मनुस्मृतिः जेंडर हिंसा का कानूनी ग्रंथ

सर्वेश पांडेय


सर्वेश पांडेय ने स्त्री अध्ययन में शोध किया है , अभी महिला आयोग में कार्यरत हैं . संपर्क : मोबाइल न.- 08756754651

भारतीय जनमानस को नियंत्रित करने में धर्म की भूमिका काफी महत्वपूर्ण व केन्द्रीय  रही है। भारतीय समाज, खासकर हिंदू समाज स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों  बाद भी धार्मिक रीतियों-नियमों व धर्मग्रंथों से ही निर्देशित होता है। हिंदू जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक संस्कारों में बँधा रहता है। ये संस्कार यह दर्शाते हैं कि हिंदू जीवन व हिंदू मानस पर धर्म का प्रभाव कितना गहरा है। कहने को तो आज हमारे पास संविधान है, जिसने सभी को समान रूप  से सामाजिक व राजनीतिक अधिकार दे रखे हैं, किंतु सामाजिक संरचना में यह जमीनी हकीकत पर क्रियान्वित अगर नहीं हो पा रहा  है , तो उसका एक बड़ा कारण सामाजिक संरचना पर धर्म का प्रभाव व उसके धर्मग्रंथों में उल्लेखित नियमों द्वारा निर्देशित होना है। हिंदू धर्म को निर्देशित करने वाले ग्रंथों में ‘ मनुस्मृति’ भूमिका सबसे प्रमुख है। यह ग्रंथ भारत का पहला लिखित संविधान माना जाता है। इस ग्रंथ की सामाजिक व्याप्ति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारतीय वर्णाश्रम पद्धति को बरकरार रखने में इसकी केन्द्रिय भूमिका है। ब्राह्मणों को श्रेष्ठ स्थिति प्रदान करने से लेकर शूद्रों को मानसिक व भौतिक स्तर पर गुलाम बनाये रखने में इसके नियमों-कायदों का बहुत बड़ा हाथ है।

भारतीय समाज वर्ण व्यवस्था में विभाजित समाज है। वर्णो की उत्पत्ति के विविध सिद्धांत है किंतु समाज में सर्वाधिक मान्य व प्रभावी सिद्धांत ‘ दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत’- ब्राहमण मुखमासिदत  है, जो यह बताता है कि ‘विराट पुरूष’ के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य एंव पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। इसी आधार पर चारो वर्णों की सामाजिक स्थिति व व्यवसाय भी तय किये गये। वर्तमान समय में जाति-व्यवस्था आज जिस दृढ़ता से निरंतर पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है, यह इस बात का प्रमाण है कि वर्णव्यवस्था के पुरोधा अपने इस दुष्कार्य में कितना सफल रहे।

ब्राह्मणवादी ग्रंथों से ही प्राचीनकालीन समाजिक, आर्थिक एंव राजनीतिक स्थिति की समझ बनायी जाती रही है। इतिहास लेखन ने इन ग्रंथों को बतौर राजनैतिक शस्त्र प्रयोग करते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का ताना-बाना तैयार कर दिया। राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने वैदिककालीन समाज को समतामूलक रूप  में प्रस्तुत कर उसे भारत का स्वर्णिम काल घोषित कर दिया अर्थात वर्ण व जेंडर विभेद की चर्चा न करके वैदिककालीन समाज को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वैचारिकी के अनुरूप गढ़ दिया गया। वैदिक ग्रंथों से अतीत की समझ बनाने में पहली समस्या यह है कि वह उपदेशात्मक शैली में लिखित है और दूसरी कि यह वर्चस्वशाली तबके के सत्तात्मक तंत्र को चिरस्थायी बनाये रखने के अंर्तनिहित उद्देश्य से लिखित है।  ‘ मनुस्मृति’ ( रचनाकाल दूसरी सदी ई. पू.  से दूसरी सदी ई.  तक) ‘अर्थशास्त्र’ (चौथी सदी ई.पू ) व कामशास्त्र (दूसरी सदी ई. पू  से चैथी सदी ई.  तक)  जैसे प्राचीनकालीन ग्रंथ हैं ,  जिन्हें उच्चवर्णीय पुरुषों के वर्चस्व को निर्मित व कायम रखने के उद्देश्य से रचा गया था। वस्तुतः ये ग्रंथ धर्म,  अर्थ , राजव्यवस्था,  काम के विचार को आदर्श बनाने में सहायक हुए।
मनुस्मृति विगत दशकों से वाद-विवाद का केन्द्र रहा है, साथ ही साथ सामान्य जनमानस में इतिहास की समझ पैदा करने में इसकी अहम भूमिका रही है। इतिहासकारों की मान्यता है कि भारतीय मानस में अतीत की समझ लोकप्रिय मान्यताओं, मिथकों, वीरगाथाओं तथा लोकगाथाओं के माध्यम से बनती है। औपचारिक इतिहास का ज्ञान भी अधिकांश मानस को लोकप्रिय पत्रिकाओं के लेखों, बहसों तथा अन्य चर्चाओं के माध्यम से होता है।  मनुस्मृति को लेकर बहसों का तीखापन स्वतंत्र्योत्तर भारत में अधिक बढ़ता गया तथा इसके जलाने आदि के प्रतीकात्मक उपक्रम भी किये गये। परंतु भारतीय नवजागरण के काल में जब राष्ट्रवाद अपना स्वरूप ले रहा थाए मनुस्मृति ने भद्रलोक के इतिहास व समाज संबंधी मानस निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उस समय समाज-सुधारकों का एक तबका इसकी तीव्र आलोचना भी करता रहा, खासकर दलितों व स्त्रियों को लेकर किये गये नियमन के संदर्भ में।

मनुस्मृतिः ऐतिहासिक व सामाजिक विश्लेषण
मनुस्मृति के रचनाकाल को लेकर विभिन्न विद्वानों में बहस होती रही है। स्वीकृत मान्यता के अनुसार इसका रचनाकाल 200 ई.पू  से 200 ई.  के बीच है। प्रसिद्ध विचारक काणे ने ” हिस्ट्री  ऑफ धर्मशास्त्र’  में मनुस्मृति का रचनाकाल 200 ई. पू  से 200 ई.  के मध्य बताया है।  मनुस्मृति बौद्ध व जैन धर्म के बरक्स हिंदू धर्म व ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को दृढ़ता से कायम करने व व्यापक विस्तार दिये जाने के निहित उद्देश्य से लिपिबद्ध की गई। मनुस्मृति का रचनाकाल ब्राह्मणों के शासन व पुनर्निर्माण का युग था। उस समय शुंग तथा उनके परवर्ती काण्वायन ब्राह्मण राजा थे। फलतः ब्राह्मणों को सामाजिक व सांस्कृतिक विशेषाधिकार प्राप्त हो गया। जबकि शुंगकाल के पूर्ववर्ती मौर्यशासन में ब्राह्मण अत्यंत असंतुष्ट थे,  जैसा कि बी.आर. आम्बेडकर लिखते हैं कि ‘ अशोक द्वारा बौद्ध धर्म को राजकीय धर्म घोषित करना निश्चय ही ब्राह्मणवाद के लिए बहुत बड़ा आघात था। इससे ब्राह्मणों को राज्य का संरक्षण मिलना बंद हो गया। अशोक साम्राज्य में उन्हें गौण या अधीनस्थों का दर्जा दिया जाने लगा और उनकी उपेक्षा की जाने लगी। निश्चय ही कहा जा सकता है कि यह दमन इस छोटे से कारण से हुआ था कि अशोक ने सभी प्रकार के पशुओं की बलि पर रोक लगा दी थी, जो ब्राह्मणवाद का मूल आधार था। ब्राह्मणों को न केवल राज्य का संरक्षण मिलना बंद हुआ बल्कि उनका व्यवसाय भी छिन गया। यह व्यवसाय था. यज्ञ कर्म, जोकि उनकी जीविका का मुख्य स्रोत था। मौर्य साम्राज्य की समाप्ति के साथ ही ब्राह्मण उत्कर्ष तेजी से जोर पकड़ता चला गया। नष्टप्रायः यज्ञ संस्था और विस्मृतप्रायः वेदों को पुनर्जीवन  मिला। दरअसल पुश्यमित्र शुंग का मौर्य साम्राज्य से विद्रोह व सत्तासीन होना सामान्य राजविद्रोह औैर सत्ता.परिवर्तन नहीं रहा। यह ब्राह्मणवादी शक्तियों का सुनियोजित षड़यंत्र रहा, जिससे कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था को पुर्नस्थापित किया जा सके। पुष्यमित्र  ने जो राज-हत्याएं की,  उनका उद्देश्य राजधर्म के रूप में बौद्ध धर्म को नष्ट करना और ब्राह्मणों को भारत का सर्वोच्च शासक बनाना था, जिससे राजा की राजनैतिक सत्ता से बौद्ध धर्म पर ब्राह्मण धर्म की विजय हो सके।  ‘मनुस्मृति’ की रचना शुंग युग की देन है।

मनुस्मृति में उल्लिखित  वर्ण व्यवस्थाए कर्म, संस्कार, दण्ड-विधान आदि पर दैवीय शक्ति व धर्म का मुलम्मा चढ़ा दिया गया, जिससे ब्राह्मणों का सामाजिक व सांस्कृतिक वर्चस्व जनमानस पर काबिज किया जा सके जो कि बौद्ध व जैन धर्म के प्रभाव के कारण नष्टप्रायः हो चुका था।संपूर्ण मनुस्मृति में ब्राह्मणों  का प्रभाव दिखाई पड़ता है। ब्राहमणों  श्रेश्ठ सिद्ध करने के लिए कई ऐसे विधान निर्मित किए गए। ब्राह्मण को सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी   उल्लेखित करते हुए कहा गया कि ‘ ब्राहमण’  अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है और अपना ही दान करता है जबकि दूसरे व्यक्ति ब्राह्मण की दया से इन सबका भोग करते हैं।’

संपूर्ण ग्रंथ का केंद्रीय तत्व समाज में जातिगत अनुक्रमण को बनाये रखना- ब्राह्मणों की श्रेष्ठता,  शूद्र की दासत्व स्थिति और समाज को वर्ण-संकरता से बचाना , आदि ही है। अध्ययन-अध्यापन, संस्कार, विवाह, दण्ड-विधान आदि समग्र सामाजिक व धार्मिक क्षेत्रों में स्पष्टतया ब्राह्मण विशेषाधिकार सम्पन्न दिखते हैं। मनुस्मृति  (९ /313 )  के अनुसार ब्राह्मण इतना अधिक पूज्य है कि उसे राजा भी क्रोधित न करें क्योंकि ब्राह्मण अपने शाप द्वारा उसे नष्ट कर सकता है। जाति-व्यवस्था में रिचुअल पावर सेक्युलर पावर से ऊँचा होता है। राजा (क्षत्रिय)  सेक्युलर पावर से जबकि ब्राह्मण रिचुअल पावर से संबद्ध होने के कारण क्षत्रिय से उच्च अवस्थिति पर होता है। ड्यूमा ब्राह्मण व क्षत्रिय की इन दोनों शक्तियों में विरोधाभास को रेखांकित करते हैं। इसका कारण सत्ता राजा (क्षत्रिय)  केन्द्रित होने के बावजूद उसका रिचुअल पावर से नीचा समझा जाना है।
वस्तुतः ब्राह्मण व क्षत्रिय जान-बूझकर एक दूसरे से स्वयं को उच्च-निम्न घोषित कर समाज में प्रभुत्वशाली बन गए थे तथा अपने विरोधाभास के बावजूद एक साथ रहकर समाज पर शासन करते थे। जैसा कि मनुस्मृति के एक श्लोक ( 9/322) में उल्लेखित है,  ब्राह्मण के बिना क्षत्रिय तथा क्षत्रिय के बिना ब्राह्मण समृद्धि नहीं पा सकते, किन्तु परस्पर सहयोग के द्वारा दोनों ही इस लोक तथा पर लोक में पर्याप्त समृद्धि प्राप्त करते हैं। जिस आधार पर रिचुअल पावर अपने को शुद्ध बताने के लिए  मांस खाना , हिंसा करना जैसे कृत्य को अशुद्ध परिभाषित करता है। ये कृत्य  क्षत्रियों के लिए  मान्य है,  क्योंकि ब्राह्मण इन्हें ‘राजसी ‘ कृत्य के तौर पर व्याख्यायित कर देता है। वही कृत्य निचली जातियों में प्रचलित होने पर उसे ‘तामसिक’  कोटि में व्याख्यायित कर इन जातियों को सामाजिक पदानुक्रम में निम्न अवस्थिति पर रख दिया जाता है। वस्तुतः पवित्रता और अपवित्रता के बीच भी संबंध परिस्थितिजन्य है,  न कि सामाजिक तौर पर अंर्तनिहित है।

शूद्रों को जन्मतः अशुद्ध माना जाता है,  इसी आधार पर उनके खान-पान– रीति-रिवाज भी अशुद्ध होते हैं। शूद्रों को उपनयन संस्कार की भी इजाजत नहीं दी गई है। मनुस्मृति की रचना के पहले उपनयन गुरुकुल में होते थे, जहां बालक के शिक्षण व प्रशिक्षणोपरांत गुरु उनके वर्ण का निर्धारण करता था। बी. आर.  आम्बेडकर के अनुसार ‘उपनयन के मामले में ब्राह्मणवाद ने जो मुख्य परिवर्तन किया,  वह था उपनयन करने का अधिकार गुरु से लेकर पिता को देना। इसका परिणाम यह हुआ कि चूंकि पिता को अपने पुत्र के उपनयन का अधिकार था,  इसीलिए अपने बालक को अपना वर्ण देने लगा। इस प्रकार उसे वंशानुगत बना दिया। इस प्रकार वर्ण निर्धारण का अधिकार गुरु से छीनकर उसे पिता को सौंप कर ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया।’
मनुस्मृति में उपनयन संस्कार की इजाजत ऊपरी तीन वर्णों ‘ब्राह्मण,  क्षत्रिय व वैश्य को दी गई,  जिसके द्वारा वह द्विजता (दुबारा जन्म अर्थात आध्यात्मिक जन्म)  की स्थिति प्राप्त करता है। ब्राह्मणवादी ग्रंथों में शारीरिक जन्म को अशुद्धता के रूप  में देखा जाता रहा है। शूद्रों का उपनयन संस्कार न होने के कारण उन्हे स्थायी तौर पर अपवित्र कोटि में रखा गया है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री लुईस ड्यूमा जाति व्यवस्था के श्रेणीकरण को शुद्धता-अशुद्धता संबंधी सिद्धांत से उत्पन्न मानते हैं। जिसमें उच्चतम श्रेणी पर सदैव ब्राह्मणों  होते है। ये ही पवित्रतम होते हैं और अधिकांश कर्मकाण्ड का संचालन करते हैं।  क्लाउड मेलासॉक्स (Claude Mellasoxus) का मंतव्य है कि शुद्धता-अशुद्धता के हथियार द्वारा वर्गीय संरचना को जाति-संरचना में तब्दील कर दिया जाता है। उसे चिरस्थायी बनाने के अंतर्निहित उद्देश्य से ही संचालित किया जाता है।
मनुस्मृति स्त्री को घर की चौहद्दी में रहने तथा शूद्र को द्विज सेवाकर्म से आदेशित.निर्देशित करके ब्राह्मणवाद का मजबूत ढांचा खड़ा करता हुआ दिखता है। मनुस्मृति शूद्र को वेद अध्ययन का अधिकार नहीं देता। यह विशेषाधिकार केवल द्विज को देता है। वह शूद्र को अध्ययन से वंचित ही नहीं करताए बल्कि उन व्यक्तियों के विरुद्ध दंड की व्यवस्था भी करता हैए जो शूद्र को वेद अध्ययन करने में मददगार होते हैं। मनुस्मृति में शूद्र की उपस्थित में वेद अध्ययन पर निषेध , शूद्र स्त्री को शिक्षा एवं जिसका शिष्य शूद्र हो उसे श्राद्ध में निमंत्रित करने हेतु अयोग्य बताया गया है।

मनुस्मृति में राज्य अपने दंड और न्याय व्यवस्था द्वारा ब्राह्मणवादी पुरुषवादी मूल्यों के संरक्षक की भूमिका में ही परिलक्षित होता है। द्विज ;ब्राह्मण तथा क्षत्रियद्ध को दारुण वचन से आक्षेप करने वाले शूद्र को उसकी जीभ काटकर दण्डित करना चाहिएए क्योंकि वह नीच से उत्पन्न है।  राज्य वर्णवादी व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाने पर शूद्रों को दण्डित करता है।  इस प्रकार सामाजिक और आर्थिक सत्ता के साथ ही राजनैतिक सत्ता भी दलितों पर शोषण और उत्पीड़न कर रही है। राज्य के दण्ड विधान का नियमन जाति पदानुक्रम द्वारा ही किया गया है। जहाँ ब्राह्मणों के प्रति दण्डविधान काफी उदार हैं, वहीं दूसरी ओर शूद्रों के प्रति अत्यंत क्रूर हैं। इसी प्रकार अंतरजातीय यौन संबंधों की नियमावली में भी उच्चवर्णीय पुरुष का निम्नवर्णीय स्त्री के साथ संबंध होने पर किसी भी प्रकार के दण्ड की व्यवस्था नहीं हैए वहीं निम्नवर्णीय पुरुष का उच्चवर्णीय स्त्री के साथ संबंध स्थापित करने पर उसे परस्त्रीगमन और बलात्कार दोनों के लिए कठोर दंड दिया जाता था।

मनुस्मृति सामाजिक नियमों का शास्त्र है। इसके निर्देशों  में हम तत्कालीन पारिवारिक-व्यवस्था को एक संगठित सामाजिक इकाई रूप में निर्मिति के उपक्रम को देख सकते हैं। भारतीय सामाजिक व्यवस्था का आधार रक्तशुद्धता और जाति-व्यवस्था है। इसी संश्लिष्ट जाति-संरचना को बनाये रखने के लिए वैवाहिक आदर्शों का निर्माण आवश्यक माना गया। मनुस्मृति के अनुसार ब्रह्म,  दैव, आर्य, प्रजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे। जिसमे प्रथम चार प्रकार के विवाहों की सामाजिक स्वीकृति ज्यादा रही होगी। वहीं राक्षस और पैशाच विवाह को स्त्री के साथ बलात् आचरण को मान्यता देने की व्यवस्था के अंतर्गत माना जा सकता है। गांधर्व विवाह भी प्रचलित और प्रायः स्वीकृत विवाह थे। परंतु प्रेम में दोनो सहभागियों का अलग-अलग इकाई के रूप में स्वतंत्रता की कोई धारणा नहीं थी। मनुस्मृति अंतरजातीय विवाह हेतु प्रदूषक’  का विधान करने के बावजूद अनुलोम विवाहों को स्वीकार्यता देता है।
शूदैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विषः स्मृते।
ते च स्वा चैव राज्ञश्र ताश्र स्वा चाग्रजन्मनः।

( शूद्र पुरुष की शूद्रा,  वैश्य पुरुष की वैश्य और शूद्रा- क्षत्रिय पुरुष की क्षत्रिय,  वैश्य और शुद्रा ,  ब्राह्मण पुरुष की ब्राह्मण, क्षत्रियए वैश्य और शूद्र वर्णों से उत्पन्न स्त्रियों से विवाह हो सकता है। )

अनुलोम विवाह के विपरीत क्रमिक वैवाहिक प्रणाली प्रतिलोम विवाह कहलाती है। मनुस्मृति में अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह श्रृंखला ही नहीं अपितु ऐसे विवाह से उत्पन्न संतानों की श्रृंखला भी उल्लेखित है। ‘अनुलोम विवाह के ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न संतान ‘अम्बष्ट ‘ कहलाता है। क्षत्रिय पुरुष व शूद्र स्त्री से उत्पन्न संतान ‘उग्र’ नामक  होता है, जो कुकर्मा व क्रूर चेष्टा वाला होता है। प्रतिलोम विवाह के क्षत्रिय पुरुष व ब्राह्मण कन्या से उत्पन्न पुत्र ‘सूत’  वैश्य से क्षत्रिय कन्या से उत्पन्न पुत्र ‘ मागध’  और ब्राह्मण वर्ण की कन्या से उत्पन्न पुत्र ‘ वैदेह’  होता है। शूद्र  से वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण कन्या से उत्पन्न पुत्र क्रमशः ‘आयोगव’, ‘क्षता’  और मनुष्यों में नीचतम ‘ चांडाल’  होता है। मनुस्मृति में उपरोक्त विवाहों में केवल प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न चांडाल ही स्पर्श के अयोग्य कहा गया है। शेष  सभी संतानों को स्पर्श किया जा सकता है। शूद्र से प्रतिलोम क्रम में विवाह से उत्पन्न आयोगव, क्षत्ता तथा चांडाल शूद्रों की अपेक्षा हीन तथा मनुश्यों में अधम कहे  गये हैं .’ मनुस्मृति का प्रतिलोम विवाह व उससे उत्पन्न संतान के प्रति कठोर विधान जाति रक्त-शुद्धता तथा जाति विभेद व अलगाव का पूरा ढांचा निर्मित करता है। मनुस्मृति ने जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं जहां वर्णीय पदानुक्रमिक सिद्धांत को आधार न बनाया हो।

ब्राह्मणवाद के साथ-साथ पितृसत्तामक व्यवस्था को कायम करना व उसे चिरस्थायी रखना मनुस्मृति का मूल प्रयोज्य रहा,  जिनमें शूद्रों के  साथ-साथ स्त्री पर भी अधीनस्थता व विभेद संबंधी अगणित श्लोक उल्लेखित हैं। मनृस्मृति स्त्री को पति की अधीनता में रहते हुए पति-सेवा का निर्देश  देता है। यह शास्त्र स्त्री को पतिपरायणता और गृहस्थ-जीवन की जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को आदेशित -निर्देशित करता है।  इससे यह परिलक्षित होता है कि तत्कालीन समाज में स्त्री पर आरोपित यौन-वर्जनाएं टूटने लगीं थीं। अतः मनुस्मृति की मूल चिंता स्त्री यौनिकता को लेकर ही है। इस कारण ब्राह्मणवादी पुरुषवादी दृष्टि से लिखित यह शास्त्र स्त्री-यौनता को नियंत्रित करने के उद्देश्यवश ही पतिव्रता का कर्तव्यपाठ कई अध्यायों में वर्णित करता है। मनुस्मृति स्त्री की  भूमिका को पब्लिक डोमेन में लगभग निषेधित सा करके उसे प्राइवेट डोमेन में ही सीमित कर देता है,  जिससे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दोहरे हित पूरे होते- पहला स्त्री यौनता पर नियंत्रण,  दूसरा घरेलू दायरे में संलग्न होने पर स्त्री आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं हो सकेगी। चूंकि घरेलू कार्य को आर्थिक कार्य के तौर पर चिह्नित ही नहीं किया जाता है। इस वजह से स्त्री की पुरुष पर आर्थिक निर्भरता,  अंततः उसे पुरुषवादी व्यवस्था में अपनी सहमति देने को विवश भी कर देता है।’

विभिन्न वर्णों हेतु निर्धारित अलग-अलग प्रशस्त्र विवाह  के आलोक में देंखे तो ब्राह्मणों में कन्या दान की वस्तु,  क्षत्रियों में शक्ति द्वारा विजित्,  वहीं वैश्यों और शूद्रों में खरीदी गई वस्तु है। इस प्रकार स्त्री के श्रम और पुनरुत्पादन पर पति के अधिकार को वैधता शास्त्रों के इन्हीं विधानों से मिलती है। विवाह के लिए स्त्री की उपयुक्तता का मापदण्ड उसके शारीरिक सौन्दर्य से ही निर्धारित किया गया है।
अव्याड्डी सौम्यनाम्नी हंसवारणगामिनीम्
तनुलोमकेशदशनां मृदडमीमुदहेत्स्सियम्।।
(जो किसी अंग से हीन नही,  सुंदर नामोवाली हो,  हंस या गजगामिनी हो,  सूक्ष्म रोम तथा पतले-पतले दांतों वाली हो और सुकुमार शरीर वाली हो,  ऐसी कन्या से विवाह करें।)

पति की आज्ञा का उल्लंघन करने वाली स्त्री को इस जन्म
और अगले जन्म में भी कठोर दंड का विभाजन है। निर्धारित किये गये निर्देशों की अवहेलना करने पर राजा द्वारा स्त्री को दण्डित करने का भी उल्लेख है।  इससे यह तथ्य उजागर होता है कि तत्कालीन लैंगिक-विभेदकारी व्यवस्था के मुखर प्रतिरोध में कुछ स्त्रियां गई होंगी। जिससे उच्चवर्णीय पुरुषों को अपना वर्चस्व ध्वस्त होता नजर आने लगा हो। इसी कारण मनुस्मृति स्त्रियों द्वारा पितृसत्तात्मक मूल्यों के प्रतिरोध में जाने पर उसे प्राप्त सुविधाएं और विशेषाधिकारों को समाप्त करने का निर्देश देने के साथ ही साथ दण्ड भी निर्धारित करता है। जिस भय से स्त्रियां इन मूल्यों के प्रतिरोध में न जाकर अपितु उसे अपनी सहमति देते हुए उसके शोषण और उत्पीड़न में सहभागी हो जाएं।

पुनर्विवाह के सम्बन्ध में भी पितृसत्ता की वर्चस्वपरकता स्पष्टतया उजागर हो जाती है। सामान्य तौर पर एक पत्नीव्रत को ही प्रतिष्ठित किया गया है। परंतु कई परिस्थितियों में पुरुष हेतु पुनर्विवाह का निर्देश भी दिया गया है। (मद्यपान करने वालीए, दुराचार वाली,  प्रतिकूल रहने वाली, रोगी, दास-दासी आदि को सदा मारने वाली और अधिक धन व्यय करने वाली स्त्री हो,  तो पति उसके जीवित रहने पर भी दूसरा विवाह कर ले)।
पुर्नविवाह की जो परिस्थितियाँ वर्णित हैं, वे भी इस शास्त्र की पुरुषवादी दृष्टि को ही प्रतिबिंबित करती हैं। पत्नी के चरित्र को अपने हित और सुविधानुसार परिभाषित करते हुए पुरुष हेतु पुनर्विवाह का रास्ता भी मनुस्मृति बना देता है। पुनर्विवाह हेतु निर्धारित परिस्थितियाँ यह दर्शाती हैं कि तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में बहुपत्नीत्व की स्वीकार्यता रही होगी.
वन्ध्याष्टमेऽधिनेघाब्दे दशमे तृ मृतप्रजा।
एकादशे स्त्रीजननी सघस्वत्वप्रियवादिनी।।

पितृवंशात्मक समाज में वंशवाहक पुरुष होने के कारण इस सामाजिक.व्यवस्था में पुत्र को महत्व दिया जाता है। विवाह संस्था का उद्देश्य हमारे शास्त्रों में पुत्र प्राप्ति ही माना गया है। पुत्र ही पितृऋण से उऋण करता है। मनुस्मृति प्रथम विवाह द्वारा पुत्र प्राप्ति न होने की स्थिति में पुरुष को दूसरा विवाह करने का निर्देश देता है। वहीं दूसरी ओर विधवा-विवाह और स्त्रियों के पुनर्विवाह का निषेध इस मान्यता के आधार पर करता है कि स्त्री (संपत्ति )  एक बार दान किये जाने के पश्चात पुनः दान नहीं किया जा सकता। पतिव्रता स्त्री के लिए दूसरे विवाह का विधान भी नहीं है। यह शास्त्र स्त्री के प्रति अन्य की धारणा को लिये हुए है। वहीं कुछ श्लोकों में स्त्री को गृहलक्ष्मी, अद्धार्गिनी आदि संबोधन भी दिये गये हैं। लेकिन यह संबोधन पुरस्कार स्वरूप उन्हीं स्त्रियों के लिए रहा होगा जो पुरुषवादी व्यवस्था के खांचें में समायोजित हो जाती होंगी। स्त्री और पुरुष की तुलना खेत और बीज से की गई है। खेत पर बीज की श्रेष्ठता स्थापित है।  खेत (स्त्री) पर खेत के मालिक (पति) का वैधानिक अधिकार होता है भले ही खेत पर खेत के मालिक का बीज न होकर किसी अन्य का बीज हो। यह धारणा संतान पर स्त्री के पति को ही सर्वाधिकार देता है।

पैतृक संपत्ति पर उत्तराधिकार संबंधी नियमों में पुत्र को ही उत्तराधिकारी बताया गया है। जबकि स्त्रीधन (माता का धन)  पर पुत्रों, पुत्रियों और पुत्रियों के अविवाहित पुत्रियों के उत्तराधिकार का विधान है। उपहारस्वरूप  विविध अवसरों पर पिता, पति, माता और भाई द्वारा मिला हुआ छः प्रकार का धन तत्कालीन समाज में स्त्रीधन माना जाता था।  स्त्री-धन पर स्त्री के संतानों का ही अधिकार था न कि उसके पति का। ब्रह्म, दैव, आर्य, प्रजापत्य तथा गांधर्व विवाहों के फलस्वरूप  संतान होना स्त्री के स्त्रीधन का अधिकारी पति होता है, वहीं असुर, राक्षस और पैशाच विवाहों में स्त्री के माता-पिता अधिकारी होते हैं। इस प्रकार मनुस्मृति स्त्री के आर्थिक-अधिकारों को बहुत ही सीमित रखता है, ताकि पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बिना किसी चुनौती या विरोध के चिरस्थायी तौर पर कायम रखा जा सके।

इस प्रकार तमाम विभेदमूलकताओं की उपस्थिति के बावजूद स्त्रियों की सम्मान-रक्षा और शांतिपूर्ण समाज की स्थापना के माध्यम से मनुस्मृति एक प्रकार की निष्पक्षता का स्वांग भी रचती है। परंतु सामाजिक स्तरीकरण का स्पष्ट प्रतिबिंबन इसमें दिखाई पड़ता है, जो पितृसत्तात्मक हितों से संचालित है। शास्त्रीय  परंपरा इसके बावजूद कि विभिन्नताओं को समाप्त करती दिखती है और सब कुछ सपाट, समान करने का प्रयास करती है,  ऐसी स्थितियों को भी दर्शाती है,  जहाँ पितृसत्तात्मक और गैरपितृसत्तात्मक संभावनाएं एक साथ बनती है। इतिहासकार सामान्यतः इनके द्वारा सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रियाओं को समझ सकते हैं और खासकर जेंडर आधारित संबंधों कोए जो प्राचीन भारत में विद्यमान थे।
जाहिर सी बात है मनुस्मृति जैसे ग्रंथ, जो एक समय हिन्दू धर्म व हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के लिए संवैधानिक नियम कायदों के स्रोत का कार्य करते थे, अपनी समस्त संरचना में स्त्री विरोधी होने के साथ दलित विरोधी भी है। यह उन शर्मनाक स्थितियों को जन्म देता है, जो एक व्यवस्था व धर्म के रुप में हिन्दू धर्म को उच्च स्थान पर स्थापित करने का प्रयास करता है। इस विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री अधिकारों में सर्वाधिक बाधक तत्व धर्म है। सीधे शब्दों में कहें तो धर्म ही स्त्री अधिकारों के बीच सबसे बड़ा अंतर्विरोध हैं। धर्मिक बाध्यतायें ही दलितों को भी उनके अधिकार से वंचित करती है.

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ISSN 2394-093X
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