मातृसत्तातमक व्यवस्था स्त्रीवादियों का लक्ष्य नहीं है : संजीव चंदन

( प्रज्ञा पांडे के अतिथि सम्पादन में हिन्दी की पत्रिका ‘ निकट ‘ ने स्त्री -शुचितावाद और विवाह की व्यवस्था पर एक परिचर्चा आयोजित की है . निकट से साभार हम वह  परिचर्चा  क्रमशः प्रस्तुत कर रहे हैं , आज  स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन के जवाब.   इस परिचर्चा के  अन्य  विचार पढ़ने के लिए क्लिक करें :  ) 

जो वैध व कानूनी है वह पुरुष का है : अरविंद जैन 

वह हमेशा  रहस्यमयी आख्यायित की गयी : प्रज्ञा पांडे 


अमानवीय और क्रूर प्रथायें स्त्री को अशक्त और गुलाम बनाने की कवायद हैं : सुधा अरोडा 

अपराधबोध और हीनभावना से रहित होना ही मेरी समझ में स्त्री की शुचिता है :  राजेन्द्र राव 

परिवार टूटे यह न स्त्री चाहती है न पुरुष : रवि बुले 

बकौल सिमोन द बोउआर”स्त्री पैदा नहीं होती बनायी जाती है.आपकी दृष्टि में स्त्री का आदिम स्वरुप क्या  है ?

स्त्री के बनाये जाने की प्रक्रिया उसके जन्म से ही शुरु हो जाती है , उसके मनोवैज्ञानिक मानस की तैयारी . बल्कि उसके आस -पास यह माहौल जन्म के पूर्व से बनने लगता है . भारत के कुछ अंचलों में यह मान्यता है कि लडकी के जन्म लेते ही धरती तीन ऊंगल नीचे चली जाती है और बेटे के पैदा होते तीन ऊंगल ऊपर. चीन में लडकियों  के पांव छोटे बनाने के लिए उन्हें लोहे के जूते पह्नाने की प्रथा है तो अफ्रीका के कुछ इलाकों में लडकियों  का खतना किया जाता है. पाठ्य पुस्तकों पर काम करने वालों ने उनमें जेंडर आधारित भेद भाव का विषद वर्णन किया है कि कैसे एक लडकी  गढी जाती है , पिता को अखबार पढते दिखाकर और मां को रसोई में खाना बनाते दिखा कर या राम को पाठशाला जाते दिखाकर और सीता को गुडिया से खेलते दिखाकर . फिर सवाल यह बनता है कि यदि स्त्रियां ऐसे गढी जाती हैं , तो कोई तो समय होगा , जब स्त्रियों का इस गढन से अलग स्वरूप होगा , जिसे आप आदिम स्वरूप कह रही हैं . निस्सन्देह ! इतिहासकारों ने आदिम स्त्री को पुरुषों के साथ बिना काम के जेंडर आधारित बंटवारे के एक साथ काम करते और फैसले लेते हुए बतलाया है , यह भी कि मातृवंशात्मक समाज का इतिहास रहा है , आदिम समाजों मे.

क्या दैहिक शुचिता की अवधारणा  स्त्री के खिलाफ कोई साजिश है ?

यह एक व्यव्स्था बनी होगी अनुमानतः स्त्री -पुरुष के यौन सम्बन्धों में आई अराजकता के कारण . ‘ वोल्गा से गंगा’ मे राहुल सांकृत्यायन दिखाते हैं कि कैसे अपनी  पसन्द के यौन सम्बन्ध के लिए आदिम मानव हत्यायें कर रहे थे . दैहिक शुचिता  रुढ होना प्रारम्भ कैसे हुआ होगा , इसके लिए समझ बनाती है फ्रेडरिक ऐंगल्स की किताब ‘ परिवार , निजी सम्पत्ति और राज्य’ . निजी सम्पत्ति की अवधारणा के साथ विवाह और परिवार संस्था बनी . फिर निजी सम्पत्ति को अक्षुण्ण रखने के लिए स्त्री की यौनिकता पर ‘शुचिता’ का नियंत्रण प्रारम्भ हुआ, ताकि अपनी ही संतान के पास अपनी सम्पत्ति जाये . यही वह पेंच है जिससे स्त्री को कसा जाने लगा और उसके खिलाफ  क्रूरता बनती गई , ‘ दैहिक शुचिता’ उसके अस्तित्व से ज्यादा मह्त्वपूर्ण  होती  गई. इतिहास के विकासक्रम मे यह सब हुआ , धीरे -धीरे व्यवहारगत  पतन  और क्रूरता की ओर उन्मुख होते हुए  . सभ्यता के इतिहास क्रम में हर प्रसंग किसी साजिश का हिस्सा नहीं होता . ऐसा नहीं है कि चार मर्दों ने बैठ कर स्त्रियों  को गुलाम रखने की कोई दीर्घगामी साजिश रची , योजना बनाई.

समाज  के सन्दर्भ में   शुचितवाद और  वर्जनाओं को किस  तरह परिभाषित किया जाए ?

शुचिता , पवित्रता एक ऐसा शब्द है , जो थोडे लोगों का बाकी बचे लोगों पर श्रेष्ठता कायम करते हैं . भारत में जातिवाद का यह सबसे बडा आधार है और स्त्रियों के शोषण का भी . गौरतलब है कि जो समाज स्त्री के रजस्वला होने को ‘ दैवीय घट्ना’ मानता है , वही इस मासिक चक्र को उसकी पवित्रता से भी जोड देता है . पहले दूसरे प्रश्न के उत्तर में मैनें दैहिक शुचिता की संकल्पना के ऐतिहासिक आधार पर बात की. शुचिता और वर्जनायें स्त्रियों की गत्यातमकता पर प्रहार करती हैं , उसे एक देहरी में , लक्ष्मण रेखा के दायरे में बान्ध देती  है. यह लक्ष्मण रेखा सिर्फ दृश्य भर नहीं होती , अदृश्य रहकर मानस को भी नियंत्रित करती है , स्त्रियों के पूरे जीवन पर अदृश्य आंखों की निगरानी बैठा देती है . स्त्री की देह ही उसके अधिकार से निकल जाती है इसप्रकार .  इस निकलने के कारण सिर्फ उसका यह निर्णय ही नही प्रभावित होता कि वह किसके साथ सोये या किसके साथ नहीं सोये , बल्कि धीरे -धीरे उसका यह अधिकार भी छिन जाता है कि वह कब और कैसे तथा किस बच्चे को पैदा करे या नहीं करे. इसे परिवार और उसके बाद ज्यादा ‘ पवित्र ‘ से दिखते कारण के लिए राज्य तय करता है . उसका यह अधिकार भी छिन जाता है कि वह अपने दैहिक श्रम का उपयोग कब और कितना करे , कब उस की देह पवित्र  है और कब नहीं . मैं  यह समझता हूं कि बहुत सारी स्त्रियों के लिए यह प्राथमिक मुद्दा नहीं है कि वह सोये किसके साथ बल्कि उसके दैहिक श्रम पर उसका अधिकार और देह पर लाद दी गई अपवित्रता ज्यादा बडा मुद्दा है . परिभाषा और क्या हो सकती है !

यदि स्वयं के लिए वर्जनाओं का  निर्धारण  स्वयं स्त्री करे तो क्या हो ?

इसमे दो प्रसंग होंगे , चुकी पितृसत्ता ‘ सहमति’ हासिल कर दीर्घकालिक गुलामी तय करती है अतः एक कारण हो सकता है कि ‘अनुकूलित स्त्री’ ऐसे निर्णय ले , लेती भी है , यह उसकी गुलामी को और पुख्ता करती है . दूसरा कारण हो सकता है कि एक सचेत स्त्री अपने पूरे अधिकार से यह निर्णय़ ले ,यह अच्छा है, क्योंकि यह उसका निर्णय है , लेकिन वह किसी सूरत में ऐसा कोई निर्णय शुचिता के सन्दर्भ मे नहीं करेगी , वर्जना वह अपने लिए जीने के अपने तरीके के तौर पर तय कर सकती  है .
विवाह की व्यवस्था में स्त्री  की मनोवैज्ञानिक ,सामाजिक एवं आर्थिक   स्थितियां  कितनी  स्त्री  के पक्ष में  हैं ? 
अभी तो एकदम नहीं .

 मातृसत्तात्मक व्यवस्था में विवाह-संस्था क्या अधिक  सुदृढ़ और समर्थ होती. तब   समाज  भ्रूण हत्या दहेज़ हत्या एवं बलात्कार जैसे  अपराधों से कितना मुक्त होता ?

मातृसत्तातमक व्यवस्था जैसी कोई व्यव्स्था न हुई , न होगी और न यह स्त्रिवादियों का लक्ष्य है . मातृवंशात्मकता  हालंकि ऐतिहासिक हकीकत है , जो अभी भी देश के कुछ राज्य या समाज का सच है . स्त्रीवादियों का लक्ष्य है समानता आधारित समाज , व्यवस्था  , जहां लिंग , जाति , रंग और  वर्ग आधारित असमानतायें न हों . ऐसा हुआ तो स्त्रीविरोधी अपराधों से समाज निश्चित ही मुक्त होगा.

सह जीवन की अवधारणा  क्या स्त्री के पक्ष में दिखाई देती है?

बिल्कुल , दो वयस्कों का निर्णय है यह .

साथ होकर भी पुरुष एवं  स्त्री की स्वतंत्र परिधि क्या है?

जहां से दोनो का अपना अस्तित्व बनता है . वे साथ होते हुए भी दो इकाई है, अपने स्व का वृत्त होता है , उसकी परिधि होती है . इसी लिए वर्जीनिया वुल्फ  ‘ अपना कमरा ‘ चाहती हैं स्त्री के लिए

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