( प्रज्ञा पांडे के अतिथि सम्पादन में हिन्दी की पत्रिका ‘ निकट ‘ ने स्त्री -शुचितावाद और विवाह की व्यवस्था पर एक परिचर्चा आयोजित की है . निकट से साभार हम उस परिचर्चा को क्रमशः प्रस्तुत कर रहे हैं , आज चर्चित कवयित्री कात्यायनी के जवाब . इस परिचर्चा के अन्य विचार पढ़ने के लिए क्लिक करें : )
जो वैध व कानूनी है वह पुरुष का है : अरविंद जैन
वह हमेशा रहस्यमयी आख्यायित की गयी : प्रज्ञा पांडे
अमानवीय और क्रूर प्रथायें स्त्री को अशक्त और गुलाम बनाने की कवायद हैं : सुधा अरोडा
अपराधबोध और हीनभावना से रहित होना ही मेरी समझ में स्त्री की शुचिता है : राजेन्द्र राव
परिवार टूटे यह न स्त्री चाहती है न पुरुष : रवि बुले
बकौल सिमोन द बोउवार, ” स्त्री पैदा नहीं होती, बनायी जाती है। ” आपकी दृष्टि में स्त्री का आदिम स्वरूप क्या है ?
स्त्री और पुरूष के बीच जेण्डर का जो भेद है, वह प्राकृतिक है और वह भेद स्त्री और पुरूष के बीच के सामाजिक अन्तर का, स्त्रियों की सामाजिक पराधीनता एवं उत्पीड़न का कारण नहीं है। स्त्रियों की पराधीनता, उत्पीड़न, दोयम दर्जे की नागरिकता और पुरूषवर्चस्ववाद का मूल कारण सामाजिक-आर्थिक संरचना में निहित है। यह सामाजिक ढांचा ही स्त्री मानस को भी अनुकूलित और नियंत्रित करता है। इन अर्थों में सिमोन द बोउवार का कहना सही है। स्त्री का सामाजिक अस्तित्व,पारिवारिक जीवन और अन्तर्जगत समय विशेष के समाज विशेष की निर्मिति होता है। निजी सम्पत्ति, वर्ग, राज्यसत्ता और परिवार के उद्भव से पूर्व आदिम स्त्री स्वतंत्र थी और वर्ग समाज के विलोपन के बाद फिर वह स्वतंत्र होगी।
क्या दैहिक शुचिता की अवधारणा स्त्री के खिलाफ कोई साजिश है ?
वास्तविक प्रेम एकल ही हो सकता है, यानी एक समय में किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच ही हो सकता है और प्रेमरिक्त दैहिक सम्बन्ध निस्संदेह अनैतिक होते हैं। इन अर्थों में दैहिक शुचिता का एक सन्दर्भ हो सकता है। लेकिन समाज में दैहिक शुचिता की पाबन्दियॉं सिर्फ स्त्री के लिए होती है, पुरूष वस्तुत: उससे मुक्त होता है। इसी दृष्टि से पहले किसी से प्रेम या विवाह करके अलग हो चुकी स्त्री या विधवा स्त्री भी हेय दृष्टि से देखी जाती है। बेशक हमारे समाज में व्याप्त दैहिक शुचिता की धारणा एक पुरुषस्वामित्ववादी धारणा है जो घोर स्त्री विरोधी है।
समाज के सन्दर्भ में शुचितावाद और वर्जनाओं को किस तरह परिभाषित किया जाये ?
हर समाज नैतिक मूल्यों और वर्जनाओं की परिभाषाऍं वर्चस्वशाली वर्गों और समुदायों के हितों को ध्यान में रखकर गढ़ता है। सामंती समाज की अपेक्षा खुला और लोकतांत्रिक होने के बावजूद मौजूदा पूँजीवादी समाज भी एक पुरुष प्रधान समाज है। यह स्त्री के पारिवारिक और धार्मिक गुलामी के बंधनों को एक सीमित हद तक ही ढीला करता है, लेकिन पुरुष स्वामित्व को एक हजार एक रूपों में बरकरार रखता है। यह स्त्री श्रम शक्ति को ही नहीं बल्कि देह को भी एक ‘कमोडिटी’ में तब्दील कर देता है, लेकिन साथ ही पुरुष स्वामित्व आधारित परिवार के ढॉंचे और सम्पत्ति की विरासत की वंशानुगतता को बचाने के लिए स्त्रियों पर तमाम वर्जनाऍं और यौन शुचिता के तमाम बंधन आरोपित करता है। यानी स्त्रियॉं ”आजाद” तो हों, लेकिन अपने लिए नहीं पुरुषों का आखेट बनने के लिए। दूसरी ओर, पुरुष यौन शुचिता विषयक सभी वर्जनाओं से मुक्त होता है।
निस्सन्देह हर समाज के अपने नैतिक मूल्य होते हैं। एक शोषण-उत्पीड़न मुक्त समाज के नैतिक मूल्यों को शुचितावाद और वर्जनाओं की भाषा में नहीं देखा जा सकता। जाहिरा तौर पर जोर-जबर्दस्ती, धोखा, बेवफाई और शरीर की खरीद-फरोख्त एक आदर्श समाज में अनैतिक और वर्जित होगा। एक समय में एक व्यक्ति एक व्यक्ति से ही प्यार कर सकता है। यानी प्यार एकल ही हो सकता है। प्यार विहीन दैहिक सम्बन्ध भी अनैतिक ही होगा। ” मुक्त प्रेम ” और ” मुक्त यौन सम्बन्ध ”की अवधारणाऍं विकृत बुर्जुआ मानस की प्रतिक्रियात्मक अभिव्यक्तियॉं हैं। एक उन्नत और समतामूलक समाज स्त्री और पुरुष को सम्बन्ध बनाने और उन्हें तोड़ने की बराबर स्वतंत्रता देगा और उसमें समाज या राज्यतंत्र की कोई भी दखलंदाजी नहीं होगी।
विवाह की व्यवस्था में स्त्री की मनोवैज्ञानिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियॉं कितनी स्त्री के पक्ष में है?
उत्तर: सामंती समाज की अपेक्षा पूँजीवादी समाज में विवाह की संस्था के अन्तर्गत, स्त्रियों को बेशक संवैधानिक और वैधिक तौर पर कुछ अधिकार मिले हैं, लेकिन सामाजिक संस्थाऍं और मूल्य-मान्यताऍं काफी हद तक इन अधिकारों को बेमानी बना देती है। भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी समाजों पर यह बात विशेष तौर पर लागू होती है। उन्नत से उन्नत पूँजीवादी समाजों में भी विवाहोपरान्त पारिवारिक जीवन में अहम मामलों में निर्णय की शक्ति पुरुष के हाथों में केन्द्रित होती है और स्त्री की घरेलू दासता अनेकश: सूक्ष्म रूपों में बरकरार रहती है। विवाह की संस्था किसी भी रूप में अपने मौजूदा स्वरूप में स्त्री के पक्ष में नहीं है। पुरुष यदि वास्तव में प्रगतिशील दृष्टि रखता है (वैसे ज्यादातर कथित प्रगतिशील अपने निजी जीवन में पुरुषवर्चस्ववादी ही होते हैं), तो पत्नी के साथ सम्मान और समानता का व्यवहार करता है। लेकिन यह तो एक विशेष स्थिति की बात है, इसमें विवाह संस्था की कोई सकारात्मकता नहीं देखी जा सकती। विवाह अपने प्रातिनिधिक रूप में ”संस्थाबद्ध वेश्यावृत्ति ” के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
मातृसत्तात्मक व्यवस्था में विवाह संस्था क्या अधिक सुदृढ़ और समर्थ होती? तब समाज भ्रूण हत्या, दहेज हत्या और बलात्कार जैसे अपराधों से कितना मुक्त होता ?
यह एक परिकल्पनात्मक प्रश्न है। मातृसत्तात्मक व्यवस्था उत्पादन और वितरण की आदिम सामाजिक अवस्थाओं की देन थी। हम इतिहास में पीछे की ओर वापस नहीं लौट सकते। इतिहास-विकास में पीछे छूट गये जिन जनजातीय समाजों में मातृसत्तात्मकता बची हुई थी, पूँजी की सर्वग्रासी, सर्वभेदी शक्ति के प्रभाव में वे भी नष्ट हो गयीं या हो रही हैं। आने वाले युगों में मातृसत्तात्मक व्यवस्था वापस नहीं आयेगी, बल्कि स्त्री-पुरुष समानता पर आधारित नयी सामाजिक संस्थाऍं अस्तित्व में आयेगी।
सहजीवन की अवधारणा क्या स्त्री के पक्ष में दिखायी देती है?
उत्तर सापेक्षिक रूप से सहजीवन की अवधारणा विवाह से बेहतर है, क्योंकि इसमें सम्बन्ध जोड़ने और तोड़ने के मामले में स्त्री भी स्वतंत्र होती है, और दूसरे, यह विवाह से जुड़ी धर्मशास्त्रीय रूढि़यों-मान्यताओं के विराध में खड़ा होता है। लेकिन बुनियादी बात सामाजिक-आर्थिक ढॉंचे की है। जबतक सामाजिक-आर्थिक तौर पर स्त्री उत्पीडि़त होगी और दोयम दर्जे की नागरिक होगी, तबतक विवाह हो या सहजीवन, स्त्री-पुरुष अंतरंग सम्बन्धों में भी स्त्री का दर्जा दोयम ही रहेगा, निर्णय की स्वतंत्रता के मामले में वह पुरुष के बराबर नहीं हो पायेगी।
साथ होकर भी स्त्री और पुरुष की स्वतंत्र परिधि क्या है ?
उत्तर: पहली बात, दोनों रिश्ता बनाने के लिए जितने स्वतंत्र हों, तोड़ने के लिए भी उतने ही स्वतंत्र हों। स्त्री का आर्थिक रूप से स्वतंत्र और स्वावलंबी होना अपरिहार्य है। पुरुष की तरह स्त्री की भी अपनी ‘सोशल सर्किल’ हो, वह अपने शौक, पेशा, सामाजिक गतिविधियों के बारे में स्वतंत्र निर्णय ले सकती हो। परस्पर सम्बन्धों में संदेह की स्थिति न हो और ऐसा होते ही अलग हो जाने की पूरी आजादी हो। घरेलू कामकाज और बच्चों की देखभाल में पुरुष बराबर का भागीदार हो और सभी बाहरी कामों में स्त्री भी बराबरी से हाथ बँटाती हो। घर-गृहस्थी के सभी निर्णयों में दोनों बराबरी के हिस्सेदार हों। मौजूदा सामाजिक ढॉंचे में हर परिवार को तो इन मानकों पर ढाल पाना सम्भव ही नहीं है। हॉं, वैज्ञानिक प्रगतिशील दृष्टि वाले लोग यदि इन्हें अपने जीवन पर लागू करें तो जीवन बेशक कुछ सुन्दर हो जायेगा और स्त्रियों की इस हद तक की मुक्ति भी सामाजिक मुक्ति के महासमर में आधी आबादी की भागीदारी को बढ़ाकर उसकी सफलता की एक बुनियादी गारण्टी हासिल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण उत्प्रेरण का काम करेगी।