अनिता भारती आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। अपने तीखे और सटीक शब्दों से उन्होंने दलित स्त्री विमर्श को अलग मुकाम दिया है।‘समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध’ पुस्तक भी कुछ ऐसे ही तल्ख़ प्रश्नों को लेकर खड़ी है, जिसके निशाने पर आधुनिक नारीवाद के साथ-साथ कई आत्ममुग्ध दलित लेखक भी आ जाते हैं।
अनिता भारती अपनी भूमिका ही प्रश्नों से शुरु करती हैं; मसलन दलित नारीवाद क्या है? यह सवर्ण नारीवाद से कैसे भिन्न है? किन मुद्दों पर ये दोनों अलग ध्रुवों पर खड़े दिखाई देते हैं आदि। कुल मिलाकर यह पुस्तक दलित स्त्री को केंद्र में रखते हुए उसे किसी भी तरह की चालाकी से बचने के लिये सावधान करती है। इस संदर्भ में वर्ग और जाति के अंतर को भी बखूबी स्पष्ट करती हैं। उनका स्पष्ट मानना है कि “सभी औरतें एक मुकम्मल वर्ग के रूप में नहीं हैं, बल्कि वे जातियों में बँटी हैं। इसलिये उनकी समस्याएँ और मुद्दे भी अलग-अलग हैं।” उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थितियां अलग हैं। यह पुस्तक ऐसे ही कई सवालों और विमर्शों को लेकर आगे बढ़ती है। साथ ही उन सवालों के उत्तर खोजने, उन पर बात करने और उनसे जूझने की कोशिश करती है।
इस पुस्तक में सात शीर्षकों के अंतर्गत 36 अलग-अलग विषयों पर चर्चा की गई है। जिसमें ‘संघर्ष के विविध आयामों’ के साथ-साथ ‘दलित लेखिकाओं के स्त्रीवादी स्वर’ व आत्म-विश्लेषण भी सम्मिलित हैं। ‘खुद से गुजरते हुए’, ‘कुछ छूटे पन्नों’ के साथ ही वे आज की बदली पितृसत्ता को चुनौती भी देती हैं। पुस्तक का पहला खंड दलित लेखिकाओं के स्त्रीवादी स्वर को उभारता है। जिसमें कौशल्या बैसंत्री, दया पवार, सुशीला टाकभौरे, बेबी ताई कांबले, कावेरी, रजतरानीमीनू, कुसुम मेघवाल आदि दलित लेखिकाओं की आत्मकथाओं अथवा अन्य रचनाओं के माध्यम से उन्हें समझा गया है। यह खंड अपने साथ यह निष्कर्ष जरूर लाता है कि इन लेखिकाओं का मुख्य स्वर समता, स्वतंत्रता और न्याय है। जो समाज में हो रहे किसी भी तरह के अन्याय, उत्पीड़न, दमन को स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं। अनिता जी का इन रचनाओं के संदर्भ में किया गया विश्लेषण या पड़ताल निश्चित ही एक तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखता है।
अनिता भारती की यह पड़ताल केवल अन्य दलित लेखिकाओं तक सीमित नहीं रह जाती बल्कि अगले खंड में वे इसे खुद पर भी लागू करती हैं। ‘खुद से गुजरते हुए’ अध्याय में उनके अपने जीवन की संक्षिप्त झलकियाँ देखी जा सकती है। चार भिन्न शीर्षकों के दायरे में वे अपने निजी जीवन के कुछ खट्टे-मीठे अनुभवों को बांधती हैं। जीवन की कुछ कड़वी सच्चाईयों को भी वे बिना किसी झिझक के पेश करती हैं जहाँ उन्हें अत्याचार व अपमान का कड़वा घूंट पीना पड़ा था। मानसिक विक्षिप्तता की अवस्था में भी माँ के सुरक्षा आवरण व प्रेम को किसी भी प्रकार से वे भूल नहीं पाती हैं। इस प्रकार ‘अपने कमरे’ से लेकर ‘त्यौहार मनाने की उहापोह’ तक के सामाजिक दबाव को वे एक अंतरद्वंद के साथ पेश करती हैं। कुल मिलाकर यह खंड उनकी भावी आत्मकथा का एक संक्षिप्त अंश माना जा सकता है।
साहित्य में हिंदी दलित लेखन हमेशा से चर्चा का विषय रहा है। अपने अलग दर्शन, सिद्धांत, विचारधारा, अनुभूतियों और अभिव्यक्तियों को रखते हुए यह साहित्य को नई चेतना भी देता रहा है। इसी संदर्भ में इस पुस्तक का यह प्रसंग भी महत्वपूर्ण हो उठता है कि प्रेमचन्द की इस (दलित) लेखन में क्या प्रासंगिकता है। प्रेमचन्द क्या किसी खास समुदाय/जाति/वर्ग के नुमाइंदे थे या इससे इतर वे समता व समान न्याय के पक्षधर थे। आज दलित लेखन में इस पक्षधरता को लेकर अलग-अलग खेमे देखे जा सकते हैं। अनिता जी की यह पुस्तक प्रेमचन्द पर उठे ऐसे ही प्रश्नों का तार्किक जवाब प्रस्तुत करती है। लेखिका प्रेमचन्द की पक्षधरता को लेकर कहीं भी आशंकित नहीं दिखतीं। इस संदर्भ में उनका स्पष्ट मानना है कि “प्रेमचन्द जाति व्यवस्था तोड़ने का हल निकालते हैं और समाधान वही है जो डॉ. अम्बेडकर ने सुझाया था” (पृ. 107)। ‘साहित्यकार प्रेमचन्द और दलित स्त्री-विमर्श’ खंड अपने तीन अध्यायों में प्रेमचन्द के संदर्भ में उठी ऐसी ही बहसों का तार्किक जवाब खोजने का प्रयास है। इस संदर्भ में अनिता भारती कई दलित पुरुष लेखकों को भी नहीं बख्शतीं। ‘रंगभूमि दहन’ को भी वे महज एक ‘स्टंटबाजी’ के अतिरिक्त और कोई संज्ञा नहीं देतीं। वे लिखतीं हैं कि “प्रेमचन्द के विचारों और साहित्य का मूल्यांकन समय काल के दायरे में किया जाना चाहिये।… प्रेमचन्द अछूत समस्या का हल ऐसा खोजना चाहते थे जिससे राष्ट्र न टूटे।… कुछ दलितों द्वारा उनकी रंगभूमि जला देने से उनका महत्व न कम हुआ है और न ही होगा। प्रेमचन्द की दॄष्टि सवर्ण पात्रों की क्रूरता के प्रति विद्रोह करती है, उनका धर्म छोड़कर संघर्ष की ओर अग्रसर होती है।” कुछ ऐसी पंक्तियों के साथ यह पुस्तक प्रेमचन्द को दलित संवेदना के बीच लाकर खड़ा कर देती है।
अनिता भारती की यह पुस्तक साहित्यिक सर्वेक्षणों के साथ-साथ जमीनी सर्वेक्षणों को भी लेकर चलती है। सामाजिक सर्वेक्षण की तर्ज पर यह पुस्तक ‘दलित महिलाओं के खिलाफ हिंसा’ का तारीख और क्षेत्रवार विवरण प्रस्तुत करती है। राजधानी दिल्ली से लेकर सुदूर गाँवों तक हो रहे जातिगत और पेशेगत उत्पीड़न, खेतिहर मजदूरी और पुलिसिया जुल्म का पूरा आँकड़ेवार लेखा-जोखा पुस्तक के तीसरे खंड में दर्ज है। यहीं एक अन्य अध्याय दलित स्त्री को लेकर मीडिया द्वारा गढ़ी छवि को भी कटघरे में खड़ा करता है। अनिता भारती का मानना है कि मीडिया ने कभी दलितों की सशक्त छवि नहीं गढ़ी। वह छवि गढ़ने के लिये प्रतीकों को गढ़ता है और उसे अपने मन मुताबिक इस्तेमाल करता है। दरअसल यह अध्याय मीडिया द्वारा दलित, आदिवासियों की एक परंपरागत छवि को पेश करने का विरोध करता है। इन छवियों में उन्हें फूहड़, गंदा, काला, अपंग आदि रूपो में ही पेश किया जाता है। उन्हें असभ्य और हास्यास्पद छवि ही पसंद आती है, जबकि इस वर्ग में कई प्रभावशाली और प्रसिद्ध चरित्रों को लगातार नजरंदाज किया जाता रहा है। यह हाल इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट मीडिया और फिल्मों तक में बदस्तूर जारी है।
सामाजिक अनदेखी की इस प्रक्रिया को पूरी तरह से धता बताते हुए अनिता भारती कहती हैं कि ‘दलिताएँ खुद लिखेंगी अपना इतिहास’। यहाँ अनिता भारती दलित स्त्रियों के लिये ‘दलिताएँ’ शब्द गढ़ती हैं। वे साथ ही उन इतिहास पुस्तकों का भी जिक्र करती हैं जिनमें दलित स्त्री लेखिकाओं को लगातार उपेक्षित रखा गया। इसी संदर्भ में राधा कुमार की पुस्तक “स्त्री संघर्ष का इतिहास 1800-1990” का जिक्र करते हुए अनिता भारती लिखती हैं कि “राधा कुमार जी ने स्त्री आंदोलन में दलित स्त्रियों के आंदोलन के साथ न्याय नहीं किया है।… मेरे आश्चर्य और दु:ख की सीमा ना रही जब मैंने राधा कुमार जी की पुस्तक में दलित महिला आंदोलन की रीढ़ ही नहीं, अपितु संपूर्ण भारतीय महिला आंदोलन की जनक सावित्रीबाई फुले का नाम पूरी तरह से उपेक्षित पाया।” इसी प्रकार दीप्ति प्रिया महरोत्रा की पुस्तक ‘भारतीय महिला आँदोलन’ में दलिताओं के कई सक्रिय और जुझारू आंदोलनों का जिक्र तक नहीं है। दरअसल यह पुस्तक उन तमाम स्वयंसिद्ध लेखकों के समक्ष एक आईना है जो दलित मुखौटों में आज भी पितृसत्तात्मक बने हुए हैं।
कुछ ऐसा ही आईना वे डॉ. धर्मवीर को भी दिखाती हैं जिनकी नजर में अंतरजातीय विवाह किसी दलित स्त्री के लिये वेश्यावृत्ति से कम नहीं है। दलित स्त्रियों के इस अपमान का अनिता भारती तीखा विरोध करती हैं। पुस्तक के छठे भाग में ‘पितृसत्ता को चुनौती’ देते हुए वे इस मानसिकता के तमाम दलित लेखकों को लगभग चेतावनी देती हुई दिखती हैं। इस भाग में मुख्य रूप से डॉ. धर्मवीर से उनका मतांतर स्पष्ट दिखाई पड़ता है। जब वे स्पष्ट रूप से लिखती हैं कि “1995 से लेकर 2005 तक इन दस वर्षों में वे अपनी सार्वजनिक बेईज्जती भूलकर लगातार निर्लज्जता से दलित/ गैर दलित स्त्रियों के खिलाफ अश्लील व अपमानजनक सस्ता लेखन कर रहे हैं। कथादेश में चली बहस इसकी गवाह है” तो यह विषय और भी गंभीर हो जाता है। दरअसल वर्चस्व की राजनीति और असमानता की साजिश पितृसत्तात्मक समाज का मूल चरित्र रही है फिर चाहे बात किसी भी वर्ग की हो, जाति की हो या समाज की। स्त्रियों के अर्थ, चरित्र, श्रम, आंदोलनों आदि का अंतिम श्रेय अंतत: पुरुष अपने ही हाथों में रखता आया है। यही कार्य तथाकथित आधुनिक सभ्य समाज भी कर रह है। कुल मिलाकर पुस्तक का यह अंश तथ्यात्मक उद्धरणों पर आधारित है जो स्त्रियों को चुप्पी की संस्कृति से बाहर लाता है, उनकी आवाज को और बुलंद करता है।
पुस्तक का अंतिम भाग ‘डॉ. अम्बेडकर और दलित साहित्य’ है। इस भाग में भी अनिता भारती ने डॉ. अम्बेडकर के स्त्री चिंतन पर ही जोर दिया है। इस अध्याय में तमाम दलित महिला आंदोलनों, सम्मेलनों के साथ-साथ उनके सामान्य जीवन की छवियाँ भी रखी गईँ हैं। दरअसल अम्बेडकर की ही तरह भारती जी भी दलित महिलाओं के बीच एक समाज सुधारक की तरह उतरती हैं। वे उनके प्रति गढ़ी गई छवियों को लगातार बदलने का प्रयास करती हैं। इस संदर्भ में डॉ. अम्बेडकर को उद्धृगत करती हैं कि “तुम खुद को अस्पृश्य मत मानो। घर में स्वच्छता रखो। धोती चाहे फटी ही क्यों न हो पर स्वच्छ होनी चाहिये।… दारूबाज पति, भाइयों और बहनों को भोजन मत दो। लड़कियों को शिक्षा दिलवाओ। ज्ञान और विद्या दोनों महिलाओं के लिये आवश्यक है।” इस प्रकार अनिता भारती डॉ. अम्बेडकर के जनतंत्र व समतावादी भारत की कल्पना निर्मित करती हैं।
दरअसल यह पुस्तक दलित स्त्री लेखन को एक नई उर्जा के साथ पेश करती है। पुस्तक लगातार उन छवियों को तोड़ती है जो उस पर समाज ने थोप रखे हैं। यह पुस्तक उन तमाम पुरानी अर्जियों को खुद खारिज करते हुए किसी भी नई अर्जी से इंकार करती है। यहाँ अर्ज़ियाँ नहीं फैसले हैं जो दलित स्त्रियों ने खुद अपने लिये चुने हैं। तभी तो अनिता भारती यह घोषणा भी करती हैं कि “दलिताएँ खुद लिखेंगी अपना इतिहास”। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस पुस्तक का हासिल अपनी परंपरा से कहीं ज्यादा अलग और कहीं ज्यादा गाढ़ा है।
पुस्तक का विवरण :
समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध
लेखक : अनिता भारती
प्रकाशन: स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रथम संस्करण -2013
मूल्य: 650 रुपये