वैचारिक और घरेलू पत्रिकाओं में स्त्री मानसिकता का निर्माण

प्रियंका सिंह

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शोधरत।  तदर्थ प्रवक्ता,हिन्दी विभाग,दौलत राम महाविद्यालय ,दिल्ली विश्वविद्यालय । संपर्क : singh.priyanka135@gmail.com

संदर्भ: स्त्री-काल, आजकल,अहा ! जिंदगी, गृहशोभा, सरिता

( राजनीति विज्ञान विभाग, दौलतराम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय  और भारतीय जन संचार संघ के द्वारा  संयुक्त रूप से आयोजित ‘ प्रिंट मीडिया और महिलाएं’  विषय  पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रियंका सिंह ने  स्त्री-काल, आजकल, अहा ! जिंदगी, गृहशोभा और सरिता को केंद्र में रखकर अपना शोध -पत्र  प्रस्तुत किया.  ) 


आजकी हमारी दुनिया पूरी तरह से एक आभासी दुनिया बन चुकी है.इस आभासी दुनिया में प्रतिदिन विकसित होने वाली तकनीकों से हमारे जीवनकी संवेदना तेजी से प्रभावित हो रही है. बेहद ही काल्पनिक और फैंटेसीयुक्त अनुभवों से गुजरना आम बात हो गई है. जिस तरह जीवन में हम सचमुच के सुख, दुःख, क्रोध, पीड़ा और उपलब्धियों को अनुभव करते हैं वैसे ही इस दुनिया में भी करने लगे हैं. विशेषज्ञों ने इसे ‘आभासी यथार्थ’ या Virtual Realityका नाम दियाहै. यह यथार्थ जीवन के विशुद्ध अनुभवों को हाशिए पर ले जा रहा है. ‘टाइम’ पत्रिका के नवीनतम अंक में ज़ोएल स्टीन ने इस आभासी दुनिया का विश्लेषण करते हुए इसे“Redical new form of expression” कहा है.(1)अभिव्यक्ति की ऐसी आभासी प्रविधियों ने प्रिंट मीडिया के प्रभाव को काफी कम कर दिया है. यह सही है कि आज अधिकांश पत्र-पत्रिकाएँ अपना ऑनलाइन संस्करण निकाल रही हैं , लेकिन पत्रिकाओं का ऑनलाइन किया जाना ही एक तरह से आभासी दुनिया के प्रभाव का स्वीकार है.दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया एक प्रकार से प्रिंट मीडिया को निर्देशित कर रही है.प्रभाव और निर्देशन के बीच प्रिंट माध्यम की अपनी मूल प्रकृतिबदल रही है,उनका स्वतंत्र अस्तित्व एक नया रूप लेता जा रहा है.इसलिए प्रिंट मीडिया से जुड़े किसी भी मुद्दे पर बात करते हुए हमेंसबसे पहले इस समस्या पर सोचना चाहिए.यह एक प्रश्न भी हो सकता है और एक प्रस्थान-बिन्दु भी कि क्या अपनी मूल प्रकृति और स्वरूप केबदलते हुए दौर में ये माध्यम एक व्यापक पाठक वर्ग के लिए निर्धारित अपने लक्ष्यों मेंकोई गुणात्मक परिवर्तन कर रहे हैं?

हम इसे प्रस्थान-बिन्दु के रूप में लेते हुए अपने विषय से जोड़ते हैं.आभासी दुनिया की तुलना में प्रिंट माध्यमों में परिवर्तन अपेक्षाकृत धीमा होता है और  लक्षितपाठक वर्ग के व्यक्तित्व के विकास पर भी इसका प्रभाव पड़ता है. यदि एक व्यापक पाठक वर्ग के रूप में स्त्रियों की कल्पना करें तो उनकेमानसिकता-निर्माण में पत्र-पत्रिकाओं की अहम् भूमिका रही है. यहाँ स्त्रियों के बौद्धिक विकास में पत्रिकाओं की भूमिका और पत्रिकाओं की प्रस्तुति में स्त्रियों की भूमिका कासमानांतर अध्ययन ही हमारा अभीष्ट है. हमने वैचारिक और घरेलू या मनोरंजन-प्रधान पत्रिकाओं का चयन किया है. मुख्यतः मानसिकता निर्माण के इन दो पहलुओं पर विशेष ध्यान दिया गया है : पत्रिकाओं के प्रबंधन से जुड़े विभिन्न पदों पर स्त्रियों के कार्य और इन पत्रिकाओं में एक विषय या मुद्दे के रूप में स्त्री या स्त्री-संबंधी सामयिक विचार. घरेलू या मनोरंजन से जुडी पत्रिकाओं में हम स्त्री के प्रबंधन और उसकी छवि-निर्माण का एक अलग पैटर्न पाते हैं जबकि वैचारिक पत्रिकाओं में यह पैटर्न बदल जाता है. इस आलेख में दोनों की प्रक्रिया, प्रासंगिकताऔर प्रभाव का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है. अध्ययन का रुखबदलते हुए पैटर्नकी ओररखा गया है. पूरे आलेख कीप्रस्तुति इस रूप में है कि विषय केवल स्त्री के मुद्दों तक ही सीमित न रहे,बल्कि समाज और संस्कृति के व्यापक सरोकारोंकी एक अनिवार्य चिंता के रूप में उभरे. हमने अपनी बातों को पाँच विचार-बिन्दुओं के अंतर्गत रखा है.

पत्रिकाओं की स्त्री-केंद्रित अवधारणाएँ(WOMEN ORIENTED CONCEPT OF THE MAGAZINES) :

स्त्री-केंद्रित अवधारणा का सामान्य अर्थ है एक पाठक के रूप में स्त्री को सोचते हुए उसके अनुकूल सामग्री की प्रस्तुति. हालाँकि इस संदर्भ में कुछ संपादकों ने विशेष रुख अपनाया है. ‘स्त्रीकाल’ घोषित रूप से स्त्रीवादी पत्रिका है.अपने उद्द्येशों को रेखांकित करते हुए संपादक संजीव चंदन ने लिखा है, “हमारा प्रयास होगा कि किसी भी प्रकार के जैविक विभेद से परे लेखकों की सामग्रियों, बहसों, विमर्शों को जगह दी जाये और उसकी स्थितियों को स्त्रीवादी आदर्शों से ही परखा जाये. वैसे बहस के लिए खुला मंच देना भी हमारा प्रयोजन होगा.”(2) यह पत्रिका जैविक विभेद को नकारती हुई स्त्रीवाद के पक्ष में जाती है. और स्त्रीवादी लेखन के लिए स्त्री होना जरूरी नहीं है. पत्रिका के विभिन्न अंकों में प्रकाशित सामग्री को देखने से पता चलता है कि पुरुषों के लेखन को उसमें निहित स्त्रीवादी व्याख्या के कारण ही शामिल किया गया है. ज़ाहिर है कि अपने लेखकों के चयन में इस पत्रिका का दृष्टिकोण समन्वयात्मक है जबकि इसमें लेखन की प्रस्तुति एक ख़ास दृष्टिकोण के तहत की जाती है.दूसरी ओर यदि दिल्ली प्रेस की ‘गृहशोभा’ जैसी पत्रिका को देखें तो इसकीअवधारणा पूरी तरह से गृहिणियों से संबंधित है. इस पत्रिका केविज्ञापन में ये पंक्तियाँ लिखी रहती हैं—
“आपकी सच्ची मार्गदर्शिका यही शोभा
मैं स्वतंत्र हूँ, चट्टान हूँ विश्वास की
मैं आईना हूँ, गरिमा हूँ
मैं प्रतिशोध का हथियार हूँ
मैं तैयार हूँ हर कल के लिए”(3)

गृहशोभा’ जैसी पत्रिकाओं में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि उनके पाठकप्रायः स्त्रियाँ होती हैं. घरलू कामकाज के बाद फुर्सत के क्षणों में जागरूक महिलाएँ ऐसी पत्रिकाएँ पढ़ती हैं. अधिकांश महिलाएँ टेलीविजन धारावाहिक देखने की ही तरह पढने के ऐसे अनुभवों को मनोरंजन का ही एक रूप मानती हैं.‘गृहशोभा’ की पूरी प्रस्तुति गृहिणियों को आकर्षित करती है. यह विज्ञापन पत्रिका के पाठकों के रूप में स्वाभिमानी स्त्रियों का ही संकेत नहीं करता, उसकी भविष्योन्मुखी तैयारी को भी बतलाता है.‘गृहशोभा’ के अलावा दिल्ली प्रेस की ‘मुक्ता’ और‘वनिता’ तथा एचटी मीडिया की‘कादम्बिनी’ जैसी पत्रिकाओं ने महिलाओं के मनोरंजन के मनोविज्ञान को समझते हुए अपने कंटेंट और प्रस्तुति को लगातार संवारने की कोशिश की है.फिलहाल बिक्री और प्रचार-प्रसार की बात न करें तो निश्चित तौर पर इन पत्रिकाओं की मूल योजना केवल स्त्री पाठकों पर ही केंद्रित है. वैचारिकपत्रिकाओं के साथ ऐसा नहीं है, हालाँकि वे कम लोकप्रिय हैं. लोकप्रियता और स्तरीयता दो बातें हैं.स्त्री मानसिकता के विकास की दृष्टि से कहें तो अपनी थीम के कारण घरेलू पत्रिकाएँ स्त्रियों को भौतिक सुख सुविधा और समृद्धि के प्रति जागरूक रखती हैं जबकि वैचारिक पत्रिकाएँ उन्हें मानसिक संतुष्टि देती हैं, सोचने-समझने के उनके दायरे का विकास करती हैं. यह कहना भी जरूरी है कि घरेलू पत्रिकाओं की अवधारणा पाठक-केंद्रित होती है जबकि वैचारिक पत्रिकाओं की विचारधारा-केंद्रित.

पत्रिकाओं में महिलाओं द्वारा प्रबंधन(MANAGEMENT BY WOMEN IN MAGAZINES):



महिलाओं द्वारा किए जाने वाले प्रबंधन को हम दो रूपों में देख सकते हैं— संपादकीय टीम में महिलाओं की भूमिका और कंटेंट निर्माण में उसका योगदान. सूचना और प्रसारण मंत्रालय की पत्रिका ‘आजकल’ की संपादक फ़रहत परवीन यों तो एक महिला के संपादक होने को बहुत ख़ास नहीं मानती हैं लेकिन संपादन को बहुत जिम्मेदारी का कार्य मानती हैं. वे कहती हैं कि “गुणवत्तापूर्ण सामग्री का चयन और सीमित समय में पूरी रूपरेखा तैयार करके अंक को प्रकाशित करने तक की प्रक्रिया काफी लंबी होती है और यह टीम वर्क के कारण ही सम्भव हो पाता है.”(4)‘अहा जिंदगी’ के संपादकीय टीम में अनुपमा ऋतु और गीता यादव की मुख्य भूमिका है. ये समय समय पर थीम लेखन भी करती हैं.इसी तरह ‘स्त्रीकाल’ में डॉ० अनुपमा गुप्ता प्रबंधन के साथ साथ महत्त्वपूर्ण अनुवाद भी करती रहती हैं. निवेदिता संपादन में सहयोगी हैं. घरेलू पत्रिकाओं का प्रबंधन संस्थागत है. हाँ, उनमें कंटेंट निर्माण में लेखिकाओं की अच्छी संख्या है. प्रबंधन के दोनों रूपों पर ध्यान देने से हम पाते हैं कि संपादन के अलावा स्त्रियाँ प्रचार-प्रसार और पाठकीय रीति-नीति से जुड़े अहम मुद्दों का भी समाधान करती हैं.पत्रिका के स्थायी लेखकों के रूप में ये केवल स्त्री मुद्दों पर लिखती ही नहीं, पत्रिका के स्त्री-पक्ष को काफी हद तक भविष्योन्मुखी दृष्टिकोणभी प्रदान करती हैं.पत्रिकाओं का प्रबंधन प्रिंट माध्यम में स्त्रियों के छवि-निर्माण से ही नहीं बल्कि उनके लेखकीय प्रस्तुति से भी जुड़ा है. इन लेखिकाओं के कंटेंट लेखन में भी हम एक व्यवस्था पाते हैं. स्त्री के बारे में लिखते हुए अनुपमा ऋतु प्रश्नोत्तर शैली में बिन्दुवार विश्लेषण करती हैं. एक उपशीर्षक ‘येफ़ेमिनिज्म क्या है भाई?’ के अंतर्गत वे लिखती हैं, “नारीवाद के इस मरे हुए प्रेत को तथाकथित साहित्यिक, बौद्धिक और अभिजन वर्ग सबसे ज़्यादा फैलाता रहा है. वक़्त बिताने के लिए रसहीन, अर्थहीन शब्दों की चुइंगम चबाने वाला यह वर्ग मंहगे कॉफ़ी हाउसेज़ में बैठकर स्लमविच की दशा को दिशा दिखाने की बात करता है, लेकिन स्त्री के मनोविज्ञान से सबसे ज़्यादा खिलवार भी यही वर्ग कर रहा है, क्योंकि हमारे समाज में उस स्त्री का बाहुल्य है जिसकी अपनी कोई सोच ही नहीं.”(5) ऋतु की बातों पर गौर करने से उसकी भाषा और समझ पर भी गौर करना पड़ता है. यहाँ सहमति-असहमति की बजाय यह देखना चाहिए कि यदि इसके लेखन में कोई व्यवस्था है तो क्या इसका संबंध उसके संपादकीय अनुभवों से है? क्या उसकी भाषा विषय के अनुकूल है या आज के पाठकों के लिए प्रासंगिक है? इन प्रश्नों का उत्तर ‘हाँ’ में देने से किसी को शायद कोई एतराज नहीं होगा. विस्तार भय के कारण दूसरे उदहारण नहीं लिए गए हैं लेकिन इतना स्पष्ट है कि दोनों तरह के प्रबंधन स्त्रियों के वैचारिक व्यक्तित्व को विकसित करने में सहयोगी हैं.

स्त्रियों से जुड़े विषय-वस्तु(CONTENT RELATED TO WOMEN) :

स्त्रियों से संबंधित सामग्री का प्रकाशन पत्रिका की मूल अवधारणा के अनुकूल किया जाता है. घरेलू और वैचारिक दोनों पत्रिकाओं में स्त्रियों के निजी, पारिवारिकऔर सामाजिक विषयों से जुड़ी सामग्रियाँ प्रस्तुत की जाती हैं. घरेलू पत्रिकाओं में निजी या पारिवारिक मुद्दोंकोसर्वेक्षण से प्राप्त अलग अलग तथ्यों के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है.इसके अलावा जरूरत और अवसर के अनुकूलप्रेम, विवाह,शारीरिक शिक्षा, रिश्ते-नाते, खानपान, पहनावे और पर्व-त्यौहार जैसे विषयों पर विशेष सामाग्री का प्रकाशन होता है या विशेषांक आदि निकाले जाते हैं. ‘गृहशोभा’ के वर्ष 2015 में  प्रकाशित अबतक के अंक बचत, दाम्पत्य, रिश्तेदारी, मेक अप, शिशु-पोषण और मानसून फैशन पर केंद्रित हैं.‘गृहशोभा’ की तरह ‘सरिता’ पूरी तरह स्त्री-केंद्रित पत्रिका नहीं है. लेकिन दोनों पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों के विषय मिलते-जुलते होते हैं. प्रत्येक अंक में पति-पत्नी, माँ-बेटी, पिता-पुत्र, सास-ससुर-बहूऔर भाई-बहन के रिश्ते की कहानियाँ छपती रहती हैं.पति-पत्नी संबंधों की कहानियाँ सबसे अधिक छपती हैं.  ‘सरिता’ की कहानियों और अन्य सामग्रियों का स्वर अंधविश्वास, पाखंड और भ्रष्टाचार के विरोध का होता है. दिल्ली प्रेस के एक विज्ञापन में ‘सरिता’ के बारे में यह लिखा है— “सरितापत्रिका नहीं, एक आंदोलन है. हिंदी पत्रकारिता में इसने एक नया इतिहास रचा है और स्वस्थ मनोरंजन के साथसाथ समाज का मनोरंजन किया है.”(6) सामाजिक मनोरंजन के बहाने जहाँ ‘सरिता’ स्त्रियोंकी राजनीतिक जानकारी बढ़ाती है और उनमें सामाजिक संस्कृति का विकास करती है वहीं‘स्त्रीकाल’ बौद्धिक संस्कृति का विकास करती है. प्रिंटफॉरमेट में यह पत्रिका शोध-लेखों को प्रमुखता से छापती है.  ऑनलाइन एडिशन में साहित्य (50%), शोध (30%) और समसामयिक मुद्दों (20%) से संबंधित सामग्री का प्रकाशन किया जाता है.(7)इसका लक्ष्य स्त्री-संबंधी शोधपरक अध्ययन को प्रमुखता देना है.विषय-वस्तु के आधार पर दो बातें स्पष्ट हैं. घरेलू पत्रिकाएँ स्त्रियोंमें पारिवारिक और सामाजिक चेतना का विकास करती हैं जबकि वैचारिक पत्रिकाएँ आलोचनात्मक और शोध-क्षमता का. लेकिन स्त्री-संवेदना दोनों में कॉमन है और कंटेंट के प्रभाव को निर्धारित भी करती है. इसका एक मतलब यह भी है कि जिस प्रकार बौद्धिक चेतना से रहित मनोरंजन अर्थहीन है उसी प्रकार स्त्री-संवेदना से रहित तथाकथित बौद्धिकता भी उथली होगी.

सापेक्षिक मानसिकता का विकास(DEVELOPMENT OF RELATIVE MENTALITY) :
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि साहित्य और पत्रकारिता में अभी भी पुरुष वर्चस्व की स्थिति है. सापेक्षित मानसिकता के विकास का पहला चरण इस वर्चस्व को समझना है.संदर्भित पत्रिकाओं का अध्ययन करते हुए यह महसूस किया गया है कि स्त्रियों में पुरुषों के सापेक्ष एक उच्च कोटि की बौद्धिकता के विकास की दरकार है.  इस पहलू पर सोचते हुए न तो किसी प्रतियोगी भावना की जरूरत है और न ही स्त्री या पुरुष में से किसी को कम या अधिक आंकनेकी. समन्वयात्मक दृष्टिकोण चाहिए. अनुपमाऋतु के लेख ‘सत्य के दूसरे छोर पर स्त्री’ का मूल स्वर भी यही है, “परंपराएँ  कभी भी ख़ुद नहीं बदलतीं. उनका बदलना हमारे बदलने पर निर्भर करता है. हमें एक बात बहुत ईमानदारी से स्वीकारनी है कि ग़लत रास्तों पर चलकर कभी सही नहीं हुआ जा सकता. पुरुष क्या कर रहा है, क्या करता रहा है, उसे कहने से हम अपने दोषों को जस्टिफाई नहीं कर सकते.ईमानदार स्वीकारोक्ति और पड़ताल के बिना हमारी दुनिया में न कोई क्रांति संभव है,  न प्रतिक्रांति.”(8) सापेक्षिक मानसिकता की दृष्टि से ‘स्त्रीकाल’बहुत अच्छा उदाहरण है. संपादकीय टीम और कंटेंट प्रस्तुति में भी यह बात है.अंक-7 के एक लेख में कुसुम त्रिपाठी लिखती हैं— “शोषणहीन समाज की स्थापना ही स्त्रीवादी सपना है.”(9)वे‘सत्ता’ शब्द से ही अपना विरोध दर्ज करती हैं.  क्योंकि इससे यह पता चलता है कि “हम अपना वर्चस्व चाहते हैं और जब हम वर्चस्व चाहेंगे तो उसे पाने के लिए हमें दूसरे वर्ग कोदबाना पडेगा.”(10 ) स्त्रियों की ओर से इस तरह की सोच स्वागत योग्य है.कट्टर स्त्रीवादी हो जाने से इस समस्या का समाधान नहीं होगा. भारतीय परंपरा में जिस अर्धनारीश्वर की परिकल्पना की गई है उसे आज के संदर्भ में एक नया रूप देने की जरूरत है और अनुपमा ऋतु या कुसुम त्रिपाठी जैसी विचारशील स्त्रियों के लेखन से यह नया रूप दिया ज सकता है. कोई भी पत्रिका या लेखक बड़ा या छोटा नहीं होता, बड़े या छोटे होते हैं उसके विचार और उद्देश्य. ये विचार स्त्री या पुरुष में से किसी के भी हो सकते हैं. इन पत्रिकाओं में इस तरह के सहलेखन और सहचिन्तन को बढ़ावा देना चाहिए. सापेक्षिक मानसिकता का विकास सहभागिताकी इस भावना के बिना नहीं हो सकता.इनलक्ष्यों को पूरा करने के लिए वैचारिक और घरेलू  पत्रिकाओं के प्लेटफ़ॉर्म परकुछ गोष्ठियों या कार्यशालाओं का आयोजन भी किया जा सकता है जिनमें स्त्री और पुरुष लेखक परस्पर विचार-विनिमय कर सकते हैं और मानसिकता निर्माण के लिए एक ‘कॉमन प्रोग्राम’ की रूपरेखा बना सकते हैं.

पुस्तक संस्कृति की ओर(TOWARDS BOOK/ READING CULTURE) :
‘वर्चुअल रियलिटी’ पुस्तक-संस्कृति या पढ़ने-लिखने की परंपरा को तेजी से क्षीण कररही है. वह पाठक को एक उपभोक्ता बनाकर उसे अपनी गिरफ्त में ले लेती है. पत्रिकाएँ गिरफ्त में नहीं लेतीं या शायद ले ही नहीं पातीं.प्रतियोगिताओं का आयोजन कर कुछ पत्रिकाएँअपने पाठकों को पुरस्कार स्वरूप पुस्तक या घरेलू उपकरण देते हैं. लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या केवल इतने से पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा दिया जा सकता है.कुछ हद तक पत्रिकाओं की कीमत भी इसे प्रभावित करती है. ‘अहा जिंदगी’ एक अपवाद है तो केवल अपनी रचनात्मक प्रस्तुति के कारण. इसी कारण वह न तो पूर्णतः घरेलू पत्रिका है और न ही विशुद्ध वैचारिक.उसकी पूरी प्रस्तुति में परंपरा और आधुनिकता का समन्वय मिलता है.वास्तव में परंपरा को पूरी तरह नकारकर और आधुनिकता के फैशन में आकंठ डूबकर हम कभी अपनी लक्षित मानसिकता को प्राप्त नहीं कर सकते. दोनों के उपयोगी तत्त्वों को लेकर उनके बीच से ही रास्ता बनाना होगा.

बातें बहुत सी हैं. लेकिन संक्षेप में यह कहना चाहिए कि घरेलू और वैचारिक पत्रिकाओं को एक प्लेटफ़ॉर्म की तरह बरतते हुए स्त्री -मानसिकता के निर्माण का हमारा लक्ष्य स्त्री को एक प्रबुद्ध नागरिक के रूप में निर्मित करने का है. पाठक की भूमिका से उसकी शुरूआत होती हैऔर प्रबंधन की भूमिकाओं से होते हुए वह बौद्धिक नेतृत्व की एक दहलीज पर पहुँचती है.

संदर्भ (References) :

1. Joel Stein का लेख Inside the Box;TIME (23-08-2015); Page-39.
2. संजीव चंदन द्वारा लिखित संपादकीय; स्त्रीकाल(अंक-6, अप्रैल 2009); पृ० 05.
3. गृहशोभा(जूनII,2015) में प्रकाशित विज्ञापन, पृ० 08.
4. ‘आजकल’ के संपादक फ़रहत परवीन से बातचीत; 11-08-2015.
5. अनुपमा ऋतु का लेख ‘सत्य के दूसरे छोर पर स्त्री’, अहा जिंदगी (जुलाई 2015); पृ० 19.
6. दिल्ली प्रेस द्वारा जारी सूचना पुस्तिका में ‘सरिता’ का परिचय
7. ‘स्त्रीकाल’ के संपादक संजीव चंदन से बातचीत; 10-08-2015.
8. अनुपमा ऋतु का लेख ‘सत्य के दूसरे छोर पर स्त्री’, अहा जिंदगी (जुलाई 2015); पृ० 12.
9. कुसुम त्रिपाठी का लेख ‘शोषणहीन समाज की स्थापना ही स्त्रीवादी सपना है’, स्त्रीकाल(अंक-7, अप्रैल 2010); पृ० 140.
10. वही; पृ० 140.

पत्रिकाएँ (Magezines) :
स्त्रीकाल(अंक 6, 7, 8, 9) तथा ऑनलाइन संस्करण.
आजकल(मार्च, सितम्बर और नवंबर 2014 तथा जनवरी, मार्च, जुलाई, अगस्त 2015)
अहा जिंदगी(जनवरी, फरवरी, मार्च, अप्रैल, जून, जुलाई, अगस्त 2015)
गृहशोभा ( मार्च I, अप्रैल I, मईII, जूनI, II, जुलाई  I, 2015)
सरिता(मई I, जूनII, जुलाईI, II और अगस्तI, 2015)

बीज-शब्द (KEY WORDS) :
स्त्री मानसिकता (WOMEN PSHYCE), आभासी दुनिया (VIRTUAL WORLD)
इलेक्ट्रोनिक मीडिया (ELECTRONIC MEDIA), प्रिंट मीडिया (PRINT MEDIA)
मनोरंजन का मनोविज्ञान (PSYCHOLOGY OF ENTERTAINMENT)
सांस्कृतिक विकास (CULTURAL DEVELOPMENT)
सापेक्षिक मानसिकता (RELATIVE MENTALITY)
पुस्तक संस्कृति(BOOK CULTURE)

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