( प्रज्ञा पांडे के अतिथि सम्पादन में हिन्दी की पत्रिका ‘ निकट ‘ ने स्त्री -शुचितावाद और विवाह की व्यवस्था पर एक परिचर्चा आयोजित की है . निकट से साभार हम वह परिचर्चा क्रमशः प्रस्तुत कर रहे हैं , आज चर्चित आलोचक एवम रचनाकार अर्चना वर्मा के जवाब . इस परिचर्चा के अन्य विचार पढ़ने के लिए क्लिक करें : )
जो वैध व कानूनी है वह पुरुष का है : अरविंद जैन
वह हमेशा रहस्यमयी आख्यायित की गयी : प्रज्ञा पांडे
अमानवीय और क्रूर प्रथायें स्त्री को अशक्त और गुलाम बनाने की कवायद हैं : सुधा अरोडा
अपराधबोध और हीनभावना से रहित होना ही मेरी समझ में स्त्री की शुचिता है : राजेन्द्र राव
परिवार टूटे यह न स्त्री चाहती है न पुरुष : रवि बुले
बकौल सिमोन द बोउआर ‘स्त्री पैदा नहीं होती बनायी जाती है’ आपकी दृष्टि में स्त्री का आदिम स्वरुप क्या है?
आदिम स्वरूप से आपका मतलब अगर प्राकृतिक स्वरूप से है तो वह तो केवल स्त्री-देह का माँस-पिण्ड है यानी वह सद्यजात शरीर जिसमें स्त्रीसूचक जननांग है – स्त्रीलिंग। और यद्यपि उसे स्वयं नहीं पता लेकिन उसके आसपास का समाज उसको जन्म के साथ ही स्त्री नाम से चिह्नित कर देता है और उसके साथ वैसा ही व्यवहार करने लगता है जिसकी वजह से वह अपनी चेतना पर पड़ती छापों के संचय से स्वयं को संज्ञान की क्षमता आते ही स्त्री के रूप में पहचानने लगती है और ‘स्त्रियोचित’ व्यवहार करने लगती है। ‘स्त्रियोचित’ व्यवहार सामाजिक सांस्कृतिक संरचना है और यद्यपि प्रत्येक समाज में उसकी अवधारणा अलग अलग होती है लेकिन इस बात में हर जगह समान है कि पुरुष की तुलना में वंचित और अन्यायग्रस्त है।
लेकिन यहाँ मैं ज़रा ठहरकर ‘आदिम’ और ‘प्राकृतिक’ के बारे एक बात कहना चाहूँगी। सिमोन द बोउवा ने जो बात कही उसे कैसे समझा जाय? ‘स्त्री पैदा नहीं होती’ का कुल मतलब क्या सद्यजात शिशु का इस बात से अनभिज्ञ होना है कि वह स्त्री है? ‘वह बनाई जाती है’ का अर्थ क्या यह है कि न बनाये जाने का भी कोई विकल्प मौजूद है? जैसे ही बीज गर्भ में स्थापित होता है, बल्कि उसके भी पहले, जैसे ही कोई युगल इसमें प्रवृत्त होता है वैसे ही इस बात से कि उस युग्म के दोनो सदस्य कौन हैं; किस पृष्ठभूमि, किस कुल, किस परिवार के हैँ; यह तय होजाता है कि इस गर्भस्थ शिशु को पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, अनुवांशिक उत्तराधिकार के रूप में क्या मिलने वाला है। इन्सान का जन्म ही एक प्रदत्त परम्परा में, प्रदत्त उत्तराधिकार के साथ होता है और जन्म लेते ही उसका ‘बनाया जाना’ शुरू हो जाता है, बाद में वह चाहे तो विद्रोह कर सकता है लेकिन होश आने के पहले ही शायद वह इतना ‘बनाया जा चुकता’ है कि यह भी तय हो जाता है कि वह विद्रोह करना ‘चाहेगा’ या नहीं या अगर ‘चाहेगा’ भी तो उसके विद्रोह की दिशा क्या होगी। मेरा मतलब किसी किस्म के नियतिवाद से नहीं, मैँ केवल यह कहना चाहती हूँ कि ‘पैदा होना’ और ‘बनाया जाना’ असल में एक दूसरे से कोई खास अलग घटनाक्रम नहीं हैँ, सिवा इसके कि पैदा तो एक ही तरह से हुआ जाता है, लेकिन बनाया अलग अलग तरह से जाता है। न केवल स्त्री-पुरुष को एक दूसरे से बल्कि अलग अलग पारिवारिक सामाजिक सांस्कृतिक साँचों के अनुसार स्त्रियों को अन्य स्त्रियों से और पुरुषों को अन्य पुरुषों से भी अलग अलग। लेकिन ये साँचे भी कोई ऐसे ठोस और अनम्य नहीं कि उनमें ढल कर निकलने वाली हर प्रतिमा एक दूसरे की यथावत प्रतिकृति हो। कहने का मतलब यह है कि इंसान को जन्म के साथ जो बना बनाया बहुत कुछ मिलता है वह बड़ी हद तक निश्चित लेकिन एक हद तक अनिश्चि्त अतः लचीला हुआ करता है लेकिन वास्तव में मनुष्य का आदिम या प्राकृतिक रूप क्या है, कौन सा पशु? हम नहीं जानते। ‘जो बनाया गया है’ उसके विरुद्ध विद्रोह के क्षण में हम कहते तो है कि ” औरत पैदा नहीं होती, बनाई जाती है” लेकिन मतलब दरअसल कुल मिला कर यही निकल सकता है कि ऐसी नहीं, वैसी भी बनायी जा सकती थी। जैसे पैदा होते हैँ वैसे ही कैसे बने रह सकते है ? ‘किसी और तरह से बनने या बनाये जाने’ की बात ही कर सकते हैँ। यानी मनुष्य – आदिम मनुष्य भी – प्राकृतिक नहीं, सांस्कृतिक प्राणी है और प्रकृति को तोड़ने, मरोड़ने, बदलने की दिशा में विकसित हुआ है। वह दिशा कहीं कहीं किसी किसी संस्कृति में प्रकृति के अनुकूल (जैसे परम्परागत भारतीय संस्कृति में) लेकिन आधुनिक संसार में अधिकतर प्रकृति के प्रतिकूल दिशा ही है। स्त्री के आदिम स्वरूप के बारे में सोचना हो तो या तो वन्य गुफ़ा नारी की कल्पना की जा सकती है या फिर स्त्री-शरीर के अन्तःस्रावों या हार्मोन्स के कारण निर्मित होने वाले किसी बुनियादी स्त्री-स्वभाव की।
क्या दैहिक शुचिता की अवधारणा स्त्री के खिलाफ कोई साजिश है ?
साजि़श में ऐसा ध्वनित होता है जैसे कोई सोचा समझा और जान बूझकर रचा गया षड्यन्त्र हो। सामाजिक आचार-संहिताओं की जकड़न और उससे छूटने की छटपटाहट और विद्रोह के दौर में ‘साजिश’ और ‘अभिशाप’ लोकप्रिय और बहुप्रयुक्त शब्द हो उठते है। तब ‘सहज’ और प्राकृतिक के अन्तर को समझने और स्वीकार करने की संभावना नहीं रह जाती क्योंकि सदियों के अभ्यास की वजह से वह आचरण-संहिता भी सहज और प्राकृतिक प्रतीत होने लगती है जिसकी बुनियाद में अन्याय होता है। इसलिये स्त्रीदेह के संग जुड़ी कोख और मासिक धर्म की अनिवार्यता, उसके प्रति पुरुष का दुर्निवार और आक्रामक आकर्षण भी स्त्री के ख़िलाफ़ प्रकृति की साजिश और अभिशाप की भाषा में कहे-समझे जाने लगते हैँ। परिवार, विवाह, दाम्पत्त्य जैसी सामाजिक संस्थाएँ, उनकी मर्यादाएँ, उनकी जड़ताएँ संस्कृति के विकास की सदियों के दौरान उगती, पनपतीं, विकसित, प्रतिष्ठित और जड़ होती हैं। समय समय पर समाज के नियन्ताओं के परस्पर विचार-विमर्श, चिन्तन-अनुचिन्तन से आचरण-संहिताएँ निर्मित और नैतिकताएँ निर्धारित की जाती हैं, शायद उस समय की ज़रूरत को जिस तरह से नियन्ताओं ने समझा, उसके अनुसार।
दैहिक शुचिता भी ऐसी ही एक अवधारणा है जो आज हमारे समाज में अपने एकतरफ़ा, अतिवादी, अविचारी स्वरूप में स्त्री के ख़िलाफ़ एक असम्भव सी सामाजिक साज़िश का रूप ले चुकी है। मूलतः वह किसी न किसी रूप में सारी दुनिया के समाजों में लागू थी, लेकिन दो विश्वे-युद्धों की परिणति में यूरोप मेँ पच्चीस वर्षों के अन्तराल मेँ पूरी की पूरी युवा-पुरुष-पीढ़ियों का सफ़ाया हो जाने की वजह से और जीवन में सृजन-समारोह के अविलम्ब आरम्भ की ज़रूरत से वहाँ नैतिकता-बोध और आचरण-संहिताओं की संरचना बदली। आधुनिकता, औद्योगीकरण, भूमण्डलीकरण इस बदलाव के अगले अध्याय कहे जा सकते हैं। बदलाव कभी इकहरे नहीं हुआ करते। अपने साथ अनेकपरतीय और अनेकतरफ़ा बदलाव लाते हैं।
आदिम वन्य गिरोह-समाज में परिवार की धारणा क्यों और कैसे विकसित हुई? स्त्री-पुरुष को यह जानने समझने में सदियाँ लग गयी होंगी कि सन्तान के जन्म में पुरुष का भी कोई योगदान या भूमिका है। उसके पहले तक प्रजनन की यह रहस्यमयी क्षमता स्त्री को एक रहस्यमयी शक्ति से मण्डित अस्तित्व बनाती थी जिससे वह भयभीत रहा करता होगा। एंगेल्स के अनुसार ‘अपनी’ सन्तान की धारणा के साथ ‘अपनी औरस सन्तान’ की निर्भ्रान्त पहचान की जरूरत से अपना कुटुम्ब, अपनी सम्पत्ति, अपना उत्तराधिकारी इत्यादि की धारणाओं और मर्यादाओं का विकास स्वाभाविक रूप से लाजमी था। उत्तराधिकार के लिये औरस सन्तान निश्चिंत करने के लिये स्त्री की प्रजनन-क्षमता पर कब्जे की ज़रूरत से दैहिक शुचिता की धारणा का विकास हुआ। वह स्त्री की यौनिकता पर एकतरफ़ा कब्जा था, पुरुष उससे मुक्त था।
हमारी परम्परा मेँ महाभारत में प्राप्त एक उल्लेख के अनुसार बृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिषदों के एक प्रमुख ऋषि श्वेेतकेतु को विवाह की संस्था के सूत्रपात का श्रेय प्राप्त है। उन्होंने देखा था कि उनके पिता की उपस्थिति में एक कामग्रस्त ब्राह्मण ने उनकी माँ का हाथ पकड़ा और पिता (सम्भवतः प्रथानुसार) मौन दर्शक बने रहे। माता-पिता और तीसरे आदमी से सन्दर्भित इस घटना से श्वेतकेतु को जो भी महसूस हुआ हो,उन्होंने इस अनुभव से स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को गरिमा प्रदान करने की ज़रूरत को महसूस किया और स्त्री-पुरुष सम्बन्ध मर्यादाएँ निर्धारित कीं जो अन्ततः विवाह की संस्था के रूप में विकसित हुईं।
इस सन्दर्भ में संभवतः मनुष्य स्वभाव में निहित परस्पर अधिकार, ईर्ष्या और अनौचित्य की व्यंजनाएँ भी शामिल हैँ जिसकी वजह से भी सीमाओं का निर्धारण जरूरी हुआ होगा। तब का तो पता नहीं लेकिन अब तो जहाँ उत्तराधिकार के लिये सम्पत्ति नहीं होती वहाँ भी सन्तान की आकांक्षा और अधिकार भावना होती है। संभवतः महाभारत के पहले तक विवाह की मर्यादाएँ अनिर्धारित और पर्याप्त लचीली रही होंगीं। श्वेवतकेतु के निर्धारण में मर्यादाएँ दोतरफ़ा हैँ। विकासक्रम मेँ सारी मर्यादाएँ केवल स्त्री के लिये शेष रह गयीं और अन्ततः दाम्पत्य और मातृत्व उसके अस्तित्व का मूल्य निर्धारित करने लगा। इन दोनो स्थितियों को उनके सांस्कृतिक महिमामण्डन और भावुक विगलन से अलग कर दिया जाय तो स्त्री के पास जो अस्तित्व बच रहता वह देह पर कब्जा और प्रजनन-यंत्र का है। अतीत की जिस समाज व्यवस्था में आर्थिक उत्पादन का संसाधन मनुष्य था, उसमें स्त्री की प्रजनन-शक्ति संसाधन के उत्पादन-यंत्र का पर्याय थी और स्त्री स्वयं भी पशु सम्पत्ति के समकक्ष सम्पत्ति में बदल गयी थी। पशु और स्त्री बराबर से लूट का माल होते थे।
मातृसत्तात्मक आदिम समाज के केवल कुछ चिह्न बाकी हैं जिन्हें हम स्मृतिसूचक मानकर इतिहास की निशानदेही की कोशिश करते हैँ अन्यथा वस्तुतः वे मिथक और कल्पना की सत्ता के अधिक निकट हैँ। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में ऐसे बहुत से मिथक और वृत्तान्त हैं जो आज भी जीवित परम्परा की तरह हमारे साथ शेष और जीवन के समारोह का अंग हैं।
समाज के सन्दर्भ में शुचितावाद और वर्जनाओं को किस तरह परिभाषित किया जाए।
बात लम्बी होती जा रही है लेकिन पूरी अभी हुई नहीं है इसलिये ऊपर वाली बात के उत्तर को मैँ आपके इस प्रश्ना में भी जारी रखने की इजाज़त चाहूँगी। स्त्री-विमर्श का मूल वैचारिक आधार तो इसी पहचान से शुरू हुआ है कि अन्याय और उत्पीड़न स्त्री के प्रति सामाजिक व्यवहार की मुख्यधारा है। पितृसत्तात्मक समाज के सूत्रपात के प्रथम क्षण से अब तक का लम्बा इतिहास है, कोई नहीं जानता कितना लम्बा, शायद पूरा का पूरा दर्ज इतिहास, और बहुत सारे मोड़ों से गुजर कर यहाँ तक आया है, बदलाव की भी एक लम्बी यात्रा पूरी की है लेकिन सामाजिक ऐतिहासिक बदलावों के बावजूद ऐसा होता है कि हमारा सामूहिक अवचेतन हमारे पुराने भावात्मक व्यवहारों, मूल्यों, सामूहिक नैतिक निर्णयों के स्मृति-संचय को संस्कारों मे बदल कर वर्तमान तक साथ लिये चला आता है। संस्कृति के निर्माण में संस्कार ही सामग्री है क्योंकि संस्कार उन स्मृतियों का नाम है जो अवचेतन का हिस्सा बन चुकती हैं और अधिकार और कभी कभी तो पुनीत कर्तव्य जैसा भी कुछ मान रखा है क्योंकि उसमें स्त्री को उसकी जगह दिखाने, अनुशासन सिखाने, काबू में रखने, ‘मर्यादा’ का उल्लंघन न करने का पाठ पढ़ाने जैसा कोई भाव निहित और ध्वनित रहता है। शारीरिक ताड़ना, बलात्कार, तेजाबी हमले हत्या और आत्महत्या की ओर धकेलना जैसी हिंसाएँ इस पाठ के विविध अध्याय हैं। हमलावर को सदियों तक स्त्री की शर्म और चुप्पी पर भरोसा रहा है। इसलिये स्त्री के पक्ष में एक के बाद एक कानून बनाते जाने के बावजूद स्थिति बहुत सुधरी नहीं है। कानून का साथ और सहारा लेने के लिये भी चुप्पी तोड़ना ज़रूरी है। और अब वह चुप्पी टूट रही है, तोड़ी जा रही है, वह शर्म छोड़ी जा रही है, तोड़ने और छोड़ने के लिये वातावरण में प्रोत्साहन है। कानूनों की कार्यान्वित का हौसला है। शायद इसीके समतोल की तरह हिंसा और भी अधिक हिंसक, हमला और भी अधिक आक्रामक होता जा रहा है। समाज की इन प्रवृत्तियों और व्यवहारों को देखते हुए शुचितावाद और वर्जनाओं की परिभाषा केवल अन्याय और उत्पीड़न की तरह की जा सकती है लेकिन ये ही संस्कार भी हैं, मर्यादाएँ भी और नैतिक मूल्य भी और नैतिकता और सच्चरित्रता तो हमारे समाज के लिये जैसे कुल मिला कर स्त्री के शरीर मेँ ही बसती हैं। हमारे अनजाने भी/ही हमको नियंत्रित करती हैँ। स्त्री से जुड़ी सामाजिक मान्यताओं के बारे यह खास तौर से सच है। इसकी वजह पर ठीक ठीक उँगली रखना आसान नहीं। अनुमानतः शायद यही सच हो कि पुरुष की जिन आदिमवृत्तियों ने उसके अवचेतन में सबसे गहरी जड़ें जमा रखी हैँ – काम, संग्रह, वर्चस्व की मूलप्रवृत्तियाँ – वे सब की सब स्त्री के मामले में एकसाथ एकजुट सक्रिय होती हैँ और बहुत पुष्ट और सबल विवेक के अभाव में हावी हो बैठती हैं। युग बदल जाय, समाज बदल जाय, स्थितियाँ बदल जाय, यहाँ तक कि स्वयं संस्कृति भी कई सारी परत नीचे तक की गहराइयों में बदल जाय, सबसे निचली और गहरी परत में स्त्री के विषय में वही मान्यताएँ, वही कसौटियाँ जस की तस बनी रहती हैं।
शुचितावाद और देह से जुड़ी वर्जनाएँ हमारे समाज की ऐसी ही संस्कारजन्य मर्यादाएँ हैं लेकिन आज के समय में सिर्फ़ स्त्री के लिये। और उसकी रक्षा और पालन की जिम्मेदारी भी अकेले दम उसकी ही रहती आई है जबकि पितृसत्ता में अक्सर पुरुष-समाज ने उस पर हमले और उसके ध्वंस को अपना अधिकार और कभी कभी तो पुनीत कर्तव्य जैसा भी कुछ मान रखा है लेकिन इसके बावजूद स्त्री-समुदाय के लिये भी उनसे मुक्त होना बहुत आसान नहीं; क्योंकि उसका अपना मानस और आत्मबोध भी उन्हीं तन्तुओं से रचित है; हालाँकि पुरुष के मुकाबले, कम से कम कुछ अंशों में तो जरूर, अधिक आसान है क्योंकि उसके पास अपने साथ अन्याय और उत्पीड़न के लिये पितृसत्ता के विरुद्ध एक न्यायोचित मुकद्मा है। न्याय के पक्ष में खड़े होना, अन्याय सहने से इंकार करना, उत्पीड़न के लिये रोष, लड़ने का साहस और एकजुट आन्दोलन और मोर्चा – ये ऊर्जा का अक्षय स्रोत हैं। फिर स्त्री के पास तो केवल अपनी ही नहीं, सदियों की पीड़ा का उत्तराधिकार भी है। अतीत सदियों का फ़ैसला भी वर्तमान के मैदान में होने लगे तो वह ऊर्जा भी सैकड़ों गुना हो जाती है। तब वह केवल परिस्थितियों से नहीं, संस्कारों से लड़ाई भी बन जाती है।
शुचितावाद और वर्जनाओं का सामाजिक सन्दर्भ यही है कि बड़े पैमाने पर समाज के आग्रह जहाँ के तहाँ, जस के तस मौजूद हैं; स्त्री-पुरुष दोनो के लिये; और उनको एक अनुकरणीय आदर्श का दर्जा देकर रखा गया है लेकिन यह आदर्श स्त्री के लिये कुछ ‘अधिक’ आदर्श है। और दूसरी तरफ़ देह और काम भावना को लेकर उतने ही बड़े पैमाने पर कुण्ठाएँ, ग्रंथियाँ, असहजता और उनसे उत्पन्न झूठ, फरेब, बेइमानी, दोहरापन, व्यक्तित्व का विभाजन, यौन अपराध और हिंसा का अस्तित्व है। दोनो में एक भीतरी कार्य-कारण सम्बन्ध है। इस असम्भव आदर्श का उल्लंघन दोनो से होता हैँ, लेकिन अब तक दण्डनीय केवल स्त्री ही रहती आई है।
लेकिन ये सिर्फ अपने नहीं, पूरे समाज के, पितृसत्तात्मक समाज के संस्कार हैँ जिन्हें जड़ जमाये हुए सदियाँ बीत चुकी हैँ। जो इस अन्याय के विरुद्ध आत्मसजग या आत्मचेत होते हैँ वे भी प्रायः एक स्तर पर विभाजित व्यक्तित्व का शिकार हो जाते हैं। इस विभक्ति को पाटने में पीढ़ियाँ लग जाती हैं। हमारे समाज में विकास और परिवर्तन इतनी सीढ़ियों और इतनी पीढ़ियों से गुजरते हुए सम्पन्न हो रहा है कि मानो एक साथ कई सदियाँ गुजर रही हैँ।
संस्कार के विरुद्ध विद्रोह करते हुए भी एक असमंजस बना रहता है, कहाँ तक ? कितनी दूर तक? कई बार प्रतिक्रिया में या तो सोची समझी तर्कपरायण उग्रता का अतिशय दिखाई देता है या फिर बिना सोचे समझे छलांग या फिर एक हिचकिचाहट, अनिश्चयय, अनिर्णय या ढुलमुल-यकीनी। अक्सर और ज़्यादातर तो कहानियों, कविताओं, आलेखों, भाषणों में गोला-बारूद उगलने वाली महिलाएँ भी सचमुच की ज़िन्दग़ी में ज़मीनी स्तर पर बड़े बड़े समझौते करती नज़र आती हैं। सचमुच का विद्रोह तात्कालिक घटनाओं और परिस्थितियों की असहनीयता में से निकलता है और हमारे समाज में स्त्री के साथ ऐसा सलूक जिसमें से विद्रोह स्वयं फूट निकलता हो, नियम है अपवाद नहीं।
यदि स्वयं के लिए वर्जनाओं का निर्धारण स्वयं स्त्री करे तो क्या हो ?
तमाशा यह है कि बलात्कार अगर पकड़ा जाय तो उसे स्त्री की सहमति से सम्पन्न साबित करने की कोशिश की जाती है लेकिन जो होता है वह अगर सचमुच स्त्री की सहमति से हुआ हो तो स्त्री द्वारा मर्यादा के उल्लंघन और शुचिता के विसर्जन का मामला बना दिया जाता है। स्त्री की स्वेच्छा और सहमति बलात्कार से भी ज़्यादा संगीन और बड़ा अपराध है।
स्त्री स्वयं के लिये वर्जनाओं का निर्धारण करे, इसमें एक ओर यह ध्वनित होता है कि सामाजिक मान्यता प्राप्त वर्जनाओं को वह स्वेच्छा से स्वीकार कर ले और उन्हें स्वयं-निर्धारित मान ले लेकिन दूसरी ओर, अधिक औचित्यपूर्वक, इसमें यह भी निहित है कि उसके स्वयं-निर्धारण में इस तरह की मान्यता-प्राप्त कुछ वर्जनाओं का निषेध भी होगा। ऊपर वाले प्रश्न में आपने शुचितावाद और वर्जनाओं को एक साथ ब्रैकेट किया है लेकिन वर्जनाओं का दायरा दैहिक शुचिता तक सीमित नहीं है, वह बहुत बड़ा है। उसमें खिलखिला कर हँसने से लेकर, सर उठाकर, गर्दन तान कर चलने, छोटे छोटे भी अपने निर्णय खुद लेने तक लगभग पूरी जीवनचर्या शामिल है। ज़्यादा बड़ा हंगामा प्रायः कपड़ों की नाप और शरीर के खुलेपन को लेकर मचता रहता है जिसे बलात्कार तक को जायज़ ठहराने का बायस बना लिया जाता है। अगर हमारी दुनिया केवल स्त्री आबादी के बसने के लिये उपलब्ध एक द्वीप हो तो, या फिर हमारी स्त्री अगर ‘वीरविहीन मही मैं जानी’ की तर्ज पर इतनी आत्मसम्पन्न, स्वयंपर्याप्त और स्वायत्त हो कि संस्कार के नाम रूढ़ि का प्रश्नहहीन पोषण करने वाले शेष ग्रन्थिबद्ध, कुण्ठाग्रस्त समाज को ठेंगे पर रखते हुए अपनी स्वच्छन्दता को चरितार्थ कर ले और उसके कोई आनुषंगिक नकारात्मक परिणाम न होते हों तो मैं शत प्रतिशत स्वच्छन्दता के पक्ष में हूँ। ( और स्त्री के सिलसिले मेँ वीर, महावीर – मेरा मतलब हनुमान से नहीं, वर्धमान से भी नही – तो हमारे सभी नरपुंगव ठहराये जा सकते हैँ) लेकिन उसका मतलब चाह कर भी मेरे लिये यह नहीं हो सकता, और असल में तो ऐसी चाहना भी मेरे लिये संभव नहीं कि मेरी ज़िन्दग़ी केवल मेरी ज़िन्दग़ी है और आनुषंगिक नकारात्मक वगैरह अगर किसी को कुछ होता है तो वह उसकी समस्या है, वह जाने! चाह कर भी ऐसा चाहा नहीं जा सकता। अपने निर्णयों का जिम्मेदार तो हमें होना ही होता है। मेरे निकट स्त्री होने का एक अर्थ यह भी है।
नयी पीढ़ी में उन लड़कियों/स्त्रियों की गिनती बढ़ रही है और उन्हें देख कर बेहद सुख, सन्तोष औरखुशी होती है जो आर्थिक रूप से इतनी पर्याप्त आत्म-निर्भर और संस्कारों की जकड़न से इतनी मुक्त हैँ कि एक स्वच्छन्द स्वायत्त जीवन जी सकें। उस धरातल पर अपने अस्तित्व के तरल प्रवाह की अनुभूति क्या होती है, उसे केवल वही जानता है जिसने उसको जीकर देखा है, वह जीकर देखना शायद किसी विचित्र भाव-रसायन के योग से सर्जनात्मक क्षमता से सम्पन्न लोगों के लिये ठोस माँसल धरातल पर बिना जिये भी सम्भव होता है कभी कभी। आपके प्रश्नष ‘अगर वर्जनाओं का निर्धारण स्वयं स्त्री करे तो क्या हो’ में ‘क्या हो’ का एक उत्तर इस तलाश की दिशा में जाता है कि उस निर्धारण के सामाजिक प्रभाव-परिणाम क्या होंगे और दूसरा उत्तर इस तलाश की दिशा में कि उन वर्जनाओं का स्वरूप क्या होगा। हमारे अनुमान कुल मिलाकर अकादमिक व्यायाम ही समझिये क्योंकि जमीनी स्तर पर जो कुछ होता है वह अकसर हमारे सारे अनुमानों के परे और कल्पनाओं को झुठलाता हुआ निकलता है। सामाजिक स्तर पर बात इस पर निर्भर है कि आत्मनिर्णय करने वाली स्त्री जिस समाज का हिस्सा है उसकी स्थापित और मान्य वर्जनाओं से वह स्वयं-निर्धारण में कितनी दूर जा रही है। फ़ासला जितना बड़ा उतनी ही खतरनाक परिणति। गाली-गलौज के वाचिक व्यवहार से लेकर बलात्कार और हत्या तक का शारीरिक सलूक भी।और तमाशा यह कि पूरी तरह से वर्जनाओं के दायरे मेँ रहने वाली स्त्री के साथ यह सलूक नहीं होगा , इस बात की कोई गारण्टी नहीं। जैसा कि मैँ बार बार कहती हूँ, वह तो स्त्री होने और पुरुष की पकड़ और पहुँच के भीतर होने मात्र से संभावित है। वर्जनाओं के स्वरूप की जहाँ तक बात है, स्वयं-निर्धारण का मतलब पूरी तरह से एक निजी और व्यक्तिगत चुनाव है। इसके अलावा किसी स्थिति के आमने सामने आ पहुँचने के पहले से ही वर्जनाएँ और निषेध तय करके नहीं रखे जा सकते। जब चौतरफ़ा दबाव के दमघोट में जीना ही ज़िन्दग़ी का पर्याय हो तो आप शायद खुद नहीं जानेंगे कि कब किस वर्जना को आपका आवेग बेसँभाल होकर चुनौती दे बैठेगा, वह आपकी खुद चुनी हुई हो, तो भी। इसलिये इसके बारे में कोई सामान्य सर्व-जन-स्वीकार्य जैसा सिद्धवाक्य मैँ नहीं कहना चाहती। अपने चुनाव का तरीका ही शेयर कर सकती हूँ, बस। निर्णय और निषेध तरह तरह के हो सकते हैं। जब स्त्री के प्रति प्रवृत्ति और व्यवहार के सिलसिले में पूरा का पूरा सामाजिक ढाँचा और सांस्कृतिक साँचा ही बदलने की ज़रूरत हो तो जाहिर है कि यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी नये मूल्यों और विचारों के हस्तान्तरण की एक लम्बी और धैर्यसाध्य प्रक्रिया होने वाली है और आपको अपनी प्राथमिकताओं के चुनाव की ज़रूरत है। एक तो कपड़ों की नाप और फ़ैशन की काट जैसे दैनिकचर्या के सीधे और आसान किस्म के फ़ैसले होते हैं जो अपनी ज़िद से कठिन बनाये जा सकते हैं। किसी ने अगर इसीको अपनी आज़ादी/ सुविधा/स्वच्छन्दता की नाप बना रखा है तो उसकी खुशी; और जाहिर है कि अगर उसके तात्कालिक सामाजिक सन्दर्भ में किसी को उस पहनावे से दिक्कत नहीं है तो मामला यहीं खत्म होता है। इसके उलट हालात मेँ पहनावे को लेकर अशोभनीय किस्म की टीका-टिप्पणी और अभद्र किस्म की फ़िकरेबाज़ी जैसी अश्लीालताओं के मद्दे-नज़र अगर मैं चाहूँ तो इसे अपने शरीर के भीतर सहज भाव से निवास करने और उसे आत्माभिव्यक्ति का माध्यम बनाने के अधिकार को लेकर पूरा दर्शन शास्त्र रच डालने लायक तर्कजाल बुन सकती हूँ। लेकिन अगर सचमुच घूरती हुई और फिकरे कसती हुई और शायद नोच-खसोट जैसे ऐडवेन्चर भी आजमाती हुई तमाशबीनों की टोली के सामने मेरी सहजता और स्वच्छन्दता इस आजादी के आचरण से खण्डित होती है, अगर अपनी नयी काट की पोशाक में अपने सहज शारीरिक अस्तित्व में विचरण करते हुए मैं निर्बन्ध और स्वच्छन्द महसूस करते हुए आगे बढ़ जाने में खुद को असमर्थ महसूस करती हूँ तो व्यक्तिगत रूप से इस को मैँ अपनी आज़ादी के ‘ट्रिवियलाइज़ेशन’ का, अपनी ऊर्जा के अपव्यय का मामला महसूस करते हुए अपनी वर्जना का चुनाव करूँगी। ठहरे पानी में कंकड़ी फेंकने से भी लहरें उठती हैं। अब या तो लहरों से लड़ते रहो, उन्हें उठने से रोकने मेँ अपनी ऊर्जा खपाते रहो या फिर लहरों को वहीं उठता छोड़ कर आगे बढ़ जाओ। और औरत के साथ सलूक के ऐसे संगीन किस्म के हालात में जब ठहरे हुए जल में फेंकने के लिये बड़ी बड़ी चट्टानें और भारी भरकम पत्थर मौजूद हैँ तो कंकरी फेंक कर लहरों से लड़ने की तुक मेरी समझ में नहीं आती। लेकिन यह मेरा बिल्कुल व्यक्तिगत चुनाव है, किसी की आज़ादी की परिभाषा में हस्तक्षेप नहीं।
विवाह की व्यवस्था में स्त्री की मनोवैज्ञानिक ,सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियां कितनी स्त्री के पक्ष में हैं ?
वैसे तो इन स्थितियों की सूची में ‘शारीरिक’ भी जोड़ कर और सारी स्थितियों को शत-प्रतिशत स्त्री के विपक्ष में बता कर एक वाक्य में बात ख़त्म की जा सकती है। वह सामान्यतः दर-अस्ल हैं भी ऐसा ही लेकिन आपके इस प्रश्न के उत्तर में मेरा संवाद उस स्त्री से है जिसे अपने विवाह को बचा रखने की इच्छा या मज़बूरी है।
विवाह सामाजिक संस्था होने के नाते एक व्यवस्था है तो सही लेकिन आज वह उस अर्थ में व्यावहारिक स्तर पर प्रायः बाकी नहीं कि उसके पास कोई बने बनाये पारिवारिक कायदे-कानून और सामाजिक संविधान है जिन्हें अब तक बड़े पैमाने पर कुल की रीत और परिवार की मर्यादा और खानदान की इज्जत के नाम से जाना जाता था।
दाम्पत्त्य का अर्थ मूलतः स्त्री-पुरुष के एक युगल के युग्मक-सम्बन्ध की सामाजिक मान्यता-प्राप्ति है। वह सृष्टि के ताने-बाने की लघुतम इकाई है। उसके इर्द-गिर्द परिवार है, सम्बन्धी-कुटुम्बी हैँ, नाते रिश्तों का ताना-बाना है, भूमिकाएँ हैं, पदानुक्रम हैं। आज के दौर में समाज के कई हिस्सों में यह शुरुआत या कम से कम इसकी चेतना की सुगबुग होती नज़र आ रही है कि इनमे से कुछ भी सदा सर्वदा के लिये जड़ रूप से निश्चिेत और निर्धारित नहीं है। अपनी व्यावहारिक कार्यान्विति और दैनन्दिन परिणति मेँ वह नयी-नयी परिस्थितियों में रोज़-रोज़ की छोटी-छोटी समस्याओं, रोज़-रोज़ के समाधानों के द्वारा रोज़ रोज़ निर्धारित और परिभाषित होने वाली व्यवस्था है, या कम से कम ऐसी बनायी जा सकती है।
इस व्यवस्था को स्त्री के पक्ष में लाने मेँ कुछ हद तक आर्थिक स्तर पर स्त्री की आत्मनिर्भरता मददगार होती है लेकिन कुछ हद तक ही। अपवादों को छोड़ दें। अकसर तो उसकी वह आत्मनिर्भरता वास्तव में परिवार की आर्थिक ज़रूरतों के लिये एक पूरक योगदान होती है, इतनी स्वयंपर्याप्त नहीं कि स्त्री को आत्मनिर्भर बना सके। फिर उसके संस्कार जो आत्मनिर्भर होने के इतना विरुद्ध हैँ कि प्रायः वह इसके बावजूद निर्भर तथा स्वयं-अपर्याप्त होने का अभिनय करती पाई जाती है।
दूसरी तरफ़ पुरुष का दुर्बल और कातर अहं जो अपनी कातरता को उद्धत और प्रचण्ड होकर छिपाता है। पितृसत्ता के हाथो केवल स्त्री का ही सत्यानास नहीं किया धरा जाता, पुरुष को भी पौरुष का जो आत्म-बिम्ब थमाया और मरदानगी का खोल पहनाया गया है वह उसके अस्तित्व की नाप से छोटा तो है ही, इतना सख्त भी है कि उसके उगने, बढ़ने और फैलने लायक लचीला नहीं बन पाता। पालक और रक्षक की भूमिका इस तरह उसके आत्मबिम्ब को निर्धारित करती है कि ज़्यादातर उदाहरणों में स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता उसके स्वत्व को हालाडोला की हालत मेँ डाल देता है। हो सकता है कि कही कहीं स्त्री का व्यवहार भी इसका जिम्मेदार होता हो, पर जहाँ ऐसा नहीं होता, वहाँ भी स्त्री को उसकी औकात और हैसियत जताने के लिये उसके भीतर का पशु बल-प्रयोग को उतारू हो उठता है। स्त्री को भीत और चुप करके वह खुद को जीत गया समझता है। फिर भी सम्बन्ध अगर चलता है तो मनोवैज्ञानिक और सामाजिक स्थितियाँ इसके अलावा हैँ।
स्त्री की आर्थिक निर्भरता उसके अस्तित्व को पुरुष की मिल्कियत की तरह परिभाषित करती है और पुरुष इसे बोझ में बदल कर स्त्री को भयभीत और अहसानमन्द बनाये रखना चाहता है। घर की, सम्बन्धों की जिम्मेदारियों का, देखभाल और सार-सँभाल के स्त्री-श्रम का कोई आर्थिक मूल्य नहीं कूता जाता। लेकिन संभावना है कि सम्बन्ध के दायरे के भीतर स्त्री का आर्थिक अर्जन उसके लिये सम्मान के अर्जन का कारण भी बने या फिर उसे सम्बन्ध के बाहर आ जाने का साहस दे। बहुत बार सम्बन्ध में ऐसी बेमरम्मत किस्म की टूट-फूट बाहर आ जाने के सिवा दूसरा कोई विकल्प बाकी नहीं छोड़ती। सामाजिक, मनोवैज्ञानिक दबावों के भरोसे सम्बन्ध को ढोते जाने की ज़रूरत स्त्री के लिये अब वैसी विकल्पहीन मज़बूरी नहीं रह गयी है। बहुत अंशों में पुरुष भी अब पहले की अपेक्षा अधिक संवेदनशील बनता हुआ दिखाई दे रहा है। लेकिन कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मौजूदा हालात में विवाह नामकी संस्था से स्त्री का मोहभंग उत्तरोत्तर बढ़ रहा है, अविवाहित जीवन का चुनाव करने वाले लोगों में स्त्रियों की संख्या बढ़ रही है। आर्थिक आत्मनिर्भरता, दैहिक शुचिता के पूर्वग्रह से मुक्ति, दाम्पत्त्य और परिवार के दायरे के बाहर भावात्मक सम्बल खोज पाने की मानसिक स्वतंत्रता, आत्म-विकासऔर आत्माभिव्यक्ति के लिये जगह इसका बड़ा कारण है। विवाह अब उसके लिये एकमात्र भविष्य अथवा अन्तिम गन्तव्य नहीं लेकिन फिर भी, अब भी विवाह और सन्तान और सन्तान का भविष्य बड़े पैमाने पर अपनाया जाने वाला विकल्प है और दम्पत्ति के सामने संभावना है की बनी बनाई भूमिकाओं और उनके मिथकों से निर्मित-निर्धारित कसौटियों से हट कर युगल अपनी भावात्मक, पारिवारिक, सामाजिक ज़रूरतों के हिसाब से अपने विवाह को परिभाषित और सम्बन्ध को निर्धारित करें। उसके लिये जिस धैर्य और प्रतीक्षा की दरकार है वह टोटे में है और उसी अनुपात मेँ हमारे जैसे समाज में स्त्री के प्रति असहिष्णुता और हिंसा में वृद्धि भी दिखायी देती है। समस्या को देखने समझने और सुलझाने की बजाय अनदेखा करने, दबा देने और कुचल देने का आग्रह अधिक है, बिना यह समझे कि स्त्री को कोसने गरियाने से अगर कुछ होगा तो कुल इतना कि स्थितियाँ और भी तेजी से उस विस्फोट के निकट जायेंगी जिसकी रोक थाम की कोशिश मेँ दमन की यह नीतिया अपनाई जा रही हैँ।
मातृसत्तात्मक व्यवस्था में विवाह-संस्था क्या अधिक सुदृढ़ और समर्थ होती। तब समाज
भ्रूण हत्या दहेज़ हत्या एवं बलात्कार जैसे अपराधों से कितना मुक्त होता ?
– यह पूरी तरह से एक अनुमानजनक प्रश्न है। इसका कोई प्रमाणपुष्ट या सन्दर्भसहित उत्तर नहीं दिया जा सकता। कल्पना को तर्कसम्मत बनाने की सिर्फ कोशिश की जा सकती है। सो वही करती हूँ। वजह चाहे जो रही हो, सामाजिक व्यवस्था के रूप में मातृसत्ता संसार में बाकी नहीं रही। कोई तो वजह रही होगी, शायद बहुत सारी वजहें रही हों। शायद अलग अलग समाजों में अलग अलग वजहें रही हों।
बहरहाल, नतीजा सबका वही एक। कि नियामक व्यवस्था के तौर पर मातृसत्ता कहीं नहीं। हालाँकि पुनः सर्वथा असंभावित भी नहीं, तर्कसम्मत ढंग से कहूँ तो वर्चस्व में उतार-चढ़ाव, स्थानान्तरण, स्थिति-परिवर्तन के अपने नियम-अपवाद हुआ करते हैँ और वे शाश्वसत या सनातन नहीं होते इसलिये । स्त्री की बढ़ती हुई क्षमताओं, विकसित होते हुए व्यक्तित्व, क्षरित होती हुई बाधाओं और व्यवधानों, सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था मेँ स्त्री के लिये बढ़ती हुई जगह, उत्पादन व्यवस्था में वन-मैन-इण्डस्ट्री और होम-ग्रोन-इण्डस्ट्री के बढ़ते हुए विकल्पों को देखते हुए इस संभावना को प्रमाण-पुष्ट संभाव्यता भी माना जा सकता है हालाँकि अब तक मातृसत्ता के जिस रूप से हम थोड़ा बहुत परिचित हैं, जैसे केरल का नायर समाज, उसके बारे में भी तथ्य यही है कि वह मातृकुल के नाम से वंशानुक्रम और उत्तराधिकार का पर्याय है लेकिन स्त्री के वास्तविक वर्चस्व का नहीं।
वैसे मातृसत्ता से उम्मीद यह की जाती है कि वह वर्चस्व और पदानुक्रम की धारणाओं और बन्धनों से मुक्त होगी। क्यों की जाती है, इसका अनुमानजन्य आधार किन्हीं सारभूत स्त्री-गुणों से मण्डित सारभूत स्त्री-स्वभाव है लेकिन इस अनुमान में शक्ति और वर्चस्व के परिणामस्वरूप आने वाले संभावित परिवर्तनों को नहीं जोड़ा गया है। यानी कल्पना यह है कि मातृसत्ता अपने मातृ-तत्त्व के कारण माँ के स्वाभाविक वात्सल्य, कृपा और करुणा से लैस व्यवस्था होगी लेकिन इस दिशा मेँ कल्पना को बढ़ाया नहीं गया है कि अपने सत्ता-तत्त्व के कारण उसमे ताकत का अहसास क्या जोड़ेगा या घटायेगा।
जहाँ तक सवाल है मातृसत्ता के समाज में भ्रूण-हत्या, दहेज-हत्या, बलात्कार से मुक्त होने की, अनुमान ही लगाना है और कल्पना ही करनी है तो यही क्यों न की जाय कि हाँ, वह इनसे पूरी तरह से मुक्त समाज होगा।कल्पना में ही खुशी का अनुमान कर लिया जाय।
या फिर पिछले पाँच सात हजार साल के इतिहास को देखते हुए अगले पाँच सात हजार साल के भविष्य की कल्पना मातृसत्तात्मक व्यवस्था के समाज रूप में करते हुए यही क्यों न मान लिया जाय कि जैसे परिस्थितियों के प्रतिबन्ध या ‘कण्डिशनिंग’ के चलते स्त्री ने अपनी वन्य गुफा़-नारी की शिकारी-ऊर्जा, आक्रामकता और शारीरिक बल, खो दिया, कोमल-कमनीय-दुर्बल हो गयी वैसे ही पुरुष भी अगले पाँच सात हजार साल में … लेकिन यह कल्पना मुझसे करते नहीं बनती, मैँ करना नहीं चाहती, कर नहीं सकती कि तब भ्रूण-हत्या, दहेज-हत्या और बलात्कार का शिकार पुरुष हो रहे होंगे। स्त्री के प्रति अन्याय का प्रतिकार जरूरी है लेकिन सदियों का अन्याय जिसने सहा है उसके बारे में कल्पना में भी मैँ सोचना यही चाहती हूँ कि प्रतिशोध के उन्माद से नहीं, परदुखकातरता की इतनी क्षमता से लैस ज़रूर होगी कि उसी अन्याय का विस्तार पुरुष तक न करे।
ऐतिहासिक उत्तराधिकार, खास तौर से पीड़ा और अन्याय के उत्तराधिकार के साथ दिक्कत यही है कि उसके प्रतिकार का उपाय करते समय हम उसके साथ इस तरह तादात्म्य करते हैँ कि याद नहीं रहता कि उस इतिहास में निजी हैसियत से हम मौजूद नहीं थे और प्रतिकार में प्रतिशोध-परायण हो उठते हैँ।
इस सवाल का हल कठिन है कि विवाह की संस्था उस समाज में अधिक सुदृढ़ और समर्थ होती अथवा नहीं। इस प्रश्ना में यह मान्यता निहित है कि उस समाज में भी स्त्री के लिये वही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता जो आज पितृसत्ता के समाज में है – पति, परिवार, सन्तान। और उसमें मातृसत्ता से अन्तर सिर्फ़ इतना हुआ होता कि वह उसे अपने वर्चस्व से सुलभ और सुकर बना लेती।
सह-जीवन की अवधारणा क्या स्त्री के पक्ष में दिखाई देती है ?
उत्तर – हमारे सामाजिक जीवन का यह एक नया और बड़ा – कहना चाहिये क्रान्तिकारी – मोड़ है। कुछ दिन पहले तक विरल था, अब उतना विरल नहीं, बल्कि खासी तेजी से बढ़ रहा है।
स्त्री के पक्ष में है या नहीं? समझना होगा कि इस सिलसिले में स्त्री का अपना पक्ष क्या है?
मुझे अभी तक ठीक ठीक समझ में नहीं आया है कि सह-जीवन मेँ प्रवेश करने वाली स्त्री अपने सम्बन्ध और अपने भविष्य के बारे में किस इच्छा या कल्पना या अनुमान के साथ इसमें घुसती है? अलग अलग लोगों की अलग अलग समझ लेकिन इतना निश्चित है कि वह दाम्पत्त्य का या विवाह का स्थानापन्न नहीं है, न हो सकता है। उसका आविष्कार ही विवाह से भिन्न किसी जरूरत या मानसिकता या जीवन-दर्शन या स्वभाव के कारण हुआ है। जब पिछले किसी प्रश्ने के उत्तर में को ही पुनःपरिभाषित करने की बात कही है तो जाहिर है कि मेरी समझ से सह-जीवन तो ऐसा खुला समीकरण है जो शायद अवधारणा में बाँधा भी नहीं जा सकता। साथ साथ जीने में क्या क्या बाँटा जाना है यह भी शायद पूरी तरह से भागीदारों पर ही निर्भर करता है।
सिर्फ़ महँगे आवास में किराया और जगह बाँटने की सुविधा से शुरू होकर घर चलाने की जिम्मेदारियाँ, खर्चे, और अन्ततः शायद उपस्थिति और निकटता के कारण विकसित हो जाने वाला भावात्मक और शारीरिक सम्बन्ध, या फिर पहले भावात्मक और शारीरिक सम्बन्ध स्थापित हो जाने के बाद आवास और जिम्मेदारियाँ और खर्चे बाँटने का निर्णय – किसी भी दिशा से उसमें प्रवेश करने वाली स्त्री को इस विषय में स्पष्ट होना चाहिये कि उसके लिये इसका अर्थ क्या है।
वह क्या इसको विवाह का स्थानापन्न मान कर चल रही है? या इस उम्मीद से इस गली में घुस रही है कि वह अन्ततः उसे विवाह तक पहुँचा देगी? या उसको एक साथ-सहारे-सम्प्रेषण के अलावा अपनी स्वच्छन्दता से इतना प्यार है कि वह स्वयं भी किसी समय इस बन्धन से बाहर निकल आने की स्वच्छन्दता को अपने लिये सुरक्षित रखना चाहती है और अगर किसी समय उसके साथी को भी इसके बाहर निकल जाने की ज़रूरत – एकतरफ़ा भी – महसूस होती है तो इस स्थिति की समझ और स्वीकार की क्षमता रखती है। स्त्री के पक्ष से सहजीवन का औचित्य अथवा सार्थकता मेरी नज़र में तीसरी स्थिति में ही हो संभव है।
एक आत्मनिर्भर स्वच्छन्द जीवन में संयोगवश आ मिलने वाले और स्थानान्तरण या भावनात्मक फासला या किसी अन्य बाधा या कारण से दूर या अलग हो जाने वाले साथ के हिसाब से तय होने वाले सम्बन्ध में बुनियादी तौर पर अस्थायित्त्व की संभावना और स्वीकृति निहित है। ऐसा भी एक सम्बन्ध-विन्यास या जीवन-विन्यास हो सकता है – हालाँकि हमारे देश-समाज में विरल – जो अस्थायी सम्बन्धों द्वारा अपनी अलग अलग किस्म की जरूरतों के अलग अलग समीकरणों से पूरा होता हो। लेकिन उस विन्यास को चुनने वाला शायद व्यक्ति के रूप में भावनात्मक स्तर पर स्वतःपूर्ण, स्वयंपर्याप्त और स्वायत्त होता होगा। जब चाहा, पिट्ठू बाँधा और चल दिये।
चौबीस घण्टे के साथ का मतलब पिकनिक नहीं होता और स्वच्छन्दता – मुझे सोचकर ऐसा लगता है कि – अपनी आखिरी हदों पर दूसरे की उपस्थिति के आभास के दबाव मात्र से खण्डित और बाधित होने लगती है। एक तरह से वह अफाट अकेलेपन का पर्याय है, दोस्त अहबाब की मण्डली की चकल्लस के बावजूद। हर समय की चकल्लस जीवन का पर्याय नहीं होती।
लेकिन फैसला हमेशा स्च्छन्दता की जरूरत से नहीं होता। हमेशा क्या, शायद अक्सर। सहजीवियों की बढ़ती हुई गिनती के साथ अकसर इस किस्म के परिणाम देखने सुनने को मिलने लगे हैँ, जिनमें स्त्री की ओर से कभी विवाह के वादे पर विश्वासस करने के कारण सम्बन्ध में प्रवेश किन्तु विश्वािसघात का या कभी धोखा देकर शारीरिक सम्बन्ध बनाने का या बलात्कार का मुकदमा दायर किया जाता है, वह सहजीवन की अवधारणा को लेकर ही किसी नासमझी या ग़लतफ़हमी का आभास देते हैँ। उन स्थितियों मेँ सहजीवन एक समस्या बन कर सामने आता है।
सहजीवन के पास न कोई कानूनी सुरक्षा है और न मुआवजे इत्यादि का कोई प्रावधान। अगर वह अपनी स्वच्छन्दता की रक्षा के निर्णय से यह सम्बन्ध नहीं बनाती, सम्बन्ध टूटने की दिशा में कभी दुबारा किसी मन लायक साथी के मिलने पर ही फिर से सहजीवन या फिर एक आत्म-निर्भर स्वयं-पर्याप्त जीवन जीने की अनिश्चि त/दुर्लभ/असम्भव तत्परता को अपनी जीवन शैली नहीं मानती तो बेशक सहजीवन उसे शायद मनचाहे व्यक्ति के साथ बीते हुए उस थोड़े से समय की तृप्ति और तुष्टि – अगर मिली हो तो – के अलावा उसे कुछ और नहीं देगा। उतने समय के बाद उम्र का अकसर वह पड़ाव आ पहुँचा होता है जब पहले ही देर हो चुकी होती है और अगर वह उसी एक सम्बन्ध में इतनी तृप्ति ता ऊब पा चुकी हो कि दुबारा शुरू करना ही न चाहे तो बात अलग है अन्यथा हमारे अधिकांशतः शुचितावादी समाज में सहजीवन के अनुभव से निकली हुई स्त्री को दुबारा शुरू करने का मौका अक्सतर नहीं मिलेगा।इसलिये अपनी इच्छा और ज़रूरत को पहचानना और ऐसे किसी सम्बन्ध मेँ खुली आँखों कदम रखना बेहद ज़रूरी है।
स्त्री के अपने स्वभाव के हिसाब से ही तय होगा कि सहजीवन उसके पक्ष में है या विपक्ष में।
साथ होकर भी पुरुष एवं स्त्री की स्वतंत्र परिधि क्या है ?
आज के समय में उग आई स्थितियों ने ऐसा कर दिया है कि किसी युगल के लिये यह बात आपस में उन दोनो के अलावा कोई तीसरा नहीं परिभाषित कर सकता और उन दोनों में से कोई भी एक अकेला भी नहीं कर सकता। करेगा भी तो उसमें सहमति दूसरे की भी चाहिये। पुराने जमाने के विवाह का नमूना परिवार के सन्दर्भ में स्त्री-पुरुष के कर्तव्य और दायित्त्व के क्षेत्र में अपने अपने वर्चस्व के इलाके बाँट कर चलता है। जहाँ दोनो को घर बाहर दोनो सँभालना होता है वहाँ भी सहयोग के नमूने गढ़े जाते हैं। लेकिन जहाँ ‘स्वतंत्र’ और परिधि में टकराहट हो वहाँ? दाम्पत्त्य की परिधि का ही जहाँ उल्लंघन हो वहाँ?
सुना है कि हमारे समाज के ही किन्हीं इलाकों में ‘ब्लाइण्ड-डेट’, ‘वाइफ़-स्वॉपिंग,’ ‘बेटिंग,’ ‘न्यूड पार्टीज़्, ‘रेव पार्टीज़’ आदि तरह तरह के खेल चला करते हैँ। इन जगहों पर दाम्पत्य में दैहिक एकनिष्ठता की परिधि दोनो की सहमति से भंग होती है और दोनो को स्वीकार भी होती है। स्वतंत्रता के नाम पर यही परिधिभंग विवाहेतर साहसिक अभियानों का भी है, जिसमें अभी तक तो पति ही इकलौता खिलाड़ी हुआ करता था। अब सुना है कि बराबरी का जोड़ होने लगा है। दोनो सहमत हैं तो क्या कीजियेगा। और ज़रूरत भी क्या है कुछ करने की? वह कोई दूसरी दुनिया है। दाम्पत्त्य की परिधि अब परस्पर सहमति है, जहाँ तक भी जाये।
स्वतंत्र परिधि के भीतर एक और ज़रूरत आती है अपनी अपनी स्पेस की। अपनी हॉबीज़, या अपनी अभिव्यक्ति के इलाके, अपना पढ़ना-लिखना या चित्र बनाना या गाना या ऐसा ही कुछ और। और अपने निजी एकान्त स्पेस के मनबहलाव से उसे निकाल कर बाहर अपनी पहचान के तौर पर ले जाना। ऐसी स्थितियों में जहाँ ‘साथ’ भी है और ‘स्वतंत्रता’ भी वहाँ एक दूसरे पर अभिमान किया जाता है। लेकिन बहुत बार, शायद ज्यादातर, ऐसी स्थितियों में प्रतिद्वन्द्विता जागती है। अहंकार आहत होता है। ज़्यादातर पुरुष का जिससे स्त्री की उपलब्धि बर्दाश्ता नहीं होती। इसके बाद, प्रलय!
परिधि के साथ स्वतंत्रता को परिभाषित करना कठिन है। दाम्पत्त्य में दोनो में ही एक लचीलापन रखना ज़रूरी है, ज़रूरी बात है, मंशा में खोट न होना और अपने पक्ष में दूसरे का अनुचित लाभ न लेना। बुनियादी बात एक दूसरे का सम्मान है जिसके कारण ऐसा सम्भव हो सकता है।
नयी पीढ़ी के जिन कुछ युगलों को जानती हूँ उनमेँ आपस का सहयोग, साझेदारी, परस्परता और पूरकता देखकर बेहद खुशी होती है। लगता है कि इस सम्बन्ध जैसा दूसरा कुछ हो नहीं सकता, जैसे एक सपना है, सच होने की दिशा में अपनी यात्रा शुरू कर चुका है। लेकिन उस सम्बन्ध को रचने मेँ बहुत समझदारी, बहुत धैर्य, बहुत समय, बहुत श्रम लगता है, वह बना बनाया नहीं मिलता, वह एक दिन में नहीं बनता, उसमें पुरुष की हिस्सेदारी शत-प्रतिशत दिखती है, उस पुरुष के लिये मन में आभार जागता है।