जो वैध व कानूनी है वह पुरुष का है : अरविंद जैन
वह हमेशा रहस्यमयी आख्यायित की गयी : प्रज्ञा पांडे
अमानवीय और क्रूर प्रथायें स्त्री को अशक्त और गुलाम बनाने की कवायद हैं : सुधा अरोडा
अपराधबोध और हीनभावना से रहित होना ही मेरी समझ में स्त्री की शुचिता है : राजेन्द्र राव
परिवार टूटे यह न स्त्री चाहती है न पुरुष : रवि बुले
मनुष्य – आदिम मनुष्य भी – प्राकृतिक नहीं, सांस्कृतिक प्राणी है : अर्चना वर्मा
मातृसत्तातमक व्यवस्था स्त्रीवादियों का लक्ष्य नहीं है : संजीव चंदन
बकौल सिमोन द बोउआर “स्त्री पैदा नहीं होती बनायी जाती है ” आपकी दृष्टि में स्त्री का आदिम स्वरुप क्या है ?
सिमोन द बोउआर का सारा जोर इस बात पर है की स्त्री को पहले मनुष्य समझा जाय.स्त्री की शारीरिक संरचना ने उसको बाधित और सीमित किया है.
क्या दैहिक शुचिता की अवधारणा स्त्री के खिलाफ कोई साजिश है ?
निस्संदेह.समाज में नियम निर्धारण की स्वाधीनता न जाने कब पुरुष ने अपने हाथ में ले ली और स्त्री के आचरण और मान प्रतिष्ठा के प्रतिमान तय कर डाले.वह स्वयं उसकी रक्षा जब नहीं कर पाया उसने स्त्री के अन्दर इज्ज़त नाम का हौवा बैठा दिया.मनोवैज्ञानिक स्तर पर उसने स्त्री को अस्थिर बना कर देह को उसकी चलती फिरती जेल बना दिया. देह कितनी ढकी उघाडी जाय , अन्य पुरुष उस के किस अवयव पर दृष्टि डाले या नहीं ये सब पुरुष तय करने लगा.इसी अवधारणा के रहते बलात्कार एक भीषण मनोसामाजिक ग्रंथि के रूप में सामने आया. अगर शुरू से इस दुर्घटना को भी अन्य दुर्घटनाओं की तरह सामान्य मान कर देखा जाता तो स्त्री का जीवन अपेक्षाकृत सरल होता. बलात्कार को ऐसे लिया जाता जैसे घुटने पर चोट ,जैसे टखने में मोच,तो स्त्री के मान सम्मान की अधिक रक्षा होती और उसे ज्यादा संतुलित जीवन जीने का अवसर मिलता.
समाज के सन्दर्भ में शुचितवाद और वर्जनाओं को किस तरह परिभाषित किया जाए ?
कई बार हमारे समाज की संरचना खुद हमारी समझ के बाहर हो जाती है.शुचितावाद का समस्त बोझ स्त्रियों को ही क्यों उठाना होता है. क्या पुरुष की शुचिता के विषय में इतनी चिंता दर्शायी जाती है या उस पर इतना चिंतन होता है ? वर्जनाएं भी इसी कोटि की ग्रंथियां हैं. समस्त वर्जनाएं स्त्री पर लागू की जाती है. स्त्रियाँ भी भय वश इन प्रतिबंधों को स्वीकार कर लेती हैं. इस अतिचार से मुक्त होने के लिए स्त्रियों में शिक्षा और जागरूकता की ज़रुरत है. समाज विमर्श का भी नया लिखित पाठ सामने आना चाहिए.
यदि स्वयं के लिए वर्जनाओं का निर्धारण स्वयं स्त्री करे तो क्या हो ?
बेहतर हो.
विवाह की व्यवस्था में स्त्री की मनोवैज्ञानिक ,सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियां कितनी स्त्री के पक्ष में हैं ?
प्रस्तुत समय में जो ढांचा हमें परंपरा से मिला है,वह पूरी तरह से पुरुष प्रधान है. इसमें पुरुष और उसके
परिवार की सुख सुविधाओं का अचूक ध्यान रखा गया है.शादी के बाद पत्नी को प्रिय की जगह परिचारका की भूमिका में जीना पड़ता है. सभी गंदे काम कर्त्तव्य की कोटि मे डाल कर पुरुष निश्चिन्त हो जाता है.सबसे ज़रूरी है विवाह के बाद स्त्री का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना. तब उसके जीवन की अधि समस्याएं कम हो जाएँ .संभव है किन्तु यह आशंका होती है की शायद मातृपक्ष फिर वैसा ही चालाक निकले जैसा पितृ पक्ष.
मातृसत्तात्मक व्यवस्था में विवाह-संस्था क्या अधिक सुदृढ़ और समर्थ होती। तब समाज भ्रूण हत्या दहेज़ हत्या एवं बलात्कार जैसे अपराधों से कितना मुक्त होता ?
हाँ भ्रूण हत्या और बलात्कार की घटनाएं ज़रूर कम हो जाएँगी.
सह जीवन की अवधारणा क्या स्त्री के पक्ष में दिखाई देती है ?
.सहजीवन एक कामचलाऊ व्यवस्था के तहत कुछ समय के लिए स्वीकार्य हो सकता है.किन्तु इसमें जोखिम है की स्त्री ज्यादा पीड़ा पा जाय. जब तक शुचितावाद का चौखटा उसके ऊपर कसा रहेगा किसी भी सह सम्बन्ध से निकलना स्त्री के विरुद्ध ही देखा जाएगा.
साथ होकर भी पुरुष एवं स्त्री की स्वतंत्र परिधि क्या है ?
.निर्भरता दो प्रकार की होती है.१.आर्थिक.2.वैचारिक . दोनों ही घातक हैं. अपनी स्वतंत्र इकाई के लिए ज़रूरी है की स्त्री के पास हर हाल में अपना काम हो. दूसरे ने वाला उसके मनोविज्ञान को नष्ट न करने पाए,यह आसान न होगा. फासले तय करने का वक़्त है यह. विवाह के वक़्त पंडित जो श्लोक वगैरह संस्कृत में अगड़म बगड़म उच्चारित करते हैं, समे हिंदी व्याख्या शामिल होनी चाहिए. साथ ही लड़के लड़की से पूछ कर उनकी उम्मीदों को भी उसमे स्थान दिया जाए. आधुनिक पीढ़ी से मुझे आशा है कि परिवर्तन लाएगी.