सरला माहेश्वरी की कविताएँ

सरला माहेश्वरी

पूर्व सांसद सरला माहेश्वरी की प्रकाशित पुस्तकें – ‘नारी प्रश्न’, ‘समान नागरिक संहिता’, ‘भगत सिंह’, ‘अग्निबीज डिरोजियो’, ‘हवाला कांड’, ‘शेयर घोटाला’, ‘महिलाओं की स्थिति’, ‘नई आर्थिक नीति, महँगाई और उपभोक्ता संरक्षण’ ‘ज्योति बसु’ (संपादित), बांग्ला से कई पुस्तकों का अनुवाद ।

1.

दुआ करो
प्रतिशोध और प्रतिहिंसा में उठे हाथ
काँप-काँप जाए

दुआ करो
अंहकारी अट्टहास का बादल फटने से पहले
मासूम मुस्कान की धूप खिल-खिल जाए

दुआ करो
द्वेष की दीवार उठने से पहले
दरक-दरक जाए

दुआ करो
नफ़रत की आग भड़कने से पहले
इंसानियत बरस-बरस जाए !

2.

सेवया की औरतें

कलकलाती,छलछलाती,खिलखिलाती
स्वछंद झरनों की तरह बहतीं
अकेली,दुकेली,झुंड की झुंड औरतें

नाचतीं,गुनगुनाती औरतें
मर्दों के साथ, मर्दों के बिना औरतें
बच्चों के साथ,बच्चों के बिना औरतें

दुकानों में, बार-रेस्तरां और होटलों में औरतें
बस-रेलवे स्टेशनों,हर जगह पर
दौड़-दौड़ कर काम करतीं औरतें

फ़ुरसत में मौज-मस्ती करती औरतें
जाम बनाती,पीती और पिलाती औरतें
दिन में,रात में,बे-ख़ौफ़,बे-लोस
मुक्त हवा की तरह साँस लेती औरतें

स्वशासित एंडुलेशिया की स्वशासित औरतें
मन को हुलसा गयी सेवया की ये औरतें।

3.

माँ

बचपन में
माँ का साथ
जैसे सर पर
ख़ुदा का हाथ
हाथों में ले वो हाथ
भय के भूतों को देते मात

माँ के करिश्माई हाथ
जैसे कोई जादुई चराग
कितने-कितने काम
करते सब एक साथ

सूरज उगता था
माँ के साथ
दिन खिलता था
माँ के साथ
चूल्हा हँसता था
माँ के साथ
जीवन धड़कता था
माँ के साथ।

सुबह सुबह
घड़ी के अलार्म जैसी
बज उठती माँ की आवाज़
उठो लालजी भोर भयो रे …
गाते-गाते रसोई  में जुट जाती माँ
गरमा- गरम पंराठे और अचार
टिफ़िन में भर देती माँ

यायावर पिता टिकते
नहीं थे एक ठोर
चिंताओं की गठरी लादे
घूमते रहते एकछोर से
दूसरे छोर
हमारी धरती
घूमती थी
माँ के चारों ओर

जीवन की ऊँची-नीची
पथरीली राहों पर
रगड़ें खाती एकाकी माँ
जाने कैसे झरने की तरह
खुशियों सी झरती रहती

कभी-कभी हिल सी जाती
मां की बुनियाद
जब जाते लेकर
फ़ीस की फ़रियाद
कभी चूड़ी तो कभी चेन पर
फिरते रहते माँ के हाथ
स्कूल जाने से पहले माँ
रख देती पैसे हमारे हाथ
बची रहती इसी तरह
बड़ी हवेली की पोल
माँ के मोल।

4.

इस प्यार को मैं क्या नाम दूँ ?

हमारा दिल दहल जाता है
दिल उनका बहल जाता है

पहाड़ टूटता है हम पर
उन्हें मज़ाक़ सूझता है

जान पे बन आती है हमारे
उन्हें इसमें कोई बात नजर नहीं आती

हम बेमौत ही मरते जाते हैं
बस यूँ ही आते-जाते हैं

हमारे जीवन का क्या है मानी
सब तो है उनकी मेहरबानी

इस प्यार को मैं क्या नाम दूँ
बेदाम की ये ज़िंदगी उन पे वार दूँ ।

5.

डिजिटल संस्कृत का महिमा-गान

सुनो ! सुनो ! सुनो देशवासियों
सुनो ! सुनो ! सुनो विश्ववासियों

अभी-अभी आकाशवाणी से हुई है उद्घोषणा !

देवताओं ने कर दी है मुक्त
देवभाषा संस्कृत की सरस्वती की
लुप्त वेद धारा
बहेगी फिर दूध और घी की अमृत-धारा
होगा धन्य-धन्य जीवन हमारा

जो भी करेगा इसका स्मरण
पूजेगा इसके चरण
होगा उसके सारे पापों का हरण

इस धारा की महिमा अपरम्पार
छूते ही डिजिटल का चमत्कार

ऑतंकवाद हो या सभ्यताओं का टकराव
बढ़ता हुआ तापमान
भूख-ग़रीबी या अकाल
पल भर में होगा सबका इंतकाल

उठो ! उठो ! हे पुण्यात्माओं
बजाओ विश्व-गुरु बाबा का डंका

भर लो कमंडलों में पवित्र जल
गाओ मस्त अविरल
मंगल मंगल मंगल

6.

बार्सीलोना का टैक्सी ड्राईवर

स्पेन का ख़ूबसूरत शहर बार्सीलोना
पर्यटकों को लगता बेहद मनमोहना

हाथों में हो जैसे हवा से भरा
रंग-रंगीला,चमकता,दमकता,इठलाता
ग़ुब्बारा कोई सलोना सा

अभी आप उसके रंगो को
प्यार से निहारना शुरू ही करते हैं
मस्ती में हवा में थोड़ा सा उछालते हैं
कि अचानक फट की आवाज के साथ
जैसे कोई विस्फोट हो जाता है
और आपके हाथों में बचा रहता है
बदसूरत,झुर्रियों से भरा,दाग़दार
लिजलिजा,चिपचिपा सा रबर

हाँ बिल्कुल वैसे ही फट पड़ा था
बार्सीलोना का वह टैक्सी ड्राइवर
जैसे हमारी किसी भूल से
खुल गये थे उसके मन के बंद कपाट
उबल पड़ा था भीतर का सारा आक्रोश

कुछ क्षणों में ही उसने
पंचर कर दी उस चमचमाते शहर की
शान-शौक़त की हवाई सूरत

स्पेनिश -भाषी ड्राईवर था वह
अंग्रेज़ी में नहीं लगता था उसकी गाड़ी का गीयर
दो-चार कदम चलकर ही अटक जाती थी उसकी गाड़ी
पर भाषा से कँहा अटकती है जीवन की गाड़ी

जैसे प्रेम और व्यथा के ढाई अक्षर
परिभाषित कर देते जीवन की कथा
मात्र चंद शब्दों में ही
बाँच दी उसने बार्सीलोना की पूरी पटकथा

बिग इंडस्ट्री,रिच मैन,पोलिटिशियन वैरी हैपी
करप्शन,कमीशन,कॉमन मैन,प्रोब्लम्स एंड प्रोब्लम्स
लाइफ़ वैरी डिफिकल्ट

जीवन का यह सूत्रधार
चंद सूत्रों में ही समझा गया
अपना ही नहीं, विषमता के संसार का पूरा सार।

7.

कार्ल मार्क्स के 198वें जन्मदिवस पर

जन्मदिन का उपहार

नहीं देना चाहती
तुम्हें कोई संबोधन
तुम हर बोधन से बड़े हो

तुम्हारा नाम ही सबसे प्रिय है मुझे

इसलिये हे मार्क्स !
आज तुम्हारे जन्मदिवस पर
देना चाहती हूँ
ख़बरों के दो उपहार

पहली खबर है स्वीडन से
शोषितों में भी शोषित
दुनिया की पहली शोषिता स्त्री के बारे में

वेश्यावृति अब मान ली गयी है वहाँ
औरतों और बच्चों के खिलाफ सामाजिक हिंसा
मजबूरी में देह बेचनेवाली औरत नहीं
देह ख़रीदने वाला पुरूष और समाज भी है अपराधी

सरकार ने ही मान ली है इसे
अपनी ज़िम्मेदारी
और देखो !
देखते ही देखते ये असाध्य सा रोग
अब लगने लगा है एक साध्य बीमारी

और,
दूसरी खबर है तुर्की से

आने वाले चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी की
सभी पाँच सौ उम्मीदवार बनी हैं महिलाएँ

नहीं यह किसी महिला अस्मिता
या किसी सामाजिक संतुलन की बात
शोषक समाज के विरुद्ध
सोच-समझ कर लिया गया निर्णय है

कहना है वहाँ की पार्टी का
महिलाएँ ही रहीं थीं सबसे आगे
उलट दिये थे उन्होंने अपने नाम लिखे सारे पुराने संबोधन
नहीं डरी थी वे आँसू गैस से
नहीं डरी थी पुलिस की गोली और डंडे की मार से
हिला दी थी उन्होंने ही शासन की चूलें
वे ही तो हैं दैनन्दिन शोषिता
सबसे शोषक, निर्मम निज़ाम की

इसीलिये
उन्हें ही, सिर्फ उन्हें ही बनाया है उम्मीदवार

है न खबर ज़ोरदार !

आज तुम्हारे जन्मदिवस पर
स्वीकार करो हमारा यह उपहार ।

8. 

तसलीमा नसरीन की आत्मकथा ‘दिव्खंडित’ को पढ़ते हुए  :

( 21 जुलाई 2015 पर इस्मत आपा को उनके सौवें जन्मदिन पर समर्पित)

सुनो आपा

तुम व्यभिचारिणी !
तुम पापाचारिणी !
तुम देशद्रोही। !
तुम विधर्मी !

तुम कुलटा, तुम कुलांगार
पहनाकर मारक अभियोगों के
सारे अंलकार
सजाकर तुम्हें शैतान
गुनहगार !
वधस्थल पर कर रहे
तुम्हारा इंतज़ार

तुम तो नहीं दोहरा सकती मसीहा का कथन
“ये नादान अपने करमों से हैं अनजान”
तुम तो बहुत अच्छी तरह गयी हो इन्हें पहचान

कि
धर्म और मज़हब के ये ठेकेदार
सदियों से चला रहे यही ख़ूनी कारोबार

कि
लोभ-लालच, झूठ-फ़रेब का इनका ये धंधा
अक़्ल और आँख को बनाए रखता है अँधा

कि
धर्म और मज़हब का नक़ाब पहने ये व्यवसाई
कैसे बन जाते हैं इंसानियत के कसाई

कि
कैसे एक इंसान सुरंजन बना दिया जाता है हिन्दू
कैसे एक इंसान हैदर बना दिया जाता है मुसलमान

देश और समाज की इस लज्जा को तुम करो उजागर
नहीं कर सकते स्वीकार, ये चतुर-चालाक सौदागर

जानती हो तुम
धर्म और मज़हब के पिंजरे
औरत की आज़ादी के हैं मक़बरे

फिर भी तुमने लिखी कविता ‘गोल्लाछूट ‘
अपने बचपन में ख़ूब खेलती थीं ये खेल लड़कियाँ
किन्तु हज़ार बंदिशों में बंदी जवान लड़कियाँ
चाह कर भी कभी खेल नहीं पाती ये खेल
पर आता है उन्हें याद बहुत यह खेल
तुम्हें भी आयी थी इसकी याद
और लिख डाली थी ये प्यारी सी कविता…
“मेरा मन होता है…
दुनिया की तमाम जवान-ज़हीन लड़कियाँ
लगा दें, गोल्लाछूट दौड़”

लिखी थी तुमने कविता ‘विपरीत खेल’
रमना पार्क की मासूम ग़रीब लड़कियों पर
मजबूरी में जो बेच रहीं थी खुद को
महज़ पाँच, दस और पन्द्रह टाका में
कभी तो बस मिलते थे मार-पीट और जूते
तुम्हारे ये पूछने पर कि मारते क्यों हैं ?
सुना था ना तुमने उनका जवाब –
‘शोक भया, मारे लगे, दिल भया, पीट दिया’।
उन सूजी हुई आँखों वाली
चोटों के निशान छिपाती
पाउडर और लिपस्टिक लगाती लड़कियों पर
ग़ुस्से और आँसुओं से लिखी थी
तुमने ये कविता…
“मेरा अब मन करता है,
पाँच-दस टाका में ख़रीद लूँ कोई छोकरा!
छोकरा ख़रीदकर, उसकी छाती-पीठ पर
ज़बर्दस्त लात जमाकर कहूँ – जा स्साला !”

फ़रवरी का पुस्तक मेला
तुम्हारे मन को देने लगता झूला
बाँग्ला भाषा और लेखकों का लगता था रेला
उस बार का मेला भी दिखा रहा था कई कमाल
तुम्हारी पुस्तकों ने मचा रखा था धमाल
विक्रेता हो रहे थे मालामाल
पाठकों का असीम प्यार
बड़े जतन से रही थी तुम संभाल

और फिर !
देखते ही देखते
सब बदल गया
जैसे कोई क़यामत आ गयी हो
अचानक ही जलने लगी तुम्हारी किताबों की होली
पाठकों की जय-जयकार के बदले
हवा में गूँजने लगी उपद्रवियों की हाय-हाय

बाँग्ला अकादमी का अध्यक्ष
हिक़ारत भरी निगाहों से दाग रहा था सवाल…
“औरत होकर मर्दों की तरह क्यों लिखती हैं ?
कोई नहीं लिखता आपकी तरह
कितना अश्लील और फूहड़ है यह सब
किसी लेखक के खिलाफ जुलूस नहीं निकलता
देखा था तुमने वहाँ !”
सभी मौजूद लेखक उसके समर्थन में गर्दन हिला रहे थे

और वो तसलीमा नसरीन पेषण कमेटी !
उसका वो छात्र नेता
कैसे धमका रहा था तुम्हें
“आप हमारी माँ-बहनों का सर्वनाश कर रही हैं
उन्हें घर-द्वार छोड़ कर निकलने को कह रही हैं
क्या है ये ‘गोल्लाछूट’ कविता
क्या है ये ‘जय-बांगला’ कविता
मैं जय-बांग्ला को नहीं मानता
यह तो अवामी लीग का नारा है”

तुमने उन्हें समझाया था
जय-बांगला सिर्फ अवामी लीग का नहीं है
जय-बाँग्ला का मतलब है आजाद बाँग्ला

घृणा से हँसने लगा था वो नेता
“ख़बरदार ! आगे से ये सब नहीं चलेगा”

तुम्हारा नाम, तुम्हारा सम्मान
जैसे सब हो गया म्लान
घोषित दुश्मनों के काफिले में अब
जुड़ गये थे तुमसे मन ही मन जलने वाले
तुम्हारे घोषित साथी भी

जानती हो ना तुम
संकट कभी अकेले नहीं आता
पूरी बारात साथ लाता है
घर वाले भी तोड़ देते हैं नाता
पितृ-सत्ता की लगाम थामे पिता को
नहीं सुहाती थी तुम्हारी यह स्वायत्तता
बेबस माँ ही किसी तरह निभाती तुम्हारा साथ
पर उस पर भी सब लगाये हुए थे घात
पीर कोठी का पीर माँ को दे रहा था धमकी
‘तुम्हारी बेटी काफ़िर है, तोड़ना होगा उससे हर नाता’

क्या जानती थी तुम ?
संगठित होकर पवित्र, पाक मूल्यों के सभी लठैत
बताकर तुम्हें निर्लज्ज, बेईमान, खानगी
देंगे तुम्हारी गर्दन मरोड़

और तो और
जिस अपनी जमात की ख़ातिर
क़लम को बनाया था हथियार
उसी जमात के लिये लड़ने का दावा करने वाले भी
नहीं थे तुम्हारे साथ खड़े होने को तैयार
तुम जैसी कुचर्चित, विवादित
लेखिका नहीं थी उन्हें स्वीकार

जानती हो ना तुम
अँध-भक्त रोबोट ही होते हैं
धर्म और शासन के प्राणाधार
तुम जैसे काफ़िर तो जहन्नुम के हक़दार

प्रतिवाद का नहीं तुम्हें कोई अधिकार
दोज़ख़ की आग ही तुम्हारा पुरस्कार !

पर सीमाओं और सरकारों के पहरेदार
देखकर हो रहे हैरान
बिना पासपोर्ट और विसा के भी
विचार कर जाते हैं सीमा पार

देखो ! कई लोग खड़े हैं तुम्हारी पाँत में
तुम जैसे और  भी कितने अभियोगी
सत्य, न्याय और संकल्पों के हठयोगी !
बताने को अपनी इंसानी जात !

तसलीमा नसरीन ! बनैला गुलाब !
कम नहीं होती ख़ुशबू की ताप !
ख़त्म  नहीं होती कभी
सत्य की आँच

सुन रही हो ना आपा !
अनगिनत क़दमों की थाप !
नहीं चलेगी फ़तवों की खाप
अपनी ही आग में जलकर
हो जायेगी राख।

9.

स्टिंग

यहाँ-वहाँ हर जगह
घूर रही है
कैमरे की आँखे मुझे

घूरती है
आतंकवादी की
चीते सी आँखे
और बंदूक़

उसके निशाने पे है
मेरी एक-एक हरकत
मेरी हर साँस

सावधान की मुद्रा में खड़े -खड़े
थक गयी हूँ मैं
उसके डर से कठपुतली की तरह
अभिनय करते-करते
क्या से क्या हो गयी हूँ मैं
जैसे मैं कोई इंसान नहीं
बंदरिया हूँ
नहीं, बंदरिया भी नहीं
क्योंकि उसे भी तो ग़ुस्सा आता है
वह भी विद्रोह करना जानती है

क्या इन घूरती आँखों ने
भूखे भेड़िये सी ललचायी आँखों ने
छीन लिया है
मुझसे मेरा वजूद
तार-तार कर दी है
मेरी चेतना
पी लिया है मेरा सारा गर्म लहू

क्या अब ज़िंदा नहीं हूँ मैं ?

डर से  रोने लगी हूँ मैं
रोते-रोते हँसने लगी हूँ मैं
ये क्या हो रहा है मुझे
कहीं पगला तो नहीं गयी हूँ
क्या हर पल की नजरदारी
काफी है किसी भी इंसान
को पागल बनाने के लिये
खुद से ही डरने लगी हूँ
सच कहूँ तो हर किसी से डरने लगी हूँ

भागना चाहती हूँ मैं
दूर, बहुत दूर
इन ख़ुफ़िया आँखों से
इस आतंकी पहरे से
जहाँ कोई भी मुझे इस तरह न देखे
जहाँ सिर्फ मैं हूँ
मेरी तन्हाई है
मुक्त हवा है, मुक्त मन है, मुक्त प्राण है।

10.
एक अकेली औरत का होना

एक अकेली औरत का होना
ख़तरे की सारी संभावनाओं के
योग का संभव होना

एक अकेली औरत का जीना
उसका
खाना-पीना और सजना
हंसना-रोना और गाना
चिरस्थायी आपातकाल के
सेंसरशिप के सांचों में ढलना

एक अकेली औरत का
सन्नाटे के कर्फ़्यू को तोड़कर निकलना
सारे अँधेरों को उनकी
औक़ात बताकर चिढ़ाना
रोशनी की तरह खिलखिलाना है
मीरा की तरह मर्ज़ी से गुनगुनाना है
एक अकेली औरत का इस्पात में ढलना है
बदलते हुए तेवर का नया इंसान बनना है।

11

लेसली उडविन

मैं भारत की बेटी निर्भया
तुम्हें सलाम करती हूँ

बेटियाँ चाहे इंडिया की हो या इंग्लैंड की
अमरीका की हो या अफ़्रीका की
या फिर पृथ्वी के और किसी भू-भाग की
सबकी पीड़ा की भाषा एक होती है

यह पीड़ा ही थी
जिसने मिटा दी थी सारी दूरियाँ
भूला दिये थे सारे भेद
भेद में क्या है अभेद
मन-मस्तिष्क में कैसे कैसे छेद

तुम्हारे कैमरे की आँखे
खोल रही थी सारे बंद दरवाज़े
बलात्कारियों के दिमाग़ के पुर्ज़े-पुर्जे
ओह! कितना मवाद भरा है यहाँ
कितनी बदबू, कितनी सड़ांध है यहाँ
कितना विभत्स दृश्य है यहाँ
हर औरत बस एक शिकार है यहाँ

कैसा नग्न सत्य है यह
ना क़ाबिले बर्दाश्त है यह

बंद करो !बंद करो ! बंद करो !
चिल्ला रहे हैं वे
सच्चाई से भाग रहे हैं वे
खुद से ही डर रहे हैं वे
धर्म और परंपरा के ठेकेदार हैं वे।

आओ उडविन !
मेरे हाथों में अपना कैमरा दो
देखो ! कैमरा अब भी वही देख रहा है

सत्य कहाँ बदलता है
है अगर यह कोई साज़िश
तो औरत के खिलाफ है यह साज़िश
आधी मानवता के खिलाफ है यह साज़िश
आओ! सब मिलकर करें बेपर्द इसे ।

12.

बदनसीब हम

हम बदनसीब हैं
और आप खुशनसीब हैं

हम बेहाल हैं
और आप ख़ुशहाल हैं

हम खस्ताहाल हैं
और आप मालामाल हैं

हम तो आम जन हैं
और आप महा-जन हैं

हम तो लोक हैं
और आप इसके तंत्र है

सारे भेद का
यही तो बस मंत्र है।

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