स्नातकोत्तर मनोविज्ञान से, पत्र-पत्रिकाओं में लेख, व्यंग्य एवं कहानियाँ प्रकाशित, संप्रति स्वतंत्र लेखन, संपर्क : siniwalis@gmail.com
ये शाम धुंधली है मेरी जिंदगी की तरह, सोचती हूँ अगर जिंदगी मुझसे कभी ये सवाल कर बैठे कि मैंने उसे दिया क्या, तो—–! तो मैं क्या जवाब दूँगी। इसी जवाब को खोजती तो मैं कब से चल रही हूँ पर हर कदम हर कोशिश के साथ जिंदगी उलझती ही चली जाती है। सब कुछ पा लेना चाहती थी, पर क्या मिला है अबतक। न चाहते हुए भी मैं अपने आप में उलझती जा रही हूँ और इधर मेरा घर कुछ दिनों से देख रही हूँ भव्या का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा है, चुप सी रहती है। कई बार उससे पूछा, स्कूल में कुछ हुआ है, कोई दिक्कत तो नहीं है। कुछ नहीं बताती। थोड़ी देर खाली-खाली आँखों से मुझे देखती है और कभी कभी मुझे कसकर पकड़ लेती है। मैंने उसके दोस्तों से भी बात की पर कोई कारण समझ में नहीं आया। शायद हार्मोनल चेंज भी इसका कारण हो सकता है या फिर—–। शिशिर से इस बारे में बात करुं पर वो तो टूर पर गया है। उसे अभी दो-तीन दिन और लग जाएंगे। दो-तीन दिन लगे या दो-तीन हफ्ते, कोई विशेष फर्क तो नहीं पड़ता मुझे, हाँ और शांति ही लगती है। ये घर और भव्या उसका इंतजार करते हों और मैं—–पता नहीं !
सोचती हूँ, पता नहीं कहना मेरे लिए अब आसान हो गया है पर इसे आसान बनने में कितना समय लगा है, वो मैं ही थी जो किसी पार्क में किसी मंदिर में घूरती आँखों के बीच घंटों शिशिर का इंतजार किया करती थी। उन आँखों के बीच शिशिर की आँखें ढूंढा करती। उसे देखते ही मैं भूल जाती कि मेरे आसपास कितने लोग हैं। मैं दौड़ कर उससे लिपट जाती। मेरे लिए उसकी आँखों में चमकीली रौशनी होती, होठों पर मिठास और साथ में उसकी ढेर सारी कविताएँ। वो मुझे सुनाता जाता, अपलक मैं उसे देखती रहती। कई बार वो पत्रिका भी साथ लाता जिसमें उसकी कविताएँ छपी होतीं। पर मैं उसका नाम बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में देखना चाहती और वो उदास होते हुए कहता, वहाँ तक पहुँचना आसान नहीं होता—–गॅाडफादर चाहिए, माथे पर किसी का हाथ चाहिए। कविता कितनी भी अच्छी क्यों न हो, लिखने से अधिक छपाना मुश्किल काम होता है। मैं उसकी आँखों में कई बार उदासी तैरते देखती। ” अगर लेखन में दम हो तो आज नहीं तो कल लोग उसे खोज कर पढ़ेंगे, पत्रिकाएं हाथोंहाथ लेंगी “, मैं बोलती रहती वो चुपचाप मुझे देखता रहता।
” काश कि ऐसा हो—–”
” होगा जरूर होगा ‘
” और काश कि तुम यूं ही उस समय मेरे साथ रहो ”
” पर तब तक—–?”
उसने मेरी हथेली अपनी हथेली में लेते हुए कहा, ” अगर मैं ये कहूं-—-मैं ऐसे ही लिखता रहूँ और तुम जीवन भर यूं ही मेरे साथ रहो, मेरी पहली पाठक, मेरी गाईड या यूं कहूँ मेरी सबकुछ बनकर——! ” उसकी आवाज हवा में तैरती रही और मेरी शाम सिंदूरी होती रही और वो सिंदूर बिखरता रहा मुझपर—–सपनों का सच होना मैं देख रही थी।डोर बेल बजा। घड़ी की ओर नजर गई, देखा दो बज गए। लगता है भव्या स्कूल से आ गई। मैं अपनी यादों और आधी लिखी कहानी को समेटने लगी कि अधूरी कहानी ने पूछा, ” मुझे कब पूरा करोगी ?”
” अब शायद रात में ही—–!”
भव्या को तो फिर भी समझा कर समय निकाल सकती हूँ पर कितनी जिम्मेदारियों को समझाया जाए। आज शाम कुछ लोग घर पर आ रहे हैं। समय तो देना ही होगा। कल सुबह-सुबह शिशिर भी आ जाएगा फिर कहाँ मिल पाएगा वक्त। अधूरी कहानी मुझे देखती रहेगी और मैं जिम्मेदारियों की चक्की में पीसती उसे। शिशिर मेरे जीवन में आया तो मेरी जिंदगी ही बदल गई। सब कुछ खिला-खिला, खुशबू में भींगा-भींगा था। हर वक्त मैं, वो और उसकी कविता होती। कभी-कभी उसकी अधूरी लाइन मैं भी पूरा कर देती। मैं जीवन का संगीत सुन रही थी। महसूस करने लगी थी वो मुझपर आश्रित रहने लगा है और अपनी खुशियों के लिए मैं उस पर। पर—–अब मेरे जीवन में उसका होना किसी तूफान से कम नहीं और हर वक्त किसी सूखे पत्ते की तरह मैं काँपती रहती हूँ।
मेरे जीवन से सुगंध उड़ चुका है और सूखे फूल की तरह मैं बिखर रही हूँ—–ओह फिर मन कहाँ भागने लगा। भव्या स्कूल से थकी आई है और मैं——।
भव्या चुपचाप टीवी देख रही है। अपनी उम्र से ये कुछ अधिक बड़ी हो गई है, शरारतें नहीं करती, इस उम्र की नादानियाँ नहीं दिखती, चुप होती जा रही है दिन-ब-दिन। जब भी मेरे और शिशिर के बीच झड़प होती है कभी कभी वो भी सामने होती है। हालांकि हरबार मैं चाहती हूँ कि हम ऐसा कुछ भी उसके सामने नहीं करें जिससे उसपर कुछ गलत असर हो। पर सिर्फ मेरे चाहने से तो सब कुछ नहीं होता—–। पर आगे से बिल्कुल नहीं—–मैं ही चुप रह जाऊंगी। बहुत कुछ सहना पड़ता है, ऐसे ही घर की छत और उसके नीचे संसार नहीं बसता। ओह—–फिर दूध उबल कर गिर गया, मेरी ही तरह। रात के नौ बज गए। गेस्ट अभी अभी गए हैं। सुबह स्कूल की तैयारी भी करनी है और भव्या को भी थोड़ा समय देना है-क्वालिटी टाइम चाहिए बच्चों को। सही है बच्चे शोपीस तो नहीं हैं कि बस खिला पिला दो और झाड़ पोछ कर घर में सजा दो। उसकी भी भावनाएं हैं, अपनी उलझनें हैं। मैं नहीं समझूंगी, टाइम नहीं दूंगी तो और घर में कौन—–! शिशिर को तो गोष्ठियों से टाइम ही नहीं मिलता, घर आता है थकान उतारता है फिर अगली मंजिल की तरफ बढ़ जाता है। घर में उनके साथ कौन कौन रहता है, शायद उसे पता हो या ना हो, परिवार की आर्थिक जरूरतों के अलावा भावनात्मक जरूरतें भी तो होती हैं, कवि है पर भावना नहीं समझ पाता।
भव्या के पिछले टेस्ट का जो रिजल्ट आया था, संयोग से वो घर पर ही था और उसकी नजर पड़ गई थी रिपोर्ट कार्ड पर। भव्या पर कम पर मुझपर तो बरस ही पड़ा—–” क्या करती हो दिनभर—–घर और बेटी संभल नहीं रही पर साहित्यकार बनने से तुम्हें फुरसत कहाँ है—–।” लगा जैसे तीर कलेजे में आकर चुभ गया-साहित्यकार शब्द मेरे लिए नहीं तुम्हारे लिए बना है मैं तो——! वो रिपोर्ट कार्ड फेंक कर चिल्ला उठा, ” तुम ने कोई कसर तो छोड़ी नहीं—–उस दिन हँस-हँस कर जो उस से बात कर रही थी—–उसके कुछ दिन बाद ही तो तुम से उसने फोन करके कहानी माँगी थी—–मैं क्या नहीं समझता तुम औरत होकर अपना उपयोग करना अच्छी तरह जानती हो।”
” तुम जैसों के लिए ये कहना बड़ी बात नहीं है कि औरत के लिए आगे बढ़ना आसान होता है—— औरत के लिए औरत होना उसकी सबसे बड़ी समस्या भी तो है ये क्यों नहीं दिखता—— आदमी जो देखना चाहता है उसे वही दिखता है।” पर मैं जवाब देकर बात बढ़ाना नहीं चाहती थी, बस इतना ही कहा,
” क्या तुम संपादक से नहीं मिलते—–?”
” तुममें और मुझमें अंतर है ”
” क्या अंतर है ?”
” तुम सज संवर कर जाती हो !”
ओह, कितनी गिरी हुई सोच है इसकी। जवाब तो था मेरे पास पर झगड़ा और बढ़ जाता अगर मेरी नजर पर्दे के पीछे खड़ी भव्या पर नहीं पड़ती। उसका डरा सहमा चेहरा देख मैं चुप हो गई और वहाँ से आँसू पोछते हुए हट गई।
रात के ग्यारह बज गए। भव्या सो गई। मैं इतनी थक गई कि अब कहानी पूरी करने की हिम्मत नहीं बची। फिर अधूरी कहानी मुझे देख रही थी। कल तक मुझे उसे भेजना है। कई बार मैं वक्त ले चुकी पर कहानी पूरी ही नहीं हो पाती। अगर अभी पूरी नहीं हुई तो कल सुबह-दोपहर-शाम-रात तक समय नहीं मिल पाएगा क्योंकि कल सुबह ही शिशिर आ जाएगा। फिर दो चार दिन सफर की थकान उतारता रहेगा और घर के खाने का स्वाद लेता रहेगा। कहानी पर काम करते देखकर तो उस समय शायद चुप भी रह जाए पर रात होते होते कोई न कोई बहाना लेकर मुझपर बरस जाता है। महीनों से उसका ये व्यवहार मैं देख रही हूँ। अब तो आँख बंद करके भी ये जान जाती हूँ कि मेरे किस व्यवहार पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, सब कुछ कैलकुलेटेड सा हो गया है। ये दर्द क्यों—–ओह ये तो उस दिन शिशिर ने गुस्से में गरम पानी डाला था। उसके बाद हाथ में फफोले पड़े थे। अभी तक पूरा सूखा नहीं है। दो-चार दिन दवाई लगाई फिर काम में दवाई लगाने का ध्यान ही नहीं रहा। कहाँ रह पाता है अपना ध्यान और वो कहता है मुझे सजने संवरने से फुरसत ही नहीं है।
एक समय था कि मेरा सजना संवरना उसे पसंद था। खासकर जब किसी गोष्ठी सम्मेलन में जाना होता या किसी संपादक, समीक्षक मित्र से मिलना होता। उस दिन वो चाहता मैं उसके हिसाब से तैयार होऊँ। मुझे भी उसके हिसाब से सजना संवरना अच्छा लगता। सच कहूं तो कभी कभी मुझे अपने आप से रश्क होने लगता, कि दुनिया जिसकी दीवानी है वो मेरा—–। उसके साथ मुझे चलते गर्व होता कि मैं इतने बड़े कवि की पत्नी हूँ। सभा संगोष्ठियों में उसके साथ आते जाते धीरे – धीरे मैं महसूस करने लगी कि सुंदरता के अलावा मैं उसकी नजर में और कुछ नहीं रही। मेरी भावना, मेरी खुशी, मेरी जरुरत धीरे धीरे शिशिर के आगे बढ़ने के जूनून में सब खोता चला गया। इस बीच कुछ ऐसे साहित्यकारों से मिली जिन्हें मुझमें मेरी सुंदरता के अलावा भी कुछ दिखा, वो थी मेरी लिखने की प्रतिभा। शिशिर की कविता सुनते सुनते न जाने मुझमें लिखने की क्षमता कहाँ छुपी थी वो बाहर आ गई। जब उनलोगों ने मुझपर भरोसा जताया तो मैं भी लिखने लगी, ” कहानी “। मेरी कहानी छपने लगी और धीरे धीरे बड़ी बड़ी पत्रिकाओं में भी। मुझे लगता शायद ऊपर वाले ने हमारी जोड़ी इसीलिए बनाई थी कि हमदोनों एक ही राह के राही बनेंगे। जब मंजिल एक हो तो साथ चलना आसान हो जाता है।
घर संसार से मैं समय चुरा कर लिखने लगी, कहानियाँ। पाठकों के पत्र और फोन आने लगे। पहले शिशिर के कहने पर जाती थी अब मेरे लिए भी निमंत्रण आने लगे। पर अब वो मुझे अपने साथ ले जाना नहीं चाहता। कभी कभी शिशिर तय समय से पहले ही मुझे बिना बताये निकल जाता और मैं इंतजार करती ही रह जाती। भव्या के जन्म के बाद औरत की सबसे बड़ी जिम्मेदारी घर और बच्चे को संभालना होता है, ये मुझे शिशिर समझाने लगा। उसकी परवरिश में कहीं कोई कमी न रह जाए। इससे जुड़ी किताबें ला लाकर देने लगा। मैं कुछ और पढ़ना चाहती वो मुझे कुछ और पढ़ाता। फिर भी किसी तरह मैंने अपने सपने को बचाये रखा। एक हफ्ते पहले ही की तो बात है उस दिन शिशिर घर पर था। भव्या की छुट्टी थी स्कूल में। मैं तैयार होने लगी संपादक से मिलने जाना था। शिशिर से कहा, ” भव्या का ध्यान रखना—–मुझे लौटने में तीन चार घंटे लग जाएंगे।”
” कहाँ जा रही हो——?”
” संपादक एक कार्यक्रम करवाना चाहते हैं, इसी शहर में। वो चाहते हैं कि मैं भी हिस्सा लूँ। इसी सिलसिले में कुछ——”
” अच्छा तभी ये सिल्क की साड़ी और लिपस्टिक लगाकर जा रही हो, मैं सब समझता हूँ—–कहानी कैसे छपती है और कार्यक्रम कैसे होते हैं।”
मैंने आवाज नीची रखी क्योंकि आजकल भव्या की गहरी होती उदासी मेरी आँखों में थी। “क्या कहना चाहते हो तुम कि मैं—–?”
” तुम सब समझ रही हो। उस दिन जब तुम मेरे साथ गई थी तो वो तुम्हें अपने केबिन में लेकर क्यों गया था—–क्या मेरे सामने बात नहीं हो सकती थी !”
” मेरी नहीं तो कम से कम उनकी उम्र का तो लिहाज करो।”
” मुझे बेवकूफ बनाती है—–मैं खूब समझता हूँ तुम्हें भी और—–!”
गैस पर पानी खौल रहा था हमारी ही तरह। मुझे अंदाजा नहीं था वो इस हद तक भी जा सकता है। उसने खौलता हुआ पानी मुझपर फेंक दिया। ओह, सिर्फ शरीर ही नहीं जला आत्मा भी जल गई। मेरे भीतर शिशिर नाम जलने लगा, दुर्गंध आने लगी। साड़ी थी पूरा शरीर तो नहीं जला पर हाथों पर फफोले पड़ गए मेरी ही जिंदगी की तरह। वो अगले ही दिन देश के प्रख्यात कवि संगोष्ठी में शामिल होने के लिए चला गया। बहुत रात बीत गई। अधूरी कहानी फड़फड़ाती रही मेरे सामने। मैं भव्या को, उस अधूरी कहानी को और घड़ी के पेंडुलम को देखती रही।