वे कुन्तियाँ नहीं गौरव से भरी माँ हैं

संजीव चंदन 
वह कहती है, “मैं विकलांग हूँ, मेरा बच्चा ही मेरा सहारा होने वाला था, इसलिए मैंने निर्णय लिया कि मैं उसे जन्म दूंगी. मेरी बच्ची ही अब मेरा भविष्य है.”

ऐसा कहते हुए वह मुझे अपनी एक साल की बच्ची, कस्तूरी को खजूर देने से मना करती है, “यह नहीं खाती है, फेंक देगी.”अनीता सोयाम उस समय क्रोध से भर जाती है, जब उन्हें ये लगता है कि उनसे की जा रही बातचीत प्रकाशित किए जाने के मकसद से हो रही है.

अविवाहित आदिवासी माँ

यवतमाल के माथारजुन गाँव की अनीता इस इलाके की उन लड़कियों में से है, जिन्होंने अविवाहित रहते हुए माँ बनने का फैसला किया है.हमारे साथ आंगनबाड़ी की सेविका लता सिडाम को देखकर उन्होंने बातचीत शुरू की थी, उन्हें लगा शायद हम 425 रुपए मासिक उन्हें दिलवा सकेंगे, जो उन जैसी दूसरी लड़कियों को सरकारी तौर पर मिलते हैं.अनीता कहती हैं, “जब यह (बच्ची) मेरे पेट में चार माह की थी, तब तक वह आया लेकिन जब मैंने बताया कि मैं गर्भ से हूँ तो उसने आना बंद कर दिया.”

और भी हैं अविवाहित माताएं

यवतमाल जिले के झरी जामिणी, केलापुर और मारेगाँव तालुका के कुछ आदिवासी पोड़ों (बस्तियों) में विभिन्न आयु वर्ग की ऐसी 50 से भी अधिक महिलाएँ हैं, जो अकेली रहती हैं और अविवाहित होते हुए भी माँ बन चुकी हैं.
कपास और मिर्च उत्पादक ये इलाका अचानक तब सुर्खियों में आया, जब स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता इन अविवाहित माताओं की बढ़ती संख्या मीडिया के सामने लाए, प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए और इस पर सेमिनार आयोजित किए.इस इलाके में कोलाम और गोंड समुदाय के आदिवासी रहते हैं और आंध्र से लगे होने के कारण यहाँ तेलुगू मूल के लोग भी हर गाँव में रहते हैं. इन सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पर स्थानीय प्रशासन भी सक्रिय हुआ.

गाँव के आदिवासी बुजुर्ग

पालन-पोषण  की लड़ाई

यवतमाल की समाज कल्याण अधिकारी अर्चना इंगोले बताती हैं कि इस इलाके से लगभग 50 अविवाहित माताएं हमारे साथ रजिस्टर्ड हैं.वे इनके लिए मारेगाँव में एक ट्रेनिंग और काउंसिलिंग सेंटर बना रहे हैं. यह रजिस्ट्रेशन भी कभी-कभी इनके खिलाफ जाता है क्योंकि इस रजिस्ट्रेशन के चलते उन्हें मासिक 425 रुपए दिए जाते हैं.बताया जाता है कि अविवाहित मां मंदा कुलसंगे अपने और अपने बच्चे के मेंटिनेंस की लड़ाई निचली अदालत में इसी कारण से हार गई, जबकि उच्च न्यायालय ने उसके हक़ में फैसला दिया.ज़्यादातर मजदूरी में लगी ये सभी लड़कियां मंदा की तरह कोर्ट तक नहीं जा पाती हैं.

पीड़िता या मजबूत इरादों वाली

सामाजिक कार्यकर्ता लीला भेले इसे प्यार के मामलों का नतीजा कहती हैं.इनके लिए काम करने वाले संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की अलग-अलग राय है.प्रमोदिनी रामटेके कहती हैं कि व्यापार के दिनों में आने वाले व्यापारी और निर्माण क्षेत्र के मजदूर इनके साथ संबंध बनाते हैं, इनका शोषण करते हैं और गर्भ ठहर जाने पर भाग खड़े होते हैं.जबकि सामाजिक कार्यकर्ता और मराठी की प्राध्यापिका लीला भेले कहती हैं, “95 फीसदी मामले प्रेम के होते हैं, जो आदिवासी समाज की लड़की और लड़के के बीच ही पनपते हैं और इन मामलों में लड़के ग़ैर-ज़िम्मेदार निकले.”

सभ्य समाज

लीला भेले बताती हैं, “कुछ मूक बधिर बच्चियां हैं, जिन पर अत्याचार हुआ है. कुछ मामले हैं, जो किसी दबंग के द्वारा प्रेम किए जाने और रखैल बनाने के उदाहरण हैं. लेकिन ज्यादातर मामलों में ये सिर्फ पीड़िता नहीं हैं.”
पांढरकवडा में सृजन संस्था की संचालिका योगिनी डोलके इसे आदिवासी समाजों में सेक्स से जुड़ी बातों के खुलेपन से जोड़कर देखती हैं. जबकि सत्यशोधक समाज की नूतन मालवी कहती हैं, “हमारे आस-पास, तथाकथित सभ्य समाज में भी ऐसी घटनाएं घटती हैं, विवाह के पूर्व किशोरियां गर्भ धारण कर लेती हैं लेकिन नकली इज्जत में फंसा यह समाज चोरी-छिपे गर्भपात करा ले जाता है. ये अविवाहित महिलाएं ज्यादा बहादुर और ज्यादा प्राकृतिक हैं.”

मिथ और हकीकत

इसी गाँव के दो बुज़ुर्ग स्थानीय आदिवासी देवी ‘मरा माई’ के मंदिर के पास बैठे मिले.अविवाहित माताएं- अनीता, कल्पना और मंदा के गांव के नीलकंठ सिडाम और दशरथ अन्ना लड़कियों को इसके लिए दोष देते हैं. वे इसे लड़कियों के चरित्र से भी जोड़ते हैं.गोंड समुदाय से आने वाले अंबेडकरवादी हिन्दी प्राध्यापक डॉक्टर सुनील कुमार ‘सुमन’ कहते हैं, “आदिवासी भी नगरीय समाज के प्रभाव में हैं लेकिन इन आदिवासी बस्तियों में जितनी स्वतंत्रता और सुरक्षा के साथ ये अविवाहित माँएं रह रही हैं, वह शहरी समाज में संभव नहीं है.”मालवी कहती हैं, “शहरी समाज का अपना मिथ कुंती है, जो सामाजिक अपवाद के भय से अविवाहित जीवन में पैदा अपने बच्चे को ही छोड़ देती है. ये तो मजबूत इरादों वाली आदिवासी लड़कियां हैं.”

सामाजिक कार्यकर्ता और मराठी की प्राध्यापिका लीला

आदिवासी परम्परा

आदिवासी समाजों का कुछ हिस्सा अपनी मान्यताओं और परंपराओं से गहरे जुड़ा है.
इसी कारण छह दिसंबर 1959 को पंचैत डैम के उद्घाटन के दौरान झारखंड के धनबाद में पंडित जवाहर लाल नेहरू को माला पहनाने की वजह से आदिवासी लड़की बुधनी को उसका समाज नेहरू की विवाहिता मान लेता है.
और पंचैत डैम के साथ ही उसके संकट की कथा शुरू होती है. विवाह और प्रेम के प्रति लचीले और आसान नियमों के बावजूद इन कोलाम और गोंड समुदाय की अविवाहित माताओं में से कई को अपने घर से अलग घर बनाकर रहना पड़ रहा है.

यह रिपोर्ट बीबीसी के लिए भी की गई थी

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