले जन्म की वीथियों में
शायद वहाँ कोई खाता खुला हुआ है
मेरा अपना
नकारात्मक कर्मों भरा
उनका प्रतिफलन
यहाँ
जन्म-जन्मांतर से जुड़ी वीथियों के बीच
जीव की यह कातरता भरी यात्रा
बड़ा अंतर है
बड़ा अंतर है असभ्यता
भ्य और संस्कृति का
सुसंस्कृत आचार विचार एवं उच्छृखलता का
साफ, सफैयत, सफाई एवं गंदगी के पहाड़ का
बड़ा अंतर है
विश्व के अलग गोलकों
देषांतर एवं अक्षांश रेखाओं के
बीच स्थित भूखंडों के बीच
बड़ा ही अंतर है
यह अंतर है
समाज सेवा एवं निष्ठुरता का
सकारात्मक व्यवहारों एवं
नकारात्मक धरातल का
एक और बड़ा अंतर है
अंतर है मन से मन की दूरी का
अमीरी एवं भुखमरी का
कड़ी मेहनत की कमाई एवं
लूट-खसोंट का
अंतर है जरूर अवश्य
वह यहीं पृथ्वी के अलग-अलग खंडों के बीच खड़ा
प्रश्न चिह्न बना हुआ
उनके और हमारे बीच
लगातार बढ़ रहा है
उनके बीच
कड़े नियम कानून का
निभाव है
हमारे पास नियमहीन
मंत्रीत्व है
उनके पास है सुरक्षा और
सद्भावना से भरी पुलिस
हमारे पास डराती-धमकाती
और हफ्ता वसूलती
तथाकथित पुलिस
अंतर है
नियम कानून के झूठे मुलल और
स्वतंत्र देश के
परतंत्रता नियमों में
वे अलग-अलग हैं खड़े
नियम हमारे टेम्स नदी की
धार के साथ बह गए है
गंगा की तली में गंदगी
की शक्ल में जब गए हैं
बड़ा ही अंतर है भरा हुआ स्वच्छ निर्मल
हडसण नदी की
धार और यमुना
के गंधाते जल के बीच एवं सिकुड़ती
काया के बीच
यह अंतर बहुत है